मन-माटी / असगर वज़ाहत / पृष्ठ 4
आपने छत बदलवाई है?
हां, पहले लकड़ी की पट्टियां थीं...मैंने दस साल पहले स्लेप लगवा दिया था। सराफ बोले। पानी आया, चाय आई, नाश्ता आया, घर के बच्चे सब-कुछ ला रहे थे। सराफ साहब की मेहरबानी से मैं मुत्तासिर हो गया।
भाई जी, आज भी ये आपका ही घर है...जब तक चाहें, जितने दिन चाहें आराम से रहिए। हमें आपकी सेवा करके अच्छा ही लगेगा। सराफ बोले। मैं कमजोर हो गया था कि खामोश था। डर था कहीं रोने न लगूं। सराफजी ने अपनी बहू को बुलाया। उसने मेरे पैर छुए तो मैं अपने आंसू रोक नहीं पाया।
जी, भगवान की कृपा से भरा-पूरा घर है। मेरे दो बेटे हैं। बड़े की शादी हो गई है। दो बच्चे हैं। दूसरा बेटा दिल्ली में है। मोटर पार्ट्स का काम है उसका। मेरी यहां हार्डवेयर की दुकान है। बड़ा बेटा संभालता है। मैं तो अब कम ही बैठता हूं। घुटनों ने मजबूर कर दिया है। सराफ ने तफसील से अपने पूरे खानदान के बारे में बताया।
अंदर से घर देखेंगे? शर्मा ने मुझसे पूछा। वह शायद समझ गया था कि मैं जो चाहता हूं, वह कह नहीं पा रहा हूं। रंगा-चुना साफ-सुथरा आंगन, तीन तरफ बरामदे...बिल्कुल वही...आंखें बंद किये बगैर सपना देख रहा हूं और सपने में भी ये न सोचा था कि एक दिन यहां आ सकूंगा।
इधर से...इस कमरे से बाहर आने का एक छोटा दरवाजा हुआ करता था? मैंने सराफ साहब से पूछा।
हां, हां है...आइए। हम कमरे में आ गये।
इसी कमरे में मैं पैदा हुआ था। मैंने कहा।
वाह जी, वाह...यह तो हमारे लिए बड़ी बात है। सराफ बोले। मकान अंदर से देखकर फिर बैठक में आ गये। अब मेरा गला कुछ खुल गया था। मैंने कहा, 'उधर लकड़ी की एक चौकी होती थी जिस पर अब्बा नमाज पढ़ा करते थे। यहां, इधर कपड़े वाली दो कुर्सियां और सरपत वाली तीन कुर्सियां होती थीं।'
मैं यह सब उन लोगों को नहीं बता रहा था, अपने को फिर से याद दिला रहा था।
कुछ देर बाद मैंने सराफ साहब से पूछा, यहां चामुंडा का मंदिर है।
हां-हां जी है। वह बोले।
मैं देखना चाहता हूं। मैंने गिड़गिड़ाकर कहा।
हां-हां क्यों नहीं?
