स्थायी / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
स्थायी / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
पहले कह आए हैं कि भावों के वर्गीकरण का प्रयत्न मनोविज्ञानियों ने इधर छोड़-सा दिया है। पर काव्य के प्रयोजन के लिए कोई ऐसा वर्गविधान अवश्य होना चाहिए जिसके आधार पर रसविरोध तथा विरूद्ध, अविरूद्ध संचारियों की व्याख्या हो सके। भाव के लक्षण में कहा जा चुका है कि उसमें अनुभूति संश्लिष्टि रहती है। अनुभूति दो प्रकार की हो सकती है, सुखात्मक और दु:खात्मक। इसी के अनुसार भावों के दो वर्ग किए जा सकते हैं-सुखात्मक और दु:खात्मक। प्रेम, उत्साह, श्रद्धा, भक्ति, औत्सुक्य, गर्व आदि के साथ सुखात्मक अनुभूति लगी रहती है इससे ये सुखात्मक हैं। शोक, क्रोध, भय, घृणा, लज्जा, उग्रता, अमर्ष, असूया, विषाद इत्यादि दु:खात्मक हैं। नीचे आठों भाव दोनों वर्गों में विभक्त करके दिए जाते हैं-
सुखात्मक वर्ग में जो चार भाव रखे गए हैं उनमें 'राग' और 'हास' के सुखात्मक होने में कोई संदेह हो ही नहीं सकता। 'उत्साह' भी सुखात्मक भाव है उसकी सूचना हर्ष, धैर्य आदि संचारी भाव भी दे रहे हैं और शब्दार्थ के संबंध में लोकप्रवृत्ति भी। साधारण बोलचाल में 'उत्साह' या 'उछाह' से आनंद या आनंद की उमंग का ही अर्थ लिया जाता है। आश्चर्य के संबंध में दो प्रश्न् उठाए जा सकते हैं-
(1) क्या दु:खात्मक अनुभवपूर्वक इसकी प्रतीति नहीं होती?
(2) इसे सुख और दु:ख दोनों से उदासीन क्यों न कहें?
पहले प्रश्न के संबंध में यह कहना कि दु:खदायी वस्तुएँ भी अद्भुत हो सकती हैं पर यहाँ आलम्बन के किसी स्वरूपविशेष की सत्तामात्र से प्रयोजन नहीं है, यहाँ तो यह देखना है कि आलम्बन के किसी स्वरूप के प्रति आश्रय या श्रोता के हृदय में परिस्थिति या अवसर के विचार से किसी भाव के स्फुट रूप में उद्भूत होने की संभावना रहेगी या नहीं। किसी प्रकार के दु:ख के क्षोभकारी अनुभव की दशा में चित्त को क्या इतना अवकाश मिल सकता है कि वह किसी वस्तु या व्यापार की लौकिकता अलौकिकता की ओर जमे? मैं समझता हूँ शायद ही कभी। साहित्य के आचार्यों ने तो हर्ष को अद्भुत या संचारी कहकर 'आश्चर्य' का सुखात्मक भाव होना स्पष्ट ही कर दिया है।1 आजकल के मनोविज्ञानियों ने भी उनके अनुकूल मत प्रकट किया है।2
दूसरी बात आश्चर्य को उदासीन मानने की है। आश्चर्य में अद्भुत वस्तु पर ध्या।न का जमना ही चित्त का लगना सूचित करता है, उदासीनता नहीं। थोड़ी देर के लिए आश्चर्य की कोई उदासीन अवस्था मान भी लें तो उस अवस्था का ग्रहण काव्य में नहीं हो सकता। काव्य रसात्मक होता है, 'रस' भावमय होता है और भावों के साथ अनुभूति लगी रहती है जो या तो सुखात्मक होगी अथवा दु:खात्मक। आश्चर्य कई रंग बदलता है। यदि उसमें जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है तो आश्चर्य की चमत्कृति जिसमें बुद्धि की क्रिया का एकदम विराम रहता है, थोड़ी देर ठहर पाती है। बात यह है कि जिज्ञासा अग्रसर हो जाने के कारण बुद्धि तरंग कारण के अन्वेषण में तत्पर हो जाती है और आश्चर्य के मूल स्वरूप का अंत हो जाता है।
'हास' यों तो केवल मन का एक वेग मात्र है, पर 'भावों' में जिस हास को स्थान दिया गया है वह ऐसा है जिसके आश्रयगत होने पर श्रोता या दर्शक को भी
1. वितिर्कांवेगसंभ्रान्तिहर्षांद्या व्यभिचारिण:।
-साहित्यदर्पण, 3, 245।
2. The cases in which there is something requgnent in an object which is at the same time felt as wonderful and where in the rapugnancy is only in part counteracted are exceptional. The wonderful is ordinarily an object of delight. Hence it is that we find the terms 'admiration' and 'wonder' often combined.
