बॉक्स ऑफ़िस का रेकॉर्ड तोड़ती फिल्मों के गवाह सिनेमाघर / संतोष श्रीवास्तव
जब जबलपुर में थी तो मुम्बई का मराठा मंदिर सिनेमाघर बहुत आकर्षित करता था। मुम्बई सैंट्रल स्टेशन के सामने यह सिनेमाघर सालों साल चलने वाली सुपरहिट फ़िल्मों से दर्शक वर्ग को अपनी ओर खींचता था। मराठा मंदिर में मैंने पहली फ़िल्म देखी"दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तो इसकी नायिका काजोल की शादी नहीं हुई थी और यह फ़िल्म अभी भी मॉर्निंग शो में चल रही है। काजोल की शादी हुई, बच्चे हुए और फ़िल्म चलती रही। निश्चय ही काजोल जब मराठा मंदिर के सामने से गुज़रती होगीतो ये शेर उसके ज़ेहन में आता होगा-
वो गलियाँ अभी तक हसीन औ जवाँ हैं
जहाँ मैंने अपनी जवानी लुटा दी
मुम्बई कुछ ऐसी ही फितरत वाला शहर है। जब भी चर्चगेट स्थित इरोज़ सिनेमाघर के सामने से गुज़रती हूँ तो बस इरोज़ को देखती रह जाती हूँ। लंदन के सिनेमा हॉलों के स्थापत्य से प्रेरित चक्करदार सीढ़ियों, डेकोरेटिव बैंड और विशाल साइनबोर्ड से अपनी ओर बुलाता है ये खूबसूरत सिनेमाघर। लाल आगरा सैंडस्टोन से आर्ट डेको स्टाइल में 12 फरवरी 1938 में बनकर तैयार हुआ ये सिनेमाघर आर्किटेक्ट सोराबजी भेडेवार द्वारा डिज़ाइन किया गया था। यह अपने वाइड एंगिल स्क्रीन और लेटेस्ट साउंड व प्रोजेक्शन सिस्टम के लिए दूसरे सिनेमाघरों से अलग हटकर बल्कि उनके लिए मिसाल है। इस खूबसूरत सिनेमाघर में फ़िल्म रिलीज़ होते ही दर्शकों की भारी भीड़ बॉक्स ऑफ़िस खिड़की पर टूट पड़ती है और फ़िल्म हिट होते देर नहीं लगती। वैसे भी चर्चगेट स्टेशन के एकदम सामने होने की वजह से हर तबके के लोगों की नज़र इसके बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर पड़ ही जाती है। एक हज़ार चौबीस दर्शकों की क्षमता वाला इरोज़ हिंदी, अंग्रेज़ी और मराठी फ़िल्में भी दिखाता है।
एक ज़माना था न्यू एंपायर सिनेमाघर में जूलिया रॉबर्ट्स या शैरोन स्टोन का नया शो देखने के लिए उमड़ी भीड़ बॉक्स ऑफ़िसकी खिड़की तोड़ती थी। मेट्रो सिनेमाघर के शो हफ़्तों पहले से बुक्ड हो जाते थे। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर कैपिटल सिनेमाघर के बाहर ब्लैक से टिकट बेचने वालों की चाँदी रहती थी। अपनी लाजवाब लोकेशन की वजह से कैपिटल काफी लोकप्रिय था। कुर्ला के कल्पना सिनेमाघर के बाहर एक अदद टिकट के लिए मारपीट तक हो जाती थी। अब ये सब गुज़रे ज़माने की बातें हैं जिन्हें यहाँ के बुजुर्ग आज भी याद करते हैं। उस ज़माने में लैमिंग्टन रोड पर कतार से सिनेमाघर थे। नाके से थोड़ा आगे नॉवेल्टी सिनेमाघर था। यहाँ सिनेमा देखने वाला चिलियाओं के होटल का बैदा (अंडा) पाव और कीमा पाव ज़रूर खाता था। अब फास्ट फूड संस्कृति ने जड़ें जमा ली हैं। नॉवेल्टी का भी रीकंस्ट्रक्शन हुआ है। लैमिंग्टन रोड पर ही आगे चलकर सैंट्रल सिनेमा था जो मुम्बई में सिनेमा के इतिहास काहम हिस्सा था। मेरे बुज़ुर्ग पड़ोसीबताते हैं कि इस सिनेमाघर में खम्भों के बीच से देखी गई वहीदा रहमान की फ़िल्म 'बीस साल बाद' आजभीयाद आती है। वहीं स्वस्तिक, नाज़ आदि सिनेमाघर थे। दुनिया की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री के बैकबोन इन सिनेमाघरों की रौनक अब फीकी पड़ गई है। अब मल्टीप्लेक्स संस्कृति के साथ ही मुम्बई के सिनेमाघर क़रीब 60 प्रतिशत तो बंद ही हो गये हैं और जो बचे हैं वे भी बंद होने की कगार पर हैं। चाहे टाइम्स स्क्वायर का कैपिटल हो, लैमिंग्टन रोड के 16 सिनेमाघर हों, लोअर परेल का दीपक हो, गिरगाँव का कोरोनेशन हो जहाँ 3 मई 1913 को दादा साहब फालके निर्मित देश की पूरी लम्बाई वाली और स्वदेश निर्मित 'राजा हरिश्चंद' दिखाई गई थी। आज बंद हो चुके हैं ये सारे सिनेमाघर। 