भाग 5 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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पर भई, डंडा तो आप लोगों के हाथ में ही है

जब मैं आई.पी.एस. में चयनित हुआ था, तब मेरे भाई साहब, जो एकाउंट्स ऑफीसर थे, ने बधाई देते हुए एक रोचक किस्सा सुनाया था। उनके घर पर बाथरूम की सफाई हेतु एक आदतन वाचाल जमादारिन आया करती थी। एक दिन ढंग से सफाई न करने पर मेरे भाई साहब ने उससे रूखे होकर कह दिया था कि वह बाथरूम को गंदा न छोड़ा करे। बस वह तुरंत बिफरकर बोलने लगी थी, 'हम तौ ऐसेईं सफा़ई कत्तीं हैं और ऐसेंई करययैं। तुम हमाओ का कर लियौ? तुम तै हम काये डिरांय? तुम का कोई सिपाही हौ, जो डंडा जड़क दियौ?'

उस समय हम लोग इस बात पर बहुत हँसे थे लेकिन पुलिस में आकर मैंने पाया कि जनसाधारण प्रायः उसी व्यक्ति का कहना मानता है एवं उसी के प्रति भक्ति प्रकट करता है, जिसके हाथ में डंडा हो।

इस बात को एक एडवोकेट मित्र ने एक दिन बड़े दार्शनिक ढंग से इस प्रकार कहा था, 'यद्यपि पुलिस लोगों को दंडित कराती है और हम बचाते हैं परंतु इस देश में असली पूजा तो शंकर की ही होती है।'

प्रशासन के विभिन्न विभागों में यह होड़ लगी रहती है कि उनका डंडा औरों से अधिक मोटा रहे। इसके अतिरिक्त जिस विभाग के अधिकारी को मौका मिलता है, प्रायः वह दूसरे विभाग के अधिकारी को नीचा दिखाने में अपना बड़प्पन समझता है। मार्च 1965 में जब मैं फील्ड ट्रेनिंग हेतु जनपद झाँसी में नियुक्त हुआ था, तभी मुझे अनुभव हो गया था कि अधिकारियों में भी यह डंडा संस्कृतिे उसी प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार जमादारिन के मन में थी। मुझे सिखाया गया था कि नई जगह नियुक्ति होने पर मुझे कम से कम एस.पी., डी.एम., डिस्ट्रिक्ट जज एवं सिविल सर्जन के घरों पर सोशल काल अवश्य करनी चाहिए। अतः झाँसी में मैं तत्कालीन जज के यहाँ काल करने गया था। इस दौरान जिज्ञासावश मैंने कुछ ऐसी बात पूछ ली कि जज साहब जनपद स्तर के अधिकारियों के मान-सम्मान पर बोलने लगे थे और आह- सी भरते हुए बोले थे, 'पर भई, डंडा तो आप लोगों के हाथ में ही है।'

झाँसी में ही एक प्रशिक्षणाधीन पी.सी.एस. अधिकारी के साथ मैं शाम को बैडमिंटन खेलने झाँसी क्लब जाया करता था। एक दिन वहाँ मैंने उसे और एक मुंसिफ मैंजिस्ट्रेट को बातचीत करते सुना, 'पता नहीं एस.पी. अपने को क्या समझता है जो डी.एम. से कहकर यह सर्कुलर जा़री करवा दिया कि डी.आई.जी. साहब तीन दिन के लिए झाँसी आ रहे हैं और डाक बँगले में रुकेंगे। जो अधिकारी उनसे मिलना चाहे इस दौरान उन पर काल कर ले। अरे, डी.आई.जी. को तो हम कोर्ट में समन कर सकते हैं।'

यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि इतने जूनियर अधिकारियों द्वारा इतने सीनियर अधिकारी के प्रति इस तरह की बात करना समस्त पुलिस सेवा की बेइज्जती थी, परंतु धीरे-धीरे मेरी समझ में आ गया कि दूसरे को नीचा दिखाने और इस हेतु अपने पद एवं अधिकार का दुरुपयोग करने में ही हम लोग अपनी शान समझते हैं, क्योंकि यह हमारी हीन मानसिकता का तुष्टीकरण करती है। इस विषय में साधारणतः हम सभी तथाकथित जनसेवक एक दूसरे से कम नहीं हैं। कानूनन देखा जाए तो समन करने का यह अधिकार कुछ उसी प्रकार का है जैसा ट्रैफिक कांस्टेबल को किसी की गाड़ी को रोक देने और चालान कर देने का अधिकार है और थानाध्यक्ष को किसी भी व्यक्ति (मजिस्ट्रेट सहित) को बन्दी बना लेने का अधिकार है। वास्तविकता यह है कि विधि-प्रदत्त अधिकार का यदि दुष्प्रयोग न किया जाए तो वह अधिकार कोई अधिकार है ही नहीं, मात्र एक कर्तव्य है। परंतु इस देश के जनसेवक प्रायः अपना बड़प्पन बघारने अथवा जनता को परेशान कर पैसा ऐंठने हेतु विधि-प्रदत्त अधिकारों का जमकर दुष्प्रयोग करते हैं और लज्जाविहीन होकर उसकी डींग भी हाँकते हैं।

लगभग 40 वर्ष पूर्व अयोध्या में सरयू नदी पर बना पुल टूट जाने से कई स्नानार्थियों की मृत्यु हो गई थी। इस प्रकरण की जाँच कमिश्नर स्तर के एक आई.ए.एस. अधिकारी को सौंपी गई थी। वह कमिश्नर साहब डाक बँगले में बैठकर डी.एम. से बात कर रहे थे कि उसी दौरान मैं पहुँच गया और उन्हें बड़ी आत्म-तुष्टि के भाव से कहते सुना, 'जब से इंजीनियरों के कैरेक्टर रोल लिखने का अधिकार डी.एम. से ले लिया गया है, इनके दिमाग बड़े खराब हो गए हैं, अब देखो साले कैसे पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं।' (यह उल्लेखनीय है कि आई.ए.एस. वालों ने मंत्रियों के प्रति अपना भक्तिभाव एवं पारस्परिक लाभ के कार्य में सबसे उच्च कोटि की निपुणता दिखाकर इंजीनियरों का ए.सी. आर. लिखने का अधिकार पुनः प्राप्त कर लिया है और उनमें से अधिकतर उन्हें डंडा दिखाकर करोड़ों के वारे न्यारे कर रहे हैं।)

यद्यपि डंडा अपने पास रखने की यह होड़ हमारे देश की सेवाओं में अँगरेजी जमाने से लगी हुई है, पर आजकल कुछ सेवाओं में शासकों से निकटता के कारण और कुछ पूर्णतः स्वतंत्र एवं स्वच्छंद हो जाने के अभियान में विधि, देशहित अथवा औचित्य की सीमाएँ लाँघकर डंडा हथियाया जा रहा है।