भाग 2 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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बेटर रिजाइन फ्राम पुलिस

'साहब! गाली खाना चाहता है?' उस्ताद (हवलदार रैंक के परेड इंस्ट्रक्टर) ने हमारे प्लाटून के दास नामक आई.पी.एस. प्रोबेशनर से कड़क कर कहा, और हममें से कुछ का खून गुस्से से उबलने लगा और कुछ का भय से जमने लगा।

हम 57 आई.पी.एस. प्रोबेशनर मसूरी की हसीन वादियों में जिंदगी के सबसे हसीन लमहे बड़े पुरलुत्फ ढंग से गुजारकर 12 जनवरी,1964 को सेंट्रल पुलिस ट्रेनिंग कालेज, माउंट आबू में पुलिस की ट्रेनिंग लेने पहुँचे थे। आबू की आबोहवा मसूरी से कम उत्फुल्लकारी नहीं थी परंतु हम उसको खुलेदिल से आत्मसात नहीं कर पा रहे थे क्योंकि हमने पुलिस ट्रेनिंग की दुर्व्यवहारमय दुरूहता के किस्से खूब सुन रखे थे। पर हमने यह नहीं सोचा था कि 13 जनवरी को ही सुबह पौने पाँच बजे बेयरा चाय की ट्रे लेकर मेस में हमारा दरवाजा खटखटा रहा होगा और साढ़े पाँच बजे उस्ताद हमारे प्लाटून को परेड गाउंड पर ले जाने के लिए ऐसा बेताब खडा़ होगा कि दास के कमरे से दो मिनट देर से निकलने पर गाली देने की धमकी देने लगेगा। दास के साथ दो व्यक्तिगत कठिनाइयाँ भी थीं- प्रथम यह कि कमोड पर देर तक बैठना उसकी आदत भी थी और मजबूरी भी और द्वितीय यह कि दास मोशाय काफी गर्म मिजाज के थे। इस कारण शीघ्र ही वह दिन आ गया जब उस्ताद ने दास मोशाय को न केवल सचमुच गरिया दिया वरन लम्बे-चौड़े परेड ग्राउंड का चक्कर भी लगवाया। परेड ग्राउंड से वापस आते समय दास लगातार बमकता रहा और आफिस में कमांडेंट साहब के आते ही उस्ताद की शिकायत करने पहुँच गया। कमांडेंट साहब श्री मिश्र, आई.पी. का उत्तर न केवल दास के गुस्से के गुब्बारे को फोड़ने हेतु पर्याप्त था वरन हम सबको पुलिस विभाग में अनुशासन का व्यावहारिक अर्थ भली भाँति समझ लेने के लिए भी पर्याप्त था। दास को कुछ देर तक घूरने के बाद वह गम्भीर मुद्रा में बोले थे, 'दास, दिस इज पुलिस व्हेयर यू विल हैव टु लर्न टु लिव विद सच सिचुएशंस। इफ यू कांट, बेटर रिजाइन फ्राम पुलिस।'

यद्यपि सेंट्रल पुलिस ट्रेनिंग कालेज का हमारा प्रशिक्षण कार्यक्रम हमें उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने आदि के साहबी तरीके सिखाने, शारीरिक रूप से स्वस्थ एवं मजबूत बनाने तथा मानसिक रूप से अनुशासित, चरित्रवान और ज्ञानवान बनाने के उद्येश्य से बनाया गया था और हमारे प्रशिक्षकगण भी इस हेतु सख्ती से लगे रहते थे, परंतु मेरा विचार है कि प्रशिक्षकों की कार्य-संस्कृति में कहीं कुछ ऐसा था कि उन्हें इस उद्येश्य की प्राप्ति में पूर्ण सफलता नहीं मिलती थी। कालेज में व्याप्त भय का वातावरण मुझ जैसे व्यक्ति में रोष एवं उसके शमन की असम्भाविता पर ग्लानि उत्पन्न करता था। दूसरी ओर हममें बाला जैसे प्रोबेशनर भी थे जिन पर चिकने घड़े के समान पानी की एक बूँद भी नहीं रुकती थी। बाला दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में एम.ए. था और ज्याँ पाल सार्त्र की एग्जिस्टेंशियलिस्ट फिलोसोफी का अर्थ लगाता था - 'यावत्जीवेत् सुखेन जीवेत्'।

