महाभारत का अभियुक्त / अंक 3 / राजेंद्र त्यागी

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अंक तीन

-दृश्य एक-

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(प्रात:काल! मंच पर सुवीर्य के आवास के सभागार का दृश्य। परस्पर चर्चा करते हुए छोटे-छोटे समूहों में नागरिकों का आगमन। सभागर में आज विशेष कोई आसन नहीं है। सतह पर केवल श्वेत बिछावन और उसके एक छोर पर श्वेत गोल सिरहाने पंक्ति से रखे हुए हैं। अतिरिक्त कोई विशेष सजावट नहीं है , केवल साधारण सभागार। सुवीर्य अपने समर्थकों सहित धरती पर ही विराजमान हैं। नगरवासी सर्वसम्मति से सुवीर्य को सभापति नियुक्त करते हैं। सुवीर्य उपस्थित नगरवासियों को निहारते हैं। तत्पश्चात सुवीर्य गायत्री मंत्र का सस्वर पाठ करना प्रारंभ करते हैं। अपने-अपने स्थान पर खड़े हो कर समस्तजन सुवीर्य के साथ पाठ दुहराते हैं।)

सुवीर्य (नगरवासियों की ओर अभिमुख हो कर)  : सभा की कार्यवाही प्रारंभ करने की अनुमति चाहता हूँ।

उपस्थित नगरवासी (एक स्वर में)  : अवश्य महाराज!

सुवीर्य (निश्चिंत भाव के साथ)

विषय सभी को ज्ञात है! ...संभवतया उस पर प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है! ... (नगरवासियों का मत जानने के लिए सुवीर्य उन्हें निहारते हैं। कोई प्रतिक्रिया प्राप्त न होने के पश्चात) ...विषय गंभीर है! ...चिंतन किए बिना
भावावेश में किसी भी प्रकार का मत व्यक्त करना उचित नहीं होगा! ...भावावेश में लिया गया निर्णय न राज्य हित में होगा और न ही प्रजा हित में! ... (क्षणिक मौन के उपरांत)... तो महायुद्ध के उत्तरदायित्व पर अपने विचार व्यक्त करें, भद्रजन!

(सभागार में निस्तब्धता व्याप्त हो जाती है और अगले ही क्षण नगरवासी परस्पर चर्चा करने में व्यस्त हो जाते हैं। इसके मध्य ही सुवीर्य प्रश्नवाचक दृष्टि से नगरवासियों की ओर निहारते हैं।)

विराज (परिचय देते हुए)

मेरा नाम विराज है, श्रद्धेय! .. (जिज्ञासा भाव से नगरवासी विराज की ओर निहारते हैं। चिंतन मुद्रा में विराज वाणी को विराम दे देकर आगे कहते हैं)... मेरी, सम्मति में, युद्ध के
लिए, कृष्ण, उत्तरदायी हैं, श्रद्धेय!

(कृष्ण का नाम सुन कर आश्चर्यपूर्ण किन्तु प्रश्नवाचक ध्वनि सभागार में गूंजती है , कृष्ण-कृष्णऽऽऽ!)

सुवीर्य (आश्चर्य व्यक्त करते हुए)  : विराज! ...क्या तुम्हारे कहने का तात्पर्य वसुदेव-पुत्र कृष्ण से है?

विराज (दृढ़ता के साथ)  : अवश्य ही वसुदेव कृष्ण! ...कृष्ण द्वैपायन नहीं, श्रद्धेय! ...(अपनी ओर उठे नेत्रों के भावों का आकलन-सा करने के पश्चात)... आश्चर्य स्वाभाविक है, श्रद्धेय! ...किन्तु, सत्य भी यही है! (क्षणिक वाणी-विराम के पश्‍चात)...श्रद्धेय! कृष्ण यदि गंभीर प्रयास करते तो युद्ध टाला जा सकता था! ...किन्तु, उन्होंने ऐसा किया नहीं! ...क्योंकि, शान्ति स्थापना नहीं, निर्णयक युद्ध ही उनका उद्देश्य था!

विक्रांत (उद्विग्न भाव से)  : मिथ्या आरोप, महाराज! ...(विराज की ओर दृष्टिंपात करते हुए) ...अनर्गल आरोप न लगाएं, वत्स विराज! ...(अल्प विराम के उपरांत) ... महायुद्ध का प्रमुख कारण कुरुवंश की अंतर्कलह थी! कुरुवंश यदि अपने चारों ओर अंतर्कलह की दलदल निर्मित न करता तो कृष्ण की भूमिका का प्रश्न ही उत्पन्न न होता...!

