भूसे में आम / अभिज्ञात / पृष्ठ 4

Gadya Kosh से
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कई बार मुझे लगता है किसलिए चाहिए हमें और संतानें. उन्हें सौतेला बनाने के लिए? मैं अपनी बेटी को उस सौतेलेपन से बचा कर अपने साथ न्याय करना चाहता हूं. पर मैं उसके साथ न्याय कहां कर पाया? मैंने उसे उसी उम्र में वह सब झेलने के लिए भेज दिया, जिस उम्र में मैंने यातनाओं का पहला दौर झेला था. मुझे लगा था मेरी मां इस तरह अपने किए का प्रायश्चित करेगी. मगर नहीं उसने उसके प्रति भी वही रवैया अपनाया जो मेरे प्रति रहा. मेरी बेटी के पास वे दादी के किस्से नहीं हैं जो मुझे नसीब थे. दादी के सीने का वह सिरहाना नहीं मिला, जो मुझे मिला था.

प्रतिभा ने अपने संगीत की प्रतिभा का विकास किया था. उसे संगीत के कार्यक्रमों में दूसरे शहरों में अक्सर जाना पड़ता था. मुझे एक ओर विरासत में मिले अपने नाना के जूट मिलों की ठेकेदारी और उससे समय चुराकर पत्रकारिता को देना था. ऐसे में पांच साल की बच्ची की देखरेख में मुश्किल पेश आ रही थी. हमने सोचा था कि वह तुमसर में मेरी मां के यहां कुछ वर्ष रह ले तो सब संभल जाएगा. वहां उससे थोड़ी ही छोटी मेरे मझले भाई की बेटी भी रह रही थी. दोनों का मन साथ रहने से लगा रहने की पूरी गुंजाइश थी. तुमसर में दूसरी कक्षा में उसका नाम लिखा दिया गया. यह वही कस्बाई शहर है जहां के अस्पताल में वह पैदा हुई थी. और चौथी पास करने के बाद हम उसे अपने साथ वापस ले गए थे.

मैंने मां से मृदु के बारे में उसी तरह के उलाहने सुने जो मेरी बड़ी मां के मेरे बारे में थे. मैं यह महसूस कर सकता हूं कि उसने क्या कुछ मन की दुनिया में झेला होगा. वह उन पर बहुत कम बात करती है और शायद किसी हद तक भूल चुकी होगी, लेकिन अब उसने कलम पकड़ा है तो सहसा उसकी पीड़ा मेरी पीड़ा एक हो उठी है.

मैं अपनी शादी के एक साल बाद से यानी चौदह साल से अपने गांव नहीं गया हूं. स्वाभाविक है मृदु ने और उसकी मां ने भी मेरा गांव नहीं देखा. जहां मैं छोड़कर तो बहुत कम गया था, लेकिन जो वहां से अपने साथ लिए घूम रहा हूं वह बहुत कुछ है. और यही कुछ मुझसे लिखवाता है.

बेटी तो शहर में आ गई, मगर मेरे संघर्षों में इजाफा होता चला गया था. नाना का सौंपा गया कारोबार मुझसे नहीं चला. मुनाफे के बदले कर्ज चढ़ा. व्यवसाय से मैंने मुंह मोड़ लिया और पत्रकारिता के भरोसे ही सम्मानजनक जिन्दगी जीने की कोशिश करने लगा. मगर पैसे खरचने की आदत बन चुकी थी और महाजनों की सूद दर तगड़ी थी जो पत्रकारिता से मिले कुल पैेसों से अधिक बैठती थी. नाद प्रकाशन के नाम से साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन चलाने की कोशिश की थी, मगर वह चला नहीं.

प्रतिभा ने मदद की मगर वह भी कम पड़ती थी, दूसरे लगातार एक अपराध बोध और हीनता सालती रही क्योंकि प्रतिभा के संगीत को रुपया कमाने का साधन हमने नहीं बनाना चाहा था. दूसरे संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करना उसकी मजबूरी बने न वह चाहती थी और न ही मैं. इन हालातों से बचने के लिए मैंने एक बार फिर व्यवसाय ठीक से करने का साहस जुटाया और पुराना ट्रक खरीद बैठा, जो कबाड़ निकला. इस कोशिश में इतना छला गया कि उसे सुधारते-सुधारते ही जेवर बंधक रखने तक की नौबत आई.

