संचारी / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भाव
संचारी / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

पाश्चात्य भाववेत्ता शैंड के भावनिरूपण के अनुसार प्रत्येक भाव एक प्रकार का व्यवस्था-चक्र है जिसके साथ शेष भावों का संबंध भी अव्यक्त रूप में लगा रहता है। क्रोध, भय, आनंद और शोक जो मूलभाव कहे गए हैं उनमें से प्रत्येक का संबंध बाकी औरों से रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके लक्ष्य की पूर्ति न होने पर शोक या विषाद, पूर्ति हो जाने पर आनंद, कठिनाइयाँ दिखाई देने पर पूर्ति न होने की आशंका तक हो सकती है। भूतों के पंच पंचीकरण की-सी व्यवस्था समझिए।1

भारतीय साहित्यिकों की स्थायी संचारी व्यवस्था भी संबंध व्यवस्था ही है, पर विशेष प्रकार की। वह अधिकार व्यवस्था के रूप में है। मनोविज्ञानियों की ऊपर लिखी संबंधव्यवस्था में मूल या जनक भाव स्वप्रवर्तित अन्य भाव के उदय के समय अपना स्वरूप विसर्जित कर देता है। जैसे, जिससे हमारा प्रेम है उसे पीड़ित करनेवाले पर जिस समय हमें क्रोध आयगा उस समय रति भाव की अनुभूति के लिए कोई अवकाश चित्त में न रहेगा। पर साहित्य में रति के जो संचारी कहे गए हैं उनके प्रतीति काल में रति का आभास बना रहेगा। नायिका मान समय में जो क्रोध प्रकट करेगी वह ऐसा बलवान न होगा कि 'रति भाव' को सर्वथा हटा सके। अब देखना यह चाहिए वह व्यवस्था क्या है जिसके अनुसार 'भावों' का ऐसा अविचल पद प्राप्त रहता है कि स्वप्रवर्तित आगंतुक भावों के आ जाने से भी उनका स्वरूप सर्वथा तिरोहित

1. वेदांतसार के अनुसार प्रत्येक स्थूल भूत में शेष चार भूतों के अंश भी वर्तमान रहते हैं। भूतों की यह स्थूल स्थिति पंचीकरण द्वारा होती है जो इस प्रकार होता है। पाँचों भूतों को पहले दो बराबर-बराबर भागों में विभक्त किया फिर प्रत्येक के प्रथमार्ध को चार-चार भागों में बाँटा। फिर इन सब बीसों भागों को लेकर अलग रखा। अंत में एक-एक भूत के द्वितीयार्ध में इन बीस भागों में चार भाग फिर से इस प्रकार रखे कि जिस भूत का द्वितीयार्ध हो उसके अतिरिक्त शेष चार भूतों का एक भाग उसमें आ जाय।

-हिंदी शब्दसागर, 'पंचीकरण' के अंतर्गत।

नहीं होता। मनोविज्ञानियों के संबद्ध भावों की आलोचना करने से प्रकट होता है कि उनके विषय यदि प्रवर्तक भाव के आलम्बनों से भिन्न हों तो भी आश्रय का ध्याहन मुख्यत: उन्हीं की ओर रहता है। पर संचारियों का विषय यदि प्रधान भाव के आलम्बन से भिन्न हुआ तो भी उनकी ओर ध्यापन मुख्यत: नहीं होता, अर्थात् वे विषय आलम्बन नहीं कहे जा सकते। इसी आलम्बन की स्थिरता के आधार पर भारतीय साहित्यकारों ने 'भाव' की अविचलता या स्थायित्व को खड़ा किया है। आलम्बन ही वह कील है जिससे प्रधान भाव हटने नहीं पाता।

विरोध और अविरोध के विचार से संचारियों के चार भेद किए जा सकते हैं-सुखात्मक, दु:खात्मक, उभयात्मक और उदासीन।