गाड़ी है हमारे पास...पक्के तालाब पर खड़ी है।
तब तो और अच्छा है...।
और छुइया का पुल भी देखना है। मैंने कहा और सराफ साहब हँसने लगे, हां-हां जी, जरूर। एक बरसाती नाले पर बने पुल को देखने की दिली ख्वाहिश पर हँसी आना अजीब लगा होगा।
और कर्बला... ठाकुर साहब की हवेली।
हां-हां आपको सब दिखाएंगे। वह बोले।
हमारे लिए छुइया की पुलिया गांव की आखिरी हद हुआ करती थी। हमें वहां जाने की मनाही थी, क्योंकि वह सुनसान
और वीरान जगह थी। नीचे से नाला बहता था जो बरसात में इतना बढ़ जाता था कि बाढ़ आ जाती थी और गांव के लड़के मछली पकड़ने निकल पड़ते थे। हम बड़ी हसरत से उन लड़कों को मछली पकड़ने के लिए जाते देखा करते थे।
मैं, सुरेश, अमीन, प्रभाकर और महेश दोपहर में सबकी नजरों से बचकर छुइया आते थे। सुरेश कमल के फूल तोड़ने की कोशिश में एक बार नाले में गिर पड़ा था और हमने बड़ी मुश्किल से उसे निकाला था। प्रभाकर अपने घर से गुड़ और चने ले आता था... मैंने सोचा सराफ साहब से सुरेश, प्रभाकर और महेश के बारे में पूछूं, लेकिन फिर डर और घबरा गया... लगा पता नहीं क्या बातें पता चलें और पता नहीं, उनमें से कितनी अच्छी हों और कितनी अच्छी न हों, इसलिए इन दोस्तों की यादें अपने दिल में ही महफूज रखूं।
मैंने झुककर छुइया को देखा। मुझे अपना अक्स ग्यारह साल के उस लड़के का लगा जो इस पुलिया पर बैठकर देसी आम चूसा करता था और गुठलियां छुइया में फेंका करता था, शायद बरसों से छुइया आम की उन गुठलियों के लिए तरस रही है। छुइया के उस पार सड़क के दोनों तरफ आम के बडे-बड़े बाग हैं।
आम के ये बाग बहुत पुराने हैं।, मैंने सराफ साहब से कहा।
हां, बहुत पुराने हैं ... बाग देखेंगे?
मुझे लेकर ये लोग बाग आ गये। डा. शर्मा ने दो-चार सीकलें ले लीं। मुझे आफर कीं, मैंने मना कर दिया और वे बड़े मजे में खाने लगे।
चामुंडा के मंदिर के सामने गाड़ी रुकी।
यह मंदिर... इतना बड़ा...। मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन सराफ बात पूरी करने से पहले बोले, मंदिर तो अब भी छोटा ही है...पुजारी के लिए दो कमरे बनाये गये हैं।
हम मंदिर के अहाते में आ गये। पीपल के वही पुराने और लहीम-शहीम पेड़। मैं उनके पत्तों को हवा में हिलता देखता
रहा। हर पत्ते पर मेरा नाम लिखा है। उन पत्तों पर भी जो अभी आजकल में ही निकले हैं, जिनका रंग पीला है और जो कमसिन लड़की के होठों-जैसे मुलायम हैं।
मंदिर की छत और पीपल के पेड़ों पर बंदरों की पूरी सेना मौजूद है। हम तपती दोपहरों में घरवालों को चकमा देकर यहां आ जाते, तब यह मंदिर सुनसान हुआ करता था। देवी बहुत सुकून से यहां आराम करती थी। हम यहां चबूतरे पर बैठ जाते थे और तालाब से तोड़े सिंघाड़े खाते थे। बंदर ललचाई नजरों से हमें देखते थे, जैसे कह रहे हों-'यार सब खाये जा रहे हो.. एक-आध तो हमें भी दे दो...'। इसी मंदिर के चबूतरे पर हाथ गुलेल बनाया करते थे। निशाना साधने की प्रेक्टिस किया करते थे, पर हमारे निशाने शायद गलत लग गये हैं, तब ही तो मैं बेवतन हो गया हूं... महेश और प्रभाकर के साथ देवी के दर्शन करता था, अब मुझे याद नहीं, लेकिन उस जमाने में पूजा की लाइनें याद हो गईं थीं जो मोहन पढ़ा करता था।