विराज (मध्य ही में व्यंग्य भाव से)  : ...अर्थात! ...कृष्ण ने कुरुवंश की कलह का लाभ उठाया! ...(विजय भाव के साथ मुस्कराते हुए)... अनुचित लाभ और स्‍वार्थ पूर्ति, वत्स!

विक्रांत (क्षुब्ध भाव से)  : अनुचित लाभ कहकर कृष्ण के शांति-प्रयासों की सनिश्चय उपेक्षा न करो, विराज!

विराज (उद्विग्न भाव के साथ)  : कौन से शान्ति-प्रयासों की बात कर रहे हो, माननीय, विक्रांत! ...कृष्ण यदि तनिक भी गंभीर होते तो युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा से रोकते, किन्तु, नहीं! ...द्यूत-सभा में कृष्ण प्रकट हुए भी, किन्तु तब तक द्रौपदी का अपमान हो चुका था और उसके साथ ही युद्ध के बीजारोपण भी!

वृद्धृ विजयानन्द (घुटनों पर हाथ रखकर आसन से उठने का प्रयास करते हुए गंभीर मुद्रा में)  : श्रीमान, विराज! ...संभवतया घटना के संबंध में आपको पूर्ण जानकारी नहीं है! ...जिस समय जेष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर द्यूत क्रीड़ा के लिए महाराज धृतराष्ट्र का निमंत्रण स्वीकार कर रहे थे! ...उस समय कृष्ण एक निर्जन द्वीप में शाल्व और उसके मायावी विमान सौभ का अंत करने के लिए संघर्षरत थे! ...द्वारिकापुरी लौटकर जब उन्हें यह अशुभ समाचार प्राप्त हुआ तब तक बहुत विलंब हो चुका था! ...तथापि, द्रौपदी की सहायता करने में कृष्ण ने कोई विलंब नहीं किया...!

विराज (मुख पर क्रोध के भाव लाते हुए)  : द्यूत क्रीड़ा और द्रौपदी अपमान केवल अंतिम घटना ही नहीं थी, आदरणीय विजयानन्द जी! ...उसके उपरांत भी एक के बाद एक दुखद घटनाएं युद्ध के अंकुर सिंचित करती रहीं, किन्तु कृष्ण का हस्तक्षेप कहीं प्रकट नहीं हुआ! ...(मुस्कराते हुए)...क्या प्रत्येक घटना के समय कृष्ण शाल्व-विनाश में ही व्यस्त थे, श्रद्धेय?

विजयानन्द (सहज भाव से)  : कृष्ण अंतिम क्षण तक शान्ति-स्थापना के लिए प्रयास करते रहे! ...किन्तु, दुर्भाग्य हस्तिनापुर का कि दुर्योधन ने सद्बुद्धि से काम नहीं लिया...!

विराज (मध्य ही में)  : क्या उस अंतिम प्रयास की बात कर रहे हो, श्रद्धेय! ...जिस प्रयास के लिए संदेह के रथ पर सवार होकर कृष्ण सम्राट धृतराष्ट्र की सभा में उपस्थित हुए थे?

विजयानन्द (आश्चर्य के साथ रोष व्यक्त करते हुए)  : क्या कृष्ण पाण्डु-पुत्रों का संदेश लेकर सम्राट धृतराष्ट्र की सभा में नहीं गए थे, विराज?

विराज (सहज भाव से)  : आपका कथन सर्वथा सत्य है, श्रद्धेय! ...शांति संदेश लेकर कृष्ण अवश्य ही धृतराष्ट्र की सभा में उपस्थित हुए थे! किन्तु...!

विजयानन्द (विजय भाव के साथ मुस्कराते हुए , मध्य ही में)  : ...पुनश्च: असत्य क्या है, वत्स!

विराज (व्यग्र भाव से)  : धैर्य धारण करें, श्रीमन! ...सत्य ही का बखान करने जा रहा हूँ ! ...(अल्प विराम के पश्चात)... सत्य यह भी है, श्रद्धेय! ...कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण यदि अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित न करते तो संभवतया हस्तिनापुर को युद्ध की विभीषिका न सहन करनी पड़ती! ..अत: यह कहना उचित न होगा कि कृष्ण अंतिम क्षण तक शान्ति स्थापना के लिए प्रयासरत रहे!

