भँवर / रोज केरकेट्टा
उस दिन मौसम भी थोड़ा साथ दे रहा था। चाँद की रोशनी बादलों के कारण कभी चटक हो उठती तो कभी मद्धिम पड़ जाती। स्त्रियाँ, युवतियाँ और बच्चे खुलकर अपनी उमंग प्रदर्शित कर रहे थे। उपवास रखनेवाली युवतियाँ उस दिन का विशेष आकर्षण थीं। रामेश्वर बड़ाईक के आँगन में 'करम पूजा' का आयोजन था। उन्हीं के आँगन में यह चहल-पहल थी। लगभग नौ बजे रात्रि में पूजा आरंभ हुई। तभी कमल आ गया। आते ही वह रामेश्वर बड़ाईक की ओर मुड़ गया। उसने रामेश्वर को सूचना दी कि मालकिन भी अपनी बेटियों के साथ 'दउरा' (टोकरी) लेकर आ रही हैं। लगभग आधे घंटे बाद मालकिन अपनी दोनों बेटियों के साथ पूजा स्थल पर पहुँच गईं। बड़ी बेटी ने 'करम डालिया' करम देवता के सम्मुख रखी। तीनों ने बड़ी श्रद्धा से करम देवता को झुककर नमस्कार किया। फिर उठकर अन्य स्त्रियों के समीप जाकर बैठ गईं।
बालक-बालिकाओं का ध्यान इन तीनों की ओर लग गया। मालकिन विधवा थीं। अच्छे कपड़ों में होने के कारण और अधेड़ होने के बावजूद उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। बड़ी लड़की सुमन पंद्रह सोलह वर्ष की थी। युवावस्था में कदम रखने के बावजूद वह अति गंभीर और शांत लग रही थी। कद-काठी आकर्षक थी। उत्तम स्वास्थ्य के कारण चेहरा चमक रहा था। चेहरे की गंभीरता उसके अंदर के विषाद को प्रकट कर रही थी। छोटी बहन पाँच वर्ष की। दीदी की अपेक्षा उसका रंग थोड़ा दबा, निरीह, भोली- सी बच्ची थी वह। महिलाओं से पुराना परिचय था उनका, सो वे आपस में धीरे-धीरे बातें करने लगीं। पूजा ग्यारह बजे रात्रि में समाप्त हुई। खान-पान चल रहा था कि बादल घिर आए और वर्षा होने लगी। रीझ रंग का मौका ही नहीं मिला। सब अपने- अपने घरों में दुबक गए। मालकिन भी दोनों बेटियों को बाँहों में समेटकर लेटी रहीं। आज पूजा के बाद उनके अंदर धर्म के प्रति पूरी आस्था उत्पन्न हुई। यही विश्वास और आस्था उनके जीवन के संबल हैं। देवताओं को उन्होंने पुकारा है।
गरीबों ने उन्हें शरण दी है। विगत जीवन का सुख और वर्तमान का कष्ट दोनों में से किसे सार्थक कहा जाए ? पर विश्वास बड़ी चीज है। भगवान् के घर देर है अँधेर नहीं। उत्तेजना के कारण नींद उनकी दुश्मन बन गई थी।
मालकिन के पति किंवदंती पुरुष थे। उनका रूप और गुण दोनों ही चर्चित था। कुछ पढ़े-लिखे व कुछ सुदर्शन होने और कुछ दबंग होने के कारण अनेक स्त्रियाँ उनके जीवन में आईं। पर सिर्फ तीन ही स्त्रियाँ पत्नी कहला पाईं। पहली पत्नी धन संपत्ति दे गई पर निस्संतान मरी। दूसरी पत्नी ने कुछ वर्षों तक सुख दिया, वह भी निस्संतान मरी, तब तक मालिक की उम्र पचास पार कर गई। फिर तो तीसरी पत्नी बनकर यही मालकिन आ गईं। मालकिन से मालिक को दो पुत्रियाँ मिलीं। बुढ़ापे में इन्हें पारिवारिक सुख मिला। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। विलासिता ने उनके शरीर को घुन लगी लकड़ी में पलट दिया था। छोटी लड़की के पैदा होने के चार वर्ष बाद ही वे चल बसे। एक कथा का अंत हुआ पर दूसरी ओर एक नई का जन्म भी हुआ।