हमें देखकर पुजारी बाहर आ गये। उन्होंने दर्शन कराये और कहने लगा कि कमरों की छतों पर स्लैप तो डल गया है लेकिन गिट्टी नहीं पड़ी है। कोई 'श्रद्धालु अगर बीस हजार रुपये दे दे तो गिट्टी पड़ सकती है। सराफ साहब ने कहा, ये मेहमान हैं...आप बाद में मुझसे बात करना। कर्बला के आसपास कुछ नये घर बन गये हैं, लेकिन कर्बला का फाटक वही है। फाटक के कंगूरे, चौहदी वही है। मीनारों पर काली काई भी वैसी है। अंदर की तरफ दीवार में बनी ताक भी उसी तरह काली है जैसे मैंने देखी थी।
मुझे लाहौर में जो सपने आते थे, वे कितने सच होते थे। सपने में एक-एक 'डिटेल' हुआ करती थी। चामुंडा के मंदिर में आरती, मोहर्रम का जुलूस, छुरियों का मातम, मोहर्रम की सुबह ताजियों का ठंडा किया जाना। चार बजे शाम को फाका शिकनी... मैं अपने सपनों को ही साकार देख रहा था। एकटक, एक नजर में सब-कुछ भर लेना चाहता था।
मैं कर्बला का चक्कर लगाना चाहता हूं। मैंने कहा।
हां, हां चलिये, शर्मा मेरे साथ हो लिए। हम गंदी नालियों और कूड़े के ढेर से बचते-बचते कर्बला का चक्कर लगाने लगे।
वहां तो मोहर्रम बड़े जोर-शोर से मनाया जाता होगा? शर्मा ने पाकिस्तान के मोहर्रम के बारे में पूछा, मैंने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि कोई सही जवाब मेरे दिमाग में नहीं आ रहा था, फिर खयाल आया कि कुछ-न-कुछ तो कहना ही चाहिए। मैंने धीरे से 'हां' कहा और कर्बला के दूसरे फाटक पर वह जगह देखने लगा जहां मैं अलम खडे़ कराता था। जहां अब्बाजान ताबूत रखते थे और जहां ताजिए टिकाये जाते थे। मैं वहां गया और मैंने उस जगह को छुआ तो लगा अब्बाजान, बड़े खालू, बन्ने चच्चा और अम्मा को छू लिया हो।
सब-कुछ देखकर वापस आये तो सराफ साहब के घर खाना तैयार था। मैंने दिल में सोचा, इस एहसान का बदला तो मैं चुका भी न पाऊंगा, क्योंकि सराफ साहब पाकिस्तान क्यों आएंगे? मैंने सोचा, काश मैं अपने साथ कोई अच्छा तोहफा रख लेता और सराफ साहब की बहू को दे देता, फिर खयाल आया कि बहू को तो पैसे भी दिये जा सकते हैं। मैंने बहू को बुलाकर उसे पांच सौ रुपये दिये...सराफ साहब बहुत रोकते रहे, लेकिन मैं नहीं माना। वापस जाने के लिए हम लोग सराफ साहब के घर से निकलकर गली में आ गये। एक छोटी-सी दुकान पर शर्मा ने सिगरेट खरीदी। दुकानदार को पैसे देने लगा तो उसने लेने से इनकार कर दिया। पूछने पर कि पैसे क्यों नहीं ले रहा है, उसने गली के दूसरी तरफ खड़े एक आदमी की तरफ इशारा कर दिया। मतलब यह था कि वह मना कर रहे हैं।
मैं उनके पास गया। कोई पैंसठ-सत्तर साल उम्र रही होगी। चेहरे पर लंबी दाढ़ी, माथे पर सिजदा करने का निशान। दुबला-पतला जिस्म। कुर्ता और तहमद पहने इन बुजुर्ग से पूछा तो बोले, मैं तुझसे पैसा लूंगा, पता नहीं कितने साल बाद तो तू आया है। तू मुझे न जानता होगा लेकिन मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूं। तेरे बाप को भी जानता था, तेरा चचा मेरे साथ घूमता था। मैं हैरान खड़ा रह गया।
इससे पहले कि मैं अपनी आपबीती खत्म करूं आप लोगों को सिर्फ एक छोटा-सा प्रसंग और बताना चाहूंगा। लाहौर में मेरे दोस्त हैं अकरम अहमद। वह लखनऊ से लाहौर आये थे। पहली बार जब मुझसे मिले और पता चला कि हम दोनों मोहाजिर हैं, तो बोले, चलिए साहब, अपने देश की कुछ बातें हो जाएं।
अपने देश की?