14 मार्च 1931 को देश की पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा दिखाने वाला गिरगाँव का मैजेस्टिक सिनेमाघर अब मॉल बन चुका है। वॉटसन होटल में 1896 में अंग्रेज़ों ने एक रुपए का टिकट लेकर पहला बाइस्कोप देखा था अब मात्र किरायेदारों और खस्ताहाल ऑफ़िसों की बसाहट बनाकर रह गया है। यह देश की सबसे पुरानी इमारत है जो कास्ट आयरन से बनी है। चहल पहल भरे नॉवेल्टी, स्वस्तिक, नाज़, मिनर्वा, श्रेयस, विजय, डायना, एडवर्ड, इंपीरियल, न्यू रोशन, रॉयल और अंकुर जैसे सिनेमाघरों में अब सन्नाटा है। मुम्बई के कुछ सिनेमाघर तो अपनी खूबसूरती और अलहदा शो की वजह से मील का पत्थर बन गये हैं। उन्हीं में से एक है न्यू मरीन लाइन्स स्थित लिबर्टी. आर्ट डेको स्थापत्य का सर्वश्रेष्ठ थियेटरजो अपने 'लोगो' पियानोके साथ मुम्बई का सर्वश्रेष्ठ जॉज म्यूज़िक स्मारक भी कहलाता है। 1949 में 'अंदाज़' फ़िल्म के शो के साथ इसका हिन्दी फ़िल्मों का सफ़र शुरू हुआ। 1200 दर्शकों की क्षमता वाले मुख्य थियेटरके साथ लगभग 30 मिनी थियेटर भी हैं। मॉल संस्कृति की वजह से अब ये कल्चर सेंटर बन गया है और म्यूज़िक, आर्ट, थियेटर, डांस के शोज़ और फ़िल्म फेस्टिवल्स के लिए ज़्यादा जाना जाता है।
फोर्ट स्थित 'न्यूइंपायर' आर्किटेक्ट का बेहतरीन नमूना है जो 1908 में थियेटर के रूप में खुला। इसका मुख्य आकर्षण है आर्ट डेको इंटीरियर। ग्लैमरस फ़िल्मों के शौकीनों, प्रेमियों, कॉलेज विद्यार्थी और कोने की सीट चाहने वालों का ये मनपसंद थियेटर है।
स्टर्लिंग सिनेप्लेक्स जो दक्षिण मुम्बई यानी फोर्ट में स्थित है। अपने शुरुआत के वर्षों में यानी 1969 से ही मशहूर सीढ़ियों के साथ कॉलेज विद्यार्थियों के लिए फोर्ट का हैंगआउट प्लेस और डॉल्बी साउंड जेनन प्रोजेक्टर, मैटिनी और लेट नाइट शोज़ की सबसे पहले पहल करने के कारण अन्य थियेटरों का ईर्ष्या पात्र भी बन चुका है। फोर्ट में ही नॉवेल्टी थियेटर था जो 1928 से न्यू एक्सेल्सियरकहलाने लगा। यहीं पर शोले फ़िल्म की चैरिटी स्क्रीनिंग और शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म देवदास का प्रीमियर शो भी यहीं हुआ।
टाइम्स स्क्वेयर में रीगल सिनेमा घर की शान ही निराली है। भारत की पहली अंडर ग्राउंड कार पार्किंग यही है। एशिया का पहला वातानुकूलित थियेटर भी यही है और यही है वह सिनेमाघर जहाँ फ़िल्म फेयर अवॉर्ड का आयोजन हुआ करता था। 14 अक्टूबर 1934 को बने इस सिनेमाहॉल में 1200 दर्शक बैठकर सिनेमा देख सकते हैं। रीगल को मनमोहक डिज़ाइन दिया था चेकोस्लोवाकिया के कलाकार कार्ल सचरा ने... खूबसूरत गुंबद, सीढ़ियाँ, मिरर वर्क और वाइडऐंगिल स्क्रीन। इसके नारंगी और हरे शिखर पर जब सूर्य किरणें उतरती हैं तो सब कुछ जगमगा जाता है।
दादर में प्लाज़ा सिनेमाघर है। यह मराठी फ़िल्मों के प्रदर्शन का सबसे लोकप्रिय सिनेमाघर है जिसे व्ही शाँताराम ने एक पारसी से ख़रीदा था। यह तीन पीढ़ियों के अभिनेताओं के अरमानों का ठिकाना रहा है। सातवाँ एशियाई फेस्टिवल यहीं हुआ। यही वह जगह है जहाँ 12 मार्च 1993 केसी रियल बम ब्लास्ट में कई लोग मारे गये। अल्फ्रेड सिनेमाघर जिसका नाम पहले रिप्पन थियेटर था आज सुनहले अतीत की छाया भर है। भारतमाता सिनेमाघर 75 साल पुराना है जो साल भर मराठी फ़िल्में दिखाता है। वह भी महज़ पच्चीस-तीस रुपए टिकट दर पे। दादा कोंडके की फ़िल्मों के लिए तथा डिजिटल के लिए यह सिनेमाघर प्रसिद्ध है।