शंख नदी में हर वर्ष बाढ़ आती है पर उस वर्ष कुछ अधिक ही वर्षा हुई। कोई सप्ताह ऐसा नहीं गुजरा, जिसमें राहगीरों को एक-दो दिनों तक बाढ़ कम होने की राह न देखनी पड़ी हो। मालकिन का खेवा डांग भी बाढ़ में बह गया था। वह अपने और अपनी बेटियों के प्राण बचाने के लिए हाथ- पैर इधर-उधर मार रही थीं, तभी कमल उनके हाथ लग गया था। कमल मात्र एक लाठी था, जब कहीं बाहर जाना होता, मालकिन उसे अपने हाथों में ले लेती, पर लोगों को मालकिन के हाथ में साँप नजर आने लगा। पहले मालकिन सिर्फ घर में रहती थीं, अब वह दोनों बेटियों और कमल को लेकर अपने खेतों की ओर जाने लगीं।
मालकिन जाती तो थीं अपनी खेती देखने, पर उनकी नजरें टिक जाती थीं उन लाशों पर, जो बाढ़ से बहकर आई होतीं। कुत्ते और गिद्ध उन्हें नोचते रहते। मालिक के रहते मजदूरों की कमी नहीं थी, अब खुशामद करके उन्हें लाना पड़ता है। न जाने कब ये दुःख समाप्त होगा, कोई चौथा आदमी दो बोल बोलनेवाला नहीं रह गया था।
वर्षा समाप्त हुई। नदी वाली बाधा कम हुई। मालकिन के घर रिश्तेदारों का आना-जाना शुरू हुआ। सभी हाल-चाल पूछने आते तो कमल को भी देखते। हरेक के मन में कमल को देखकर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुईं, अफवाहें उड़ने लगीं। जब तक ये अफवाहें नदी पार पहुँची, उनमें कई प्रकार की गंध समा चुकी थी। देखते-देखते समय बीतने लगा, माघ का महीना आया। पुरखे कह गए हैं- माघ की ठिठुरन जिसने झेली, उसने झेल सब लिया। पाला पड़ा, रबी की फसल चौपट हो गई। ऐसे पालामार ठंड में मालकिन के गाँव के बगलवाले गाँव में हलचल मची थी। रविवार का दिन था। गाँव से पंद्रह हल लेकर लोग मालकिन के खेत में चढ़ गए थे। हलवाले हल जोत रहे थे, स्त्रियाँ घूम रही थीं और बच्चे उधम मचाए हुए थे। गाँव के बीच से धुआँ उठ रहा था, साफ पता चल रहा था कि गाँव में आज कोई अनुष्ठान हो रहा है।
रोकाड़ी बसुआ ने देखा तो जाकर मालकिन को खबर दी, खबर सुनकर मालकिन को काठ मार गया। उनका गला सूख गया। वह दौड़कर खेत की ओर जाने लगीं, लेकिन लड़खड़ाकर बीच में ही बैठ गईं, आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सुमन ने माँ को लड़खड़ाते देखा तो वह उसकी ओर भागी। वह समझदार थी। तुरंत माँ के सिर को बाँहों में सँभाला और पीठ को देर तक सहलाती रही। बेटी का स्पर्श पाकर माँ के सब्र का बाँध टूट गया। वह हिलक-हिलककर रोने लगी। सुमन चुप रही। इस वक्त बेटी माँ बन गई थी और माँ बेटी। वे दोनों बहुत देर तक उसी हालत में बैठी रहीं।
