बीनू भगत / भाग 2 / अज्ञेय
सपने की दुनिया को लोग झूठी दुनिया बताते हैं। वह सच्ची है कि झूठी, इस बहस में मैं नहीं पडऩा चाहता। यों तो बहस इस बात पर भी हो सकती है कि झूठ क्या सच से कम यथार्थ होता है। वैदिक लोग भी यह जानते थे, तभी तो कहते थे “यथार्थ सत्यं चान्नृतं च न विभीतो ऋष्यत: एवा मे प्राण मा विर्भ:”, सत्य और मिथ्या दोनों को वह एक-सा निर्भय मानते थे। लेकिन सपनों की दुनिया सच्ची होती हो या झूठ, सपने में कभी-कभी जो चित्र दीखते हैं उनके बारे में क्या कहा जाए? कुछ सपने तो हम जानते हैं हमारी शारीरिक अवस्था का सीधा परिणाम होते हैं-नशे के सपने, भूख के या अति-भोजन के सपने, थकान के सपने इत्यादि। ऐसे सपने हम नींद से जागते ही भूल जाते हैं या मन से निकाल देते हैं। फिर कुछ सपने हमारी वासना या कामना का परिणाम होते हैं-इच्छा-पूर्ति के सपने-और इस बात को भी हम जानते ही हैं। दूसरों के सामने अपनी वासनाओं की बात न भी कर सकें तो भी अपने सामने तो पहचानते ही हैं।
लेकिन इनसे अलग एक कोटि के सपने होते हैं जिनका हमारे स्नायविक तनावों या हमारी वासना से कोई सम्बन्ध नहीं होता-उनमें मानो एक नि:संग दूसरी दुनिया की कहानी हमारी आँखों के सामने अभिनीत होती चलती है। ऐसे सपने कभी-कभी बहुत लम्बे भी होते हैं। उनमें कई चित्र हमारे सामने आते हैं जिनका हमारे जीवन की घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता, जो हमारे जाने-पहचाने किसी व्यक्ति से नहीं मिलते, न जिनके कर्म-व्यापार हमारी अपनी कल्पना से उपजे जान पड़ते हैं, लेकिन जो फिर भी बड़े जीवन्त चरित्र होते हैं और एक मार्मिक प्रभाव हम पर छोड़ जाते हैं। मैं ऐसे ही सपनों की बात अक्सर सोचता हूँ।
इन सपनों में ऐसा भी होता है कि कहानी अधूरी रह जाती है, हम जाग जाते हैं और एक जीवन्त चित्र हमारी स्मृति में बना रहता है। हम जानना चाहते हैं कि कहानी जहाँ रुक गयी-जाग जाने से जहाँ उसमें व्याघात हो गया-उससे आगे क्या हुआ? लेकिन अधूरे सपने को पूरा करने का तो कोई उपाय है नहीं। इच्छा करके हम उसका शेष अंश नहीं देख सकते, बल्कि जितना ही इच्छा करते हैं उतना ही उससे आगे देखने की सम्भावना कम हो जाती है क्योंकि सपने में तो उन्हीं इच्छाओं की छायाएँ प्रकट होती हैं जिन्हें हमने अपने से छिपाया है, जिन्हें हमने दबा कर रखा है या नकारा है। जिस इच्छा को हमारा जाग्रत मन स्पष्ट स्वीकारता है वह मानो हमारे स्वप्न संसार से निर्वासित हो जाती है।
आजकल लोग अधूरे चरित्रों की बात भी करते हैं। कुछ लोगों की राय में तो समाज ही आधे-अधूरे लोगों का समाज है। मुझे लगता है कि यह भी एक पूर्वग्रह ही है कि हमारी दुनिया तो भरी-पूरी है और उसमें बसने वाले लोग सब आधे-अधूरे हैं। स्वप्न में दीखते हुए ऐसे जीवन्त चरित्रों को कैसे अधूरा कहा जाए, मेरी समझ में नहीं आता। उनकी कहानी हम पूरी न जान पाएँ, यह अलग बात है, इसी से क्या वह चरित्र अधूरा हो गया? अपनी अधूरी जानकारी का आरोप हम ऐसे जीवन्त बल्कि प्राणवत्ता से थरथराते हुए चरित्र पर किस अधिकार से कर सकते हैं? अगर यह कहा जाए कि वे चरित्र तो भरे-पूरे हैं, लेकिन जिस दुनिया में वे रहते हैं, जिस यथार्थ के फन्दे में फँसे हुए वे अपने को अभिव्यक्ति कर रहे हैं वह यथार्थ, वह दुनिया ही वास्तव में अधूरी है, तो कैसे रहे? आधे-अधूरे नहीं, आधी-अधूरी दुनिया में जीते हुए वे भरे-पूरे चरित्र...