हां-हां... हिंदुस्तान की बातें। वह राजदारी से बोले। मैं हैरत से देखने लगा।
आपने सुना नहीं? कहते हैं... वे शेर-जैसा कुछ सुनाने लगे आंखें है इस देश में मेरी, दिल मेरा उस देश में है। दिन में पाकिस्तानी हूं मैं, रात में हिंदुस्तानी।
मुझे अपने सपने याद आने लगे।
जैसा कि मैंने आप लोगों से वायदा किया था कि इस दास्तान में कुछ जगबीती है और कुछ आपबीती है और मैं दोनों को सुनाने से पहले बता दूंगा कि जगबीती क्या है और आपबीती क्या है। ...तो अब मैं आपको कुछ जगबीती सुनाने जा रहा हूं।
लाहौर में मेरी कंपनी को चीन से लकड़ी सप्लाई करने का एक बड़ा आर्डर मिला। कंपनी के मालिक और एम.डी. रौशन हबीब, जिन्हें सितार-ए-पाकिस्तान का खिताब भी मिल चुका है, मेरे बॉस थे। उन्होंने आर्डर दिया कि मैं लकड़ी का सौदा करने सूरीनाम जाऊं, जो लकड़ी के इंटरनेशनल बाजार का एक सेंटर है। मैं पारामारीबो के लिए रवाना हो गया। वहां बड़ी तादाद में वो लोग भी बसे हुए हैं जिन्हें डेढ़-दो सौ साल पहले हिंदुस्तान से वहां ले जाया गया था, ताकि उस इलाके में गन्ने की खेती कराई जा सके। इनमें से कुछ तो लौट आये थे लेकिन र्यादातर वहीं बस गये हैं।
अपने पारामारीबो में काम के दौरान मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला जिनके पुरखे हिंदुस्तान से वहां गये थे। इन लोगों में डा. अजीज भी थे। अब मैं जिनकी कहानी सुनाने जा रहा हूं। वह हैं डा. अजीज, जो पारामारीबो के जाने-माने डाक्टर हैं। उनकी बड़ी अच्छी प्रैक्टिस है। दूसरे कारोबारों में भी उन्होंने पैसा लगाया है। शहर से सौ किलोमीटर दूर उनका हजारों एकड़ का फार्म है। शहर में कई इमारतें हैं। मुल्क के बाइज्जत और मालदार लोगों में जाने जाते हैं। उन्होंने एक रात मुझे घर खाने पर बुलाया था, जहां जुबैदा भी थी। जुबैदा भी पढ़ी-लिखी खातून हैं और कई तरह के समाजी काम करती हैं। खाना खाने, कॉफी पीने के लिए हम उनकी कोठी के पीछे स्वीमिंग पूल के किनारे आ गये। पूल के अंदर रोशनियां जल रही थीं और नीले पानी में लहरों की परछाइयां तैर रही थीं। एक तरफ पाम के पौधों का अक्स पानी में पड़ रहा था, दूसरी तरफ कैरिबियन के फूलों के पौधे लगे थे। स्वीमिंग पूल के किनारे कॉफी पीते हुए डा. अजीज और उनकी बेगम जुबैदा ने मुझे अपनी जिंदगी का एक दिलचस्प वाकया सुनाया, जो मैं उन्हीं की जबान में आपके सामने रख रहा हूं।
