भाग 4 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मुकदमा खराब करना हो तो चौकीदार या एस.पी. को गवाही में पेश कर दो

मेरे पिता जी अँगरेजी जमाने के पुलिसवाले थे और थानेदार के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उनके जमाने में एस.पी., जो प्रायः अँगरेज होता था, से बड़े-बड़े लोग घबराते थे। पुलिस विभाग के थानाध्यक्ष भी पूर्वानुमति, जो डिप्टी एस.पी. की संस्तुति पर ही मिलती थी, प्राप्त करने के उपरांत ही एस.पी. के समक्ष पेश हो सकते थे; और फिर एस.पी. से उन्हें डाँट-फटकार या गेट-आउट ही सुनने को मिलता था। अतः जब मैं पी.टी.सी. से आई.पी.एस. का प्रशिक्षण पूरा कर बावर्दी-दुरुस्त अपने गाँव गया था, तो मेरे पिता जी मेरी माँ से हँसकर बोले थे, 'जिनके सामने जाने में परियाँ (घुटने) काँपती थीं, वह अब आँगन में नाच रहे हैं।'

मुझे उस समय प्रसन्नता एवं गर्व दोनों का अनुभव हुआ था। गर्व की भावना मुख्यतः पुलिस सेवा के विभिन्न स्तर के पदों की मान-मर्यादा के अंतर एवं निम्न स्तर के कर्मचारियों द्वारा उच्चधिकारियों के हर प्रकार के आदेशों का अनुपालन करने की प्रथा पर आधारित थी। आगे चलकर यह पदगत भेदभाव, जो प्रशासकीय एवं व्यक्तिगत व्यवहार में सभी पुलिसकर्मियों को स्वीकार्य था एवं सबसे अपेक्षित भी था, मेरे एवं अन्य साथी अधिकारियों के स्वभाव में समा गया था। यह भेदभाव हमारे सामंती समाज के मूल्यों की देन तो था ही, साथ ही साथ अँगरेजों द्वारा भी उसे पोषित किया गया था, क्योंकि शासक और शासित का अंतर बनाए रखने में यह बडा़ कारगर अस्त्र था। मैंने अपने बचपन में एक नौटंकी देखी थी जिसमें जोकर ने एक गाना गाया था, 'खुशामद में ही आमद है, इसी से बड़ी खुशामद है।'

इस पंक्ति में अंतर्निहित भाव प्रायः हम भारतीयों के मानस में सदैव विद्यमान रहता है और प्रशासकों में वह और अधिक पुष्ट हो जाता है। यह भाव जहाँ एक ओर उन व्यक्तियों, जो अपने को हानि अथवा लाभ पहुँचा सकते हैं, को प्रसन्न करने हेतु कृत्य अथवा अकृत्य सब कुछ करने को प्रेरित करता है, वहीं दूसरी ओर पुलिसकर्मियों में घोर अनुशासन की मानसिकता भी उत्पन्न करता है,जो भारतीय समाज में शांति एवं स्थिरता बनाए रखने के हित में आवश्यक है। इसी मानसिकता के कारण वे उच्चाधिकारियों का रुख देखकर कानून-व्यवस्था बनाए रखने हेतु अथवा अपराधियों को दण्डित कराने हेतु असत्यवादन अथवा झूठी गवाही तैयार करने से कतराते नहीं हैं। मैंने अपने सेवा काल के दौरान पाया कि भारतीय परिस्थितियों में, जहाँ जनसाधारण की दिनचर्या तथा राजनैतिक एवं न्यायिक व्यवस्था मुख्यतः असत्य पर आधारित है, अनुशासन का ऐसा भक्तिभाव बहुत हद तक पुलिस कार्य में वांछनीय परिणाम दिलाने में उपयोगी है। मेरा अनुभवजन्य विश्वास है कि पुलिस का पूर्ण रूप से सत्य पर कायम रहना एवं लिखित कानून का दृढ़ता से पालन करना समाज में अराजक तत्वों का वर्चस्व स्थापित करने का कारक बन सकता है, क्योंकि 'लोहा (झूठ एवं फरेब) को लोहा ही काट सकता है।' मुझे एक बड़े अनुभवी पुलिस अधिकारी ने बताया था कि यदि कचहरी में मुकदमा खराब करना (अभियुक्त को सजा़ से बचाना) हो, तो चौकीदार या एस.पी. को गवाही में पेश कर दो - चौकीदार समझ में कमी के कारण कुछ ऐसा बोल देगा कि अभियुक्त छूट जाएगा और एस.पी. सिर्फ सच बोलेगा जिससे अभियुक्त छूट जाएगा।

