भावों का वर्गीकरण / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भावों का वर्गीकरण / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

भावों के वर्गीकरण का प्रयत्न आधुनिक वैज्ञानिकों ने इधर छोड़-सा दिया है। उन्होंने दो भेद किए हैं-मूल और तद्भव। जिस भाव की अनुभूति किसी दूसरे भाव की पूर्वानुभूति की आश्रित न हो वह मूल भाव है-जैसे, क्रोध, भय, हर्ष, शोक, आश्चर्य। जो दूसरे भाव की अनुभूति के आश्रय से उत्पन्न हो वह तद्भव है-जैसे, दया, कृतज्ञता, पश्चात्ताप इत्यादि। दया के अनुभव के लिए यह आवश्यक है कि दूसरे के शोक या पीड़ा की-सी अवस्था का हम पहले अनुभव कर चुके हों।

भावविधान की सबसे आधुनिक मीमांसा शैंड ने की है। उन्होंने निरूपित किया कि अंत:करण वृत्तियों का विधान भी एक शासनव्यवस्था के रूप में है जिसके अनुसार विशेष-विशेष 'वेग' और 'प्रवृत्तियाँ' विशेष-विशेष 'भावों' के शासन के भीतर रहती हैं और 'भावों' का भी 'भावकोशों' के भीतर न्यास होता है। किसी एक अवसर पर उपर्युक्त तीन अवयवों से युक्त जो चित्तविकार उपस्थित होगा वह तो भाव होगा। पर चित्त में ऐसी स्थिर प्रणाली की प्रतिष्ठा हो जाती है जिसके कारण या जिसके भीतर समय-समय पर कई भावों की अभिव्यक्ति हुआ करती है। इस स्थिर प्रणाली का नाम भावकोश है। इस निरूपण के अनुसार प्रीति (रति) और वैर 'भाव' नहीं है भावकोश मात्र हैं जिनके भीतर स्थितिभेद से अनेक भाव प्रकट होते रहते हैं। 'रति' को ही लीजिए। प्रिय का साक्षात्कार होने पर हर्ष, वियोग होने पर विषाद, उस पर कोई विपत्ति आने से उसे खोने की शंका, उसे दु:ख पहुँचानेवाले को देख क्रोध इत्यादि अनेक भावों का स्फुरण 'रति' की प्रणाली स्थिर हो जाने से हुआ करता है। इन भावों के अतिरिक्त 'रति' की न तो कोई स्वतंत्र सत्ता है और न कोई विशेष स्वरूप। सारांश यह कि रति कोई एक भाव नहीं जिसकी कोई विशेष अनुभूति किसी एक अवसर पर होती हो। प्रीति, वैर, गर्व, अभिमान, तृष्णा, इंद्रियलोलुपता इत्यादि भावकोश ही माने गए हैं। प्रीति आलम्बनभेद से अनेक रूप धारण करती है-जैसे, दांपत्य रति, वात्सल्य रति, मैत्री, स्वदेश-प्रेम, धर्मप्रेम, सत्यप्रेम इत्यादि।

भावकोश से अभिप्राय भावसमष्टि नहीं है बल्कि अंत:करण में संघटित एक प्रणाली मात्र है जिसमें कई भिन्न-भिन्न भावों का संचार हुआ करता है। जैसे, 'रति' की प्रणाली के भीतर जो भाव प्रकट होते हुए कहे गए हैं 'रति' उनसे संयोजित कोई मिश्र भाव नहीं है। इसी प्रकार बैर आदि को भी समझिए। रति या 'प्रीति' के विपरीत गति बैर की है। दोनों के लक्ष्य में भेद है। जिन-जिन भावों की अभिव्यक्ति रतिप्रणाली के भीतर कही गई उन सबकी अभिव्यक्ति बैर प्रणाली के भीतर भी होती है; पर विपरीत स्थितियों में। जैसे बैरी के साक्षात्कार से हर्ष के स्थान पर विषाद, उसके दूर होने से विषाद के स्थान पर हर्ष होता है, इसी प्रकार और सब समझिए। पर बैर को हम इन भावों के मिश्रण से संघटित कोई एक भाव नहीं कह सकते। कहने की आवश्यकता नहीं कि चित्त की ये स्थितियाँ जिन्हें भावकोश कहते हैं स्थायी होती हैं। अत: इनमें लक्ष्यसाधन के लिए बुद्धि या विवेक से काम लेने का अधिक अवकाश प्राप्त रहता है। जैसे, यदि किसी पर क्रोध होगा तो उसपर आक्रमण करने की प्रबल प्रेरणा होगी, चाहे उस समय के आक्रमण से उसकी कोई हानि संभव न हो, हमारी ही हानि संभव हो। पर जिससे बैर होगा उसे हानि पहुँचाने का यत्न खूब सोच-विचारकर बुद्धि की पूरी सहायता लेकर किया जायगा। यहाँ तक कि किस 'भाव' का प्रकाश लक्ष्यसाधन में सहायक होगा और किसका बाधक इसका विचार करके कोई भाव तो प्रकट किया जायगा और कोई दबाया जायगा। भाव में संकल्प वेगयुक्त होते हैं पर भावकोश में धीर और संयत। मनुष्य में शील या आचरण की प्रतिष्ठा भावप्रणाली की स्थापना के अनुसार होती है। इस भावकोश का विधान भावविधान से उच्चतर है, अत: इसका विकास पीछे मानना चाहिए।

