बीनू भगत / भाग 1 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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मैंने शीशे में झाँका। झाँकते-झाँकते बड़ी तेजी से मेरे मन में से यह विचार दौड़ा कि मैं इतने दिन इतना व्यस्त रहा हूँ कि शीशे में देखने की फ़ुरसत भी नहीं मिली जब कि मामूली तौर पर मैं दिन में अधिक नहीं तो दो-चार बार तो शीशे में झाँक ही लेता हूँ।

लेकिन शीशे में झाँकते ही मैं थोड़ी देर के लिए अचकचा गया। वहाँ जो चेहरा मुझे दीखा वह कुछ अनपहचाना-सा लगा। अपनी अचकचाहट को छिपाने के लिए मैंने अपने चेहरे पर थोड़ी हँसी बिखेरते हुए उससे पूछा, “तुम कौन हो जी?”

सवाल पूछने तक उसके चेहरे पर भी वैसी ही मुस्कान थी। लेकिन मेरे सवाल पर उसका चेहरा कुछ गम्भीर हो आया। उसने कहा, “क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि यह सवाल पूछने वाले तुम कौन हो?”

मैं कौन हूँ? ऐसा तो नहीं है कि यह सवाल मेरे मन में कभी उठा न हो, लेकिन आईने में दीखता हुआ मेरा प्रतिबिम्ब मुझसे यह सवाल पूछ बैठे, यह कुछ अजीब बात थी। मैं जो भी हूँ, मैं हूँ, असल और ओरिजिनल मैं। मैं मूल सत्ता हूँ और मेरे ही कारण तो मेरा प्रतिबिम्ब है। अपने इस सोच से कुछ आत्मविश्वास पाकर मैंने कहा, “नहीं, यह सवाल मेरे ही पूछने का है। मैं तो स्वत:प्रमाण हूँ। तुम केवल प्रतिछवि हो।”

“स्वत: प्रमाण!” उसकी हँसी में काँच की सी खनखनाहट थी। “हाल तो तुम्हारा यह है कि दिन में चार-छ: दफे मुझ से प्रमाणपत्र पाये बिना तुम्हें अपने होने पर भी विश्वास नहीं होता-और तुम स्वत: प्रमाण! सबेरे हजामत बनाते हो, टाई-वाई लगाते हो; लेकिन न तुम्हें अपने किये हुए कर्म पर भरोसा होता है और न अपने अनुभव पर। मैं कह दूँ कि हाँ हजामत ठीक बन गयी, तो ठीक है। कह दूँ कि हाँ टाई ठीक बँधी है, गाँठ ठीक जैसी होनी चाहिए वैसी ही है, कुछ बाँकपन, कुछ लापरवाही और कुछ हल्की-सी ढिठाई लिए हुए, तो हाँ टाई भी ठीक बँधी है। कुछ भी तो तुम अपने भरोसे न जानते हो, न पहचानते हो, यहाँ तक कि अगर दिन में बॉस का सामना करना है तो उसके लायक आत्मविश्वास भी तुममें है या नहीं, यह जानने के लिए भी तुम को मेरी गवाही की जरूरत पड़ती है। फिर स्वत: प्रमाण तुम हो या मैं?”

मैंने एक बार घड़ी की ओर देखा, फिर कहा, “चलो, आज इसका ही फैसला हो जाए।”

उसने कहा, “चलो।”

मैं मुडक़र बाहर की ओर चला। मैंने नहीं देखा कि वह साथ आ रहा है या नहीं या मुकुर के पिंजरे में से कैसे निकल पाता है। चलते-चलते ही मैंने कहा, “क्लब चलते हैं, वहीं फैसला होगा।”

मेरे कन्धे के बिलकुल पास से उसकी आवाज आयी, “हाँ, क्लब चलते हैं, वहीं फैसला होगा।”

मैंने सोचा था, क्लब में पहुँचकर बैठकर बियर पी जाएगी और फिर इसके साथ आगे बहस होगी और मामले का निबटारा होगा। लेकिन क्लब में घुसा तो हॉल की डेस्क पर खड़े बैरा के सलाम का जवाब देते-देते ही मैंने देखा कि उसके पीछे दीवार में लगे हुए बड़े शीशे में एक धुँधली-सी छवि दीख रही है जो है तो शायद मेरी ही लेकिन पहचानी हुई नहीं जान पड़ी। या शायद बात उलटकर कहनी चाहिए कि वह शक्ल है तो पहचानी हुई ही, लेकिन मेरी नहीं जान पड़ी। मैंने बैरे के सलाम का जवाब देते हुए पूछा, “अभी वक्त तो नहीं हुआ, लेकिन इस वक्त भी क्या बियर मिल जाएगी?”

