मन-माटी / असगर वज़ाहत / पृष्ठ 5

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उनका किस्सा अपनी जबानी सुनाने से बेहतर है उन्हीं की जुबान से उनका किस्सा सुनिए।


मैंने फ्लैट की घंटी बजाई। एक पंजाबी-जैसे लगनेवाले लड़के ने दरवाजा खोला। उन्हें मालूम हो चुका था कि मैं वहां ठहरने आ रहा हूं। अच्छा-खासा फ्लैट था। तीन लड़के रहते थे। मुझे एक रात ही रुकना था। मेरा सामान लिविंग रूम में रख दिया। मैं तीनों से मिला। कुछ देर बाद एक मुझसे बोला, आप आराम करो...हम पार्टी में जा रहे हैं। रात देर से आएंगे।


मैं क्या कह सकता था। दो लड़के चले गये और तीसरा किचन में कुछ खाना-वाना पकाने में लग गया। मैंने सोचा, खाना तो मैं भी खाऊंगा। उठकर किचन में आ गया। उसने मेरे सामने एक बियर का कैन रख दिया और बोला, बियर तो लेते होंगे?


हां, लेता हूं। वह भी बियर पी रहा था।


पाकिस्तान में तो बड़ी पाबंदी होगी? मैंने बियर कैन की तरफ इशारा करके पूछा।


पैसा नहीं है तो बड़ी पाबंदी है, पैसा है तो कोई पाबंदी नहीं है। वह बोला। उसकी साफगोई मुझे पसंद आई।


यही हाल हिंदोस्तान में भी है। मैंने पाकिस्तान और हिंदुस्तान को बराबर स्थापित करने की कोशिश जान-बूझकर की थी, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं बात दोनों देशों के मुकाबले यानी कौन ज्यादा अच्छा पर न आ जाए। इससे पहले मैं एक-दो ऐसे पाकिस्तानियों से मिल चुका था और इस तरह की बहस में फंस चुका था जिसका अंत हमेशा तल्खी पर ही हुआ था। एक रात की बात है, हिंदुस्तान छोटा ही साबित हो गया तो कौन-सी मुसीबत आ जाएगी?


आपके दोस्त जिस पार्टी में गये हैं वहां आप नहीं गये? मैंने बात मोड़ने की कोशिश की।


पार्टी-वार्टी में कहीं नहीं गये हैं। वह काफी तल्खी से बोला, उन्हें भारत के सिखों के साथ गल्ल करने में मजा आता है।


उसने मजा शब्द इस तरह इस्तेमाल किया कि उसकी सारी कड़वाहट मेरे मुंह में भर गई। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इस बात पर 'वाह-वाह क्या बात है' जैसी बात कहूं या ये कहूं कि 'अरे साहब, हद होती है, यानी उन्हें आप-जैसे पाकिस्तानी के साथ बातचीत में मजा नहीं आता और वे भारत के सिखों के साथ गल्ल करने जाते हैं।' मैं इसी पसोपेश में था कि उसने बात बदल दी। बोला, ठीक है...ये तो अपनी-अपनी मर्जी की बात है।


मैंने जल्दी से कहा, हां, ये तो ठीक है...जहां जो खुश रहे वहां जाए। मैंने पहली बार महसूस किया था कि पाकिस्तान में उर्दू बोलनेवालों और पंजाबी बोलनेवालों के बीच इतना द्वेष है।


कुछ देर के बाद मैंने पूछा, आपकी फैमिली कहां से है? उसने अजीब तरह से मेरी तरफ देखा और बोला, कराची से।


कराची? मैं सोचने लगा। यार मोहाजिर तो हिंदुस्तान से कराची गये हैं। यह लड़का अपने को कराची का क्यों कह रहा है? शायद पाकिस्तानियत उसके दिमाग में ज्यादा ही घुस गई है। मुझे कुछ अजीब लगा। मैंने पूछा, आपकी फैमिली कराची कहां से गई थी?


वह और ज्यादा असहज महसूस करने लगा और कुछ देर चुप रहा।


फिर बोला, भारत से। ये बात उसने काफी नफरत से कही थी-जैसे भारत के प्रति उसके मन में गुस्सा और नफरत भरी हो, उसे इस बात का अफसोस हो कि उसका परिवार भारत में क्यों था और पाकिस्तान में यानी उस इलाके में क्यों नहीं था, जो पाकिस्तान में है।


कुछ देर तक हम लोग खामोश रहे। वह जानता था, उसने मुझे घायल कर दिया है। मैं बेशर्मी पर उतर आया और मैंने पूछा, भारत में कहां से?


उसने घूरकर मुझे देखा। उसे यह बिल्कुल असहनीय लग रहा था कि मैं उसके शुद्ध पाकिस्तानी होने पर सवालिया निशान लगा रहा हूं। उसने अपना जबड़ा सख्त करके और होंठ भींचकर कहा, यू.पी. से।


अब मुझे अगला सवाल नहीं पूछना चाहिए था, लेकिन बियर के दो केन मैं पी चुका था और मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। मैंने पूछा, यू.पी. तो बहुत बड़ा है भाई... यू.पी. में कहां से? वह कुछ देर खामोश रहा, फिर बोला, आप नहीं जानते होंगे। यू.पी. का एक छोटा-सा, गुमनाम जिला है फतेहपुर...वहां से हम लोग कराची आये थे।


कौन-सा फतेहपुर...जो इलाहाबाद और कानपुर के बीच है?