अब अपने यहाँ माने हुए साहित्य के भावों का विवेचन करना चाहिए। हमारे यहाँ रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, आश्चर्य, जुगुप्सा और निर्वेद ये नौ भाव गिनाए गए हैं। ध्या न देने की बात यह है कि इनमें से हास, उत्साह और निर्वेद को छोड़ शेष सब भाव वे ही हैं जिन्हें आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने मूल भाव कहा है। निर्वेद को अभावरूप मानकर अभी विवेचन के बाहर रखता हूँ। शेष आठ का ही विचार किया जाता है। ये सब-के-सब 'स्थायी' भाव कहलाते हैं। 'स्थायी' शब्द से आचार्यों का क्या अभिप्राय है यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। स्थायित्व के दो अर्थ हो सकते हैं-

(1) किसी एक भाव का एक ही अवसर पर इस आधिपत्य के साथ बना रहना कि उसके उपस्थितिकाल में अन्य भाव अथवा मनोवेग उसके शासन के भीतर प्रकट हों और वह ज्यों-का-त्यों बना रहे।

(2) किसी मानसिक स्थिति का इतने दिनों तक बना रहना कि उसके कारण भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न भाव प्रकट होते रहें।

कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्यों का अभिप्राय प्रथम प्रकार के स्थायित्व से है क्योंकि 'रति' ही एक ऐसा स्थायी है जिसमें द्वितीय प्रकार का दीर्घकालव्यापी स्थायित्व घटित होता है, शेष में प्रथम प्रकार का स्थायित्व ही पाया जाता है। अत: आठ भावों में से रति भाव ही ऐसा है जो आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से भी 'स्थायी' है। जान पड़ता है कि भोज1 आदि कुछ साहित्य मीमांसकों का ध्या्न रति के इस स्थायित्व की ओर गया था। उन्हें कुछ इस प्रकार भासित हुआ होगा कि रति ही एक मात्र शुद्ध स्थायी है तब तो उन्होंने कहा कि श्रृंगार ही एक मात्र रस है।

अब यहाँ पर यह विचार करना चाहिए कि रति की भावरूप में संचारियों से भिन्न अलग सत्ता है अथवा आधुनिक मनोविज्ञानियों के अनुसार वह एक 'प्रतीतिपद्धति' मात्र है जिसमें भिन्न-भिन्न भाव प्रकट होते रहते हैं। हमारे यहाँ के आचार्यों ने और भावों के समान 'रति' की भी एक निर्दिष्ट भाव के रूप में किसी एक क्षण में अभिव्यक्ति मानी है-

अन्त:करणवृत्तिरूपस्य रत्यादेराशुविनाशित्वेऽपि संस्कारात्मनाचिरकाल स्थायित्वाद्यावद्रसप्रतीतिकालमनुसन्धानाच्च स्थायित्यवम्

-(प्रभा प्रदीप)

1. देखिए, 'श्रृंगार प्रकाश'।

भाव की गतिविधि का पता अनुभावों द्वारा बहुत कुछ मिल सकता है। कुछ मनोविज्ञानियों ने तो अनुभावों को 'भाव' का कार्य न मानकर भाव का स्वगतभेद या अवयव ही माना है। विभाव, अनुभाव और संचारी द्वारा रसव्यंजना होती है यह तो प्रसिद्ध ही है। इसमें से संचारी को छोड़ दें तो वह भावव्यंजना होगी। अत: अनुभाव द्वारा भाव की प्रवृत्ति का पता चल सकता है। पर कभी-कभी कठिनता यह होती है कि संचारी स्वयं स्फुट न होने पर भी अपना अनुभाव प्रकट करता है और वह अनुभाव प्रधान भाव का ही अनुभाव मान लिया जाता है, संचारी का नहीं। जैसे, नायक के स्पर्श से नायिका को यदि रोमांच हो तो वह रोमांच हर्ष से होगा, पर हर्ष रति के कारण हुआ इससे वह रोमांच भी उपचार से रति भाव का ही अनुभाव कह दिया जाता है। ऐसी दशा में यह देखना चाहिए कि रति भाव का अपना कोई अलग अनुभाव होता है या नहीं। श्रृंगार रस का नीचे प्रसिद्ध उदाहरण लीजिए-

शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किद्बिचच्छनै -

निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्यत पत्युर्मुखम्।

विस्त्रब्धंम परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गंडस्थलीं -

लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता।

-अमरुशतक, 72

अर्थात् नवोढ़ा नायिका ने वासगृह को शून्य देखकर शय्या से धीरे-धीरे कुछ उठकर निद्रा के बहाने लेटे हुए पति के मुख को बड़ी देर तक देखा (कि कहीं जागते तो नहीं हैं) फिर (सोता हुआ समझकर) विश्वासपूर्वक चुंबन किया; पर उसके गंडस्थल को (हर्ष से) पुलकित देखकर उस बाला ने लज्जा से मुँह नीचा कर लिया और प्रिय ने हँसते हुए उसका बहुत देर तक चुंबन किया।

इस उदाहरण में नायक का 'पुलक' तो हर्ष का सूचक है, पर चुंबन शुद्ध रतिभाव का अनुभाव है। इससे सिद्ध हुआ कि रति भाव की, संचारियों से भिन्न, अपनी अलग प्रवृत्ति भी होती है। स्पर्श, चुंबन, आलिंगन इत्यादि व्यक्तिगत रति भाव भी बँधी हुई प्रवृत्तियाँ हैं। इसी प्रकार उसका लक्ष्य भी अलग कहा जा सकता है।1 उसका लक्ष्य होता है विषय या आलम्बन के स्वरूप के अनुरूप उसके साथ संयोग। किसी भाव की औरों से अलग 'प्रवृत्ति' और 'लक्ष्य' का पता पाना उसकी सत्ता का पता पाना है। मानसिक अवस्था के विश्लेवषण द्वारा भाव के स्वरूप लक्षण (Static) के