“आप लाउंज में चलकर बैठिए, मैं पता करता हूँ। आप पुराने मेम्बर हैं, आपके लिए तो-”

मेरे कन्धे के पास से आवाज आयी, “लाउंज में चलकर बैठिए, वहाँ भी एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है, वहीं फैसला हो जाएगा।”

मैंने कुछ खीझा हुआ-सा जवाब देना चाहा, लेकिन जवाब कुछ सूझा नहीं। खीझ बिलकुल सतह तक आकर रह गयी।

लाउंज में पहुँच कर मैंने एक कुर्सी उसके लिए खींची और एक अपने लिए खींचते हुए बैठे-बैठै मैंने कहा, “बैठो।”

जहाँ मैं बैठा था वहाँ से दूर पर लगे हुए पूरी दीवार छींकने के लिए शीशे में हमारी ही प्रतिछवियाँ क्यों, पूरा-का-पूरा लाउंज दीख सकता था। हाँ, सब कुछ जरा धुँधला दीखता था और काँच में जहाँ-तहाँ थोड़ी लहर होने के कारण थोड़ा-सा विकृत भी; बल्कि वह विकृति भी एक स्थिर विकृति नहीं थी; जरा-सा भी हिलने-डुलने पर उस लहर के कारण वह विकृति भी तरह-तरह से और विकृत होती जाती थी, मानो प्रतिबिम्बित सारा का सारा यथार्थ लगातार बल खाता हुआ नए से नए रूप लेता जा रहा हो।

उसने कहा, “तो यहाँ फैसला होगा। लेकिनफैसला होगा कैसे?”

मैंने कहा, “पहले बियर आ जाने दो, फिर प्रक्रिया और प्रवृत्तियों की बात होगी।” “क्यों? फैसला क्या बियर का गिलास करेगा? या कि हम-तुम करेंगे? या अगर तुम्हें यह आपत्ति है कि हम-तुम तो वादी-प्रतिवादी हैं इसलिए न्यायदाता कैसे हो सकते हैं, तो चलो, बड़े आईने में जो छवि दीखती है उसी को न्यायाधीश के आसन पर बिठाते हैं।”

मैंने कुछ चौंक कर कहा, “किस की छवि?”

“छवि। छवि यानी छवि। किसकी छवि का सवाल उठाकर तुम क्या मेरे साथ फरेब करना चाहते हो? जब मामला ही यही है कि मुकुर में दीखती छवि तुम्हारी प्रतिछवि है और तुम स्वत: प्रमाण हो, या कि छवि स्वत: प्रमाण है और तुम-तुम चाहे जो हो-तब फिर किसकी छवि का क्या मतलब होता है? अगर वहाँ भी तुम्हारी प्रतिछवि है और मैं भी तुम्हारी प्रतिछवि हूँ तो फिर इस सारे ढकोसले का प्रयोजन ही क्या रह जाता है? तुम अपने आप ही फैसला न दे लेते? वह तुम्हारे बस की बात नहीं थी, तभी तो हम यहाँ आये।”

इसकी दलील तो बिलकुल दुरुस्त है, लेकिन बात उतनी ही गलत-या कि बात बिलकुल सही है और दलील बिलकुल चौपट, यह सोचते हुए मैंने दीवार पर लगे हुए बड़े आईने की ओर झाँकते हुए यह पाया कि पूरा लाउंज और मेज के पास बैठे हुए हम दोनों भी प्रतिबिम्बित थे मानो जिस कचहरी में हमारा मुकदमा था उसका पूरा इजलास उस शीशे में दीख रहा था। मेरे उधर ताकते ही शीशे के भीतर से एक छवि ने कहा, “खामोश! हम मामले से इधर-उधर की निजी बातें या पूर्वग्रहों का ब्यौरा नहीं सुनना चाहते, तथ्य क्या हैं, यह हमारे सामने आना चाहिए।”

मैंने कहा, “असल मुद्दा तो यही है कि जिन्हें हम तथ्य समझते रहे हैं वे पूर्वग्रह हैं या कि जिन्हें हम पूर्वग्रह मान रहे हैं वे तथ्य हैं। मेरा कहना है-”

“और मेरा सवाल यह है कि क्या दोनों ही बातें सही नहीं हो सकतीं?”

इसी बीच बैरा दबे पाँव आकर दो गिलास हमारे सामने रखते हुए धीरे से बोला, “आपने पानी माँगा था...” और वैसे ही दबे पाँव चला गया।

लेकिन गिलासों में पानी नहीं था; थी बियर ही, लेकिन उसके झाग काफ़ी बैठ चुके थे-या तो देर के कारण या ढालने की सफाई के कारण। कचहरी में बियर तो नहीं पी जाती, परन्तु पानी की जगह बियर सामने रखने का ढकोसला क्या चल जाएगा? और अगर पकड़ा गया तो वह क्या अदालत की तौहीन होगी? और तौहीन की बात न भी सोची जाए तो क्या उसके कारण विचारक का रवैया बदल जाएगा?