सुखात्मक, दु:खात्मक उभयात्मक उदासीन

गर्व,औत्सुक्य, लज्जा,असूया, आवेग,स्मृति, वितर्क,

हर्ष,आशा,मद, अमर्ष,अवहित्था विस्मृति, दैन्य,मति,श्रम,

संतोष,चपलता, त्रास,विषाद, जड़ता,स्वप्न, निद्रा,

मृदुलता, धैर्य शंका,चिंता, चित्त की चंचलता विवोध

नैराश्य,उग्रता,

मोह,आलस्य,

उन्माद,असंतोष,

ग्लानि,अपस्मार,

मरण,व्याधि

सुखात्मक भावों के साथ सुखात्मक संचारी और दु:खात्मक भावों के साथ दु:खात्मक संचारी परस्पर अविरूद्ध होंगे। इसी प्रकार सुखात्मक भाव के साथ दु:खात्मक संचारी और दु:खात्मक के साथ सुखात्मक संचारी विरूद्ध होंगे। उभयात्मक संचारी सुखात्मक भी हो सकते हैं और दु:खात्मक भी; जैसे आवेग हर्ष में भी हो सकता है और भय आदि में भी। भाव के साथ जो विरोध अविरोध ऊपर कहा गया है वह जातिगत है अर्थात् सजातीय विजातीय का विरोध है। इसके अतिरिक्त आश्रयगत और विषयगत विरोध जिस भाव या वेग से होगा वह संचारी हो ही नहीं सकता। जैसे, क्रोध के बीच-बीच में आलम्बन के प्रति यदि शंका, त्रास या दया आदि मनोविकार प्रकट होते हुए कहे जायँ तो उनसे क्रोध की पुष्टि न होगी। यही बात युद्धोत्साह के बीच में त्रास आदि के होने से होगी। अत: ये मनोविकार क्रोध और उत्साह के संचारी नहीं हो सकते। कारण यह कि क्रोध के बीच में यदि शंका या त्रास हो जाय तो जितने काल तक शंका या त्रास की स्थिति रहेगी उतने काल तक क्रोध का अस्तित्व न माना जायगा। सारांश यह कि किसी भाव को पुष्ट करनेवाला मनोविकार वही होगा जो भाव को लक्ष्य और प्रवृत्ति से हटानेवाला न होगा।

एक बार इस बात का फिर स्मरण कर लेना चाहिए कि स्थायीदशा को प्राप्त होने पर भी भाव का मूल स्वरूप बीच-बीच में अवसर या उत्तेजना पाकर उदित हुआ करता है। स्थायी दशा के बीच-बीच में मूल स्वरूप के इस स्थिति काल को हम भावदशा भी कहेंगे। जैसे, नायक के प्रति राग के रति रूप में स्थायी हो जाने पर जिस प्रकार हर्ष, अमर्ष आदि संचारी भाव प्रकट होंगे वैसे ही कभी-कभी नायक के मिलने पर भाव का मूल स्वरूप भी अपनी निज की प्रवृत्ति (आलिंगन, चुंबन आदि) के सहित प्रकट हुआ करेगा। इसी प्रकार जिससे बैर होगा उस पर समय-समय पर क्रोध भी हुआ करेगा। भाव के मूल स्वरूप के इस उदयकाल में केवल अविरूद्ध संचारी ही प्रकट हो सकते हैं। विरूद्ध संचारी जब प्रकट होंगे तब अकेले, भाव के मूल स्वरूप के साथ कभी नहीं। अत: जहाँ विरूद्ध संचारी हों वहाँ तो चट, बिना किसी सोच-विचार के, स्थायी दशा समझ लेनी चाहिए। पर स्थायी दशा ऐसी भी होती है जिसमें भाव का मूल स्वरूप स्फुट नहीं होता; केवल अविरूद्ध संचारी के अनुभाव आदि द्वारा ही भाव की भी व्यंजना हो जाती है। जैसे, नायक के दर्शन से पुलक होना मात्र ही यदि कह दिया जाय तो रति भाव व्यंजना द्वारा समझ लिया जायगा। ऐसी दशा में अविरूद्ध संचारी यदि भाव का अवयव होता है-जैसा कि उक्त उदाहरण में है-तो भाव का स्वरूप श्रोता को तुरंत स्फुट हो जाता है। जहाँ वह अवयव नहीं होता वहाँ व्यंजक वाक्य को सावधानी से रखना भी पड़ता है और समझना भी। जैसे; यदि कहा जाय कि 'अमुक को देखते ही वह वस्त्रादि न सँभालकर कभी नीचे कभी ऊपर जाने लगी' तो सुननेवाले को यह संदेह रह जाता है कि ऐसा आवेग 'रति भाव' के कारण हुआ या भय के। अत: प्रिया या नायक शब्द रखने से रति भाव के ग्रहण में और 'शत्रु' शब्द अथवा 'विकराल' आदि विशेषण रखने से भय के ग्रहण में सहायता पहुँचेगी।

