भाग 7 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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बेटा, एस.पी. साहब क्या बाथरूम में हैं?

'कुत्ता मालिक के लिए बडा़ वफादार होता है पर दूसरों पर गुर्राता है।' - यह वाक्य एक मियाँ जी, जो मेरी बर्थ के सामने की बर्थ पर अपने भरे-पूरे परिवार के साथ सिकुड़े-सिमटे बैठे थे, ऐसे कह रहे थे जैसे हवा को सम्बोधित कर रहे हों। अचानक उनके इस प्रकार बोल पड़ने पर मैं उनकी ओर देखने लगा, तो उनकी आँखें देखकर मुझे लगा कि बात का सम्बन्ध मुझसे है। परंतु स्थिति स्पष्ट नहीं हो रही थी, अतः मैं चुप था। मेरी चुप्पी पर मियाँ जी का साहस कुछ बढ़ा और तब वह अपने परिवार वालों से सिपाहियों के व्यवहार के विषय में अपनी भड़ास निकालने लगे।

वर्ष 1965 में इलाहाबाद में नियुक्ति के कुछ दिनों बाद ही मुझे एपेंडिक्स का दर्द हुआ था और मेरे श्वसुर श्री राधेश्याम शर्मा, जो आगरा के एस.एस.पी. थे, ने आपरेशन हेतु तुरंत आगरा चले आने को कहा था। उन दिनों रेलगाड़ियों में फर्स्ट, सेकंड और थर्ड क्लास हुआ करते थे। थर्ड क्लास में सफर करने की दशा में मैं नहीं था और फर्स्ट क्लास का किराया अपने बजट के बाहर की बात थी। इसलिए मैंने सेकंड क्लास का टिक्ट लेने और डिब्बे में एक बर्थ छेंक लेने हेतु दो सिपाही पहले से भेज दिए थे। उन दिनों सेकंड क्लास में रिजर्वेशन नहीं होता था और यह प्रथा बन गई थी कि जो पहले आकर बर्थ पर अपना होल्डाल बिछा देता था बर्थ उसी की हो जाती थी और वही बर्थ पर पैर पसारकर सोता था - बशर्ते वह कोई कमजोर शरीर का अथवा धौंसिया लिए जाने काबिल इनसान न हो। इस कब्जा़ जमाने अथवा उसे हटाने के विषय को लेकर प्रत्येक डिब्बे में प्रतिदिन बहस-मुहावसा, गाली-गलौज एवं धौल-धप्पड़ हो जाती थी। उन दिनों अँगरेजी बोलने वालों की बड़ी धाक थी और अक्सर अँगरेजी बोल सकने वाले मुसाफिर बहस प्रारम्भ होते ही अँगरेजी बोलकर विरोधी मुसाफिर एवं टी.टी. दोनों को मूक बना देते थे और विजयी होकर होल्डाल पर सुख की नींद सोया करते थे। गाड़ी छूटने के टाइम पर मैं जब स्टेशन पहुँचा, तो दोनों सिपाही एक बर्थ पर मेरा होल्डाल बिछाकर बाकायदा कब्जा़ जमाए हुए थे और स्थापित प्रथा के अनुसार मैं जूते उतारकर अपने होल्डाल पर लम्बायमान हो गया। पहले तो कोई कुछ नहीं बोला लेकिन जब गाड़ी चल दी और दोनों सिपाही मुझे 'जय हिंद सर' कहकर चले गए, तब सामने बैठे मियाँ जी अपना क्रोध हवा में उछालने लगे थे। उनके शब्दों से मुझे ऐसा लगा कि सिपाहियों ने खाली बर्थ पर मेरे लिए कब्जा नहीं किया था, वरन मियाँ जी, जो दोनों बर्थों पर कब्जा किए हुए थे, को एक बर्थ से बेदखल किया था। अन्य सभी यात्री भी उनसे सहमत-से प्रतीत हो रहे थे और पुलिस के विषय में जनसाधारण की धारणा के मेरे सामान्य ज्ञान में वृद्धि हो रही थी। मैं अपने पर लज्जा अनुभव कर रहा था और सोच रहा था कि बर्थ पर लेटा रहूँ या बैठ जाऊँ। तभी टी.टी. आ गया और उसे देखकर मियाँ जी एकदम चुप हो गए। मेरा टिकट चेक करने के बाद जब उसने मियाँ जी से टिकट माँगा तो पता चला कि उनकी छह सवारियों के पास तीन टिकट ही हैं क्योंकि उन्होंने 10 वर्ष तक के दो बच्चों को पाँच वर्ष से कम का मानकर टिकट नहीं लिया था और 15-16 साल तक के दो बच्चों को हाफ टिकट पर यात्रा कराना चाहते थे। टी.टी. ने उनकी ऐसी लानत-मलामत की कि उनकी बोलती बंद हो गई और मैं मान्य प्रथा के अनुसार होल्डाल पर आराम से सोता हुआ सुबह आगरा पहुँच गया।