1. इसे प्रापाणक न्याय भी कहते हैं। जिस प्रकार घी, चीनी आदि कई वस्तुओं को एकत्र करने से बढ़िया मिठाई बनती है, उसी प्रकार अनेक उपादानों के योग से सुंदर वस्तु तैयार होने के दृष्टांत में यह उक्ति कही जाती है। साहित्यवाले विभाव, अनुभाव आदि द्वारा रस का परिपाक सूचित करने के लिए इसका प्रयोग बराबर करते हैं। -हिंदी शब्दसागर, पृष्ठ 908।

स्थान पर उस अवस्था के साथ संश्लिष्ट् व्यापार आदि के निर्देश द्वारा तटस्थ लक्षण (Dynamic) विवृति ही आजकल के मनोविज्ञानी अधिक समीचीन समझते हैं। उनका कथन है कि किसी 'भाव' के अंतर्गत बहुत से मानसिक विकारों का सन्निवेश हो सकता है, पर उन सब विकारों के कथन से उस 'भाव' की प्रतीति का पूर्ण स्वरूप नहीं निरूपित होता है। जैसे, ईष्या के अंतर्गत बाधित अभिमान, क्रोध, विषाद अपनी उन्नति से नैराश्य इत्यादि कई भावों का गूढ़ न्यास पाया जाता है। पर ये सब चित्तविकार उस भाव की ठीक-ठीक प्रतीति नहीं करा सकते जिसे ईष्या कहते हैं। 'पानकरसन्याय' से ही उसकी प्रतीति होती है जो केवल आस्वाद्य है अर्थात् प्रत्यक्षानुभावगम्य है, शब्दगम्य नहीं।

उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध हुआ कि जिसे 'रति स्थायी' कहते हैं वह तो सचमुच कोई एक 'भाव' नहीं है, पर उसका प्रकृत मूल कोई एक भाव अवश्य है जिसकी स्थायी दशा का नाम है रति या प्रीति। जिस प्रकार एक भावविधान के भीतर वासना के रूप में कुछ प्रवृत्तियाँ अंतर्हित रहती हैं उसी प्रकार भावप्रणाली या भावकोश के भीतर उसकी नींव देनेवाला मूलभाव भी अंतर्हित रहता है, केवल विषयोत्ते जन पाकर प्रतीति काल मंस अभिव्यक्त हुआ करता है। शैंड आदि मनोविज्ञानियों ने इस बात पर ध्या‍न नहीं दिया कि प्रत्येक 'भाव' उस स्थायी अंतर्हित दशा को प्राप्त कर सकता है जिसे 'भावकोश' या स्थायी कहते हैं। क्रोध को ही लीजिए। क्रोध की ही 'स्थायी दशा' बैर है जिसमें जैसे अनेक भावों की अभिव्यक्ति होती है वैसे ही क्रोध की भी हो जाया करती है। अत: क्रोध वास्तव में स्थायी भाव नहीं है, स्थायी भाव है बैर। इसी से प्रीति के मुकाबले में बैर ही का नाम लिया जाता है, जैसे-'बैर प्रीति नहिं दुरत दुराए'।-(तुलसी)।

अब यह निश्चय करना रह गया कि रति या प्रीति नाम की पद्धति का मूल संस्थापक भाव क्या कहा जा सकता है। मैं तो उसे राग कहना अच्छा समझता हूँ। लोभ भी कह सकते हैं। किसी व्यक्ति या वस्तु पर 'लुभाना' बोलचाल में भी बराबर आता है। 'प्रीति' के अर्थ में 'लोभ' शब्द योरप की सैक्सन आदि प्राचीन भाषाओं में गया और अँगरेजी में 'लव' (Love) के रूप में अबतक बना है।1 इससे यह प्रकट होता है कि बोलचाल की प्राचीन आर्यभाषा में 'पूर्वराग' को लोभ शब्द से व्यक्त करते थे। और भावों के समान किसी एक अवसर पर व्यक्तिगत लोभ या राग की प्रवृत्ति का प्रकाश होता है इस बात को हमारी भाषा ही पुकार कर कह रही है। किसी बच्चे पर जब कोई हाथ फेरता हुआ उसे चूमता-पुचकारता है तब लोग कहते हैं कि वह उसे 'प्यार कर रहा है', ठीक उसी प्रकार जैसे जब कोई किसी की ओर लाल ऑंखें करके कड़े स्वर से बोलता है तब कहा जाता है कि वह क्रोध कर रहा है।