स्पष्टतः उस पुलिस अधिकारी ने अपने अनुभव से यह ज्ञान अर्जित किया था कि सत्य बोलकर किसी अपराधी को दंडित कराना लगभग असम्भव है। कालांतर में मैंने पाया कि सत्याचरण द्वारा प्रायः सम्भावित शांति-भंग की स्थिति को भी नियंत्रित करना कठिन होता है, क्योंकि नेताओं द्वारा भावावेश उभाड़कर लायी गई भीड़ सत्य से प्रभावित नहीं होती है वरन चाहे असत्य ही क्यों न हो, अपनी मनमाफिक बात सुनकर शांत हो जाती है। मैं वर्ष 1974 में एस.पी., सहारनपुर था और उन दिनों चुनावी माहौल चल रहा था। कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग वहाँ मुस्लिमों में अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने में जुटी हुई थीं। होली के दिन लगभग दस बजे मुझे वायरलेस से सूचना मिली कि एक पुलिस चौकी को मुसलमानों ने घेर रखा है। उनका आरोप है कि एक हाजी की दाढ़ी पर हिंदुओं ने रंग फेंका और आपत्ति करने पर उसकी दाढ़ी पकड़कर इतनी जोर से खींची कि उसकी मृत्यु हो गई। हजारों मुस्लिम उस व्यक्ति को एक चारपाई पर लिटाकर जुलूस बनाकर आए हैं और माँग कर रहे हैं कि हत्यारों को तुरंत पकडा़ जाए नहीं तो खून का बदला खून से लेंगे। चुनावी माहौल में इस प्रकार की घटना को गम्भीर दंगे का रूप लेने में कुछ भी देर नहीं लगती है, अतः मैं अविलम्ब चौकी को चल दिया। वहाँ मैंने जब चौकी इंचार्ज से बात की तो उसने बताया कि उसे पता चला है कि हाजी झूठमूठ मुर्दा बनकर पड़ा है, चुनाव में मुस्लिमों को अपने पक्ष में करने हेतु मुस्लिम लीग वाले दंगा कराने के उद्देश्य से उसे लिटाकर लाये हैं।

मैंने सोचा कि अगर उस समय भीड़ को सच बात बतायी जाए, तो भीड़ के नेता उन्हें किसी प्रकार की सत्यता की जाँच का मौका मिलने से पहले ही दंगा करा देंगे, क्योंकि तथ्य तो केवल नेताओं को ज्ञात होगा, और शेष भीड़ उनके छलावे पर विश्वास कर रही होगी। अतः मैंने भीड़ को सम्बोधित करने से पहले पुलिसजन भेजकर चार साधारण स्तर के लोगों को पकड़वा कर चौकी पर बिठा लिया और फिर कुर्सी पर खड़े होकर भाईचारा पर संक्षिप्त भाषण देते हुए मैंने घोषणा की कि हाजी जी पर रंग डालने और आक्रमण करने वालों को पकड़ लिया गया है। अगर वे चाहें तो दो-दो व्यक्ति अंदर आकर देख सकते हैं। बस फिर क्या था - रोष का आधार ही समाप्त हो गया और भीड़ हाजी जी की चारपाई उठाकर छँटने लगी।

थोड़ी देर बाद संतरी, जो गेट पर खडा़ था, ने आकर बताया कि चौकी से बाहर निकलते ही हाजी जी चारपाई से उतरकर पैदल चलने लगे थे। जिन व्यक्तियों को पकड़कर चौकी पर लाया गया था, उन्हें चाय पिलाकर और होली की बधाई देकर हम लोगों ने विदा कर दिया। बिना बात पकड़े जाने पर बुरा मानने के बजाय वे प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित थे कि पुलिसवालों ने उन्हें न मारा-पीटा, न जेल भेजा और चाय भी पिलाई।