उसे बियर पीने की आदत पहले से थी, जो नेशनल एकेडेमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन में भरपेट पिए रहने की लत बन गई थी। इस कारण उसके घुटनों में काफी दर्द रहता था और वह घुड़सवारी बिल्कुल नहीं करना चाहता था। अतः पहले दिन से ही वह घुटने में दर्द बताकर घोड़े पर चढ़ने में असमर्थता जताकर बचने का प्रयत्न करने लगा था। तब राइडिंग इंस्ट्रक्टर ने अन्य प्रोबेशनरों की सहायता से उसे घेाड़े पर उठाकर रखना प्रारम्भ किया, तो वह तुरंत उलटी करने लगता था। जब यह क्रम कुछ दिन तक अनवरत चला, तो राइडिंग इंस्ट्रक्टर ने हार मानकर बाला को राइडिंग ग्राउंड के बाहर खड़े रहकर दूसरों को राइडिंग करते देखते रहने को कह दिया। एक-दो दिन ऐसा करने के बाद बाला ने घुटने में दर्द के कारण खडे होने में असमर्थता जाहिर की और फिर राइडिंग ग्राउंड पर आना बंद कर दिया। श्री बर्ज, असिस्टेंट डाइरेक्टर को पता चलने पर एक दिन वह तनफनाते आए और चार प्रोबेशनरों को कहा, 'बाला को उठाकर ले आओ।' कुछ देर में चारों सूखा-सा मुँह लेकर बिना बाला के वापस लौट आए क्योंकि बाला उन्हें देखकर पलंग से चिपककर कराहने लगा था। हम लोगों ने सोचा कि अब बाला की नौकरी गई, पर हुआ मात्र यह कि बाला को फाइनल इग्जाम में घुड़सवारी में फेल कर दिया गया। इस कारण उसे आवंटित उड़ीसा राज्य में जाने के बाद अगले वर्ष के प्रोबेशनरों के फा़इनल इग्जाम में घुड़सवारी की परीक्षा देने हेतु पुनः माउंट आबू आना पडा़ और वह फिर फेल हो गया। अँगरेजी शासन अपने आल इंडिया सर्विस के अधिकारियों पर सदैव मेहरबान रहता था क्योंकि उन्हीं के माध्यम से वह जनसाधारण पर राज्य करता था। अँगरेजी समय की आल इंडिया सर्विसेज की उत्तराधिकारी आल इंडिया सर्विसेज ने स्वतंत्रता के उपरांत भी शासन की उन पर इस मेंहरबानी को कम नहीं होने दिया था वरन कई मानों में बढ़ा ही दिया था, अतः तीसरी बार भी फेल होने पर शासन ने बाला को राइडिंग इग्जाम से मुक्त कर दिया और शीघ्र ही प्रोन्नत भी कर दिया।

एक वर्ष की कड़ी शारीरिक मेंहनत और अनेक कानूनों, पुलिस प्रक्रियाओं, विवेचना तकनीकों एवं सामाजिक विषयों की पढ़ाई के बाद जब हममें से उत्तर प्रदेश को आवंटित सात प्रोबेशनर जनवरी, 1965 में उत्तर प्रदेश राज्य के अपने कानूनों एवं राज्य की अपनी विशिष्ट पुलिस प्रक्रियाओं के विषय में जानकारी हेतु ढाई माह के प्रशिक्षण के लिए पुलिस ट्रेनिंग कालेज, मुरादाबाद पहुँचे, तो इंट्रोडक्टरी लेक्चर देते हुए वहाँ के पुराने एवं अनुभवी वाइस-प्रिंसिपल श्री श्रीवास्तव ने हमसे कहा, 'आज मैं आप से सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि आप को एक सफल पुलिस ऑफीसर होने के लिए आवश्यक है कि आप लोग आज से वह सब भूल जाएँ जो आप को माउंट आबू में सिखाया गया है। आप लोग जो अब सीखेंगे, वही आप के काम आएगा।'