1. मिलाइए, 'लोभ और प्रीति' निबंध से।

यह एक बँधी हुई बात है कि जिन तथ्यों या भावनाओं के लिए किसी भाषा में शब्द हैं उनकी ओर तो उस भाषा के बोलनेवालों का ध्याओन जाता है; पर जिनके लिए शब्द नहीं हैं उनकी ओर बहुत कम जाता है। बहुत से ऐसे भाव या मानसिक अवस्थाएँ हैं जिनके लिए एक भाषा में शब्द हैं, दूसरी में नहीं। 'ग्लानि' और 'संकोच' शब्द लीजिए जिनके ठीक-ठीक तात्पर्य को प्रकट करनेवाले शब्द अँगरेजी में नहीं हैं। मनोविज्ञान के भावनिरूपण में यह बात सबसे अधिक लक्षित होती है। अत: हिन्दी में इस विषय पर जो ग्रन्थ लिखे जायँ उनमें अपने यहाँ के उन सब शब्दों पर पूर्ण विचार किया जाय जो भावों या मानसिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। इस प्रणाली के अवलंबन से इस बात की बहुत कुछ आशा है कि हम भी कुछ नया रंग-ढंग ला सकेंगे। केवल ऑंख मूँदकर अँगरेजी के शब्दों का अनुवाद कर जाने से न तो काम ही चलेगा और न हमारा पुरुषार्थ ही प्रकट होगा। 'भावुकता' का विकास पाश्चात्यों की अपेक्षा पूर्वीय जातियों में अधिक हुआ है। इसके लिए हम दुनियाँ में बदनाम हैं। अत: मनोविज्ञान के और अंगों में न सही, भावनिरूपण में औरों की अपेक्षा हम शायद कुछ कर सकें। भाषा का 'भावनाओं' के साथ इतना घनिष्ठ संबंध है कि शब्दसंकेत के सहारे पर विचारों के लिए बहुत कुछ मार्ग खुलता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न, न भिन्न।

जैसा कहा जा चुका है-प्रत्येक 'भाव' स्थायी दशा को प्राप्त हो सकता है पर सबकी स्थायी दशा समान रूप से परिस्फुट नहीं होती। इससे कुछ के लिए तो निर्दिष्ट शब्द हैं, कुछ के लिए नहीं। नीचे भावों के सामने उनकी स्थायी दशाएँ दी जाती हैं-

भाव स्थायी दशा

राग रति

हास ×

आश्चर्य ×

शोक संताप

क्रोध बैर1

भय आशंका

जुगुप्सा विरति

1. क्रोध और बैर के संबंध का आभास एंजिल ने भी क्रोध की प्रवृत्ति के वर्णन में इस प्रकार दिया है-

(1) We are angry at the open insult and i perhaps moved to enduring hatred by the obnoxious and in scrupulous enemy. Page 351.

(2) When anger is deliberate and, develops hate. Shand Page 37.

इनमें से रति, बैर और विरति तो पूर्णतया परिस्फुट हैं। उनके अस्तित्व में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। शोक और भय की स्थायी दशाओं के लिए जो शब्द रखे गए हैं संभव हो वे ठीक न हों, पर उन दशाओं का अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी इष्ट व्यक्ति या वस्तु की हानि, पीड़ा या दुर्दशा से जो शोक उत्पन्न होता है वह मन में घर कर लेता है और 'संताप' के रूप में बराबर बना रहता है। किसी मृत व्यक्ति या नष्ट वस्तु के संबंध में कभी-कभी संताप की ऐसी प्रणाली स्थापित हो जाती है कि हम समय-समय पर उसके लिए ऑंसू बहाया करते हैं, ठंडी साँसें लिया करते हैं। अपने मित्र के साथ बैठकर जिस स्थान पर हम बातचीत या हँसी-ठट्ठा किया करते थे, मित्र के न रहने पर उस स्थान से होकर जब कभी हम जा निकलते हैं चित्त की दशा कुछ और ही हो जाया करती है। इस दशा का दौरा कुछ लोगों के जीवन-भर में हुआ करता है। इसी प्रकार जिसका 'भय' मन में समा जाता है और स्थान कर लेता है उसकी आशंका बराबर बनी रहती है। भय के संचारियों में 'शंका' भी रखी गई है और उसका अर्थ 'अनर्थ का तर्कण'1 कहा गया है। पर तर्कण बुद्धि का व्यापार है। भावप्रणाली या भावकोश के प्रसंग में कहा जा चुका है कि बुद्धि की सहायता का अवकाश किसी एक भाव के प्रतीतिकाल में वैसा नहीं रहता जैसा उस भाव की स्थायी दशा में रहता है। भय की तीव्र अनुभूति के साथ तो अनर्थ का चित्र ही एकबारगी मन के सामने आ जायगा, तर्कण का अवकाश कहाँ रहेगा? अत: 'शंका' यदि केवल कल्पना के रूप में है (जैसे वह कहीं आता न हो) तो उसे 'भाव' का संचारी समझिए और यदि तर्कण के रूप में है (जैसे यदि वहाँ जाकर छिपते हैं तो भी उसके मित्र वहाँ कई एक हैं, उसे पता लग जायगा) तो उसे भाव की स्थायी दशा का संचारी समझिए।

अब रहे हास और आश्चर्य जिनकी दशाएँ इतनी व्यक्त नहीं हैं कि उनके अलग नाम रखे जायँ। जिसकी बेढंगी चाल या बेढंगी बातों पर हम हँसा करते हैं उसके प्रति प्राय: चित्त की ऐसी स्थायी दशा हो जाती है कि उसका ध्याहन या प्रसंग आने पर हमें बराबर हँसी आ जाया करती है। हम उसे बराबर विनोद की दृष्टि से देखा करते हैं। वह जिंदगी-भर हमारे लिए एक खिलौना या तमाशा-सा रहता है। उसके साथ हमारा एक प्रकार का विनोद संबंध स्थापित हो जाता है। हास्य में किसी और भाव या चित्त विकार की गुंजाइश संचारी के रूप में होती है या नहीं इसका विचार आगे किया जायगा। आश्चर्य के संबंध में भी वही बात कही जा सकती है जो हास के संबंध में कही गई है। जिस व्यक्ति या वस्तु की लोकोत्तर असाधारणता

