मन के वेग / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भाव
मन के वेग / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

अब रहे मन के वेग। ये स्वतंत्र रूप में बहुत कम आते हैं अधिकतर किसी 'भाव' के कारण उत्पन्न होकर उसी के अंतर्गत उद्भूत और विलीन होते हैं। जैसे, भय, आश्चर्य, हर्ष आदि के कारण आवेग, लज्जा के कारण अवहित्था, रति के कारण औत्सुक्य, शोक, दु:ख आदि के कारण ग्लानि, साथ-साथ उत्पन्न होती हैं। हर्ष और विषाद के मूल में भी व्यक्त या अव्यक्त रूप में रति, शोक, जुगुप्सा आदि भाव रहते हैं क्योंकि इष्ट या प्रिय तथा अनिष्ट या अरुचिकर की प्राप्ति से ही हर्ष और विषाद का संबंध रहता है।

अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद तो क्रोध, भय, राग और शोक के ही आलम्बननिरपेक्ष तथा लक्ष्य या संकल्पविहीन अवयव हैं जो कभी तो प्रधान भावों के साथ संचारी रूप में आते हैं और कभी स्वतंत्र रूप में। निंदा, अपमान आदि के असहन से उत्पन्न क्षणिक क्षोभ मात्र का नाम 'अमर्ष' है-जिसका बाह्य चिन्हन ऑंखें लाल होना, त्योरी चढ़ना, तर्जन आदि हैं।1 किसी शब्द या रूप के गोचर होने पर एकबारगी कँपा या चौंका देनेवाला वेग 'त्रास'2 है जिससे न तो विषय की स्फुट धारणा रहती है, न लक्ष्यसाधन की ओर गति। आरंभ में ही दिखाया जा चुका है कि यह भय का प्रत्ययबोधशून्य आदिम वासनात्मक रूप है जो पूर्ण समुन्नत अंत:करण न रखनेवाले क्षुद्र जंतुओं में होता है और मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों में भी किसी-किसी अवसर पर देखा जाता है।3 जिस वेग की प्रेरणा से लोग एकबारगी कर्तव्यशून्य होकर हार मानकर बैठ जाते हैं वह 'विषाद' है।4 जैसे मेघनाथ का वध सुनकर रावण को हुआ था। प्राय: ऐसा होता है कि इस आलम्बननिरपेक्ष वेग के उदय के पीछे आलम्बनप्रधान भाव 'शोक' स्फुरित होता है। त्रास और अमर्ष के संबंध में भी अधिकतर ऐसा ही होता है। कोई व्यक्ति यदि पास ही घोड़ों की टाप सुने तो एकबारगी चौंककर काँप उठेगा; फिर शत्रु को सामने पाकर 'भय' नामक भाव का अनुभव करेगा। अमर्ष में भी ऐसा होता है कि पहले किसी का कटु वचन सुनते ही हम क्षुब्ध हो जाते हैं फिर उस कटु वचन कहनेवाले की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार राग की पूर्ण अभिव्यक्ति भी हर्ष के उपरांत होती है। पहले नायिका को देख नायक हर्षित होकर तब आलिंगन आदि की ओर प्रवृत्त होता है। अत: संचारियों का यह सामान्य लक्षण लेकर कि वे प्रधान भाव के कारण होते हैं यह शंका उठाई जा सकती है कि जो जिसका कारण है वह उसके पीछे कैसे उत्पन्न हो सकता है। अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद चारों के संबंध में ऊपर ही जो यह कह दिया गया कि ये क्रोध, भय, राग और शोक के ही अवयव हैं उसी में इसका समाधान मौजूद है। अंगी का कोई अंग प्रधान या लक्षक अंग के पहले प्रकट हो सकता है। सारांश यह कि संचारी रूप में अमर्ष, त्रास, हर्ष और विषाद का क्रोध आदि के साथ कार्यकारण संबंध नहीं है अंगागिभाव संबंध है। साहित्य के आचार्यों ने क्रोध, राग, भय और शोक के इन आलम्बननिरपेक्ष शुद्ध वेग रूप अवयवों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी देख इनको अलग करके संचारियों में रख लिया। भावों और उनके इन अवयवों के अनुभावों को चाहें

1. निन्द क्षेपापमानादेरमर्षोऽभिनिविष्टता।

नेत्ररागशिर:कम्पभ्रूमक्षेत्तार्जनादिकृत्॥ -साहित्यदर्पण, 6-156।

2. निर्घातविद्युदुल्काद्यैस्त्रास: कम्पादिकारक:॥ -साहित्यदर्पण, 3-1-64।

3. देखिए 'भाव' शीर्षक अधयाय का प्रारम्भिक अंश।

4. उपयाभा जन्मा तु विषाद: सत्वसंक्षय:। -साहित्यदर्पण, 3-167।

तो हम अलग कर सकते हैं। उन अवयवों के उदय तक केवल सात्विक अनुभाव रहेंगे; भाव का उदय हो जाने पर कायिक अनुभाव होंगे।

उक्त चारों वेगों के जो स्वरूप ग्रंथों में बताए गए हैं उनसे भी इस बात का पूरा संकेत मिल जाता है कि वे क्रोध, भय, राग और शोक के ही अवयव हैं। अमर्ष में नेत्रराग, शिराकंप, भ्रूभंग और तर्जन का होना; त्रास में कंपादि होना; हर्ष में अश्रु, पुलक आदि का होना1 और विषाद में नि:श्वास, उच्छ्वास आदि होना कहा गया है।2 ये सब व्यापार क्रमश: क्रोध, भय, राग और शोक के अनुभावों में पाए जायँगे। संचारियों के जो बाह्य चिन्ह साहित्य ग्रंथों में बताए गए हैं वे एक प्रकार से उनके अनुभाव ही हैं।