हमारे परदादा, अलीदीन गिरमिटिया बन गये थे। कलकत्ता से 'क्वीन आफ योरोप' जहाज पर सवार हुए और दो महीने में यहां पहुंचे थे। यहां उस वक्त कुछ नहीं सिर्फ जंगल था। ऐसा-वैसा जंगल नहीं...बिल्कुल 'रेन फारेस्ट'-जैसा जंगल। इतना भयानक जंगल था कि उसमें दो कदम भी नहीं घुसा जा सकता था। इन मजदूरों ने उस जंगल को साफ करने का काम शुरू किया जो उस जमाने में जानलेवा काम था, क्योंकि मशीन के नाम पर कुछ नहीं था। सब-कुछ हाथ से करना पड़ता था। कुछ साल पहले दादा की शादी इन्हीं खानदानों में से किसी खानदान की लड़की से हुई। दादा पैदा हुए। दादा को यह डर था कि कहीं हमारी नस्लें यह भूल न जाएं कि वह कौन हैं? कहां से आये थे? उनका गांव-घर कहां था? उन्होंने एक गीत बनाया जिसमें अपनी जाति, धर्म, पुश्तैनी गांव और इलाके का नाम था। दादा ने यह गाना अब्बा को याद करा दिया और अब्बा ने यह गाना मुझे याद करा दिया। यानी तीन पीढि़यों से होता यह गाना मुझ तक पहुंचा था। मैं हिंदी नहीं सीख सका और न बोल सकता हूं, क्योंकि मेरी पढ़ाई-लिखाई हॉस्टल में हुई थी। सालों-दर-साल गुजरते रहे और जब ये गाना मैं अपने बेटे को याद करा रहा था तो खयाल अाया कि क्यों न अपने गांव, देस, वतन को चलकर देखा जाए। पैसा मैंने काफी कमा लिया था। वह फिक्र न थी जो शायद अब्बा या दादा को रही होगी। मैंने जुबैदा से इस बारे में बात की तो वह भी तैयार हो गई। हमारे पास पते के तौर पर वही गाना था और इक्का-दुक्का बातें पता थीं कि हमारा गांव पहाड़ों के बीच में है। गांव तक जाने के लिए एक छोटे पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है। गांव के पास एक झरना है, जहां से गांववाले पानी लाते हैं। एक छोटा-सा तालाब है जहां जानवर पानी पीते हैं और लोग नहाते-धोते हैं। डा. अजीज वाकया सुनाते-सुनाते रुके और अपना सिगार सुलगाने लगे। मैंने मौका गनीमत जाना और पूछा, वह गाना क्या है? डा. अजीज हँसने लगे। सुनिए-
जत पटाना
गउ समना
मलक देस हरयाना।
मैं कुछ नहीं समझा। मैंने कहा।
यही हाल बंबई (मुंबई) में था।
बंबई में?
हां, मैं और जुबैदा बंबई पहुंच गये और वहां लोगों को हमने ये पता बताया तो कोई कुछ नहीं समझ पाया...एक लंबा सफर करके बंबई पहुंचे थे। पारामारीबो से एम्सटर्डम गये थे। वहां से लंदन आये थे। वहां से बंबई की फ्लाइट ली थी...और गजब ये कि वहां कोई हमारा पता ही नहीं समझ रहा था। खैर, हम ताज होटल में ठहर गये। होटल में
भी कई लोगों को गाना सुनाया, लेकिन कोई न समझ पाया।
फिर क्या किया?
अचानक मेरी समझ में एक बात आई। अगले दिन मैंने बाजार से इंडिया का एक बड़ा नक्शा खरीदा और होटल के कमरे में नक्शा फैलाकर कोई ऐसा लाज तलाश करने लगा जो मेरे गाने में है। हर लाज को तलाश किया, क्योंकि मुझे खुद किसी भी लाज का मतलब नहीं मालूम था।
फिर क्या हुआ? मैंने बेसब्री से पूछा।
एक लाज मिला। डा. अजीज ने बताया।
कौन-सा लाज?
हरियाणा। उन्होंने बताया।
यह क्या है?
दिल्ली के नजदीक एक स्टेट है।
फिर?