1. परक्रौर्यात्मदोषाद्यै : शंकानर्थस्यतर्कणम्,

साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 191।

से हमें आश्चर्य हुआ उसके संबंध में कभी-कभी आश्चर्य की प्रणाली स्थापित हो जाती है और हमारे हृदय की ऐसी स्थिति हो जाती है कि हम उसे जब कभी देखते हैं या उसका जब कभी ध्या न करते हैं तब लोकोत्तर महत्त्व के आरोप के साथ। यहाँ तक कि हृदय की ऐसी स्थायी स्थिति में किसी प्रकार की बाधा हमें असह्य होगी और जो कोई उस व्यक्ति या वस्तु को साधारण कहेगा उससे हम लड़ खड़े होंगे। महात्माओं के संबंध में जो अलौकिक कथाओं का ढेर लग जाता है वह मनुष्य की इसी मानसिक स्थिति के प्रसाद से।

इस बात की ओर एक बार फिर ध्या न दिला देना मैं आवश्यक समझता हूँ कि जिस प्रकार रति, बैर और विरति नाम की स्थायी दशाएँ अधिक परिस्फुट होने के कारण अपने मूल भावों से कुछ विशिष्ट प्रतीत होती हैं उसी प्रकार बाकी चार स्थायी दशाएँ नहीं, इसी से मनोविज्ञानियों का ध्या न उनकी ओर नहीं गया और इसी से हमारे यहाँ के साहित्यिक भावनिरूपण में भी प्रत्येक 'भाव' की स्थायी दशा उस प्रकार परिस्फुट नहीं की गई है जिस प्रकार राग की स्थायी दशा 'रति'। पर क्रोध की स्थायी दशा बैर भी इस प्रकार परिस्फुट किया जा सकता है कि प्राय: वे सब सुखात्मक या दु:खात्मक चित्तविकार जो 'रति' के संचारी होकर आते हैं उसके भी संचारी होकर आएँ। जैसे, जिसके साथ बैर है उसके निधन या कष्ट पर हर्ष, उसकी विजय या सफलता पर विषाद, उसकी विभूति देख-सुनकर ईष्या, उसके विरूद्ध अपने प्रयत्न के विफल होने पर लज्जा, उसकी संभावित हानि के संबंध में औत्सुक्य, उसकी की हुई हानि को देखकर उसकी स्मृति, इस प्रकार धृति, चपलता, चिंता इत्यादि सब संचारी भाव आ सकते हैं। काव्यों में इनके उदाहरण बराबर पाए जायँगे। यह बात ध्यापन में रखनी चाहिए कि मूल भाव अपनी स्थायी दशा का संचारी होकर बराबर आया करेगा ठीक उसी प्रकार जैसे 'भाव' के प्रतीतिकाल के भीतर उसी की कुछ अंतर्दशाएँ (जैसे त्रास, अमर्ष) संचारी के रूप में आती हुई कही गई हैं। दूसरी बात ध्याभन देने की यह है कि 'अनुभाव' भाव ही के हुआ करते हैं (चाहे प्रधान के हों या संचारी के) उसकी स्थायी दशा के नहीं-अर्थात् 'अनुभाव' जब प्रकट होंगे तब किसी भाव या उसके संचारी के प्रतीतिकाल में।

कोई भाव अपनी भावदशा में ही है या स्थायी दशा को प्राप्त हुआ है इसकी पहचान संचारियों में हो सकती है। कोई भाव या वेगयुक्त चित्त विकार या तो सुखात्मक होगा या दु:खात्मक। भावदशा में सुखात्मक भाव का संचारी सुखात्मक भाव या चित्त विकार ही होगा और दु:खात्मक का दु:खात्मक। बात यह है कि सुखात्मक भाव के अनुभव काल में दु:खात्मक चित्तविकार के आ जाने से और दु:खात्मक के अनुभव काल में सुखात्मक चित्तविकार के आ जाने से भाव बाधिात होकर तिरोहित हो जायगा। पर स्थायी दशा प्राप्त होने पर यह बात नहीं रहती। स्थायी दशा को विरूद्ध या अविरूद्ध कोई भाव संचारी रूप में आकर तिरोहित नहीं कर सकता।1 स्थायी का यह लक्षण ग्रंथों में स्वीकार किया गया है पर 'रति' को छोड़ (जो 'राग' की स्थायी दशा है) क्रोध आदि भावों में यह लक्षण नहीं घटता। सुखात्मक भावों से निष्पन्न हास्य, वीर और अद्भुत रसों के संचारियों में कोई दु:खात्मक भाव या चित्तविकार न मिलेगा; इसी प्रकार दु:खात्मक भावों से निष्पन्न करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स रसों के संचारियों में हर्ष आदि सुखात्मक भाव या चित्तविकार न मिलेंगे।