होल्डाल बिछाकर बर्थ पर धड़ल्ले से कब्जा़ करने के जन्मसिद्ध अधिकार का शिकार कभी-कभी पुलिस अधिकारी स्वयं भी हो जाते थे, इस विषय में पुलिस ट्रेनिंग कालेज, मुरादाबाद में नियुक्त एक एस.पी. साहब ने एक मजेदार आपबीती सुनाई थी। एक रात्रि वह फर्स्ट क्लास में मुरादाबाद से लखनऊ की यात्रा कर रहे थे। बरेली में वह सोते से अचानक जाग गए क्योंकि उनके पैरों पर एक भारी-भरकम होल्डाल पटक दिया गया था और पूरे डिब्बे में पुलिस वालों का हड़कम्प मचा हुआ था। जब वह इस हरकत पर कुछ बोले तो एक मोटा तगड़ा आर्म्ड पुलिस का सिपाही गुर्राने लगा, 'हाँ, हाँ, हटाते हैं - अरे, सी.ओ. साहब का होल्डाल है।' एस.पी. साहब ने चुपचाप अपने पैर समेट लेने में ही खैरियत समझी और चुपचाप आगे का नजारा देखने लगे। बात यह थी कि उन दिनों बरेली में सिंहल साहब नाम के एक बड़े फूँ-फाँ वाले सी.ओ. लाइन (ए.एस.पी.) नियुक्त थे। बरेली में पीछे से आने वाले एक यात्री को उतरना था जिसकी बर्थ सी.ओ. लाइन साहब को मिलनी थी परंतु वह यात्री बेखबर सो रहा था। चूँकि फर्स्ट क्लास में बर्थ नम्बर नहीं होता था, अतः पुलिस वाले भ्रमित थे कि सी.ओ. साहब की बर्थ कौन-सी है, अतः उन्होंने इन एस.पी. साहब को दुबला-पतला देखकर उनकी बर्थ पर होल्डाल पटक दिया था।

होल्डाल के शिकार माथुर साहब नाम के एक दुबले-पतले ए.एस.पी., जो प्रथम प्रोन्नति पर एक जनपद के एस.पी. होकर टे्न से गए थे, भी हुए थे। उस समय देखने में वह बिलकुल टीनएजर लगते थे। उस दिन उनके डिब्बे में और कोई यात्री नहीं था और सुबह जब ट्रेन गंतव्य जनपद में पहुँची, तो वह अपने होल्डाल से उठकर डिब्बे के गेट पर खड़े हो गए। एस.पी. साहब को रिसीव करने आए पुलिस अधिकारी उन्हें ढकेलकर डिब्बे के अंदर घुस गए और होल्डाल को खाली देखकर माथुर साहब से बोले, 'बेटा, एस.पी. साहब क्या बाथ रूम में हैं?'