मानसिक अवस्थाएँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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मानसिक अवस्थाएँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

दैन्य, मद, जड़ता, चपलता इत्यादि मानसिक अवस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं-प्रकृतिगत और आगंतुक। आगंतुक रूप में ही वे संचारी होती हैं क्योंकि उनका किसी 'भाव' के कारण प्रकट होना स्पष्ट रहता है। किसी मानसिक अवस्था की एक स्थिर प्रणाली का प्रकृतिस्थ हो जाना मूल में चाहे किसी 'भाव' के कारण ही हो पर अभिव्यक्ति काल में उक्त भाव के साथ उस अवस्था का प्रत्यक्ष संबंध न दिखाई देने से वह स्वतंत्र ही कही जाएगी। इस प्रकार की प्रकृतिगत मानसिक अवस्थाएँ रस की बँधी लीक पीटनेवाले फुटकरिए कवियों के काम की चाहे न हों पर चरित्रचित्रण में बड़े मतलब की हैं। किसी सीधे-सादे सज्जन के दैन्य भाव, किसी दुष्ट की स्वाभाविक उग्रता, बालकों की चपलता, ज्ञानियों की धीरता इत्यादि देखने-सुनते से श्रोता या दर्शक का मनोरंजन ही नहीं होता बल्कि सज्जन, दुष्ट, बालक, ज्ञानी, आलसी इत्यादि के ठीक-ठीक स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण होता है जिससे इन भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के प्रति उपयुक्त भावों की प्रतिष्ठा होती है। जो ज्ञानियों और सज्जनों पर श्रद्धा, दुष्टों से घृणा, बालकों से स्नेह और आलसियों से विरक्ति या उपहास का भाव रखने में अभ्यस्त हो गया उसके चरित्र के सुधारने में कसर ही क्या रह गई? मतलब यह कि इन मानसिक अवस्थाओं को 'शीलदशा' में देखकर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को उत्तेजना मिलती है।

भावों के प्रत्यक्ष संबंध से संचारियों के रूप में इन मानसिक अवस्थाओं की जहाँ अभिव्यक्ति होती है वहाँ उनमें प्रधान 'भावों' के प्रभाव से बहुत कुछ वेग आ जाता है। जैसे, भय के कारण जो दैन्य होगा वह इतना प्रबल होगा कि मानापमान का भाव बिलकुल दबा रहेगा और दीनता दिखलानेवाला व्यक्ति दस आदमियों के सामने भय के आलम्बन से हाथ जोड़ेगा, गिड़गिड़ाएगा और अपने को तुच्छातितुच्छ बनाएगा। ऐसे स्थल पर ध्या न प्रधानत: भय की ओर ही रहेगा, दैन्य की ओर नहीं। लोग यही कहेंगे कि यह डर के मारे गिड़गिड़ा रहा है। इसी प्रकार भक्ति (जो बड़ों के प्रति पूज्यबुद्धिमिश्रित रति ही है) के उद्रेक से अर्थात् पूज्य के अलौकिक महत्व के ध्याठन में लीन होने से अपनी लघुता की जो सुखद अनुभूति1 होती है उसमें भी बहुत कुछ जोर रहता है। भक्तवर गोस्वामी तुलसीदासजी ने दोनों प्रकार के 'दैन्य' का परिचय दिया है-प्रकृतिगत का भी और भावाश्रित का भी। रामचरितमानस की भूमिका में वे अपनी दीन प्रकृति का इस प्रकार उल्लेख करते हैं-

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बाल वचन मन लाई।

कविनहोहुँ,नहिंवचनप्रवीनू। सकल कला सब विद्या हीनू॥

अपने इष्टदेव के महत्व के अनुभव से प्रेरित 'दैन्य' के जो पवित्रा उद्गार उनके भक्तिपूर्ण अंत:करण से निकले हैं वे भक्ति के अभ्यास का मार्ग दिखानेवाले हैं-

(क) जब लगि मैं न दीन, दयालु तै; मैं न दास, तैं स्वामी॥

तब लगि जो दु:ख सहेउँ कहेउँ नहिं जद्यपि अंतरजामी।

तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत श्रुति गावै।

-विनयपत्रिका, 113।

(ख) राम सों बड़ो है कौन? मो सों कौन छोटो?