विक्रांत (हँसते हुए)  : आप पुन: परिस्थितियों को अनदेखा कर रहे हैं, श्रीमान! ...कृष्ण जिस समय अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित नहीं भयमुक्त कर रहे थे! ...उस समय युद्ध के लिए उद्धत दोनों पक्षों की सेनाएं एक दूसरे के समक्ष थी! ...और, उस समय युद्ध टालना असंभव था। ...(क्षणिक विराम के पश्चात सुवीर्य की ओर अभिमुख हो कर).. उस समय की परिस्थितियों का यथार्थ परक मूल्याकंन किया जाए तो उस समय शान्ति स्थापना के आवश्यक हो गया था, श्रद्धेय!

अन्य नगरवासी (अधीर भाव से सुवीर्य की ओर संकेत करते हुए एक साथ)  : कृष्ण-चर्चा पर आप अपना मत व्यक्त करें, महाराज!

सुवीर्य (विलंब किए बिना तत्काल ही)  : कृष्ण की भूमिका विवाद का विषय हो सकती है! ...किन्तु, सत्य यह भी है कि महायुद्ध का मूल कारण कुरु-परिवार की अंतर्कलह ही रही! ...अत: अभियुक्त निर्धारण के लिए यदि कुरुवंश के सदस्यों की भूमिका पर ही चर्चा की जाए तो न्यायोचित्त होगा!

(करतल ध्वनि के साथ सुवीर्य के सुझाव का समर्थन)

विक्रांत (विजय भाव के साथ)  : आदरणीय! मेरे मतानुसार युद्ध के लिए केवल तत्कालीन सम्राट धृतराष्ट्र ही उत्तरदायी हैं! ...सिँहासन पर रहते हुए उनके निर्णय कभी न्यायोचित्त नहीं रहे!

(विक्रांत के प्रस्ताव का श्रवण कर उपस्थित नगरवासी एक बार पुन: पारस्पर चर्चा में व्यस्त हो जाते हैं। विक्रंत के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया के लिए सुवीर्य कुछ समय तक प्रतीक्षा करता है। प्रतिक्रिया प्राप्त न होने पर)

सुवीर्य (सहज भाव से)  : विक्रांत के प्रस्ताव के अनुरूप क्या यह स्वीकार कर लिया जाए कि महाराज धृतराष्ट्र ही युद्ध के लिए उत्तरदायी हैं?

भूपति (क्षोभ भाव से)  : कदापि नहीं, महाराज! ...सम्राट धृतराष्ट्र को उत्तरदायी ठहराना न्यायपूर्ण न होगा!

विक्रांत  : क्यों?

भूपति (क्षुब्ध भाव से)  : इसलिए कि वे नेत्रहीन हैं! ...नेत्रहीन व्यक्ति अपने विवेक का पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ रहता है! ...क्योंकि, यथार्थ से उसका पूर्ण परिचिय नहीं हो पाता! ...(श्वाँस चक्र पूर्ण करने के उपरांत)... दोष महाराजा धृतराष्ट्र का नहीं! ...उनके परामर्शदाताओं का था! ...क्योंकि, परामर्शदाता उन्हें यथार्थ से वंचित ही रखते रहे! ...अत: विवेकहीन प्रत्येक निर्णय के लिए महाराज धृतराष्ट्र नहीं, उनके परामर्शदाता दोषी थे !

विक्रांत (सुवीर्य की ओर संकेत करते हुए , क्षुब्ध भाव से)  : महाराजा धृतराष्ट्र को दृष्टि प्रदान करने वालों में वयोवृद्ध भीष्म और महात्मा विदुर प्रमुख थे! ...क्या उन जैसे सुयोग्य व निष्ठावान महानुभावों पर सम्राट को यथार्थ से परिचित न कराने का आरोप तर्क संगत होगा, आदरणीय?

विराज (मुस्कराते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में)  : श्रद्धेय! ...हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र को दृष्टि प्रदान करने के लिए जब भीष्म और महात्मा विदुर जैसे सुयोग्य और निष्ठावान परामर्शदाता थे ही! ...तब, ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी सिँहासन महाराजा धृतराष्ट्र को सौंपने में आपत्ति क्यों थी, आदरणीय?

सुवीर्य (प्रश्नवाचक मुद्रा में जिज्ञासा व्यक्त करते हुए)  : वत्स, विराज! ...क्या आप यह कहना चाहते हैं कि भीष्म और महात्मा विदुर ही युद्ध के लिए उत्तरदायी हैं?

विराज (रहस्मयी मुस्कान के साथ)  : अभी नहीं, श्रद्धेय!