उसे सचमुच कबाड़ के भाव बेचकर फिर कर्ज भरने को तत्पर हो गया. जनसत्ता छोड़ा, दो और अखबारों में जी तोड़ मेहनत की. संपादकीय लिखे. दैनिक स्तंभ लिखे. अनुवाद के काम किए. बांग्ला धारावाहिकों और फिल्मों में भी काम का प्रयास शुरू किया. कुछ काम मिलने लगा था. आश्वासनों के ढेर थे. दोस्तों ने साथ दिया तो कवि सम्मेलनों से भी आय होने लगी. सरकारी प्रतिष्ठानों के हिन्दी दिवस आदि के कार्यक्रमों में निर्णायक या विशेष अतिथि के रूप में याद किया जाने लगा तो इससे भी कुछ भला होने लगा. कुछेक कथित नामचीन लेखकों की पाण्डुलिपियां सुधारने का भी काम ले बैठा.इसी बीच मां ने नाना की दी हुई लगभग एक करोड़ की जायदाद के बदले अपने मैके वालों से साढ़े आठ लाख रुपए लेने का सौदा कर लिया और मुझे मेरा हिस्सा कह 70 हजार रूपए दिए तो पुराना कर्ज मिटा.प्रतिभा ने पातुलिया का मेरा बनाया पुराना घर बेचकर नया और मनपसंद घर बनाने की शुरुआत कर दी तो एक बार फिर कर्ज ने हमारा दामन थाम लिया.

इधर कोलकाता में रहने की विवशता को समझ कर वहां के अखबारों ने कम से कम रुपए में अधिक से अधिक काम लेना शुरू किया, तो दूसरे शहरों में प्रयास करने का निर्णय भारी मन से ले चुका था. पहली बार नौकरी का आवेदन पत्र दूसरे शहर भेजा तो अमर उजाला' का इंटरव्यू कॉल मिला. चयन होने पर अमृतसर में स्टाफ रिपोर्टर होकर चला गया. वहां कुछ माह बाद जालंधर में डेस्क पर बुला लिया गया. उपसंपादक का कार्य मेरे जिम्मे रहा. लगभग डेढ़ साल पंजाब में गुजारने के बाद कलकता में वापसी की संभावना की बदौलत वेबदुनिया डॉट कॉम में वरिष्ठ उप-संपादक होकर आ गया.

इस सबके बीच जिन्दगी में जो कुछ पाया उसे याद करने का समय नहीं था. जो कुछ खोया उसे भी. बेटी के प्रति ध्यान न दे पाने का अहसास टीसता रहता है. छुट्टियों में जब भी जाता हूं, उसके लिए समय कम पड़ता है. प्रतिभा के लिए भी. यह अहसास जरूर होता है कि जब मैं लगातार उनके बीच बना हुआ था तो वे दिन अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जब मैं पूरा एक मुकम्मल दिन और रात केवल उनके बीच गुजारे हों. जैसे एक चक्का था पैर में. प्रतिभा और मृदु से 3 साल से अलग रहते हुए मैंने जो कुछ पाया है वह इन दोनों को. काम से फुरसत के बाद जो भी समय मिला, इन्हें याद करते हुए और छुट्टियों में इनके बीच रहकर. इस बीच लिखी रचनाएं भी इन्हीं तनहाइयों और उनके प्रति सोचने की प्रक्रिया का हिस्सा है.

यह सब लिखते हुए किंचित संकोच हो रहा पर मुझे इन दिनों यह भी लगने लगा है कि यदि कोई लेखक पाठक को अपनी निजी जिन्दगी के प्रति दिलचस्पी पैदा करने में कामयाब नहीं हो पाता, तो यह एक खामी ही मानी जानी चाहिए. किसी लेखक का रचनाकर्म जितना सार्वजनिक होता है, उससे किसी स्तर पर कम निजी नहीं होना चाहिए. निजता और सार्वजनिकता का एक खूबसूरत और सम्मोहक तनाव ही लेखकीय कर्म को वह क्षमता देता है कि वह साहित्य को कभी पुराना और अप्रासंगिक नहीं बनने देता. जहां स्थानीयता और वैश्विकता का भेद मिट जाता है. यही साहित्य का समयबध्द और समय निरपेक्ष एक साथ बनता है. कभी सार्वजनिकता उसकी ढाल बनती है तो कभी उसकी निजता.