मालकिन और बेटियाँ आज जान गईं कि वे कितनी असहाय और अकेली हैं। अपना कहने को कोई नहीं है। 14 अप्रैल, 1937 ई. को 'हिंदू स्त्रियों की संपत्ति पर अधिकार अधिनियम 1937' पारित हो चुका था। इसे कृषि योग्य जमीनों पर 'बिहार अधिनियम 6, सन् 1942' के द्वारा लागू किया गया। इससे पहले सामाजिक कानून के तहत भी विधवा को पति की संपत्ति पर परिसीमित हक
था। मालिक की मृत्यु के बाद मालकिन ने धीरे-धीरे ये सारी बातें सुमन को समझानी शुरू की थीं, परंतु साथ ही उन्होंने अनुभव कर लिया था कि कानून से सामाजिक व्यवस्था बँधी नहीं है। सामाजिक व्यवस्था भी उनके लिए है, जिनके पास बाहुबल है। इसलिए कानून को या सामाजिक व्यवस्था को जमीन पर उतारने की कोशिश की जाएगी तो उसका भारी मूल्य चुकाना पड़ेगा। फिर समाज को स्त्रियों से क्या लेना-देना ? समाज को जो चलाते हैं, वे अपनी मरजी से व्यवस्था बदल भी सकते हैं। पर जीना है तो संघर्ष का रास्ता ही चुनना है। मालकिन को एक ही भरोसा था कि कुटुंब शायद दोनों बेटियों के विवाह होने तक उस पर रहम करे। परंतु परिवेशजन्य साक्ष्य इस भरोसे की धज्जियाँ उड़ा रहे थे।
माँ-बेटी उस जगह से उठीं, तब तक दोपहर होनेवाली थी। पर हलवाहों को उसी दिन पूरा खेत जोतना था, इसलिए वे पहर ढलने तक हल चलाते रहे। मालकिन की देह इस बीच रह-रहकर काँपती रही। बगल के गाँव के भोज-भात की सुगंध इन्हें बेचैन करती रही। छोटी बेटी ने सहेलियों की माताओं से सुना कि आज उनकी जमीन पराई हो रही है। वह घर लौट आई। घर के उदास वातावरण से वह और उदास हुई, पर भयभीत नहीं थी। कमल गाँव से बाहर था। जब राहगीरों से इस घटना का समाचार मिला तो वह वहीं से मालकिन के खेत की ओर लौटा। हलवाहे दूर से ही उसे देखकर चीखे। कोई बोला, 'भेड़िए की मौत आई है, वह देखो, इधर ही आ रहा है।' कमल के नजदीक पहुँचते ही चार-पाँच हलवाहे, हल खड़ी कर उसकी ओर दौड़े। उन्होंने जमकर उसकी धुनाई की। कमल को जमीन पर गिरते देख हलवाहों ने चीख-चीखकर टिप्पणियाँ कीं और अपना काम करते रहे। मालकिन के गाँव के लोगों ने देखा, पर वे कठमुर्दा बने रहे। इतने लोगों की भीड़ में कोई ऐसा नहीं था, जो जाकर देखे कि कमल जिंदा है या मर चुका है।
पहर ढलने तक खेत की जुताई पूरी हो गई। हलवाहे गाँव लौट गए, तब कमल के घरवालों ने आकर कमल को चारपाई पर लादा और घर ले गए। पीड़ा से उबरने में कमल को लगभग दो माह लग गए। इस बीच दूसरे गाँव में तथा मालकिन के रिश्तेदारों के घरों में कैसी-कैसी खिचड़ी पकती रही, इसकी गंध किसी को शायद ही मिली। होली आई और चली गई। बैसाख में एक दिन लोग हल-बैल लेकर निकलते, इससे पहले ही देखा कि मालकिन थोड़ा सा सामान लेकर दोनों बेटियों के साथ बस पर सवार हुईं और चल दीं। कमल भी बस में ही उनसे आ मिला।
