भाग 3 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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यद्यपि पुलिस ट्रेनिंग कालेज, मुरादाबाद के वाइस-प्रिंसिपल श्री श्रीवास्तव का आई.पी.एस. प्रोबेशनरों को दिया गया प्रथम उपदेश कि सफल पुलिस आफीसर बनने के लिए सेंट्रल पुलिस ट्रेनिंग कालेज, माउंट आबू में सीखा हुआ सब कुछ भूल जाइए, मुझे उनके व्यंग्यमय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति प्रतीत हुई थी, परंतु मेरे भविष्य के सेवा काल में प्रतिदिन ऐसे अवसर आते रहे जो उनके उपदेश में निहित सत्य को उजागर करते थे। मैंने पाया कि माउंट आबू में दी गई संविधान एवं कानून की शिक्षा का अक्षरशः पालन पुलिसजन को आदर्श जनतांत्रिक व्यवस्था में तो 70-80 प्रतिशत तक सफलता दिला सकती है, परंतु भारतीय सामाजिक, राजनैतिक एवं न्यायिक परिवेश में इसका अक्षरशः अनुपालन न केवल आत्मघाती होगा वरन समाजघाती भी होगा। इस संबंध में एक घटना का वर्णन रुचिकर, ज्ञानवर्धक एवं आवश्यक प्रतीत होता है।

प्रशिक्षण के बाद मेरी प्रथम नियुक्ति सर्किल ऑफीसर, फूलपुर, इलाहाबाद के पद पर हुई थी। एक दिन थाना सराय ममरेज से वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पास सूचना आई कि एक गाँव में एक चोर चोरी करने गया था जिसे गाँववालों ने मार दिया है। मुझे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने घटनास्थल पर जाकर जाँच व आवश्यक कार्यवाही करने का आदेश दिया। मैंने गाँव में जाकर पूछताछ की तो सभी ने मेरे समक्ष बयान दिया कि चोर सेंध लगाकर घर में घुसा था कि तभी जगहर हो गई और चोर घर से भागा। गाँव वालों ने उसे दौड़ाया और मारपीट की जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मुझे माउंट आबू में पढ़ाया गया था कि रात के समय चोर घर के अंदर हो, तब तो उसे पकड़ने के लिए आवश्यक होने पर इतनी चोट पहुँचाई जा सकती है जो उसकी मृत्यु का कारण बन जाए,परंतु उसके घर से बाहर निकलकर भागने पर इतनी चोट पहुँचाना एक संज्ञेय और गम्भीर अपराध है। अतः मैंने ग्रामीणों के बयान के आधार पर उन्हीं के विरुद्ध मुकदमा कायम करा दिया। शाम को इलाहाबाद वापस आने पर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को मैंने घटना की पूरी रिपोर्ट दी। मेरे द्वारा यह बताने पर कि मैंने ग्रामीणों के विरुद्ध मुकदमा कायम करा दिया है, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, जो अपनी संयत भाषा के लिए विख्यात थे, अपने को रोक न सके और बोल पड़े, 'मैंने ऐसा चूतिया पुलिस ऑफीसर तो अपनी जिंदगी में नहीं देखा है।'

बाद में एक दिन मुझे बुलाकर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक समझाने लगे, 'आई ऐम सॉरी फॉर माई वर्ड्स, बट यू शुड रिएलाइज दैट इफ दी विलेजर्स विल बी प्रॉसीक्यूटेड इन सच केसेज, हू विल कम आउट टु फेस थीव्स ऐंड डैक्वाइट्स?' तब कुछ-कुछ मेरी समझ में आया कि अनुभवी वाइस-प्रिंसिपल ने हम लोगों को माउंट आबू की पढ़ाई भूल जाने को क्यों कहा था।

पर ऐसा नहीं है कि इन अनुभवी वाइस-प्रिंसिपल ने हमें जो-जो भी बताया, वह सब शत प्रतिशत यथावत सही निकला हो। एक दिन उत्तर प्रदेश में डकैती की समस्या पर वाइस-प्रिंसिपल महोदय ने अपना भाषण इस प्रकार प्रारंभ किया था, 'डेक्वाइटी इज दी मोस्ट इम्पॉर्टेंट क्राइम ऐंड इट इज दी प्राइमरी रेस्पांसिबिलिटी ऑफ दी एस. पी. टु कंटेन डेक्वाइटी इन हिज डिस्टि्क्ट, ऐंड इफ ही फेल्स टु डू इट, ही शुड कमिट सुइसाइड, रिजाइन , टेक लीव, ऐंड गो होम - स्ट्रिक्टली इन दैट ऑर्डर।' अतः सर्किल ऑफीसर, फूलपुर के पद पर नियुक्ति के दौरान मेरे मस्तिष्क में अपने सर्किल में डकैती न पड़ने देने की गम्भीर चिंता रहती थी। इसी बीच मेरे बगल के सर्किल में ताबड़तोड़ डकैतियाँ पड़ीं और क्राइम मीटिंग में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने इस विषय में काफी कुछ कहा। फिर उस सर्किल के सर्किल ऑफीसर की तबीयत खराब हो गई, जिससे वह छुट्टी पर चले गए। उस सर्किल का चार्ज मथुरा सिंह, जो कांस्टेबल के पद से प्रोन्नत होकर सर्किल ऑफीसर बने थे, को दे दिया गया। और आश्चर्य कि उनके चार्ज लेते ही उस सर्किल में नई डकैतियों की संख्या नगण्य हो गई और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने संतोष की साँस ली। एक दिन हम तीन-चार सर्किल ऑफीसर जब आपस में बातें कर रहे थे तो मथुरा सिंह बोले, 'डकैती रोकने में क्या है? मुझे किसी जिले का कोई भी सर्किल दे दिया जाए, मैं एक दिन में डकैती रोक दूँगा।' मैं आश्चर्यचकित था परंतु उनके सामने कुछ बोला नहीं। उनके वहाँ से उठ जाने के बाद दूसरे सर्किल ऑफीसर ने स्वतः बताया, 'डकैती-कंट्रोल में मथुरा सिंह बड़े नामी हैं। पहली मीटिंग में ही थानेदारों को स्पष्ट कर देते हैं कि यदि किसी के थाने में डकैती लिखी गई तो मिस्कंडक्ट एंट्री दिला देंगे और अगर दूसरी लिखी गई तो छोटे दरोगा बनवा देंगे। बस फिर क्या है अगर डकैती के दौरान दो-एक लोग मारे भी जाते हैं तो थानेदार घटना को धारा 396 आई.पी.सी. की जगह धारा 460 आई.पी.सी. में दर्ज करता है, जो चोरी की श्रेणी में रखा जाता है।'

तब मुझे डकैती कंट्रोल का असली रहस्य कुछ-कुछ समझ में आया। और यह भी समझ में आया कि डकैतियाँ तो गाँव-गाँव में रोज पड़ती रहतीं हैं फिर भी आज तक किसी पुलिस अधीक्षक ने वाइस-प्रिंसिपल महोदय की 'कमिट सुइसाइड, रिजा़इन, टेक लीव ऐंड गो होम' की सलाह पर अमल क्यों नहीं किया।

वैसे मथुरा सिंह को मैं आजकल के पुलिस अधिकारियों के पासंग के बराबर भी नहीं मानता हूँ क्योंकि आजकल जब उनकी नियुक्तियाँ माहवारी टेंडर पर हो रही हैं और तब भी डकैती समेत सभी अपराधों का ग्राफ उन्होने मुख्य मंत्री के आदेशानुसार 70 प्रतिशत गिरा दिया है।