भाषा, लिखावट और गिनती / नेहरू / प्रेमचंद

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हम तरह-तरह की भाषाओं का पहले ही जिक्र कर चुके हैं और दिखा चुके हैं कि उनका आपस में क्या नाता है। आज हम यह विचार करेंगे कि लोगों ने बोलना क्यों सीखा।

हमें मालूम है कि जानवरों की भी कुछ बोलियाँ होती हैं। लोग कहते हैं कि बंदरों में थोड़ी-सी मामूली चीजों के लिए शब्द या बोलियॉं मौजूद हैं। तुमने बाज जानवरों की अजीब आवाजें भी सुनी होंगी जो वे डर जाने पर और अपने भाई- बंदों को किसी खतरे की खबर देने के लिए मुँह से निकालते हैं। शायद इसी तरह आदमियों में भी भाषा की शुरुआत हुई। शुरू में बहुत सीधी-सादी आवाजें रही होंगी। जब वे किसी चीज को देख कर डर जाते होंगे और दूसरों को उसकी खबर देना चाहते होंगे तो वे खास तरह की आवाज निकालते होंगे। शायद इसके बाद मजदूरों की बोलियॉं शुरू हुईं। जब बहुत-से आदमियों को कोई चीज खींचते या कोई भारी बोझ उठाते नहीं देखा है? ऐसा मालूम होता है कि एक साथ हाँक लगाने से उन्हें कुछ सहारा मिलता है। यही बोलियॉं पहले-पहल आदमी के मुँह से निकली होंगी।

धीरे-धीरे और शब्द बनते गए होंगे जैसे पानी, आग, घोड़ा, भालू। पहले शायद सिर्फ नाम ही थे, क्रियाएँ न थीं। अगर कोई आदमी यह कहना चाहता होगा कि मैंने भालू देखा है तो वह एक शब्द भालू कहता होगा और बच्चों की तरह भालू की तरफ इशारा करता होगा। उस वक्त लोगों में बहुत कम बातचीत होती होगी।

धीरे-धीरे भाषा तरक्‍की करने लगी। पहले छोटे-छोटे वाक्य पैदा हुए, फिर बड़े-बड़े। किसी जमाने में भी शायद सभी जातियों की एक ही भाषा न थी। लेकिन कोई जमाना ऐसा जरूर था जब बहुत सी तरह-तरह की भाषाएँ न थीं। मैं तुमसे कह चुका हूँ कि तब थोड़ी-सी भाषाएँ थीं। मगर बाद को, उन्हीं में से हर एक की कई-कई शाखाएँ पैदा हो गई।

सभ्यता शुरू होने के जमाने तक, जिसका हम जिक्र कर रहे हैं भाषा ने बहुत तरक्‍की कर ली थी। बहुत-से गीत बन गए थे और भाट व गवैये उन्हें गाते थे। उस जमाने में न लिखने का बहुत रिवाज था और न बहुत किताबें थीं। इसलिए लोगों को अब से कहीं ज्यादा बातें याद रखनी पड़ती थीं। तुकबंदियों और छंदों को याद रखना जयादा सहल है। यही सबब है कि उन मुल्कों में जहाँ पुराने जमाने में सभ्यता फैली हुई थी, तुकबंदियों और लड़ाई के गीतों का बहुत रिवाज था।

भाटों और गवैयों को मरे हुए वीरों की बहादुरी के गीत बहुत अच्छे लगते थे। उस जमाने में आदमी की जिंदगी का खास काम लड़ना था, इसलिए उनके गीत भी लड़ाइयों ही के हैं। हिंदुस्तान ही नहीं, दूसरे मुल्कों में भी, यही रिवाज था।

लिखने की शुरुआत भी बहुत मजेदार है। मैं चीनी लिखावट का बयान कर चुका हूँ। सभी में लिखना तस्वीरों से शुरू हुआ होगा। जो आदमी मोर के बारे में कुछ कहना चाहता होगा, उसे मोर की तस्वीर का खाका बनाना पड़ता होगा। हाँ, इस तरह कोई बहुत ज्यादा न लिख सकता होगा। धीरे-धीरे तस्वीरें सिर्फ निशानियाँ रह गई होंगी। इसके बहुत दिनों पीछे वर्णमाला निकली होगी और उसका रिवाज हुआ होगा। इससे लिखना बहुत सहल हो गया और जल्दी-जल्दी तरक्‍की होने लगी।

अदद और गिनती का निकलना भी बड़े मार्के की बात रही होगी। गिनती के बगैर कोई रोजगार करने का खयाल भी नहीं किया जा सकता। जिस आदमी ने गिनती निकाली वह बड़ा दिमागवाला या बहुत होशियार आदमी रहा होगा। यूरोप में पहले अंक बहुत बेढंगे थे। रोमन अंकों को तुम जानती हो प्ए प्प्ए प्प्प्ए प्टए टए टप्ए टप्प्ए टप्प्प्ए प्ग्ए ग् इत्यादि। ये बहुत बेढंगे हैं और इन्हें काम में लाना मुश्किल है। आजकल हम, हर एक भाषा में, जिन अंकों को काम में लाते हैं वे बहुत अच्छे हैं। मैं 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 वगैरह अंकों को कह रहा हूँ। इन्हें अरबी अंक कहते हैं क्योंकि यूरोपवालों ने उन्हें अरब जाति से सीखा। लेकिन अरबवालों ने उन्हें हिंदुस्तानियों से सीखा था। इसलिए उन्हें हिंदुस्तानी अंक कहना ज्यादा मुनासिब होगा।

लेकिन मैं तो सरपट दौड़ा जा रहा हूँ। अभी हम अरब जाति तक नहीं पहुँचे हैं।