अब देखना चाहिए कि आचार्यों ने यों ही मनमाने ढंग पर कुछ भावों को प्रधान भावों में और कुछ को संचारियों में रख दिया है अथवा किसी सिद्धांत पर ऐसा किया है। केवल यह जानकर ही आधुनिक जिज्ञासा तुष्ट नहीं हो सकती कि ग्रंथों में यह भाव प्रधान कहे गए हैं और ये संचारी। 'क्यों' पूछनेवालों की उपेक्षा अब नहीं की जा सकती। अत: जिस सिद्धांत पर यह भेदविधान स्थित है उसका पता लगाना चाहिए। उस सिद्धांत का कुछ आभास यद्यपि मैं कुछ ही पहले अन्य प्रसंग में दे आया हूँ पर यहाँ उसे फिर से स्पष्ट कर देना आवश्यक है।

इस बात को बराबर ध्या्न में रखने का अनुरोध किया जा चुका है कि साहित्य के आचार्यों का सारा भावनिरूपण रस की दृष्टि से-अर्थात् किसी भाव की व्यंजना श्रोता या दर्शक में भी उसी भाव की-सी प्रतीति के विचार से-किया गया है। अत: जो भाव ऐसे हैं जिन्हें किसी पात्र को प्रकट करते देख या सुनकर दर्शक या श्रोता भी उन्हीं भावों का-सा अनुभव कर सकते हैं, वे तो प्रधान भावों में रखे गए हैं, शेष भाव और मन के वेग संचारियों में डाले गए हैं। जैसे किसी आलम्बन के प्रति आश्रय को शोक या क्रोध प्रकट करते देख उस आलम्बन के मर्मस्पर्शी स्वरूप और 'भाव' की विशद व्यंजना के बल से श्रोता या दर्शक को उक्त दोनों भावों का रसरूप में परिणत होना अनुभव होता है, अत: वे प्रधान भावों की श्रेणी में रखे गए। पर आश्रय को किसी बात की शंका किसी से ईष्या, किसी पर गर्व, किसी से लज्जा प्रकट करते देख श्रोता या दर्शक को भी शंका, ईष्या, गर्व, लज्जा आदि का अनुभव न होगा, दूसरे भावों का हो तो हो। इसी से ये भाव प्रधान न माने जाकर संचारी माने गए हैं। पर इससे यह मतलब नहीं कि ये भाव सदा प्रधान भावों के द्वारा प्रवर्तित होकर अनुचर के रूप में ही आया करते हैं,स्वतंत्र रूप में आते ही नहीं। ये स्वतंत्र रूप में अपने निज के अनुभवों के सहित भी आते हैं पर पूर्ण रस की अवस्था को नहीं प्राप्त होते-अर्थात् ऐसी दशा को नहीं पहुँचते जिसमें श्रोता या दर्शक भी आश्रय में उनकी विशद व्यंजना देख उनका अनुभव हृदय में करने लगें और समान अनुभाव प्रकट करने लगें। सारांश यह कि प्रधान (प्रचलित प्रयोग के अनुसार स्थायी) भाव वही कहा जा सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचे-