सुवीर्य (प्रश्नवाचक मुद्रा में)  : तो फिर महात्मा विदुर...?

(सुवीर्य के मुख से महात्मा विदुर का नाम निकलते ही सभागार में नहीं-नहीं की ध्वनि गूंजने लगती है। हवा में हाथ उठाकर सुवीर्य नगरवासियों को शान्त करते हैं )

विजयानन्द (क्रोध पूर्ण स्वर में)

विदुर की परामर्श पर यदि सम्राट धृतराष्ट्र तनिक भी ध्यान देते, तो युद्ध तो क्या उसकी भूमिका का भी शिलान्यास संभव न था! ... (क्षणिक मौन के पश्चात)... कूटनीतिज्ञ शकुनि भी सम्राट धृतराष्ट्र व उनके प्रिय पुत्र दुर्योधन के मुख्य परामर्शदाताओं में से एक थे! ...हम यह
क्यों भूल जाते हैं, महाराज!

भूपति (आत्मविश्वास के साथ)

इसमें संदेह नहीं है कि शकुनि ने अपने वचन व क्रियाकलापों से घृत-आहुति दे कर समय-समय पर युद्ध की ज्वाला भड़काई थी! ...परंतु, इसमें उसका क्या दोष? ... (तत्काल ही निरीह भाव व्यक्त करते हुए)... क्योंकि, वह तो स्वयं ही प्रतिशोध की उस अग्नि में जल रहा था! जिसे कुरुशिरोमणि
भीष्‍म ने प्रज्‍ज्‍वलित की थी! ...और, प्रतिशोध की ज्वाला से ग्रसित कोई भी व्यक्ति ऐसा ही करने के लिए विवश होगा! अत: उसे भी उत्तरदायी ठहराना उचित न होगा।

विजयानन्द (घृणा भाव से)  : धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के संबंध में क्या विचार हैं, विद्वतजन? ...क्या दुर्योधन के अंतर्मन में पनपती ईष्र्या, क्रोध और हीनभावना ने ही हस्तिनापुर को युद्ध के कगार तक नहीं पहुँचाया?

नवोदित (दया भाव से)  : नेत्रहीन पिता की संतान हीनभावना से ग्रस्त न होगी तो और क्या होगा, श्रद्धेय विजयानन्द? ...उनके समक्ष पिता धृतराष्ट्र का उदाहरण था! ...ज्येष्ठ होते हुए भी उन्हें सिँहासन नहीं सौंपा गया! ...सौंपा भी गया, तो विवशतावश! ...(अल्प विराम के उपरांत)... सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र होने के उपरांत भी राजकुमार पद पर दुर्योधन का नहीं युधिष्ठिर का अभिषेक किया गया! ...ऐसी परिस्थितियों में ईष्र्या, क्रोध व हीन भावना उत्पन्न न होगी तो फिर क्या स्नेह भाव उत्पन्न होना चाहिए था?

सुवीर्य (नवोदित की और संकेत करते हुए)  : वत्स नवोदित, तो फिर क्या युद्ध के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को उत्तरदायी ठहराया जाए?

नवोदित (कूटनीतिक भाव से)  : मेरे कहने का आशय यह तो नहीं है, सभापति जी! ...उपस्थित नगरवासी यदि उनके नाम पर एक मत हैं, तो श्रद्धेय युधिष्ठिंर पर अभियोग चलाना अन्यायपूर्ण भी न होगा!

(नहीं , नहीं की ध्वनि के साथ प्रस्ताव के विरोध में विजयानन्द , भूपति और वयोवृद्ध देवदत्त सहित कई वरिष्ठ नागरिक एक साथ अपने-अपने आसन से उठ खड़े होते हैं। हाथ का संकेत कर सुवीर्य सभी से बैठ जाने का आग्रह करते हैं। तत्पश्चात सुवीर्य प्रथम देवदत्त को अपने विचार व्यक्त करने की अनुमति प्रदान करते हैं)

देवदत्त (आश्चर्य व क्रोध के मिश्रित भाव के साथ)  : धर्मराज युधिष्ठिर और युद्ध! ...असंभव! ...सम्राट युधिष्ठिर यदि युद्ध के पक्षधर होते तो दुर्योधन और दु:शासन महारानी द्रौपदी का अपमान करने का साहस भी न जुटा पाते! ...साहस करते भी तो द्यूत सभा युद्ध स्थल में परिवर्तित हो जाती!

