अन्य अंत:करणवृत्तियाँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भाव
अन्य अंत:करणवृत्तियाँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

अब स्मृति, चिंता, वितर्क, मति आदि अंत:करण की अन्य वृत्तियों को लीजिए जो रागात्मिका नहीं हैं। किसी बात का स्मरण करना, चिंता करना, तर्कवितर्क करना ये सब मन के वेग नहीं हैं, धारणा, बुद्धि आदि के व्यापार हैं जो वेदपाठियों, तार्किकों, मीमांसकों आदि में पूर्ण रूप में देखे जाते हैं। फिर इनका ग्रहण काव्य में कैसे हुआ? काव्य में इनका ग्रहण वहीं तक समझना चाहिए जहाँ तक वे प्रत्यक्ष रूप में भावों के द्वारा प्रेरित प्रतीत होते हों। 'प्रत्यक्ष रूप में' कहने का अभिप्राय यह है कि भाव प्रधान रूप से परिस्फुट हो जिससे श्रोता या दर्शक का ध्याषन 'भाव' पर रहे, इन अंत:करण के व्यापारों और इनके ब्योरों पर नहीं। परोक्ष रूप में तो मनुष्य के सहारे व्यापार और वृत्तियाँ भावव्यवस्था के अनुसार परिचालित होती हैं। मतलब यह कि 'भाव' की प्रधानता स्पष्ट रहनी चाहिए। उसे इस प्रकार व्यंजित होना चाहिए कि उक्त अंत:करण वृत्तियों की सत्ता उसी की सत्ता के भीतर दिखाई पड़े।

शील के आधारनिरूपण में शैंड ने भी संकल्पात्मिका और निश्चयात्मिका वृत्ति (बुद्धि) को 'भावों' के शासन के भीतर लाकर विचार किया है। उन्होंने इस बात को मानते हुए भी कि मनुष्य की रागात्मक सत्ता से परे समष्टिरूप एक आत्मसत्ता भी है जो भिन्न-भिन्न 'भावों' की प्रवृत्तियों को दबाकर कभी-कभी कर्मविवेक करती है, शील के वैज्ञानिक आधारनिरूपण में उसका विचार निष्प्रयोजन ठहराया है। प्राय: सब देशों के तत्त्वज्ञ महात्मा 'राग' और 'विवेक' को परस्परविरोधी कहकर रागों के दमन का उपदेश करते आए हैं। पर यदि ऐसा विरोध हो भी तो उसका विचार न करके जहाँ बुद्धि या विवेक अपनी परमावस्था को प्राप्त होकर कर्मनिर्णायक के रूप में दिखाई पड़े वहाँ भी मूल प्रेरक या प्रवर्तक 'सत्य प्रेम' नामक स्थायी भाव को ही 1.हर्षस्त्विष्टावाप्तेर्मन: प्रसादोऽश्रुगदगदादिकर:। -साहित्यदर्पण 3-165। 2. नि:श्वासोच्छ्वासहृत्तापसहायान्वेषणादिकृत्। -साहित्यदर्पण 3-176।

मानना चाहिए। रति भाव के आलम्बन मनुष्य या प्राणी ही नहीं 'सत्य', 'धर्म' आदि अरूप पदार्थ भी हो सकते हैं, यह पहले कहा जा चुका है।1 अत: शील की वैज्ञानिक व्याख्या के लिए यह सिद्धांत स्वीकार करके चलना पड़ेगा कि 'समस्त संकल्पात्मिका और निश्चयात्मिका वृत्तियाँ किसी 'भाव' या मनोवेग द्वारा प्रेरित होती हैं और उसके शासन में रहकर उसके लक्ष्य के अनुकूल चलती हैं।2'

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मति, शंका, वितर्क आदि यदि किसी भाव के कारण उत्पन्न हों और वह भाव स्पष्ट रूप से व्यंजित होता हो तभी उनका ग्रहण काव्य में हो सकता है। यों ही प्रसंग आने पर कोई बात सोचने लगना या किसी बात का स्मरण करना काव्यभावांतर्गत न होगा। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं-

स्मृति (क) जहाँ जहाँ ठाढ़ौ लख्यो स्यामु सुभग सिरमौरु।

बिन हूँ उन छिनु गहि रहतु दृगनु अजौं वह ठौरु॥

-बिहारी रत्नाकर, 82।

(ख) मनु ह्नै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥

-बिहारी रत्नाकर, 681।

मति- असंशयं क्षत्रापरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मन:।

-अभिज्ञानशाकुंतल प्रथम अंक, 21।

चिंता- जब तें इत तें घनश्याम सुजान अचानक ही बल संग सिधारे।

कर पै मुखचंद धरे सजनी नित सोचति है तू कहा मन मारे3 ॥

1. देखिए 'भाव' शीर्षक अध्या य, अनुच्छेद 12।

2. Our personality does not seem to be the sum of the dispositions of our emotions and sentiments. These are our many selves; but there is also our one self. This enigmatical self which reflects on their systems, estimates them, and however loath to do it, sometimes chooses between their ends, seems to be the cetral fact of our personlity. If this be the fact, it is not the kind of fact which we can take into accont. The science of character will be the science of our sentiments and emotions-of these many selves, not of this one self. The working assumption of our science must be the acceptance of this law-‘‘All intellectual and voluntary processes are elicited by the system of impulse, emotion or sentiment and subordinated to its end’’- Shand (Foundations of Character).