मुकुर की छवि ने पूछा, “तुम लोग फैसले के लिए मेरे सामने क्यों आये? क्या इस अदालत को इस मामले का विचार करने का अधिकार है? क्या उसको इसकी अर्हता प्राप्त है? दोनों पक्षों में से कोई अगर यह सवाल उठाना चाहता है तो पहले उसी पर बहस होगी।”

“जी नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं है और इस अदालत की सम्पूर्ण अर्हता मुझे स्वीकार है।”

“सम्पूर्ण अर्हता मुझे स्वीकार है।” मानो मेरी बात को प्रतिध्वनित करते हुए वह बोला, “अर्हता की बात हम लोग नहीं उठा रहे हैं। हम मान लेते हैं कि इस मामले की मूल परिस्थितियों में से ही आपकी अर्हता सिद्ध है- वह अर्हता स्वत: प्रमाण है।”

“तो।” केवल इतना ही कह कर छवि हम दोनों की ओर देखने लगी मानो इससे आगे कुछ कहने की जरूरत उसे नहीं है और वादी-प्रतिवादी को ही मामला आगे बढ़ाना है। कुछ ऐसी ध्वनि इस 'तो' में थी मानो वही अदालत का फैसला है।

मैंने कुछ सोचते-सोचते कहा, “मैं समझता हूँ कि मुझे और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मामला आपके सामने है और जो भी तथ्य हैं या हो सकते हैं, आपके जाने हुए हैं। निर्णय आपके विवेक पर छोड़ कर मैं सन्तुष्ट हूँ।”

“मैं सन्तुष्ट हूँ”, उसने फिर मेरी बात की गूँज की तरह कहा, “तथ्य ही नहीं, जो भी दलीलें हैं या हो सकती हैं वे सब भी आपकी जानी हुई हैं। अदालत में तो आपके सामने हम लोगों की पेशी केवल प्रक्रिया का एक अंग है-खानापूरी है। इसके बिना आगे कार्यवाही चल नहीं सकती। आप बहस को समाप्त समझें और फैसला दें।”

मैंने मुडक़र कुछ सन्देह की दृष्टि से इस प्रतिवादी की ओर देखना चाहा-क्या इस तरह बहस बन्द कर देने में कोई चाल है? या कि क्या मुझे ही अपनी बात इतनी जल्दी समाप्त नहीं करनी चाहिए थी? लेकिन वह मुझे तत्काल दीखा नहीं, मुझे लगा कि लाउंज में रोशनी कुछ कम हो गयी है। फिर मैं बड़े शीशे की ओर मुड़ा जिसके पार कचहरी बैठी थी। मुझे लगा कि उधर भी रोशनी कुछ कम हो गयी है, लेकिन फिर भी इतना मैं देख पाया कि मेरे दूसरी ओर मुड़ते ही आईने वाली छवि भी कुछ विमुख हो गयी थी। ऐसी विमुखता से काम नहीं चलेगा। जब तक कचहरी में हूँ पूरा अवधान रहना चाहिए, यह सोचते हुए मैं पूरा सीधा होकर बैठ गया।

लेकिन मेरा ध्यान सामने रखे हुए गिलास की ओर गया और मैंने मानो अचेतन भाव से उसे उठाया और गटगट पी लिया। मैंने देखा कि उसने भी उसी तरह एक साँस में गिलास खाली करके धीरे से मेज पर रख दिया है।

मैंने चोर हाथ से मुँह पोंछा और शीशे में छवि की ओर देखने लगा।

छवि ने कहा, “ठीक है, तुम दोनों ने बहस बन्द कर दी है और मामला पूरी तरह मुझे सौंप दिया है। लेकिन फैसला देने से पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि स्वत: प्रमाणता का यह झगड़ा क्यों और कैसे हुआ?” मेरी ओर मुखातिब होकर छवि ने पूछा, “शीशे में तो तुम अक्सर देखते हो, क्या हमेशा यह सवाल तुम्हारे मन में उठता है? या कि केवल इस एक बार उठा? जाहिर है कि हमेशा तो नहीं उठता रहा होगा। तब अगर अभी एक बार उठा तो क्या इस सन्देह का कारण नहीं बनता कि तुम्हारी स्वत:प्रमाणता केवल एक समय है, एक मान्यता है जिसकी परख कभी नहीं हुई, जिसकी सच्चाई को स्वयंसिद्ध नहीं माना जा सकता?”