भूपति (क्रोध भाव से)  : धर्मराज युधिष्ठिर यदि युद्ध के द्वारा ही अपने अधिकार प्राप्त करने के पक्षधर होते तो दो-दो बार बानवास की यातना का दंश सहन न करते, सभापति जी!

विजयानन्द (व्यग्र भाव से)  : धर्मराज युधिष्ठिर सदैव ही युद्ध टालते रहें हैं! ...युद्ध टालने में सहायक सभी परिस्थितियों से सदैव समझौता किया है, उन्होंने! ...उन्हें महायुद्ध के लिए उत्तरदायी कैसे ठहराया जा सकता है?

सुवीर्य (सभाकक्ष के बाहर आकाश की ओर निहारते हुए)  : आज की चर्चा को यदि यहीं विराम दिया जाए तो संभवतया उचित ही होगा! ...(उपस्थित नगरवासियों की ओर से मौन स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात)... तो फिर, कल प्रात: पुन: चर्चा प्रारंभ करेंगे।

(परस्पर चर्चा करते हुए समस्त नगरवासी छोटे-छोटे समूहों में सभाकक्ष से प्रस्थान कर जाते हैं।)

दृश्य-दो

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(भोर का समय मंद - मंद प्रकाश के साथ मंच पर पूर्व के समान दृश्य। सुवीर्य के आवास का वही साधारण-सा सभाकक्ष। सुवीर्य भी साधरण वेशभूषा में वहाँ उपस्थित। सुवीर्य उपस्थित नगरवासियों को निहारते हैं। सुवीर्य गायत्री मंत्र का सस्वर पाठ आरंभ करते हैं और समस्तजन भी अपने-अपने स्थान पर खड़े हो कर सुवीर्य के साथ पाठ दुहराते हैं।)

सुवीर्य : (नगरवासियों की ओर अभिमुख हो कर)  : सभा की कार्यवाही प्रारंभ करने की अनुमति चाहता हूँ।

समस्तजन (एक स्वर में)  : अवश्य सभापति महोदय।

सुवीर्य (विदर्भ की ओर संकेत करते हुए)  : महोदय, विदर्भ! कल की चर्चा में आप शान्त रहे! ...आप शान्त क्यों है, विदर्भ? ...आज की कार्यवाही मैं आपके विचारों से ही प्रारंभ करने की इच्छा रखता हूँ।

(विदर्भ का नाम सुनते ही उपस्थित नगरवासी उनका मुख निहारने लगते हैं)

विदर्भ (श्वेत दाढ़ी को अंगुलियों से व्यवस्थित करने का प्रयास करते हुए अल्पविराम , विराम के साथ रुक-रुक कर बोलते हैं)  : श्रद्धेय! ...इसमें तनिक संदेह नहीं है कि हस्तिनापुर को युद्ध के मुहाने तक पहुँचाने में जाने-अनजाने धर्मराज युधिष्ठिर की भूमिका भी रही है! ...किन्तु, सहायक के रूप में! ...यही स्थिति महाराजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र दुर्योधन की थी! ...महोदय! कुरु-परिवार का ऐसा कौन सदस्य है, जिसकी भूमिका युद्ध की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने में सहायक नहीं रही! ...किन्तु, महाराज! प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में अधिसंख्य सदस्यों की भूमिका केवल सहायक के रूप में ही...!

सुवीर्य (आश्चर्य भाव के साथ मध्य ही में)  : ...तो क्या, यह स्वीकार कर लिया जाए कि कुरु-परिवार के समस्त सदस्य क्षमा योग्य हैं! ...और, युद्ध का मूल कारण व अभियुक्त का अनुसंधान कुरु-परिवार व हस्तिनापुर की सीमाओं के बाहर किया जाए?

विदर्भ (सहज भाव से)  : माननीय, महोदय! ...मैंने अधिसंख्य सदस्य कहा है, समस्त सदस्य नहीं! ...(केश व्यवस्थित करते हुए गंभीर भाव से)... सहायक और प्रमुख दोनों हेतु कुरु-परिवार में निहित हैं! ...किन्तु, श्रीमन! अभी तक सहायक भूमिकाओं पर ही चर्चा हुई है! ...चर्चा के अंतराल काल में मुख्य उत्तरदायी का प्रसंग आया भी तो चर्चा की दिशा में परिवर्तन कर दिया गया! ...अत: चर्चा मूल तक नहीं पहुँच पाई...!