मेरे पास कई ऐसे चरित्र हैं। अक्सर उनके आगे के जीवन के बारे में सोचता हूँ। कभी-कभी उनसे बातचीत भी करता हूँ। सोचता हूँ कि शायद इसी तरह कभी उनके शेष जीवन की कुछ झाँकियाँ, उसके कुछ संकेत मुझे मिल जाएँ। कभी-कभी उनमें से एक-आध को बुलाकर मैं अपने सामने बिठा लेता हूँ और पूछ भी बैठता हूँ : “अच्छा, तुम ही बताओ, इससे आगे क्या हुआ?”
बीनू भगत के बारे में यही बात सच है। मैंने उसे पहले पहल इसी तरह के एक लम्बेकथा-सपने में देखा था। उसके बाद मेरी जाग्रत दुनिया में कई दिनों तक उसकी मेरी बातचीत होती रही। जिस बिन्दु पर उसका सपना टूट गया था वहाँ उसने मुझसे पूछा था, “क्या तुम मेरे लायक काम नहीं बता सकते? मेरे सामने क्या विकल्प हैं, तुम कुछ सुझा सकते हो?” सवाल में यह बात साफ-साफ कही नहीं गयी थी, लेकिन उसका निहित भाव यही था, “तुम तो कवि हो, कहानीकार हो, तुम्हारे पास सर्जक कल्पना है, तो क्या तुम सारे विकल्प उखाड़ कर मेरे सामने नहीं रख सकते।”
बीनू का सवाल और उसका दर्द अभी तक मेरे पास बना है। अब भी मैं अक्सर उसे अपनी स्टडी में बुला कर सामने बिठा लेता हूँ और सोचता हूँ कि उसके सवाल का कोई जवाब जरूर खोज कर उसे बता दूँगा। नहीं तो उसकी यह अधूरी दुनिया आगे चलेगी कैसे?
लेकिन पहले कहानी जहाँ तक पहुँची वहाँ तक उसे ले जाना तो ज़रूरी है। उस ऐतिहासिक नगर में पहुँचकर न जाने क्यों मुझे एक काम करने की सूझी थी जो मैंने ऐसी स्थिति में पहले कभी नहीं किया था। ऐतिहासिक नगर मैंने बहुत से देखे हैं, लेकिन कभी गाइड लेकर घूमने निकला हूँ, ऐसा नहीं हुआ। बल्कि गाइड खुद आगे बढ़ कर आये हैं और मैंने उन्हें दुत्कार दिया है। कई बार नगर में जाने से पहले उसका इतिहास और ऐतिहासिक स्थलों का ब्यौरा पढ़ गया हूँ जिससे गाइड की जरूरत ही न पड़े। लेकिन इस शहर में आते ही मैंने पर्यटक ब्यूरो में जाकर गाइड माँगा और उन्होंने एक युवा मूर्ति को मेरे सामने कर दिया। यही युवा मूर्ति थी बीनू भगत।
मैंने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा। बुशर्ट और पैंट, पैरों में बिना मोजे के सैंडल, हाथ में एक छोटा-बस्ता जैसा आजकल विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कभी-कभी लिये रहते हैं। मैंने फिर उसके चेहरे की और ध्यान से देखा, युवा चेहरा, रेख अभी फूटी नहीं थी इसलिए सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र का अनुमान होता था, लेकिन जरा ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता था कि यह अनुभव-संग्रह 22-24 से कम का नहीं है और आँखों में जो संयत, तटस्थ पर्यवेक्षण का भाव था वैसी आँखें मैंने उन्हीं की देखी हैं। जिन्होंने युवा वय में ही बहुत दु:ख और यन्त्रणा सही-वैसा दु:ख जो लोगों को खुद अपने अनुभव से तटस्थ कर देता है, जिसके कारण लोग भोक्ता न रह कर साक्षी हो जाते हैं... और इसलिए जिनकी उम्र के बारे में कोई अनुमान कठिन हो जाता है-ये बीस की उम्र में चालीस के या चालीस की उम्र में बीस के भी दीख सकते हैं।