फिर अगले दिन हमने फ्लाइट पकड़ी और दिल्ली आ गये। वहां एयरपोर्ट पर टैक्सीवालों को यह गाना सुनाया...हरयाना को छोड़कर कोई कुछ नहीं समझा।
फिर?
अब क्या करते? इतनी दूर आना बेकार तो नहीं जाना चाहिए था। टैक्सीवाले से कहा, हरियाणा चलो...।
उसने पूछा होगा हरियाणा में कहां?
बिल्कुल यही हुआ।
तब क्या किया?
आखिर एक चालाक किस्म का टैक्सीवाला तैयार हो गया। जुबैदा बोली।
...और उसकी चालाकी हमारे काम आ गई।
कैसे?
उसने तो यह सोचा था कि दो मूर्ख मिल गये। इन्हें हरियाणा में इधर-उधर घुमाता रहूंगा और खूब पैसे बनाऊंगा, लेकिन हम लोग बेफिक्र हो गये थे कि अब हमें हमारे पते पर पहुंचाने की जिम्मेदारी टैक्सीवाले की है। हमने उसे पता बता दिया है और उसने हमें टैक्सी में बैठा लिया है।
फिर?
दिनभर टैक्सी चलती रही। हम जगह-जगह रुककर अपना गाना सुनाते रहे। कुछ लोगों को मजा भी आता था। कुछ
हमारी मूर्खता पर हँसते थे। कुछ हमें प्रशंसाभरी नजरों से देखते थे। पूरा दिन गुजर गया, रात हो गई। टैक्सीवाला हमें एक ढाबे पर ले गया। ढाबे के मालिक ने पता नहीं उसे क्या समझाया कि टैक्सीवाला हमें लेकर पुलिस स्टेशन आ गया। पुलिस को भी हमने अपना गाना सुनाया। वे भी नहीं समझ सके, पर एक भले पुलिस अफसर ने मदद करने का वायदा किया। हमें करीब ही एक होटल में ठहरा दिया गया। अगले दिन पुलिस अफसर आया और हमें लेकर पुलिस स्टेशन आया। यहां बहुत से बड़े-बूढ़े लोग मौजूद थे। हमसे पुलिस ने कहा कि इन्हें वह गीत सुनाओ। मैंने एक बार सुनाया...दो बार सुनाया...बार-बार सुनाता रहा। वे लोग आपस में बातचीत करते रहे। गाना समझने की कोशिश करते रहे। मैंने बीस बार से अधिक गाना सुनाया होगा, तब कहीं जाकर धीरे-धीरे गाना खुलने लगा। गुत्थी सुलझने लगी। एक बूढ़े ने पूछा कि क्या हम पठान हैं। ये तो मुझे मालूम था। मैंने कहा, पठान हैं...फिर वे आपस में सलाह करने लगे...और पता चला कि गांव का नाम सापना है जहां अब भी पठानों की आबादी है, लेकिन उनमें बहुत से पाकिस्तान चले गये हैं।
टैक्सी करके हम लोग एक गाइड के साथ सापना गांव पहुंचे, वहां चौपाल पर पूरा गांव जमा हो गया। मैंने अपने परदादा का नाम अलीदीन बताया। यह सुनते आये हैं कि परिवार का कोई लड़का सात समंदर पार चला गया था, पर कभी लौटकर वापस नहीं आया। अलीदीन के परिवार का घर इसी गांव में था। लोग मुझे घर दिखाने ले गये। परिवार पाकिस्तान जा चुका था। हमने अपना घर देखा...डेढ़ सौ साल बाद वहां अलीदीन की तरफ से कोई गया।
गांववालों का क्या 'रिएक्शन' था?
आज हम वी.आई.पी. हो गये थे। जुबैदा ने गांव पर फिल्म बनाई। हम गांव के पास बने एक 'टूरिस्ट रिजार्ट' में रहे। रोज गांव जाया करते थे। हमें वे खेत दिखाये गये जो कभी हमारे थे। चौपाल पर इधर-उधर से लोग आते थे। हमसे मिलते थे।
खानदान वालों का कुछ पता चला?