राम सों खरो है कौन? मो सों कौन खोटो?

-विनयपत्रिाका, 72।

भक्तिपूर्ण अंत:करण से किस प्रकार मान-अपमान का भाव निकल जाता है, देखिए-

लोग कहैं पोचु सो न सोचु न सँकोचु मेरे,

ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं।

तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे

प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं॥

-विनयपत्रिका, 76।

'मद' नामक अवस्था या तो मद्यपान आदि के कारण होती है अथवा प्रेम की


1. बड़ों सुख कहत बड़े सौं, बलि, दीनता।-तुलसी।

-विनयपत्रिका, 262।

उमंग या अभिमान आदि के कारण।1 दांपत्य रति के वेग से उत्पन्न मद के उदाहरण तो लक्षण ग्रंथों में मिलते हैं। पर अभिमान के जोर करने पर भी लोग बहँकी-बहँकी बातें करते हैं। भले-बुरे का ध्यानन नहीं रखते किसी की कुछ सुनते नहीं, जो जी में आता है कहते करते हैं। इससे स्पष्ट है कि 'मद' गर्व का भी संचारी होकर आता है। यह तो दिखाया ही जा चुका है कि संचारियों के पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग में जो तीन आलम्बनयुक्त भाव हैं वे संचारियों के सहित भी आ सकते हैं।

जिस 'जड़ता' का विचार रसनिरूपण में हुआ है वह किसी भाव के उद्रेक से अंत:करण की बोधात्मक क्रिया का कुछ काल के लिए बंद-सा हो जाना है। जैसे, प्रिय के विदेशगमन का सहसा संवाद पाते ही नायिका की यह दशा हो जाना कि उसे 'मैं कहाँ हूँ, आसपास कौन बैठा है, क्या कहता है, क्या करता है' इत्यादि का कुछ भी ज्ञान न रहे। इसे मानसिक स्तंभ कह सकते हैं। इसके साथ ही शरीरस्तंभ भी होता है अथवा यों कहिए कि 'स्तंभ' ही के दो पक्ष होते हैं एक मानसिक और एक शारीरिक। इनमें से प्रथम तो संचारियों की कोटि में रखा गया और द्वितीय अनुभाव के भीतर डाल दिया गया। अब पूछिए कि क्यों एक प्रकार का स्तंभ तो संचारियों में रखा गया और दूसरे प्रकार का सात्विक में। इसका कारण विवेचन करने पर यही प्रतीत होता है कि सात्विक अनुभाव में वही वस्तु रखी गई है जो बाहर शरीर पर लक्षित हो। मानसिक अवस्था स्वयं गोचर नहीं होती उसका कोई चिन्हब या संकेत गोचर होता है। 'अनुभाव' किसी 'भाव' का सूचक होता है अत: मानसिक अवस्था जो सूच्य हुआ करती है वह सूचकों में नहीं रखी गई, संचारियों में रखी गई।

'जड़ता' का ही एक हल्काक रूप 'बुद्धिमांध' है जो किसी भाव की समुपस्थिति के कारण भी थोड़ी देर के लिए हो सकता है और स्थायी दशा में प्रकृतिस्थ भी देखा जाता है। शोक या विषाद के समय कभी-कभी किसी की कही हुई साधारण बात भी समझ में नहीं आती। किसी 'भाव' के संचारी के रूप में 'जड़ता' के इस हलके रूप पर चाहे उतना ध्या न न दिया जाय पर प्रकृतिस्थ दशा में यह हास्य के आलम्बन की रूपयोजना में बहुत काम आता है। बेवकूफों पर हँसने का रिवाज बहुत पुराना है, इसी से बहुत से लोग सिर्फ दूसरों को हँसाने के लिए बेवकूफ बना करते हैं। नाटकों के विदूषक ऐसे ही बने हुए बेवकूफ हुआ करते हैं।

लज्जा, भय आदि के कारण अपने मन के भाव को छिपाने की प्रवृत्ति जिस अवस्था में हो उसे 'अवहित्था' कहते हैं।2