चेहरा सुन्दर, हल्की पदचाप और मुद्रा ऐसी कि भावुकता उसमें बिलकुल न हो, लेकिन एक नि:संग भाव-यह सब मुझे अच्छा लगा। ऐसे गाइड के साथ दिन-भर उस ऐतिहासिक नगर की सैर की बात मुझे अच्छी लगी-उसके पूर्वास्वादन से ही मुझे तृप्ति का अनुभव हुआ। नाम तो मुझे बता ही दिया गया था, मैंने पूछा, “आप दिन-भर में पूरा नगर मुझे घुमा देंगे? मैं बहुत ज्यादा सवाल नहीं पूछूँगा, लेकिन जितनी जानकारी आप देंगे वह प्रामाणिक तो होगी।”
उसने कहा, “बहुत से गाइड बड़े अच्छे किस्सागो होते हैं, मुझे मालूम है। किस्सागोई की अपेक्षा आप मुझसे न करें। जो भी जानकारी मुझसे मिलेगी, सही होगी और-” और थोड़ा रुककर उसने जोड़ दिया, “और ऐसी भी होगी कि बाद में याद करने पर एक प्रीतिकर भाव ही पैदा करे, ऐसी मेरी भरपूर कोशिश होगी।” उसका स्वर भी मधुर था और बात करने का ढंग भी मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, “तो चला जाए।”
'चलिए”, कहकर वह फुर्ती से मेरे साथ हो लिया।
बीनू भगत और मैं दिन-भर न जाने कहाँ-कहाँ घूमे। और कुछ अजीब बात थी कि उस ऐतिहासिक नगर के विलक्षण खंडहरों में घूम-घाम कर शाम तक मैं थक गया और मैंने प्रस्ताव किया कि थोड़ी देर कहीं बैठ कर कुछ नाश्ता-पानी किया जाए, तो मैंने देखा कि मुझ पर देखे हुए दृश्यों की जितनी गहरी छाप है उससे कुछ अधिक गहरी छाप बीनू भगत की ही है-उसकी बातों की, उसके कंठ स्वर के उतार-चढ़ाव की और स्वयं उसकी मौजूदगी की ही। एक छोटे से कहवाघर में गोल तिपाई के पास हम लोग आमने-सामने बैठ गये। एक बार फिर मैंने उसे निहारा। हाँ, ऐतिहासिक नगर इस वक्त पीछे छूट जाए, कोई मुजायका नहीं है। बीनू भगत में कुछ है जिसकेकारण उसकी उपस्थिति को उससे अलग करके भी देख सकता हूँ, मानो उसके उठकर चले जाने पर भी उसकी मौजूदगी का यह भाव बना रहेगा। अँग्रेज़ी में इसे प्रेज़ेन्स कहते हैं : हिन्दी में इस भाव को कैसे प्रकट करूँ , मैं नहीं सोच पाया, सोचता हुआ उसकी ओर निहारता रहा। थोड़ी देर बाद उसे एकाएक ध्यान हुआ कि मैं एकटक उसकी ओर देख रहा हूँ; वह खुली आँखों से मेरी ओर मुस्करा दिया और मैंने थोड़ा झिझक कर नजर फिरा ली।
मैंने कहा, “ऐसा गाइड तो मुझे कभी नहीं मिला। यों यह नहीं है कि मैं अक्सर गाइड रखता हूँ, लेकिन दूसरी टोलियों के साथ मैंने बहुत गाइड देखे हैं-बहुत घूमा हूँ।”
वह कुछ नहीं बोला। मैंने फिर पूछा, “लेकिन यह गाइड का काम तुम्हें अच्छा लगता है? ऊबते नहीं?”