मालकिन और उसके परिवार को इसी बड़ाईक टोले में पनाह मिली। दो छोटे-छोटे कमरों में उनका जीवन सिमट गया। परंतु दो बोल बोलने के लिए पड़ोसियों की कमी नहीं रही। नतीजा हुआ कि मालकिन और सुमन आतंक के साए से निकल आईं। छोटी मंजरी तो हवा में उड़ने लगी। माह गुजरते- गुजरते मालकिन ने भविष्य की सुरक्षा निश्चित करने के लिए हाथ-पैर मारना शुरू किया। कोर्ट में एक दिन पेशकार के कमरे से निकलते हुए वकील ने मालकिन से कहा, "आप लोग वहाँ जाइए, मैं अभी आता हूँ। फिर वे मुड़कर पंद्रह-बीस कदम दूर चले गए। मालकिन ने देखा कि वकील साहब मुदालेह के वकील से बातें कर रहे हैं। मालकिन वकील के चैंबर में लौट गई।
वकील ने चैंबर में आते ही मालकिन से कहा, "मैंने उनके वकील को धमकी दे दी है कि केस हम ही जीतेंगे।" फिर वह आप ही बड़बड़ाने लगे, 'चींटियों के पर निकल रहे हैं। जल्दी ही पर कतरना पड़ेगा।' सुनकर मालकिन का विश्वास पुख्ता हुआ। कानून उनके पक्ष में है। गाँववालों ने साहस दिलाया। वकील ने आश्वासन दिया है। उसने 'करम देवता' की पूजा पूरी आस्था से की है। करम का त्योहार उल्लासपूर्वक बीता। कुवार चढ़नेवाला था। नदी-नालों और खेतों का गंदा पानी साफ होने लगा था। तभी वकील साहब ने मालकिन को संदेशा भेजा, 'आपके पास आमदनी का दूसरा जरिया है नहीं। खेती-बारी पर ध्यान दें। केस लंबा खिंचेगा। इसलिए आप गाँव लौट जाएँ।' वकील का कहना सही था। पर मालकिन ने सोच रखा था कि मुकदमा समाप्त होगा, तभी कब्जे के कागज के साथ गाँव लौटेंगी। वकील के संदेश से वह पसोपेश में पड़ीं। पर इधर हाथ भी तंग होने का अंदेशा था। उन्होंने गाँव लौटना ही उचित समझा।
वर्षा ऋतु समाप्ति पर थी। पर अभी हथिया का पानी बरसना बाकी था। हथिया का बरसना खेती के लिए बहुत जरूरी है। पर कभी-कभी यह कहर भी ढाता है। उस वर्ष हथिया बरसा और मूसलाधार बरसा। तीन दिनों तक रात-दिन बरसा। भयंकर तबाही मची। शंख और कोइल नदी में जैसी बाढ़ आई, देखकर बुजुर्गों को कहना पड़ा कि उनकी जिंदगी में पहली बार ऐसी बाढ़ आई है। झड़ी की उस पहली साँझ के धुंधलके में मालकिन के घर का बाहरी दरवाजा खड़का। वर्षा के कारण धांगर रुक गया था। उसने मालकिन के कहने पर दरवाजा खोला। देखा, सात-आठ आदमी थे। दूसरे गाँव के परिचित लोग थे। उन्होंने कहा, "शहर गए थे। वहीं से लौट रहे हैं। अँधेरा हो रहा है और खास बात कि वर्षा हो रही है। सो रात बिताने के लिए रुकना चाहते हैं।' धांगर ने मालकिन को उनकी मंशा जता दी।
कितने महीनों से उस घर को आदमी तो क्या कुत्ता भी झाँकने नहीं आया था। परिचित लोगों के आने से मालकिन को भरोसा हुआ। कम-से-कम अभी भी उस घर की अहमियत है। दूर-दराज के लोग वहाँ शरण ले सकते हैं। फिर बातचीत के लिए आदमी भी तो चाहिए। उसने निकलकर उनसे बातें की। दालान में रखी चारपाई की ओर इशारा कर बैठने की अनुमति दे दी। वह इस घर की मालकिन थी। धांगर के जरिए उन्होंने बाल्टी, लकड़ी, कड़ाही, बटलोई वगैराह रखवा दिया। चूल्हा बाहर था ही, सो