उग्रता सच पूछिए तो, क्रोध का ही एक अवयव है। पर कभी-कभी सर्वांगपूर्ण

1. सम्मोहानन्दसभेदा मदो मद्योपयोगज:। साहित्यदर्पण, 2-146।

2. एवं वादिनि देवषौं पार्श्वे पितुरधोमुखी॥

लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती॥

साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, पृष्ठ 131, विमला टीका।

क्रोध के न प्रकट होने पर भी उसका आविर्भाव होता है। कभी-कभी उसी तक बात खतम हो जाती है, बाकी बातों की नौबत नहीं आती। किसी-किसी का तो किंचित् 'तीव्र स्वर' से ही काम निकल जाता है, विशेषत: ऊँची पद मर्यादावालों का। जिसके वचन या कर्म के कारण उग्रता उत्पन्न होती है उसके हृदय में उस उग्रता के दर्शन से साधारणत: क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है। संचारियों में जब उग्रता ली गई तब 'मृदुलता' या 'कोमलता' भी क्यों न ली जाय? जिस प्रकार 'उग्रता' के दर्शन से क्रोध, भय या विषाद का संचार होता है उसी प्रकार जिसके साथ मृदुलता का व्यवहार किया जाता है उसके हृदय में व्यवहार करनेवाले के प्रति प्रेम या श्रद्धा भक्ति का संचार होता है। प्रेम और करुणा में ये प्रवृत्तियाँ मृदुल हो जाती हैं। अत: श्रृंगार और करुण दोनों रसों में 'मृदुलता' संचारी होकर आ सकती है। प्रिय और मधुर वचन इसके सूचक होते हैं। अन्य की मनस्तुष्टि का अभिलाष प्रेम और करुणा दोनों में रहता है। उसी अभिलाष की पूर्ति के साधन में 'मृदुता' योग देती है। दु:ख में किसी की सहायता हमसे नहीं बन पड़ती तो हम मृदु वचनों से ही उसे सांत्वना देने का प्रयत्न करते हैं। जिस प्रकार प्रकृतिगत उग्रता में लोक के अनिष्ट की ओर प्रवृत्ति झलकती है उसी प्रकार 'मृदुलता' में इष्टापूर्त की प्रवृत्ति। यह लोकरंजन प्रवृत्ति जिसमें होती है उसका स्वभाव मृदुल कहा जाता है। राम के 'मृदुल स्वभाव' का गोस्वामी तुलसीदासजी ने मुग्धव होकर स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। भरतजी राम के आगमन के संबंध में तर्क-वितर्क करते हुए अंत में अपने मन को यही समझाकर ढाँढ़स बँधाते हैं कि-

जन-अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबंधु अति मृदुल सुभाऊ।

-रामचरितमानस, सप्तम सोपान, 1।

'मृदुलता' और 'उग्रता' दोनों का चित्र गोस्वामीजी ने परशुराम और लक्ष्मण के संवाद के प्रसंग में साथ ही किया है। लक्ष्मणजी के उग्र भाषण पर उत्तेकजित परशुराम बीच-बीच में राम के मृदु वचनों से ठंडे पड़ते गए हैं।