सुवीर्य (पुन: मध्य ही में जिज्ञासा पूर्ण प्रश्न करते हुए)  : ...आप भी तो मूल का उद्घाटन स्पष्टरूप से नहीं हर रहे हैं, श्रीमान! ...मंतव्य स्पष्ट करने में संकोच क्यों?

विदर्भ (पूर्व भाव से)  : स्पष्ट करने का ही तो प्रयास कर रहा हूँ, श्रीमान! ...(सुवीर्य और फिर अन्य जनों को निहारने के पश्चात) ...महायुद्ध के उत्तरदायित्व पर विचार करता हूँ! ...तो केवल युवराज देवव्रत को समक्ष खड़ा पाता हूँ!

सुवीर्य (व्यग्रता के साथ आश्चर्य व्यक्त करते हुए)  : क्याऽऽऽ! ...भीष्म! ...तुम्हारा तात्पर्य, भीष्म पितामह से है..!

विदर्भ (आत्मविश्वास के साथ)  : अवश्य, श्रद्धेय! ...मेरे कहने का आशय भीष्म पितामह से ही है!

(भीष्म-भीष्म-भीष्म! ...आश्चर्ययुक्त ध्वनि सभागार में गूँजने लगती है। आश्चर्यचकित नगरवासी कभी विदर्भ की ओर निहारते हैं , तो कभी एक-दूसरे का ओर।)

देवदत्त (क्षुब्ध भाव का प्रदर्शन करते हुए)  : जिस व्यक्ति ने हस्तिनापुर की रक्षा के लिए सर्वस्व होम कर दिया! ...जिस व्यक्ति ने हस्तिनापुर सिँहासन की रक्षा के लिए आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया! ...ऐसे महान व्यक्ति पर गंभीर आरोप! ...आश्चर्य! ...घोर आश्चर्य...!

विदर्भ (मध्य ही में आत्मविश्वास के साथ)  : ...आपका आश्चर्यचकित होना स्‍वयं में आश्चर्य का विषय नहीं है, महोदय! ...हस्तिनापुर का कोई भी प्राणी यह सुनकर आश्चर्यचकित ही होगा! ...क्योंकि महायुद्ध के संबंध में अभी तक किसी ने गंभीर विचार-मंथन किया ही नहीं! ...चिन्तन करने की कभी आवश्यकता ही नहीं समझी गई... !

देवदत्त (व्यंग्य भाव से क्षोभ व्यक्त करते हुए)  : ...आप तो गंभीर व्यक्ति हैं! ...गंभीरता के साथ विचार कर चुके होंगे! ...तो अपने गंभीर विचार प्रकट कर हस्तिनापुर की प्रजा को कृतार्थ करें, महाराज...!

विदर्भ (क्षुब्ध भाव से)  : ...स्पष्ट ही तो करने का प्रयास कर रहा हूँ, श्रीमान! ...(व्यंग्य भाव से)...किन्तु मेरे विचारों से कृतार्थ होने से पूर्व आप सभी पूर्वाग्रह का त्याग कर मुझे अनुमति प्रदान करने का कष्ट करें, तभी...!

सुवीर्य (हस्तक्षेप करते हुए)  : ...आप अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र हैं, सुवीर्य!

विदर्भ (अंगुलियों से केश संवारते हुए)  : देवव्रत की भीष्म-प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञा की आजीवन रक्षा ने ही महायुद्ध के लिए भूमि तैयार की थी! ...क्योंकि , देवव्रत के लिए प्रतिज्ञा की रक्षा प्रधान और हस्तिनापुर की सुरक्षा गौण हो गई थी! ...तभी तो वे उन सभी परिस्थितियों के साथ शीश झुका कर समझौता करते रहे, जिनसे प्रतिज्ञा बाधित होने का तनिक भी संकट दिखलाई दिया! ...समझौता करने के लिए देवव्रत हस्तिनापुर की सुरक्षा को भी तिलांजलि देते रहे...!

देवदत्त (क्रोध भाव के साथ)  : कथित आरोपों का आधार, श्रीमान?

विदर्भ (आकाश की ओर निहार कर प्रायश्चित भाव से)  : हस्तिनापुर की सुरक्षा के प्रति यदि देवव्रत तनिक भी चिंतित होते तो राजमाता सत्यवती के आदेश का पालन करते! ...और, विचित्रवीर्य की विधवा अम्बिका व अम्बालिका के साथ नियोग स्थापित कर हस्तिनापुर को कुरुवंश का उत्तराधिकारी प्रदान कर कृतार्थ करते...!