छवि मेरी ओर वैसी ही तीखी नजर से देख रही थी जैसे नजर से मैं उसकी ओर। क्या मुझसे पूछे गये इस सवाल में प्रतिकूल फैसले की भनक है, यह सोचते हुए मैं जवाब देने के पहले थोड़ी देर रुक गया। इस बीच छवि ने उसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए उससे पूछा, “और तुम्हारे प्रतिवाद का क्या आधार है? तुम कैसे अपने को स्वयंसिद्ध मान सकते हो जब कि तुम कभी बिना वादी के आह्वान के प्रकट ही नहीं होते?”

प्रतिवादी से पूछे गये इस सवाल पर मुझे हल्की-सी तसल्ली हुई। लेकिन हम दोनों में से किसी के भी कुछ कहने से पहले, छवि ने ही फिर एक बड़ी सूक्ष्म कुटिल मुस्कान के साथ अपना सवाल जारी रखा, “या कि तुम्हारा दावा भी आजकल की बेनामी सम्पत्ति के सिद्धान्त पर आधारित है?”

क्या सवाल के इस रूप पर मुझे सन्तोष होना चाहिए या और अधिक चिन्ता? क्या मैं मूल सत्ता हूँ और वह प्रतिमुकुरित होने के कारण गौण, मुझ पर निर्भर और इसलिए पूरी तरह मेरे अधीन; या कि बेनामी मालिक होने के कारण वही अदृश्य लेकिन असली सत्ता और मैं ठोस और पूरी तरह दृश्य होकर भी उसका कठपुतला-यथार्थ के खेत में टँगा हुआ एक डरौना?

क्या कुछ बोलू्ँ? या कि थोड़ी देर और चुप रह कर देखूँ? मैंने उसकी ओर देखा और उसने वैसे ही भाव से मेरी ओर। फिर हम दोनों ने अपना ध्यान शीशे की छवि पर टिकाया। छवि ने कहा, “तुम दोनों ने मुझे पूरी अर्हता दे दी और स्वत:प्रमाण मान लिया, लेकिन किस आधार पर? क्या बिना आस्था के, केवल अनुकूल फैसले के लिए? या अगर पूरी आस्था के साथ, तो सवाल उठता है कि अगर मेरे पास आस्था हो सकती है तो एक दूसरे पर क्यों नहीं हो सकती थी? यह मामला मेरे सामने आना ही क्यों चाहिए था?”

इस सवाल के बाद तो चुप नहीं रहा जा सकता। कुछ न कुछ जवाब तो देना ही होगा। जल्दी ही ठीक जवाब नहीं सूझा। मैंने कहा, “साधारण स्थिति में वैसे ही होता है, या यों कहूँ कि वैसा ही होता होगा अथवा होना चाहिए क्योंकि असाधारण स्थिति में तो यह सवाल उठता ही नहीं। सवाल उठा, यही तो असाधारण स्थिति का सबूत है और असाधारण स्थिति में फिर एक तटस्थ निर्णायक की जरूरत होती है।”

“लेकिन असाधारण स्थिति में निर्णायक की तटस्थता की क्या जरूरत है? स्थिति असाधारण है तो निर्णायक की तटस्थता क्या असाधारण बात नहीं होगी। मैं तटस्थ हूँ कि नहीं, हूँगा कि नहीं, यह तुम कैसे जान सकते हो?”

हम दोनों ने एक साथ ही कहा, “क्यों नहीं जान सकते? आपकी तटस्थता पर हमें पूरा विश्वास है, इसलिए हम आपके पास आये।”

“ऐसा तो है नहीं कि यह कचहरी पहले से थी या इजलास पहले से हो रहा था और तुम सामने आये। तुमने बुलाया इसलिए कचहरी की नियुक्ति हो गयी।” थोड़ी देर रुककर छवि ने फिर कहा, “अगर बुलाये जाने से पहले हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं था-बल्कि हम कह सकते हैं कि हम तीनों में से किसी का कोई अस्तित्व नहीं था, तो अगर हम सबसे पहला सवाल यही पूछें कि तुम कौन हो, तो क्या अनुचित होगा?” थोड़ा रुककर उसने अपना सवाल जारी रखा, “क्योंजी, तुम कौन हो?”

“धत्तेरे की! सारी बात ही तो इसी सवाल से शुरू हुई थी।” मैंने एकाएक औसान खोकर गिलास उठा कर काँच की ओर दे मारा।

न वहाँ छवि होगी, न मुकदमा। न वह होगा और- न मैं। या कि मैं हूँगा? क्योंकि जब मैं उठा तो बैरा एक शरारत भरी मुस्कान के साथ मेरी ओर ताकते हुए पूछ रहा था, “साहब, आपने तो एक गिलास पानी माँगा था, पानी भी क्या चढ़ जाता है?”