“नहीं।” फिर मानो उसे ध्यान आया हो कि प्रश्न के दो हिस्से थे और एक के जवाब का नहीं, दूसरे का जवाब हाँ हो जाता है, इसलिए उसने कहा, “कुछ खास अच्छा भी नहीं लगता और कोई ऊब भी नहीं होती।” एक निश्छल आत्म-स्वीकार की मुस्कान उसके चेहरे पर थी।
थोड़ी देर बाद मैंने कहा, “व्यक्तिगत सवाल पूछने का मेरा कोई अधिकार तो नहीं है, और शायद समझदारी भी नहीं है, लेकिन तुम पढ़े-लिखे भी जान पड़ते हो और संस्कारवान भी-निश्चय ही तुम्हारी जानकारी का हलका बहुत बड़ा रहा होगा, तो क्या कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता था? आजकल तो जान-पहचान केसहारे ही होता है।” उसने अपनी भोली और बड़ी-बड़ी आँखें एकटक मुझ पर टिका कर कहा, “मेरे पास और क्या विकल्प हो सकता था, आप कुछ बता सकते हैं? हाँ, शिक्षा तो मेरी पूरी हो चुकी है।”
यहाँ तक कि तो सारी बातचीत मुझे बड़ी साफ और मुसलसल याद है लेकिन इससे आगे पता नहीं कब, क्या उलट-फेर हो गया। बातें मुझे सब याद हैं, लेकिन किस क्रम से, यह मैं निश्चय के साथ नहीं कह सकता। और एकाएक अन्तरंग बात पहले और औपचारिक बात बाद में कैसे हुई, हो सकती है इसका भी कोई जवाब मैं नहीं जानता। और सारी बात सपने की दुनिया में हुई इस युक्ति की ओट मैं नहीं लेना चाहता क्योंकि मैं पहले ही कह चुका हूँ कि बातचीत जिस भी दुनिया में हुई वह भी एकदम यथार्थ थी-उसका यथार्थ मेरी जाग्रत रोजमर्रा जीवन की दुनिया के यथार्थ से किसी तरह कम नहीं था। और स्वयं बीनू भगत-उससे ज्यादा यथार्थ और जीवन्त प्राणी कभी मेरे परिचित संसार में आया हो, मुझे नहीं जान पड़ता। उसकी ओर एकटक देखते हुए और मन ही मन सोचने का समय निकालने भर के लिए जवाब टालने की नीयत से मैंने कहा, “आम तौर पर तो जब यह स्थिति होती है कि शिक्षा पूरी हो चुकी हो और आगे कोई लक्ष्य न दीखता तो तब लोगों को एक ही विकल्प बाकी रह गया जान पड़ता है। वही लोग बता देते हैं; हाँ कुछ लोग शोध का भी हिला निकालते हैं। लेकिन असल में तो वह विकल्प नहीं है, वह अपने साथ धोखा ही है, सवाल की जवाबदेही से बचने का एक तरीका।”
एकाएक मुझे अपने कन्धे के पास उसकी आवाज सुनाई दी, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प हो सकता है?” मैंने कहाँ, “मैंने अभी कहा न-सवाल जब इस रूप में पूछा जाता है तब लगता है कि एक ही विकल्प है-शादी कर लो।”
उसका सिर मेरे कन्धे पर टिका था। उसके साफ-सुथरे केशों की हल्की गन्ध मुझ तक पहँुच रही थी, बल्कि सिर टेकते हुए ही उसने सवाल किया था, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प हो सकता है?”
मेरे जवाब पर उसने कहा, “शादी! वह विकल्प था, अब नहीं है। मेरा विवाह हो चुका और टूट भी चुका।” उसका स्वर इतना सम और भावनारहित था कि मुझे संवेदना की कोई गुंजाइश नहीं दीखी और प्रकट कौतूहल भी ऐसे मौके पर ठीक नहीं होता। मैंने भी अपने स्वर को सम बनाये रखने की कोशिश करते हुए पूछा, “इतना सब इतनी जल्दी हो गया, मुझे तो अचरज होता है। तुम्हारे चेहरे पर तो-'
“मेरा चेहरा!” अबकी बार उसके स्वर में व्यथा थी और यत्नपूर्वक दबायी हुई कटुता। “चेहरा कितना बड़ा धोखा होता है, आप जानते हैं?”