'उग्रता' के साथ 'निष्ठुरता' या 'निर्दयता' के मेल से 'क्रूरता' का आविर्भाव होता है। यद्यपि 'निर्दयता' उग्रता से अलग भी देखी जाती है। पर वहाँ निर्दयता की ओर अंत:करण की प्रवृत्ति नहीं होती। किसी दीन अनाथ का सर्वस्व नीलाम कराते हुए बनिये में कुछ भी उग्रता नहीं होती। वह बहुत ही भलमनसाहत, ईमानदारी और नम्रता दिखाता हुआ तथा धर्म और न्याय की बातें कहता हुआ पाया जाता है। वह उस दीन-अनाथ का अनिष्ट नहीं चाहता बल्कि रुपये के लोभ के आगे उसके इष्ट अनिष्ट, भले बुरे या मरने जीने की ओर कुछ ध्यारन ही नहीं देता। जड़ के प्रति अनन्य 'रति भाव' के कारण और 'भावों' के हिसाब से वह मानो स्वयं जड़त्व को प्राप्त रहता है। किसी की दयनीय दशा देख-सुनकर दया न करना कठोरहृदयता है। किसी की दशा दयनीय कर देने में अंत:करण से प्रवृत्त होना निर्दयता है। क्रोध द्वारा प्रेरित कर्मों के समय ही यह मानसिक अवस्था देखी जाती है। किसी अन्य इच्छा या संकल्प द्वारा प्रेरित कर्म दूसरे के देखने में निर्दय प्रतीत हो सकते हैं पर निर्दयता वहाँ कर्ता के अंत:करण में नहीं रहती। अपना काम लेते समय उसके करने में किसी अधीन या सेवक को जो घोर कष्ट हो रहा है उसका कुछ ख्याल न करना दूसरों के देखने में निर्दयता ही है। पर इस प्रकार की मानसिक अवस्था का विचार स्वार्थपरता आदि के साथ शील में ही हो सकता है, भाव के संचारियों में नहीं। जिस 'मानसिक अवस्था' का अस्तित्व अपनी प्रवृत्ति के सहित आश्रय के अंत:करण में हो उसी का ग्रहण 'भावों' के संचारियों में हो सकता है। यदि कोई राजा अपनी अत्यंत प्रिया पत्नी के तोषार्थ दूसरी स्त्री से उत्पन्न पुत्र के वध के लिए उद्यत दिखाया जाय तो उसका कर्म निर्दय होने पर भी 'निर्दयता' उसके अंत:करण में जाग्रत नहीं कही जाएगी । वह जो पुत्र को मारने जा रहा है वह अपनी निर्दयता की प्रवृत्ति से नहीं। अत: निर्दयता श्रृंगार की संचारी नहीं कही जा सकती। किसी अनगढ़ मूर्ख को हँसी-हँसी में चिढ़ाते-चिढ़ाते कोई गढ्ढे में ढकेल दे और उसके हाथ-पैर टूट जायँ तो यह कर्म निर्दय अवश्य कहा जायगा, पर ढकेलनेवाले के अंत:करण में निर्दयता के अभाव के कारण निर्दयता को हास्य रस का संचारी नहीं कह सकते। इसी प्रकार 'रौद्र' को छोड़ और सब रसों से इसका बहिष्कार हो जाता है।

'मोह' और 'जड़ता' ये दोनों मिलती-जुलती अवस्थाएँ हैं। 'जड़ता' है एकदम ठक हो जाना जिसमें मनुष्य की शारीरिक और मानसिक दोनों क्रियाएँ एक क्षण के लिए बंद-सी हो जाती हैं। यह अवस्था इष्ट और अनिष्ट दोनों के दर्शन और श्रवण से हो सकती है।1 इसमें चित्त की व्याकुलता नहीं रहती। 'मोह' दु:खावेग के कारण ही होता है और उसमें चित्त की व्याकुलता और मूर्च्छार होती है।2 प्रिय को सामने पाकर कभी-कभी भावातिरेक के कारण कुछ क्षण तक न तो मुँह से कोई बात निकलती है, न पैर आगे बढ़ते हैं, टकटकी लगाकर ताकने के सिवा उनसे कुछ नहीं बन पड़ता। यह अवस्था जड़ता है जो अचिंतित अथवा अद्भुत विषय के अकस्मात् सामने आने पर भी होती है। पति का मरण सुनने पर रति को मूर्च्छा आ जाने से क्षण भर के लिए सुख-दु:ख का कुछ भी ज्ञान नहीं रह गया।3 यह अवस्था मोह की है।

स्वप्न के संबंध में इस बात की ओर ध्याहन दिला देना फिर आवश्यक है कि संचारियों के पाँच वर्गों में से प्रथम वर्ग को छोड़ और किसी में विषय प्रधान भाव


1. अप्रतिपत्तिर्जड़ता स्यादिष्टानिष्टदर्शनश्रुतिभि:। -साहित्यदर्पण, 3-148।

2. मोहो विचिन्तता भौतिदु:खावेगानु चिंतनै:।

मूर्च्छ नाज्ञानपतनभ्रमणादर्शनादिकृत्॥ -साहित्यदर्पण, 3-150।

3. तीव्राभिषक्ष्प्रभवेण वृत्तिं मोहेन संस्तम्भयतेन्द्रियाणाम्।

अज्ञानभर्तृव्यसना मूर्हूत्तंर कृतोपकारेव रतिर्बभूव॥

-कुमारसंभव, 3-73।

के आलम्बन से भिन्न नहीं हो सकता। रति, क्रोध, भय इत्यादि में केवल उसी को स्वप्न में देखना संचारी होगा जिससे रति या भय हो, अथवा जिस पर क्रोध हो।