वह चिढ़कर और उपेक्षा से बोला, हां, वही।


वहां तो मैं रहता हूं...फतेहपुर हस्वा भी कहते हैं उसे।


हां, वही। वह बेखयाली में बोला और फिर सतर्क हो गया।


मैं भी खामोश हो गया। मैं जानता था कि अब 'बॉल उसके कोर्ट' में है। देखो क्या होता है। किचन में मसालों की खुशबू फैल रही थी। कुछ सेकंड की खामोशी भारी पड़ने लगी।


आप फतेहपुर के हैं। वह मरी हुई आवाज में बोला।


हां...वहीं का हूं...पता नहीं कितनी पीढि़यों से वहां रह रहा हूं।


वह फिर खामोश हो गया। मैंने उसके खामोश चेहरे पर तूफान देख लिया था। एक रंग आ रहा था और दूसरा जा रहा था। तेज रोशनी में उसके चेहरे की मांसपेशियां थिरक रही थीं।


वहां कोई खेलदार मोहल्ला है। उसने कांपती हुई आवाज में पूछा।


हां, है?


अब वह जो कुछ कह या पूछ रहा है, वह इस तरह जैसे उसे अपने ऊपर काबू ही न रह गया हो।


फतेहपुर जी.टी. रोड पर बसा है?


हां। मैंने जवाब दिया।


जी.टी. रोड पर तहसील है?


हां, है?


उसके सामने से कोई गली खेलदार मोहल्ले तक जाती है?


हां, जाती है।


गली आगे जाकर मुड़ती है तो वहां मुस्लिम स्कूल है?


हां, है।


स्कूल के पीछे तालाब है?


मैं उसके सवालों के जवाब दे रहा था और मेरे दिमाग में अजीब तरह की उथल-पुथल चल रही थी। वह फतेहपुर का आंखों देखा विवरण दे रहा था। उसकी बताई हर बात ठीक थी।


फतेहपुर में लल्लू मियां कोई जमींदार थे?


हां, बड़े जमींदार थे।


वहां कोई मोहल्ला बाकरगंज है? जहां जानवरों की बाजार लगती है?अमेरिका के मियामी शहर के आधुनिक फ्लैट में ये सब नाम, जगहें और लोग अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। किचन की खिड़की से हाई-वे नजर आ रहा था, जिस पर दौड़ती कारों की हेड लाइटें चमक रही थीं।


क्या आप फतेहपुर गये हैं? मैंने उससे पूछा।


नहीं, कभी नहीं गया? वह बोला। उसके लहजे में कुछ न था। न दुःख, न सुख, न ग्लानि, न अवसाद।


कभी नहीं गये?


हां, कभी नहीं गया? वह फिर बोला।


लेकिन वहां के बारे में जो आप बता रहे हैं वह ऐसा लग रहा है जैसे देखा हुआ हो।


नहीं, मैंने वह सब नहीं देखा।


तो फिर?


वह स्टूल पर बैठ गया। चिकन शायद पक चुका था। उसने गैस बंद कर दी। बियर का एक और केन खोल लिया और बोला, कराची में दादी हमलोगों को जो कहानियां सुनाया करती थीं, वे फतेहपुर की होती थीं। रोज रात को हम दो बच्चे दादी के साथ फतेहपुर पहुंच जाते थे। वहां गलियों में घूमते थे। अमरूद के बाग में ललगुदिया अमरूद खाते थे...।


वह बहुत देर तक बोलता रहा और मुझे कई बातें याद आती रहीं। मुझे 'साहब' याद आये जो लंदन में तीस साल रहने के बाद अपने गांव वापस आये थे और गांव के गलियारों में लोट-पोटकर रोया करते थे। मुझे डा. अजीज याद आये, जो एक गीत के सहारे अपना वतन तलाश करने सूरीनाम से इंडिया चले आये थे। मुझे डिबाई याद आया जो मेरी नस-नस में बसा हुआ है।


अगर आप लोगों को मेरी बातों पर यकीन न आ रहा हो तो मैं गवाही के तौर पर अपने एक मित्र प्रयाग शुक्ल को आपके सामने खड़ा कर सकता हूं।


प्रयाग शुक्ल हिंदी के प्रतिष्ठित और सम्मानित साहित्यकार हैं। वे भी फतेहपुर के रहनेवाले हैं। हम दोनों का बचपन एक ही जिले में बीता है। यही वजह है कि मैं जब प्रयाग जी को देखता हूं तो मेरे दिल के कोने में एक खुशी की उमंग उठती है। प्रयाग जी के साथ भी ऐसा ही होता होगा।


प्रयाग जी ने मुझे बताया है कि वह यात्राएँ बहुत करते हैं। इन छात्राओं के दौरान दिल्ली-हावड़ा लाइन पर चलनेवाली द्रुतगामी ट्रेनों से भी आते-जाते हैं, जो फतेहपुर-जैसे छोटे स्टेशन पर नहीं रुकतीं। अब देखिए, क्या अन्याय है। महानगर, महानगरों से जुड़ रहे हैं और छोटे शहर पीछे छूट गये हैं।


बहरहाल, प्रयागजी ने मुझसे कई बार कहा है कि रात का चाहे जो टाइम हो, गाड़ी जब फतेहपुर स्टेशन से गुजरती है तो उनकी आंख खुल जाती है। वह पूछते हैं कि गाड़ी किस स्टेशन से गुजर रही है तो बताया जाता है कि फतेहपुर से।


मैं, जी कोई विद्वान नहीं जो आपको क्यों? कैसे? किसलिए? आदि-आदि सवालों के जवाब दे सकूँ। आप स्वयं अकलमंद हैं। जवाब खोज सकते हैं।


ई-संपर्क : awajahat AT yahoo DOT com


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