वह पाकिस्तान चले गये थे...इतना जरूर पता चला कि जो पाकिस्तान गये थे उनका नाम रफीकउद्दीन था और वह रावलपिंडी में जाकर बसे थे।
बस आगे का काम आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए...मैं पाकिस्तान जाकर उन्हें तलाश कर लूंगा। मैंने कहा।
कुछ देर बाद डा. अजीज बोले, अगर मैं हरियाणा में अपने गांव न जाता तो...उसी तरह अपने को अधूरा महसूस करता-जैसे मेरे वालिद और दादा किया करते थे।
मैं हैरत से उन्हें देखता रह गया।
...और अब आखिर में आप लोगों को एक वाकया और सुनाता चलूं। यह आपबीती नहीं है, जगबीती है, लेकिन जो कुछ है बिलकुल सच है। सोलह आना सच है। दिल्ली में मेरे एक दोस्त हैं, जो कुछ अजीब किस्म के आदमी हैं, लेकिन मैं उनके अजीब होने की दास्तान नहीं सुनाऊंगा, क्योंकि सिर्फ उसी में सुबह हो जाएगी। बस, ये समझ लीजिए कि वह शोरबे में डालकर जलेबी खाते हैं और अपने हाथ से अपने इंजेक्शन लगाते हैं। वे पक्के सैलानी भी हैं। उनका वतन फतेहपुर है। यह कानपुर और इलाहाबाद के बीच जी.टी. रोड पर एक छोटा-सा शहर है। लीजिए, इतनी बातें बता दीं और दोस्त का नाम तो आपको बताया ही नहीं। इनका नाम शफीकुल हसनैन नकवी है। नाम कुछ टेढ़ा लग सकता है, लेकिन इसमें इनकी कोई गलती नहीं है। इनके वालिद फारसी-अरबी के विद्वान थे। आप जानते ही हैं कि विद्वान हमेशा टेढ़ा काम करते हैं, लेकिन आमलोग उस टेढ़े काम को सीधा कर लेते हैं तो इनके नाम को भी शहरवालों ने सीधा करके सफ्फू मियां कर लिया है। जब थोड़ी औपचारिकता बरती जाती है तो इन्हें सफ्फू नकवी भी कह दिया जाता है। गांववाले उन्हें सप्पू मियां कहते हैं, क्योंकि 'फ' का उच्चारण उनके बस की बात नहीं है।
सफ्फू मियां बड़े बैठकबाज और बातूनी हैं। लाहौर आये थे, तो उनके साथ महफिल जमा करती थी। उन्होंने बताया कि जवानी के दिनों में उन्हें सैर-सपाटे का शौक था। किसी तरह अमेरिका चले गये। हालत ये थी कि जेब में पैसा कम था, लेकिन घूमने की इच्छा की कोई थाह न थी। ग्रेहाउण्ड बस पर बैठे चले जा रहे थे। अगली मंजिल अमेरिका का प्रसिद्ध और खूबसूरत शहर मियामी था, लेकिन ये पता न था कि मियामी में कहां ठहरेंगे? सोचा था पहुंच जाएंगे तो सोचेंगे। खैर, साहब हुआ यह कि बस में उनके बराबर जो लड़का बैठा था, उससे तआरुफ हुआ तो वह पाकिस्तानी निकला। दोनों में बातचीत होने लगी। उसने इनसे पूछा मियामी में आप कहां ठहरेंगे? इन्होंने बताया कि अब तक तो कोई जगह नहीं है। उसने कहा कि क्या आप कुछ पाकिस्तानी स्टूडेंट्स के साथ ठहरना पसंद करेंगे? इन्हें क्या एतराज हो सकता था। तैयार हो गये।