मुम्बई का शानदार थियेटर मेट्रो जिसे विश्वविख्यात फ़िल्म प्रोडक्शन कम्पनी एम जी एम ने 1938 में अपनी फ़िल्में दिखाने के लिए बनाया था आज मुम्बई के सिनेमाघरों में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। एम. जी. रोड जंक्शन पर फ्रामजी कावसजी हॉल के सामने स्थित 1491 दर्शक क्षमता के इस थियेटर को राजकपूर ने अपनी फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम' को रिलीज़ करने के लिए चुना था। सन् 1955में पहली फ़िल्म फेयर अवॉर्ड नाइट भी यहीं हुई थी। यह लकदक फ़िल्म प्रीमियरों के लिए मशहूर है। और 2006 से यह स्क्रीन मल्टीप्लेक्स भी हो गया है।
मरीन लाइन्स में ही बॉम्बे हॉस्पिटल के पास लिबर्टी सिनेमाघर है। यह आज़ादी के तुरन्त बाद 1947 में हबीब हुसैन ने बनवाया। बारह सौ सीटों वाले इस सिनेमाघर का डिज़ाइन ब्रिटिश वास्तुकार रिडले अबॉट ने किया था। अब68 साल बाद इस सिनेमाघर को एक विशिष्ट सांस्कृतिक केन्द्र बनाने की योजना है जिसे नेविल्लेटुलीके ओसियाना मास मूह द्वारा अंजाम दिया जायेगा।
लिबर्टी से जुड़ा एक दिलचस्प वाक़या मशहूर चित्रकार एम एफ हुसैन से जुड़ा है। 1994 में जब माधुरी दीक्षित की फ़िल्म 'हमआपके हैं कौन' यहाँरिलीज़ हुई तो हुसैन ने वह फ़िल्म पचास बार देखी। वे ऊपर की सीट पर बैठते थे और माधुरी का नृत्य देखकर गलियारे में आकर नृत्य करने लगते थे। दर्शकोंने उनकी शिकायत सिनेमाघर के मैनेजर से की। सिनेमाघर के मालिक नाज़िर हुसैन ने एम. एफ. हुसैन को एक निजी कक्ष देने की पेशकश की कि वे उस कक्ष में जी भर कर नृत्य करें लेकिन वे नहीं माने। हुसैन द्वारा माधुरी दीक्षित पर बनाई गई तस्वीरें आज भी लिबर्टी सिनेमाघर की शोभा बढ़ा रही हैं।
मलाड में एस वी रोड स्थित बॉम्बे टॉकीज़ महान फ़िल्मकार हिमाँशु रॉय और उनकी अभिनेत्री पत्नी देविका रानी ने स्थापित किया था। यहाँ क्रान्तिकारियों के सरताज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ऐतिहासिक न्यूज़ रील (सिनेमा वाली) का फ़िल्मांकन हुआ था। भारतीय सिनेमा के जनक और मज़बूत स्तंभ दादा साहब फालके (धुंडिराज गोविंद फालके) की स्मृति में स्थापित दादा साहेब फालके अकादमी है। फालके अवार्ड मिलना फ़िल्म इंडस्ट्री में गौरव का विषय है लेकिन विडंबना देखिए कि दादा साहेब फालके की ज़िन्दग़ी का आख़िरी दौर फाक़ाकशी में गुज़रा और उन्हें गुमनाम मौत मिली लेकिन सिनेकला के प्रति उनकी दीवानगी और फ़िल्मों की विकास यात्रा में उनके संघर्ष एवं योगदान के आगे फ़िल्म इंडस्ट्री सिर झुकाती है।
चर्नी रोड की तरफ़ जाने पर रॉक्सी सिनेमाघर है। अब काफी कुछ बदलाव की आँधी का शिकार हो गया है। सिनेमा भी अब ऊँचाईयों को, समृद्धि को छू रहा है। उसमें बहुत विविधता आ गई है लेकिसि नेमा का वह पहले वाला दौर अब नहीं रह गया। अब चार आने और बाद में दस आनेवाली पहली कतार की सीटों का कोई वजूद नहीं रह गया। फ़िल्म रिलीज़ होते ही बॉक्स ऑफ़िस पर पहले हफ़्ते ही करोड़ों कमाने वाली फ़िल्मों को देखने के दौरान पॉपकॉर्न का पैकेट खरीदने के लिए सौ रुपए देने पड़ते हैं। तब आदमी चाहे कितना भी व्यस्त हो ब्लैक एन्ड व्हाइट सिनेमा की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि अगर कुछ गाने रंगीन शूट किये जाते तो दर्शक उसे फूहड़ करार देते थे।