सुवीर्य (मध्य ही में)  : ...किन्तु, राजकुमार देवव्रत आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा से बँधे थे! ...और उस प्रतिज्ञा का कारण भी माता सत्यवती स्वयं ही थीं!

विदर्भ (शांत भाव से)  : किन्तु, महाराज! ...हस्तिनापुर की सुरक्षा के लिए संतान आवश्यक थी अथवा भीष्म-प्रतिज्ञा! ...(सुवीर्य की ओर संकेत कर क्षुब्ध भाव से)... श्रीमान! देवव्रत यदि प्रतिज्ञा के स्थान पर हस्तिनापुर व कुरु-राजवंश के हितों को प्राथमिकता प्रदान करते तो हस्तिनापुर के सिँहासन पर आज जारज संतान विराजमान न होती...!

देवदत्त (मध्य ही में क्रोधावेश के साथ)  : ...जारज संतान! ...(सुवीर्य की ओर संकेत करते हुए)...सभापति, महोदय! यह राजवंश का अपमान है! ...संपूर्ण हस्तिनापुर राज्य का अपमान है! ...अशिष्ठ शब्दों का प्रयोग कर राज्य का अपमान करने के लिए माननीय विदर्भ को क्षमा-याचना करनी चाहिए!

विदर्भ (विनीत भाव से)  : क्षमाप्रार्थी हूँ, आदरणीय! ...किसी का अपमान करना मेरा उद्देश्य कदापि नहीं था, श्रीमान! ...मैने तो केवल यथार्थ का वर्णन करने का प्रयास किया था!

(इसी संदर्भ में देवदत्त कुछ कहने का प्रयास करते हैं , किन्तु मध्य ही में हस्तक्षेप कर सुवीर्य उन्हें शान्त रहने का संकेत करते हैं)

सुवीर्य (आदेशात्मक मुद्रा में)  : ...अशिष्ठ व अपमान जनक शब्दों के प्रयोग से हम सभी को बचना चाहिए! ...किसी को अपमानित करना इस सभा का उद्देश्य नहीं है!

(इसके साथ ही सुवीर्य विचार व्यक्त करने के लिए देवदत्त की ओर संकेत करते हैं।)

देवदत्त (असंतोष व निराशा के भाव से)  : क्या केवल मात्र एक आरोप के आधार पर ही आदरणीय भीष्म पितामह को दोषी ठहराना उचित होगा, श्रीमान?

सुवीर्य (सांत्वना भाव से)  : नहीं-नहीं! ...किसी को दोषी ठहराना अथवा दोष मुक्त करना इस सभा के अधिकार क्षेत्र में कदापि नहीं है! ...यह जन-न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है! ... माननीय विदर्भ के पास यदि श्रद्धेय भीष्म के विरुद्ध तर्कसंगत अन्य कोई आरोप है तो वह प्रस्तुत कर सकते हैं!

विदर्भ (सहज भाव से)  : महाभारत युद्ध का बीजारोपण तो उसी दिन हो गया था, महाराज! ...जिस दिन देवव्रत प्रतिज्ञा कर भीष्म कहलाए थे! ...और, अंकुरण! ...द्रौपदी चीरहरण के समय हो गया था! ...(ग्लानि भाव के साथ)...चीरहरण के समय भीष्म यदि मौन न रहते थे तो अंकुरित होने से पूर्व ही बीज नष्ट हो गए होते...! ... (पुन: एक क्षणके मौन के उपरांत पूर्व भाव से)... इतना ही क्यों, महाराज! ...भीष्म यदि अपनी भृकुटी तनिक भी वक्र कर लेते तो महाराजा धृतराष्ट्र द्यूत क्रीड़ा के आयोजन का संभवतया साहस तक न कर पाते! ... (कहते-कहते भावुक मन के साथ दोनों हथेलियों के मध्य शीश टिकाकर विदर्भ अपने स्थान पर बैठ गए।)

भूपति (उत्साह के साथ विदर्भ के मत का समर्थन करते हुए)

महोदय! ...भीष्म यदि कौरव सेना के सेनापति बनना अस्वीकार कर देते तो क्या राजा दुर्योधन का दु:साहस खंडित न होता? ...( क्षणिक अंतराल के उपरांत पुन:)... सभापति जी! ...मैं यह नहीं कहता कि सेनापति पद ठुकराने पर युद्ध टल जाता! ...संभवतया युद्ध कर्ण के नेतृत्‍व
में होता, किन्तु इतना अवश्य है कि तब अट्ठारह दिन में अट्ठारह अक्षौहिणी सेना हौम न होती!