3. साहित्यदर्पण में उदाहृत प्राकृत की निम्नलिखित गाथा से मिलाइए

कमलेण बिअसिएण संजोएती बिरोहिणं ससिबिम्बम्।

करअलपल्लत्थमुही किं चिंतसि सुमुहि अंतराहिअहिअआ॥

कमलेन विकसितेन संयोजयन्ती विराधिनं शशिनम्।

करतलपर्यस्तमुखी किं चिंतयसि सुमुखि ; अन्तराहितहृदय॥

-तृतीय परिच्छेद, श्लोयक 171।

वितर्क-(क) जौं हौं कहौं रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति,

चलन कहौ तो हितहानि नाहि सहनै।

-कविप्रिया, 10-20।

(ख) कि रुद्ध: प्रिययां कदाचिदथवा सख्या ममोद्वेजित :।

किं वा कारणगौरवं किमपि यन्नाद्यागतो बल्लभ :॥

-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद; विरहोत्कंठिता।

इन उदाहरणों में मूल में रति भाव व्यंजित है। यह ऊपर कह आए हैं कि धारणा, बुद्धि आदि के ये व्यापार 'भाव' की स्थायी दशा में ही होते हैं, भावदशा में नहीं। जैसे, यदि उक्त चारों वृत्तिया¡ संचारी होकर आयँगी तो क्रोध की भावदशा में नहीं, 'बैर' नामक उसकी स्थायी दशा में ही आयँगी। अनिष्टकारी के संबंध में यदि क्रोध स्थायी दशा को प्राप्त होगा तो समय-समय पर उसके द्वारा किए हुए अनिष्ट का स्मरण, 'यह उसी का काम है और किसी का नहीं' इस प्रकार का निश्चय, 'वह हाथ में नहीं आ रहा है' इसकी चिंता, 'वह कहीं भाग गया या यहीं छिपा हुआ है' इस प्रकार का वितर्क हुआ करेगा।

'शंका' तो भय का ही वितर्कप्रधान रूप है जो आलम्बन के दूरस्थ होने पर प्रकट होता है। इसमें वेग नहीं होता और न आलम्बन उतना स्फुट होता है। इसका प्रादुर्भाव या तो स्वतंत्र रूप में होता है अथवा भय की स्थायी दशा में; भावदशा में नहीं होता जब कि अनिष्टकारी या अनिष्ट बिलकुल पास आया रहता है। भूषण में 'शंका' के बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जैसे-

(क) बीजापूर, गोलकुंडा, आगरा, दिली के कोट

बाजे बाजे रोज दरवाजे उघरत हैं।

-भूषणग्रंथावली, शिवाबावनी, 30।

(ख) चौंकि चौंकि चकता कहत चहूँधा तें यारों,

लेत रहौ खबरि कहाँ लौं शिवराज है।

-वही, छंद, 34।

'वितर्क' और 'शंका' में भेद यह है कि वितर्क में अनुमान का व्यभिचार इष्ट और अनिष्ट दोनों पक्षों में बारी-बारी से हो सकता है, पर 'शंका' में 'भय' के लेश के कारण अनुमान अनिष्ट पक्ष में ही जाया करता है। वाल्मीकिजी ने एक ही प्रसंग में दोनों के उदाहरण बहुत ही स्पष्ट दिए हैं। मारीच को मार आश्रम की ओर लौटते हुए रामचंद्रजी इस प्रकार शंका प्रकट करते हैं-

दु:खिता खरघातेन राक्षसा : पिशिताशना : ।

तै: सीता निहता घौरैर्भविष्यति , न संशय :॥

-वाल्मीकीय रामायण, सर्ग 58, श्लोाक 16।

आश्रम में जानकी को न पाकर रामचंद्रजी इस प्रकार वितर्क करते हैं-

हता-मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति।

निलीनाऽप्यथवा भीरुरथवा वनमाश्रिता॥

गता विचेतुं पुष्पाणि , फलान्यपि च वा पुन:।

अथवा पद्मिनीं याता, जलार्थं वा नदीं गता॥

-वही, सर्ग 60, श्लोवक 8-9।

गोस्वामीजी ने राम के वनवास की अवधि बीतने पर भरत का वितर्क दिखाया है। यह संचारी का बहुत अच्छा उदाहरण है, राम के प्रेम में भरत मग्न हैं उनके नयनजलजात भी स्रवते हैं, उन्हें सगुन जानकर हर्ष भी होता है और वे इस प्रकार वितर्क भी करते हैं-

कारन कौन नाथ नहिं आए। जानि कुटिल प्रभु मोहिं बिसराए॥आदि

-रामचरितमानस, सप्तम सोपान, 1।

अन्य अंत:करण वृत्तियों में जिस प्रकार भयलेशयुक्त ऊहा 'शंका' रखी गई है उसी प्रकार हर्षलेशयुक्त ऊहा 'आशा' और विषादलेशयुक्त 'नैराश्य' को भी रख सकते हैं। जो 33 संचारी कहे गए हैं वे उपलक्षण मात्र हैं, संचारी और भी हो सकते हैं। जिस प्रकार स्मृति है उसी प्रकार 'विस्मृति' भी रखी जा सकती है।