शारीरिक या मानसिक क्रिया में तत्पर न होने की प्रवृत्ति जिस अवस्था में हो वह अलसता है। यह अवस्था शारीरिक या मानसिक श्रांति के कारण होती है। यद्यपि साहित्य के ग्रंथों में शारीरिकश्रम और गर्भ आदि के कारण उत्पन्न आलस्य को संचारी कहा है1 पर संचारी का लक्षण उस पर ठीक-ठीक नहीं घटता है। जब तक उसका किसी भाव के साथ प्रत्यक्ष संबंध न हो-सीधा लगाव न हो-तब तक वह संचारी कैसा? रात भर जगी हुई स्त्री बैठे-बैठे जँभाई लेती है तो इससे श्रोता या दर्शक को 'रति भाव' के अनुभव में कुछ सहायता पहुँचती हुई मुझे तो नहीं मालूम पड़ती। इस प्रकार की अलसता का वर्णन उस भद्दी रुचि का परिचायक है जिसके अनुसार मध्या। और प्रौढ़ा की रति का निर्लज्जता के साथ वर्णन होने लगा। प्रेम के साथ इस शारीरिक श्रम से उत्पन्न आलस्य का केवल बादरायण संबंध दिखाई पड़ता है। जिस क्रिया या व्यापार से शारीरिक श्रम (थकावट) हुआ वह तो भावप्रेरित क्या भाव का अंश तक कहा जा सकता है पर इससे उस श्रम को और उस श्रम से उत्पन्न आलस्य को भाव द्वारा प्रेरित संचारी नहीं कह सकते। यदि कोई वीर तलवार चलाते-चलाते थक जाय जिससे उसे आलस्य आ जाय तो क्या आलस्य वीर रस का संचारी कहा जायगा? हास्य रस में जो निद्रा और आलस्य संचारी कहे गए हैं उनके संबंध में भी यही प्रश्न उठता है। यदि कोई हँसते-हँसते थक जाय और उस थकावट के कारण उसे नींद या आलस्य आने लगे तो यह नींद या आलस्य हसन-क्रिया के परिणाम श्रम का परिणाम है, हास्य के भाव का पोषक संचारी नहीं। अत: आलस्य के वर्णन को किसी भाव का संचारी मानना मेरी समझ में ठीक नहीं। उसे स्वतंत्र ही मानना चाहिए।

किसी भाव के वेग के कारण जो मानसिक शैथिल्य होता है उसे 'ग्लानि' कहते हैं। दु:ख, पश्चात्ताप या शोक के आवेग से शिथिल मन का किसी काम की ओर उत्साहित न होना शोक का ग्लानि संचारी कहा जा सकता है। 'ग्लानि' के लक्षण में दु:ख और मनस्ताप से उत्पन्न शैथिल्य के अतिरिक्त परिश्रम, भूख, प्यास आदि से उत्पन्न शैथिल्य भी ले लिया गया है।2 पर उपर्युक्त विवेचन के अनुसार दु:ख और मनस्ताप से उत्पन्न शिथिलता ही संचारी के रूप में कही जा सकती है। इसी

1. आलस्यं श्रमगर्भांद्यैजांडयं जृम्भासितादिकृत्।

-साहित्यदर्पण, 3-155।

2. रत्यायासमनस्ताप क्षुत्पिपासादिसंभवा।

ग्लानिर्निष्प्राणताकम्पकार्यानुस्साहतादिकृत्॥

-साहित्यदर्पण 3-170।

से मैंने ग्लानि को शारीरिक अवस्था में न रखकर मानसिक अवस्था में रखा है। अंगग्लानि 'श्रम' से कुछ भिन्न नहीं प्रतीत होती। अत: उसपर विचार शारीरिक अवस्था के अंतर्गत 'श्रम' में ही किया जायगा। किसी अरुचिकर वस्तु के सामने रहने से भी मन पर जोर पड़ता है इससे उससे उत्पन्न शैथिल्य ग्लानि ही है। किसी बात से ऊब जाना भी ग्लानि ही है।