मैंने उसे परे हटाये बिना उसका चेहरा देखने की कोशिश की, लेकिन इस कोण से एक तिरछी झलक ही मिल सकती थी, चेहरे का भाव नहीं पहचाना जा सकता था। “मैं उन्नीस वर्ष की थी जब मेरा विवाह कर दिया गया, इक्कीस की होते-होते मुझे घर से निकाल दिया गया, क्योंकि मुझ में बच्चे पैदा करने की क्षमता नहीं थी।”
अबकी बार मैं बहुत गौर से चौंका। छिटककर दूर हटते हुए मैंने उसे भरपूर ताका और अचकाचाये स्वर में पूछा, “थी? तुम लडक़ा हो कि लडक़ी? मेरी कुछ समझ में नहीं आया।” उसने कहा, “मैंने कहा न, चेहरे बहुत बड़ा धोखा होते हैं। हाँ, मैं स्त्री ही हूँ-अगर-” और वह कटुता उसके चेहरे पर झलक आयी, “अगर उसे स्त्री कहा जा सकता है जो बच्चे नहीं पैदा कर सकती।”
“लेकिन-यह नाम बीनू भगत-और दिन-भर का कार्यक्रम-” वह रूखी-सी हँसी हँस दी। मेरे स्वर को दोहराती हुई बोली, “हाँ, यह नाम बीनू भगत। मैंने ऐसा ही नाम चुना जो पुरुष या स्त्री किसी का भी हो सकता है। बिना-विनय कुमार, वीणा, विनीता! पोशाक भी ऐसी ही चुनी। यों तो आजकल लडक़े-लड़कियाँ सब एक-सी पोशाक पहनते हैं-नया फैशन है।”
मैंने दिन की बातें याद करते हुए कहा, “यह बात तो मेरे मन में भी उठी थी कि तुम्हारा चेहरा पुरुष गाइड के लिहाज से ज्यादा कोमल है, लेकिन उसे मैंने सुन्दरता का अंग मान कर ही आगे नहीं सोचा।” बीनू मुस्करा कर कुछ पूछने को हुई और रुक गयी; मैं कहता गया, “लेकिन-लेकिन तुम्हारी बात मेरी समझ में नही आयी। क्या डॉक्टरी जाँच हुई थी?” “हाँ। उसी के आधार पर तो विवाद रद्द करने का फैसला हुआ। मेरी शरीर रचना ही ऐसी है।” हम दोनों एक लम्बी चुप में डूब गये। मैं नजर नीचे किये हम दोनों के बीच की मेज की ओर ताकता रहा-उसका रेशा-रेशा मैंने गिन डाला होगा। उससे नजर मिलाने से मैं कतरा रहा था, लेकिन उसकी उपस्थिति का बोध मुझ पर मानो और गहरा छाता जा रहा था। किसी की भी उपस्थित की इतनी गहरी और थरथरा देनेवाली छाप मुझ पर पड़ी हो, यह मुझे याद नहीं आता।
देर के बाद उसी ने पहले नज़र उठायी। उसके चेहरे में एक कोमल और कारुण्य भरा भाव था जिसमें सबसे पहले के पुरुष रूपी बीनू भगत की छवि कहीं घुल गयी थी। यह चेहरा, यह मुद्रा, छटे हुए बालों और मर्दानी पोशाक के बावजूद, एक युवती का चेहरा था और कहना होगा कि सुन्दर चेहरा था-अगर उसमें कहीं लड़कियों जैसी कोई छाया थी तो वह युवती के अल्हड़पन में योग देती ही जान पड़ती थी। मैंने न जाने कैसे (और क्यों) कहा, “तो, बीनू, अब?”
उसने फिर मेरी ओर झाँकते हुए धीमे किन्तु तनाव से काँपते स्वर में पूछा, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प है?” ठीक यहीं पर मैं सपने से जाग गया।
और तब से बीनू भगत मेरे साथ है और साथ रहती है और उसका प्रश्न बार-बार मेरे मन में गूँजता है। “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प है?” और यह बीनू एक सम्पूर्ण और सजीव चरित्र है-मैं किसी तरह नहीं मान सकता कि वह चरित्र अधूरा है। उसकी कहानी जरूर अधूरी है,लेकिन उसी तरह अधूरी जिस तरह कोई किसी के हाथ से उपन्यास पढ़ते-पढ़ते किसी सन्धि-स्थल पर छीन कर ले जाए। तब कहानी अधूरी रह जाती है-छटपटाहट-भरी लेकिन अधूरी। मुझसे कोई उपन्यास किसी ने नहीं छीना। यह भी नहीं है कि नींद से किसी ने या बाहरी आहट ने जगा दिया हो। मैं इसी बिन्दु पर जाग गया, बस। क्यों जाग गया, यह भी नहीं जानता। यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि उसके सवाल का जवाब देने से बचने के लिए मेरे मन ने मुझे जगा दिया क्योंकि उसकी कहानी तो मैं आगे जानने को व्याकुल हूँ, बल्कि उसकी कहानी भी नहीं, उसका वास्तविक जीवन। इसीलिए बात अधूरे पढ़े उपन्यास जैसी होकर भी, उपन्यास की नहीं है, वास्तविक जीवन की है। इसलिए कहूँ कि चरित्र आधे-अधूरे नहीं बल्कि वह दुनिया ही आधी-अधूरी है जिसमें एक पूरे विकसित चरित्र को आगे अपना जीवन जीने का रास्ता नहीं मिला है।
लेकिन बीनू के लिए मेरे पास क्या विकल्प है? मेरे लिए ही क्या विकल्प है बीनू का सामना करने का?