ऊपर के स्थायित्व विवेचन में 'उत्साह' छोड़ दिया गया है। उत्साह की स्थायी दशा का अनुसंधान करने में हमें एक दूसरी ही कोटि का स्थायित्व मिलता है जिससे मनुष्य के स्वभाव का निर्माण होता है। अब तक जिस स्थायित्व का विचार किया गया वह एक ही आलम्बन के प्रति था। पर किसी भाव के प्रकृतिस्थ हो जाने पर वह एक ही आलम्बन से बद्ध नहीं रहता, समय-समय पर भिन्न-भिन्न आलम्बन ग्रहण करता रहता है। यदि राग या लोभ प्रकृतिस्थ हो गया है तो वह किसी एक ही व्यक्ति या वस्तु के प्रति रति या प्रीति के रूप में परिमित न रहेगा, अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं की ओर लपका करेगा और अपने आश्रय को प्रेमी, रसिक अथवा लोभी, लंपट आदि लोक से कहलाएगा। इसी प्रकार यदि क्रोध प्रकृतिस्थ हो गया है तो एक ही व्यक्ति के प्रति 'बैर' के रूप में न टिकेगा, बल्कि अनेक व्यक्तियों के प्रति समय-समय पर प्रकट हुआ करेगा जिससे मनुष्य क्रोधी या चिड़चिड़ा कहलाएगा। जिस किसी की प्रकृति में शोक या विषाद ओतप्रोत हो जायगा उसमें यदि केवल अपने ही दु:ख या हानि के अनुभव की सामर्थ्य होगी तो वह अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से खिन्नता प्राप्त किया करेगा और रोना, मनहूस या मुहर्रमी कहलाएगा और यदि उसमें दूसरों की हानि या दु:ख की अनुभूति की वृत्ति प्रबल होगी तो दयावान् कहलाएगा। इसी प्रकार किसी एक ही व्यक्ति या वस्तु से नहीं अनेक-अनेक अवसरों पर अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं से डरनेवाले को भीरु या डरपोक, बात बात पर हरएक आदमी को देखकर हँसनेवाले को हँसोड़ या ठट्ठेबाज, हरएक वस्तु से नाक सिकोड़नेवाले को छिनछिना या तुनकमिजाज तथा जितनी वस्तुएँ सामने आयँ उनमें से बहुतों को देख चकपकाने या आश्चर्य करनेवाले को चकपका या कौआ कहते हैं।

भाव के इस प्रकार प्रकृतिस्थ हो जाने की अवस्था को हम शीलदशा कहेंगे।

उत्साह का अर्थ है साहस की उमंग जो किसी कठिन कर्म की ओर प्रवृत्त करती है। उत्साह में आलम्बन और लक्ष्य स्थिर और परिस्फुट नहीं होते इसी से

1. अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षम:।

आस्वादांकुरकन्दोऽसौ भाव: स्थायीति संमत:॥

-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 174।

मनोविज्ञानियों ने प्रधान भावों की गिनती में उसे नहीं रखा है। यद्यपि ग्रन्थों में प्रतिमल्ल, दानपात्र और दयापात्र को उत्साह का आलम्बन कहा गया है पर भाव के अनुभूति काल में इन व्यक्तियों की ओर वैसा ध्यातन नहीं रहता जैसा और भावों के प्रतीति काल में रहता है। किसी शत्रु के विरूद्ध यात्रा के समय किसी योद्धा के हृदय में जो उमंग होती है उसमें अपने पराक्रम का ध्याून प्रधान रहता है; शत्रु का नहीं। दिग्विजय या अश्वउमेध की यात्रा के आरंभ में कोई शत्रु निश्चित नहीं रहता पर उत्साह बराबर प्रकट किया जाता है जिससे श्रोता या दर्शक को वीर रस की पूर्ण अनुभूति होती है। इसी प्रकार दानवीर या दयावीर में यदि दानपात्र की ओर ध्यानन प्रधान माना जाय तो भक्ति या करुण का भाव प्रधान होगा इससे उत्साह के यदि आलम्बन हो सकते हैं तो युद्ध, दान, दया आदि के कर्म।1 धर्मवीर में तो धर्म अर्थात् धर्मकार्य को आलम्बन मानना ही पड़ा है। किसी एक कर्म की विद्यमानता एक अवसर के आगे नहीं रह सकती। उत्साह के एक अवसर के उपरांत दूसरे अवसर पर कर्म भी दूसरा हो जायगा। इस कारण उत्साह जब अनेकावसर व्यापी स्थायित्व की ओर चलेगा तब वह 'शील दशा' को ही प्राप्त समझा जायगा। और भावों के समान किसी एक आलम्बन के प्रति उसकी 'स्थायी दशा' नहीं कही जा सकती। जो वीर होगा वह किसी एक ही व्यक्ति के प्रति नहीं, उपयुक्त व्यक्तिमात्र के साथ वीरता दिखलानेवाले ही वीर कहलाते हैं।

'भाव' के संबंध में यह कहा जा चुका है कि वह आलम्बनप्रधान होता है अर्थात् उसमें आलम्बन की भावना 'प्रत्यय' के रूप में परिस्फुट होती है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक भाव एक ही आलम्बन के प्रति स्थायी दशा को प्राप्त हो सकता है। जब कि ये बातें उत्साह में नहीं घटतीं तो वह मन का वेग मात्र है। फिर आचार्यों ने उसे प्रधान भावों की गिनती में रखा क्यों? संचारियों में क्यों न डाल दिया? रस में उसकी प्रयोजकता के विचार से। आश्रय या पात्र में उसकी व्यंजना द्वारा श्रोता या दर्शक को ऐसा विविक्त रसानुभव होता है जो और रसों के समकक्ष है।

इस बात का ध्याैन रखना चाहिए कि साहित्यिकों का सारा भावनिरूपण रस की दृष्टि से है। 'दयावीर' को लीजिए जो कि एक संकर भाव है। उसमें प्रधान भाव तो रहता है करुणा या दया का, पर उसके साथ 'उत्साह' का भी योग हो जाता है। पहले हमें किसी व्यक्ति के दु:ख पर दया उत्पन्न होकर ऐसे कर्मों की प्रेरणा उत्पन्न करती है जिनसे उसका दु:ख दूर हो सकता है। यदि कर्म साधारणतया साध्य हुआ तब तो दया के अतिरिक्त और भाव या मनोवेग की सहायता अपेक्षित नहीं होती पर यदि कर्म दु:साध्या, कष्टकर या असाधारण हुआ तो साथ ही एक और दूसरे मनोवेग अर्थात् साहस की उमंग (उत्साह) का योगदान आवश्यक होता है।