उन्होंने रसोई बना लेने के लिए कहा और अंदर चली गई। धांगर से चावल, आलू, तेल, नमक और माचिस तथा लालटेन भिजवा दिया। आलू वापस करते हुए उन राहगीरों ने कहला भेजा कि घर के लिए शिकार खरीदा था, सो अब यहीं बना लेंगे। बस थोड़ा सा मिर्च-मसाला भिजवा दें। मालकिन ने प्याज, मिर्च और मसाला भिजवा दिया। देर रात तक गपशप करते हुए ये पकाते-खाते रहे। धांगर दालानवाले कमरे में सो गया। मालकिन भी अंदर के कमरे में दरवाजे बंद कर बेटियों के साथ सो गई। इतने बड़े मकान में विगत दो वर्षों के बाद इतने सारे लोग इकट्ठे हुए थे। परिचित लोगों के आ जाने से आज पहली बार मालकिन चैन से सो रही थीं। बाहर जैसे-जैसे रात बीतने लगी, वर्षा भी तेज होती गई। सिर्फ वर्षा की झम झम और बादल की भयंकर भड़क सुनाई देने लगी। बीच-बीच में बिजली की तेज चमक से आँखें खुल खुल जा रही थीं। पर आज मालकिन सबसे बेखबर निश्चिंत होकर सो रही थीं।
आधी रात को अचानक धांगर की चीख सुनाई दी। मालकिन और उसकी बेटियों की नींद खुल गई। फिर चारों ओर सन्नाटा छा गया। पंद्रह- बीस मिनट के बाद एकाएक मालकिन के दरवाजे पर लात पड़ने लगी। बड़े-बड़े पत्थरों और कुल्हाड़ी से दरवाजा तोड़ा जाने लगा। पुरखौती घर था। मजबूत किवाड़ लगे थे। पर दरवाजा टूट ही गया। कपाटों के गिरने की देर थी, सारे वहशी लोग दोनों माँ-बेटी पर टूट पड़े। सारी रात माँ-बेटी को गिद्धों की तरह नोचते रहे। धांगर पहली लाठी के शरीर पर गिरते ही भाग चुका था। छोटी लड़की किवाड़ की आड़ में छिपी थी। उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। वह उस घनघोर वर्षा में निकलकर कहाँ भागी, पता नहीं चला। सुबह होने से पहले माँ-बेटी को फरसे और गंडासे से टुकड़े-टुकड़े किया जा चुका था।
आगंतुक अपना काम पूरा कर चले गए। चौथे दिन वर्षा रुकी। आसमान साफ हो गया पर आसपास के सारे गाँव टापुओं में बदल गए थे। पाँचवें दिन किसी ने थाने में जाकर घटना की इत्तिला दी। पुलिस आई। मुआइना किया। दालान में जूठन और हड्डियाँ विखरी थीं। बोतलें और गिलास लुढ़के पड़े थे। गाँववासी पुलिस के द्वारा पीटे गए, तब जाकर लाशें पोस्टमार्टम के लिए भेजी जा सकीं। पोस्टमार्टम की खानापूरी हुई। लाशों को बाद में झाड़ियों के बीच डाल दिया गया। कुत्तों, गीदड़ों और गिद्धों ने बाकी क्रिया-कर्म पूरा किया। पुलिस ने रिपोर्ट में लिखा, 'कोई आई विटनेस नहीं मिला।' फाइल बंद हो गई।
सामाजिक परंपरानुसार स्त्री को सुरक्षा देनेवाले कानून के अनुसार स्त्री को न्याय देनेवाले सब कहीं लोप हो गए। यह घटना समाचार पत्रों में स्थान नहीं पा सकी।
पाँच वर्षों के बाद छोटी मंजरी अपने दूर के रिश्तेदार के साथ कोर्ट में उपस्थित हुई। पर उसके आगे और गाँववालों के सामने प्रश्नों का भँवर घूम रहा है। फिर भी मंजरी भँवर से निकलने का प्रयास कर रही है।