'उन्माद' नामक मानसिक अवस्था राग, शोक, क्रोध, भय आदि कई भावों की भावदशा और स्थायीदशा के कारण उत्पन्न हो सकती है।1 जिस प्रकार राग की भावदशा में लोग कभी-कभी थोड़ी देर के लिए उन्मत्त प्रलाप आदि करते हैं उसी प्रकार उसकी रति नायक स्थायी दशा में भी बहुत दिनों के लिए या सब दिन के लिए पागल हो जाते हैं। हमारे बंगाली भाइयों के प्रेम का तो पागलपन एक बड़ा भारी अंग है। अत: प्रेम के उन्माद के अधिक वर्णन को यदि हम 'गौड़ी पद्धति' कहना चाहें तो कह सकते हैं। गिरीष घोष के नाटकों में शायद ही कुछ नाटक ऐसे निकलें जिनमें कोई 'उन्मादिनी' न हो! और भावों के कारण भी उन्माद होता है। जिस प्रकार क्रोधोन्मत्त होकर लोग बहुत-सी बेठिकाने की बातें कर बैठते हैं उसी प्रकार बैर के प्रतिशोध के लिए भी बरसों पागल होकर घूमते देखे जाते हैं। किसी के शोक में पागल होना तो प्रसिद्ध ही है। जुगुप्सा या विरति से भी उन्माद की-सी दशा हो सकती है। शेक्सपियर का 'हैमलेट' इसका उदाहरण है। अपने चाचा और माता के कृत्य से उसे जो विरक्ति हुई उसने उसकी दशा उन्मत्त की-सी कर दी।

'साहित्यदर्पण' के लक्षण के अनुसार संतोष या तुष्टि ही का नाम 'धृति' प्रतीत होता है। पर मैं स्पष्टता के लिए उसे 'धैर्य' से भिन्न रखना ठीक नहीं समझता। नायक के गुणों में 'धैर्य' का जो लक्षण कहा गया है उसी का ग्रहण कर संचारी का नाम मैंने 'धैर्य' ही रखा है। हिंदीवालों ने यही अर्थ ग्रहण किया है। बड़े-बड़े विघ्न उपस्थित होने पर भी अपने व्यवसाय में अविचलित रखनेवाली मानसिक अवस्था का नाम धैर्य है।2 वीर रस में धैर्य प्राय: संचारी होकर आता है। युद्धयात्रा के समय विकट पर्वत, नदी आदि पड़ने पर भी बराबर अग्रसर होने का प्रयत्न किए जाना धैर्य सूचित करता है। इसी प्रकार किसी वस्तु को दान करते समय उस वस्तु के अभाव से होनेवाले कष्ट, कठिनाई आदि की कुछ परवाह न करना, किसी धर्मसाधन के मार्ग में घोर कष्ट देखकर भी उसपर अग्रसर होते जाना धैर्य का सूचक होगा। कफन माँगते हुए राजा हरिश्चंद्र अपनी रानी को पहचान लेने पर भी कफन माँगते ही रहे। 'धैर्य' के समान 'अधैर्य' भी संचारी होकर आ सकता है, जैसे-


1. चित्तसम्मोह उन्माद: कामशोकभयादिभि:।

अस्थानहासरुदितगीतप्रलपनादिकृत॥ -वही, 3-160

2- मिलाइए रसकुसुमाकर, तृतीय कुसुम, पृष्ठ 23।


हरस्तु किंचित्परिवृत्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशि:।

उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि॥

-साहित्यदर्पण, तृतीय अधयाय, विमलाटीका, पृष्ठ 164।

इष्ट की प्राप्ति से इष्ट की पूर्ति के अनुभव का नाम 'संतोष' है। रति, क्रोध और उत्साह में यह प्राय: संचारी होकर आता है। तत्व'ज्ञान द्वारा प्राप्त संतोष को संचारियों में नहीं ले सकते। प्रिय का साक्षात्कार होने पर उसके रूपदर्शन और वचनश्रवण से नेत्रों और कानों का तृप्त होना संतोष ही कहा जायगा। जैसे-