1. Interest transfered from the end to the means.

यहाँ पर शंका उठती है कि जब प्रधान प्रवर्तक दया या करुणा है तब आचार्यों ने 'दयावीर' को उत्साह या वीर रस के अंतर्गत क्यों रखा? दयावीर के लिए दया को

प्रधान भावों में क्यों नहीं गिन लिया? यहाँ पर भी कहना पड़ता है कि रस की दृष्टि से। आश्रय द्वारा व्यक्त किया हुआ भाव साधारणीकरण के प्रभाव से श्रोता या दर्शक में भी उसी भाव की रसरूप में अनुभूति उत्पन्न करता है। आश्रय के शोक या दु:ख का अनुभव श्रोता या दर्शक के हृदय में परदु:खजन्य दु:ख अर्थात् दया या करुणा के रूप में होगा। इसी प्रकार और 'भावों' के अनुभव भी साधारण्य से ही अर्थात् सहानुभूति के रूप में ही श्रोता या दर्शक में माने गए हैं। अत: रसनिष्पत्ति के लिए आश्रय द्वारा व्यंजित प्रधान भाव सहानुभूत्यात्मक नहीं रखा गया है। साधारणीकृत भाव का फिर रसरूप में साधारणीकरण ठीक नहीं समझा गया।

उपर्युक्त विवेचन का संक्षिप्त परिणाम यह निकला कि जिन्हें साहित्य में भाव कहते हैं उनकी तीन दशाएँ मिलती हैं-भावदशा, स्थायीदशा और शीलदशा। नीचे तीनों दशाओं का चक्र दिया जाता है-

एक अवसर पर एक अनेक अवसरों पर एक अनेक अवसरों पर अनेक

आलम्बन के प्रति आलम्बन के प्रति आलम्बन के प्रति

भावदशा स्थायीदशा शीलदशा

राग रति स्नेहशीलता, रसिकता,

लोभ, तृष्णा, लंपटता

हास (अनभिधोय) हँसोड़पन,विनोदशीलता

उत्साह × वीरता, तत्परता

आश्चर्य (अनभिधोय) भौचक्कापन

शोक संताप खिन्नता

क्रोध बैर क्रोधशीलता, उग्रता,

चिड़चिड़ापन

भय आशंका भीरुता

जुगुप्सा विरति तुनकमिजाजी

इस तालिका में 'शीलदशाओं' के नाम स्थायीदशाओं से भिन्न देखकर यह न समझना चाहिए कि नामभेद सर्वत्र ही मिलेगा। श्रद्धाभक्ति किसी में एक व्यक्ति के प्रति होती है तब भी लोग कहते हैं कि 'उसमें अमुक के प्रति श्रद्धा है' और बड़ों के प्रति सामान्यत: होती है तब भी कह दिया जाता है कि 'उसमें बड़ों के प्रति श्रद्धा है-यह नहीं कहा जाता है 'बड़ों के प्रति श्रद्धाशीलता है'। पर 'वह श्रद्धावान् है' इतना कहने से ही यही समझा जाता है कि वह श्रेष्ठ व्यक्तियों (आचार्य आदि) या वस्तुओं (जैसे धर्म) के प्रति साधारणत: श्रद्धा रखनेवाला है। शीलदशाओं का समूह बहुत बड़ा है। आलम्बनप्रधान अर्थात् प्रत्ययबोधाश्रित मुख्य भावों से ही शीलदशा की प्रतिष्ठा नहीं होती, 'भावदशा' तक न पहँचनेवाले मन के वेगों और प्रवृत्तियों के चिराभ्यास से भी भिन्न भिन्न शीलदशाएँ मनुष्य की प्रकृति में प्रतिष्ठित होती हैं-जैसे, आलस्य से आलसीपन, लज्जा से लज्जाशीलता, अवहित्था से दुराव का स्वभाव, असूया से ईष्यालु प्रकृति इत्यादि। इसी प्रकार संकोचशीलता; स्पर्द्धाशीलता, जो वस्तु देखी उसे अपनाने की प्रकृति इत्यादि अनेक प्रकार की शीलदशाओं का विधान भिन्न-भिन्न वेगों और प्रवृत्तियों के पकड़ने से होता है। मनोविज्ञानियों ने 'स्थायीदशा' और 'शीलदशा' के भेद की ओर ध्याोन न देकर दोनों प्रकार की मानसिक दशाओं को एक ही में गिना दिया है। इन्होंने रति, बैर, धनतृष्णा, इंद्रियपरायणता, अभिमान इत्यादि सबको स्थायी भावों की कोटि में डाल लिया है। पर मैंने जिस आधार पर भेद करना आवश्यक समझा है उसका विवरण ऊपर दिया जा चुका है।