रसावस्थ : परं भाव: स्थायितां प्रतिपद्यते।

-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद।

नियत प्रधान भावों के स्वरूप निर्धारण के लिए 'रसावस्था' का वही अर्थ लेना चाहिए जो ऊपर कहा गया है। 'विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों के मेल से जिसकी व्यंजना हो सके'1 यह प्रचलित अर्थ लेने से कुछ काम तो निकल जाता है पर प्रधानता के स्वरूप का ठीक-ठीक निर्देश नहीं होता। इस अर्थ को ग्रहण करने से यही पहचान मिलती है कि जो संचारी होंगे उनकी व्यंजना में तीनों का मेल नहीं होगा, कोई उपादान खंडित रहेगा। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि संचारियों में जो भाव गिनाए गए हैं उनकी व्यंजना अनुभाव द्वारा भी प्राय: होती है। अत: कमी पड़ेगी तो संचारी की-अर्थात् जो नियत संचारी हैं, इस लक्षण के अनुसार,स्वतंत्र या प्रधान रूप से आने पर भी वे संचारी से रहित होंगे। इस संबंध में दो बातें कहनी हैं-

(1) जो भाव संचारियों में गिनाए गए हैं उनके प्रधान या स्वतंत्र रूप से आने पर उनके अंतर्गत भी संचारी भाव आ सकते हैं। लज्जा को लीजिए। इसमें जिस व्यक्ति से लज्जा होगी वह आलम्बन और उसका ताकना, झाँकना, उद्दीपन, सिर झुकाना आदि अनुभाव और अवहित्था संचारी कही जा सकती है। इसी प्रकार असूया या ईष्या के अंतर्गत अमर्ष संचारी होकर आ सकता है।

(2) इससे सिद्ध हुआ कि किसी भाव की 'विभाव, अनुभाव और संचारी के

1. विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:।

-नाटयशास्त्र, षष्ठ अधयाय:।

मेल से व्यंजना' ही श्रोता या दर्शक में उस भाव का अनुभाव नहीं करा सकती अर्थात् पूर्ण रस की निष्पत्ति नहीं कर सकती। तीनों संयोजकों द्वारा लज्जा की व्यंजना देखने से श्रोता या दर्शक के मन के सामने लज्जा का पूर्ण स्वरूप भर खड़ा होगा, हृदय में लज्जा का अनुभव न उत्पन्न होगा।

उपर्युक्त विवेचन से यह परिणाम निकला कि 'भावों' के स्वरूप के भीतर ही वह वस्तु है जिसके अनुसार प्रधान और संचारी का विभाग हो जाता है। वह वस्तु है आलम्बन। आलम्बन या तो सामान्य होता है या विशेष। जो सामान्य आलम्बन होगा उसके प्रति मनुष्य मात्र का कम-से-कम सहृदय मात्र का-वही भाव होगा जो आश्रय का है। जो विशेष आलम्बन होगा उसके प्रति श्रोता या दर्शक स्वभावत: उसी भाव का अनुभव न करेगा जिसे व्यंजित करता हुआ आश्रय दिखाया गया है-दूसरे 'भाव' का अनुभव वह कर सकता है। इस विभेद को ध्या न में रखकर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधान भावों की गिनती में वे ही भाव रखे गए हैं जिनके आलम्बन 'सामान्य' हो सकते हैं। शेष भाव या मनोवेग संचारियों की श्रेणी में डाले गए हैं क्योंकि उनमें से किसी के स्वतंत्र विषय होंगे भी तो भी श्रोता या दर्शक का ध्या न उनकी ओर प्रवृत्त नहीं रहेगा।

गिनाए हुए संचारियों की सूची से ही पता चल जाता है कि उनका क्षेत्र बहुत व्यापक है। संचारी के अंतर्गत 'भाव' के पास तक पहुँचनेवाले अर्थात स्वीतंत्र विषययुक्त और लक्ष्ययुक्त मनोविकार और मन के क्षणिक वेग ही नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक अवस्थाएँ तथा स्मरण, वितर्क आदि अंत:करण की और वृत्तियाँ भी आ गई हैं।