—Shand (Foundations of Character)
रसरूप में हास की अनुभूति होती है। वह आलम्बनप्रधान होता है। यों ही प्रसन्नता के कारण (जैसे शत्रु के विरूद्ध अपनी सफलता पर) जो हँसी आती है वह 'भाव' की कोटि में नहीं-वह मन की उमंग या शरीर का व्यापार मात्र है, उसके प्रदर्शन से श्रोता या दर्शक के हृदय में हास की अनुभूति नहीं हो सकती।
हास और आश्चर्य दोनों लक्ष्यहीन होने के कारण किसी प्रकार की इच्छा संकल्प या प्रयत्न की ओर प्रवृत्त नहीं करते। इसी से उनके द्वारा जो मनोरंजन होता है वह विश्रामस्वरूप जान पड़ता है। हम चारपाई पर पड़े-पड़े बड़े आराम के साथ लोगों पर हँस सकते हैं तथा अद्भुत और अनूठी वस्तु को ऑंख निकाले और मुँह बाए ताक सकते हैं। कोई विशेष इच्छा या संकल्प नहीं उत्पन्न होता जिसकी पूर्ति के निमित्त शरीर या मन को कोई प्रयास करना पड़े। मोटे आदमी जो जल्दी क्रोध, भय आदि करने का श्रम नहीं उठाने जाते मसखरापन अकसर किया करते हैं। आचार्यों ने हास्य की यही विशेषता लक्ष्य करके निद्रा और आलस्य को उसका संचारी कहा है।1 हलके मनोरंजन के लिए घड़ी आध घड़ी जी बहलाने के लिए लोग प्राय: हँसी-दिल्लगी के चुटकुले सुनते या अजायबखाने की सैर को जाते हैं। काव्य को इसी प्रकार के हलके मनोरंजन की सामग्री समझे जाने पर अद्भुत चमत्कारपूर्ण फुटकल उक्तियों के कहनेवालों की गिनती बड़े-बड़े कवियों में होने लगी।
शोक भी अपने विषाद आदि संचारियों के सहित प्रयत्नशून्य दिखाई पड़ता है क्योंकि वह प्रयत्नकाल में नहीं रहता, प्रयत्न के विफल होने पर अथवा प्रयत्न द्वारा कोई आशा न होने पर ही होता है। क्रोध और भय दोनों में ध्याकन देने की बात यह है कि आलम्बन का स्वरूप वही रहता है-मुख्य भेद यह लक्षित होता है कि एक में अपनी सामर्थ्य की ओर ध्याीन रहता है और दूसरे में दूसरे की।
पहले कह आए हैं कि आधुनिक मनोविज्ञानियों ने क्रोध, भय, आनंद और शोक को मूल भाव कहा है। इनमें से साहित्य के 'भावों' की गिनती में आनंद को छोड़ और सब आ गए हैं। शोक के रखे जाने और आनंद के न रखे जाने का कारण क्या है? इसका एकमात्र उत्तर यही हो सकता है कि 'रस-विधान' की दृष्टि से ऐसा किया है। साहित्यिकों का सारा भावनिरूपण रस के विचार से किया गया है। आश्रय के जिस भाव की व्यंजना से श्रोता या दर्शक के चित्त में भी आलम्बन के प्रति वही भाव साधारण्याभिमान से उपस्थित हो सकता है उसी को रस का प्रवर्तक मानकर आचार्यों ने प्रधान भाव की कोटि में रखा है। इस बात को अच्छी तरह ध्या न में रखना चाहिए। शोक का आलम्बन ऐसा होता है कि वह मनुष्य मात्र को क्षुब्ध कर सकता है पर आनंद में यह बात नहीं है। किसी अज्ञात और अपरिचित व्यक्ति को भी प्रिय के मरण आदि का विलाप करते सुन सुननेवालों की ऑंखों में ऑंसू आ जाते
1. निद्रालस्यावहित्थाद्या अत्रा स्यु र्व्यहभिचारिण:। -साहित्यदर्पण, 3-216
हैं पर किसी को पुत्र जन्म पर आनंद प्रकट करते देख राह चलते आदमी आनंद से नाच नहीं उठते। किसी के आनंदोत्सव में उन्हीं का हृदय पूर्ण योग देता है जिनसे उसका लगाव या प्रेम होता है पर किसी के शोक में योग देने के लिए मनुष्य मात्र का हृदय प्रकृति द्वारा विवश है। इसी से आनंद को रस के प्रधान प्रवर्तक भावों में स्थान न देकर आचार्यों ने हर्ष को केवल संचारी रूप में रखा है। इस युक्तपूर्णविधान से उनकी सूक्ष्मदर्शिता का पता चलता है। यही कारण ईष्या को भी प्रधान भावों में स्थान न देने का है। यद्यपि ईष्या विषयोन्मुख होने के कारण मनोविज्ञान की दृष्टि से भाव स्थायी ही है, पर आश्रय किसी व्यक्ति के प्रति ईष्या व्यंजित करके श्रोता या दर्शक को भी उक्त व्यक्ति के रस-रूप में ईष्या का अनुभव नहीं करा सकता। प्रधान भावों के संबंध में ये मोटी बातें कहकर अब संचारियों की ओर आता हूँ।