अब काव्य में इन तीनों दशाओं का उपयोग किस प्रकार होता है इस पर थोड़ा विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। लक्षणग्रंथों में रसव्यंजना की जो परिपाटी बताई गई है उसका पालन तो अपनी अंतर्दशाओं (संचारियों) के सहित दशाभाव से ही हो जाता है। 'राग' ही 'रति स्थायी' के रूप में अधिकतर देखा जाता है और भाव प्राय: नहीं। पर यह दिखाया जा चुका है कि बैर (क्रोध की स्थायीदशा) इत्यादि का रसपूर्ण वर्णन भी इस प्रकार हो सकता है कि उसमें वे सब संचारी प्राय: आ जायँ जो रति में आते हैं। इस प्रकार और भावों की 'स्थायीदशाओं' को भी लेने से 'रसक्षेत्र' का विस्तार बढ़ जाता है। जैसे, यदि कोई शत्रु पर कुपित होकर तत्काल लाल ऑंखें किए उसकी ओर दौड़ पड़े तो यह दौड़ना या झपटना भावदशा के अनुभाव के अंतर्गत होगा; पर यदि वह बैठकर शत्रु के नाश का उपाय स्थिर करता है और फिर उन उपायों के साधन में धीरता के साथ प्रवृत्त होता है तो उसका यह व्यापार क्रोध की स्थायीदशा 'बैर' के अंतर्भूत होगा। राम का समुद्रतट पर बैठकर धीरतापूर्वक सेतु बँधवाना 'अनुभाव' के अंतर्गत नहीं कहा जा सकता (क्योंकि अनुभाव किसी भावदशा में ही होता है) पर धैर्य अवश्य व्यंजित करता है, जो क्रोध की भावदशा से नहीं प्रकट हो सकता। यह सूचित किया जा चुका है कि 'स्थायीदशा' में भाव का अधिकार बुद्धि पर भी हो जाता है अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति भी 'भाव' के आदेश पर परिचालित होने लगती है। यहाँ पर जिज्ञासा हो सकती है कि क्या बुद्धि की क्रिया का सारा ब्योरा भी भावविधान के अंतर्गत आ जाता है। नहीं; भावविधान के अंतर्गत केवल 'बुद्धि का क्रिया करना' यह बात होती है, स्वयं क्रिया नहीं। केवल बुद्धि की विलक्षणतासूचक जो बातें होती हैं वे 'रस' में नहीं घुलतीं। घटनाक्रमप्रधान आख्यानों (उपन्यास, कहानी आदि) में तो वे अच्छी तरह खप जाती हैं, पर रसप्रधान प्रबंधकाव्यों में वे रस का परिपोषण नहीं करतीं।

'शीलदशा' का उपयोग काव्य में कहाँ तक होता है, अब यह देखना चाहिए। यों देखने में रसयोजना में उसका प्रत्यक्ष संबंध नहीं दिखाई पड़ता। रूढ़ि के अनुसार पूर्ण रस की निष्पत्ति में 'अनुभाव' आवश्यक होता है और अनुभाव केवल 'भावदशा' का व्यंजक होता है। मुक्तक या उद्भट में जो रस की रस्म अदा की जाती है उसमें शीलदशा का समावेश नहीं होता। उसका उद्देश्य तो क्षणिक मनोरंजन मात्र होता है। पर उच्च लक्ष्य रखनेवाले, मनुष्य की प्रकृति का संस्कार या निर्माण करने की सामर्थ्य रखनेवाले प्रबंधकाव्य या नाटक के चरित्रचित्रण का आधार 'शीलदशा' ही है। रामायण में राम की धीरता और गम्भीरता, लक्ष्मण की उग्रता और असहनशीलता, बड़ों के प्रति भरत की श्रद्धाभक्ति इत्यादि का चित्रण भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के प्रति किए हुए व्यवहारों के मेल से ही हुआ है। आलम्बन का स्वरूप संघटित करने में उपादानरूप होकर 'शीलदशा' रसोत्पत्ति में पूरा योग देती है। आश्रय की दृष्टि जिस प्रकार आलम्बन के बाह्य रूप पर जाती है उसी प्रकार उसके आभ्यंतर स्वरूप पर भी जाती है। उस आभ्यंतर स्वरूप की योजना भिन्न-भिन्न 'शीलों' से ही होती है। आलम्बन के रूप की धारणा से जिस प्रकार आश्रय में अश्रु, पुलक आदि अनुभाव प्रकट होते हैं उसी प्रकार उसके शील की धारणा से भी। जिसमें शील को देख-सुनकर इस प्रकार ये अनुभाव न प्रकट हों गोस्वामी तुलसीदासजी उसे जड़ समझते हैं। वे साफ कहते हैं कि-

'सुनि सीतापति सील सुभाउ।

मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ॥'

इतनी चेतावनी देकर गोस्वामीजी राम के शील स्वभाव को इस प्रकार विशद रूप में अंकित करते हैं-

सिसुपन तें पितु मातु बंधा गुरु सेवक सचिव सखाउ।

कहत राम बिधुबदन रिसौहैं सपनेहु लख्यो न काउ॥

खेलत संग अनुज बालक नित जोगवत अनट अपाउ।

जीति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ॥

सिला साप संतापबिगत भइ परसत पावन पाउ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय चरन छुए को पछिताउ॥

भवधनु भंजि निदरि भूपति, भृंगुनाथ खाइ गए ताउ।

छमि अपराध छमाइ पायँ परि, इतो न अनत अमाउ॥

कहयो राज, बन दियो नारिबस, गलि गलानि गयो राउ।

ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों निज तनु मरम कुघाउ॥

कपि सेवा बस भए कनौड़े, कहयो पवनसुत आउ।

दैबे को न कछू ऋनियाँ हौं, धनिक तु पत्रा लिखाउ॥

अपनाए सुग्रीव विभीषन, तिन न तज्यो छल छाउ।

भरत सभा सनमानि सराहत होत न हृदय अघाउ॥

निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।

सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत सुनत, कहत 'फिरि गाउ'॥

-विनयपत्रिका-100।