स्वतंत्रता विषयवाले भाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{GKGlobal}}

भाव
स्वतंत्रता विषयवाले भाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

इनमें तीन मनोविकार ही ऐसे हैं जिनके विषय प्रधान विषय के आलम्बन से स्वतंत्र हो सकते हैं-गर्व, लज्जा और असूया। इनके विषयों का विचार करते समय यह ध्‍यान रखना चाहिए कि विषय या आलम्बन 'भाव' का कारण नहीं है। जैसे किसी के साथ हम बुराई कर चुके रहते हैं तो उसे सामने पाकर हम लज्जित होते हैं। अत: बुराई तो हुई हमारी लज्जा का कारण; जिसे सामने पाकर हम लज्जित होते हैं वह हुआ विषय। जिससे हम ईष्या रखते हैं वह है विषय; उसके गुण, धन, वैभव आदि हैं कारण, जिसपर हम गर्व प्रकट करते हैं वह हुआ विषय और उसके गुण, वैभव, शक्ति आदि कारण। रति, क्रोध आदि प्रधान भावों के आलम्बनों के संबंध में भी यही समझना चाहिए। जैसे, नायिका आलम्बन, और उसका रूप, गुण आदि कारण, अनिष्टकारी व्यक्ति आलम्बन और अनिष्ट कारण, मृत या पीड़ित व्यक्ति आलम्बन और उसकी मृत्यु पीड़ा आदि कारण कहे जायँगे। इसी प्रकार और भी समझिए। कारण आधेय होता है और विषय आश्रय आधार। लज्जा,ईष्या और गर्व के यद्यपि स्वतंत्र विषय होते हैं पर उनकी ओर उतना ध्‍यान नहीं रहता जितना कारणों की ओर रहता है। 'आश्रय' का ध्‍यान तो कुछ रहता भी है, पर श्रोता या दर्शक का ध्‍यान कुछ भी नहीं रहता। अत: स्वतंत्र विषय रखने पर भी ये आलम्बन प्रधान नहीं हैं। इनके विषय आलम्बनपद प्राप्त नहीं होते। आलम्बन वही विषय कहा जा सकता है जिसके प्रत्यय का बोध प्रधान होकर बना रहे। अत: आलम्बन प्रधान भावों के ही विषय को कह सकते हैं। गर्व, लज्जा के संबंध में यह बात ध्‍यान देने की है कि उनमें कारण विषयगत नहीं होता, आश्रयगत होता है। इसी से पाश्चात्य मनोविज्ञानियों ने गर्व को 'ममत्व' (Self love) के अंतर्गत रखा है जो उनकी व्यवस्था के अनुसार 'स्थायी भाव' है। हमारी प्रस्ताविक व्यवस्था के अनुसार गर्व या अभिमान शीलदशा को ही प्राप्त पाया जाता है। ऐसा शायद ही होता हो कि कोई किसी एक ही व्यक्ति से समय-समय पर शेखी किया करता हो।