आई भले हौ चली सखियान मैं पाई गोबिंद के रूप की झाँकी।

त्यों पद्माकर हार दियो गृह-काज कहा अरु लाज कहाँ की।

है नख तें सिख लौं मृदु माधुरी बाँकियै भौंहैं, बिलोकनि बाँकी।

आज की या छवि देखि भटू! अब देखिबे को न रहयो कछु बाकी॥

-जगद्विनोद 331।

इसी प्रकार जिसपर क्रोध है उसके यथेष्ट उत्पीड़न से और किस कर्म के प्रति उत्साह है उसके सम्यक् साधन से भी बराबर संतोष होता है। 'संतोष' के समान 'असंतोष' के उदाहरण भी काव्यों में बहुत सुंदर मिलते हैं-विशेषत: श्रृंगार में, जैसे-

मोहन अनूप बने रूप ठगी ऑंखैं इतै,

इनकी उरझ की छबीले येई साखियै।

पीवति अघाय प्यास बाढ़ियै रहति महा

अहा अचरज कहौ कहा कहि भाखियै।

जानमनि जीवन उदार रिझवार छैल,

जसुधा-कुँवर गुन गहि अभिलाखियै।

चोप चातकी है भई आनंद के घन हौ जू,

सुदरस रस दै रसीले रस राखियै॥

राग, द्वेष, हास्य आदि की प्रेरणा से उत्पन्न वह मानसिक अस्थिरता चपलता कहलाती है जिसके अनुसार लोग अनेक प्रकार की ऐसी चेष्टाएँ प्रदर्शित करते हैं जो नियमित प्रयत्न की दशा को नहीं पहुँचती।1-जैसे, नायक को देखकर नायिका का बिना प्रयोजन इधर-उधर करने लगना, किसी को खोदकर या चपत लगाकर भागना इत्यादि; किसी बेढंगे मूर्ख को देखकर कहने लगना कि हट जाओ सामने से, अमुक शास्त्री जी आते है।2; द्वेष के पात्र को देखते ही उसके ऊपर कटु व्यंग्य छोड़ने लगना


1. मात्सर्यद्वेषरागादेश्चापल्यं त्वनवस्थिति:।

तत्रा भर्त्सनपारुष्यस्वच्छन्दाचरणादय:। -साहित्यदर्पण, 3-169।

2. गुरोर्गिर: पंच दिनान्यधीत्य वेदान्तशास्त्रणि दिनत्रायं च।

अमी समाघ्राय च तर्कवादान्समागता: कुक्कुटामिश्रपादा:॥ -साहित्यदर्पण, 152।

इत्यादि-इत्यादि। श्रृंगार के संचारी चलपता का यह बहुत अच्छा उदाहरण है-

वह साँकरी कुंज की खोरी अचानक राधिका माधव भेंट भई।

मुसक्यानि भली अँचरा की अली त्रिबली की बली पर डीठि गई।

झहराय, झुकाय, रिसाय 'ममारख' बाँसुरिया हँसि छीनि लई।

भृकुटी मटकाय, गोपाल के गाल में ऑंगुरी ग्वालि गड़ाय गई।

-काव्यप्रभाकर, 5-378।

जिससे घृणा या द्वेष हो उसे देखकर भला-बुरा या अप्रिय वचन कहने लगना भी 'चपलता' ही के अंतर्गत माना जायगा, पर तभी तक जबतक उग्रता न प्रकट होगी। यदि कटु वचन उग्रता लिए होगा तो वह 'उग्रता' का सूचक होगा चपलता का नहीं। रामचरितमानस में लक्ष्मण और परशुराम के संवाद के समय लक्ष्मण के प्राय: सब वचन चपलता के उदाहरण हैं। केवल कहीं-कहीं उग्रता व्यंजित होती है, जैसे-

भृगुकुल समुझि, जनेउ बिलोकी। जो कछु कहेहु सहेउँ रिस रोकी॥

'मारने के लिए हाथ खुजलाना', 'बिना बोले रहा न जाना' आदि वाक्य 'चपलता' ही सूचित करते हैं।