देवदत्त (समर्पण भाव से)  : आदरणीय! ...भीष्‍म पितामह ने शर-शय्या पर अट्ठावन दिन दारुण कष्ट सहन किया! ...क्या उसे भुला दिया जाना चाहिए?

भूपति (विजय भाव से)  : अवश्य ही, उसे भुलाया नहीं जा सकता और न ही भुलाया जाना चाहिए! ...किन्तु, श्रीमान! इस संबंध में विचार करना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है!

(भूपति के उपरांत विचार व्यक्त करने के लिए कोई हाथ नहीं उठता है। सभा में पुन: नि:स्तब्धता व्याप्त हो जाती है।)

सुवीर्य (नगरवासियों की ओर संकेत करते हुए)

विदर्भ के प्रस्ताव पर विचार व्यक्त करने के लिए आप सभी स्वतंत्र हैं! .. .(नगरवासियों की ओर से कोई प्रतिक्रिया प्राप्त न होने पर गंभीर मुद्रा में) ...आपके मौन का आशय कार्यवाही का उपसंहार करने की स्वीकृति प्रदान
करना तो नहीं है? ...(कोई उत्तर प्राप्त न होने पर आदेश भाव से)... उचित! ...तो फिर आप अपने निर्णय से अवगत कराने का कष्ट करें!

(सुवीर्य का निर्देश प्राप्त होते ही समस्त जन परस्पर चर्चा करने लगते हैं। अल्पकाल की चर्चा के उपरांत सर्वसम्मत निर्णय के लिए विराज , विदर्भ, देवदत्त, भूपति और नवोदित को अधिकृत किया जाता है। पाँचों सभासद सभागार के एक क्षोर पर जाकर विचार-विमर्श करते हैं और सर्वसम्मत निर्णय से अवगत कराने के लिए नवोदित का चुनाव करते हैं।)

नवोदित (सभापति सुवीर्य की ओर अभिमुख हो कर)  : श्रद्धेय! ...सभा के सर्वसम्मत निर्णय के अनुसार आरदरणीय भीष्म पितामह और सम्राट युधिष्ठिर संयुक्त रूप से महायुद्ध के लिए उत्तरदायी हैं!

सुवीर्य (जिज्ञासा भाव से)  : किन्तु, संत सुदीर्घ ने यदि संयुक्त अभियुक्त का सिद्धांत अमान्य कर दिया तब? ...क्योंकि, संत ने सदैव ही एक अभियुक्त की बात की है!

नवोदित  : तब दोनों में से प्रमुख का निर्धारण कर लिया जाएगा, श्रीमान!

सुवीर्य (आश्चर्य भाव के साथ)  : तब, प्रमुख का निर्धारण कौन करेगा? …यह निर्णय ही तो सभा को करना था!

(जिज्ञासा भाव से नवोदित अन्य सभासदों की ओर निहारते हैं। तत्काल ही इस विषय पर अल्पकालिक चर्चा प्रारंभ हो जाती है)

नवोदित (चर्चा के उपरांत)  : दोनों में प्रमुख कौन?...श्रीमान, इसका निर्णय संत सुदीर्घ पर ही छोड़ दिया जाए!

सुवीर्य  : उचित! ...कल पूर्णिमा है! सभा के निर्णय से संत को अवगत कराने के लिए कल प्रात: देवस्थानम के लिए प्रस्थान किया जाए।

(सभागार में अवश्य-अवश्य की ध्वनि गूंजने लगती है। अपने आसन से खड़े हो कर सुवीर्य ने सभा समाप्त होने का संकेत किया। समस्त जन सुवीर्य व परस्पर अभिवादन का आदान-प्रदान करते हुए सभागार से प्रस्थान कर जाते हैं)

-दृश्य तीन-

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(मंच पर प्राकृतिक सौंदर्य के मध्य देवस्थाम का दृश्य। प्रात:कालीन वंदना के उपरांत पीपल के वृक्ष तले मृगछाला पर विराजमान सुदीर्घ शास्त्र अध्ययन में व्यस्त। सुदीर्घ के जयघोष के साथ देवस्थानम में हस्तिनापुरवासियों का विभिन्न समूहों में आगमन। नगरपार्षद सुवीर्य की प्रतीक्षा में विदर्भ , विराज , देवदत्त , भूपति और नवोदित के साथ एक अन्य वृक्ष की छाया में सभी नगरवासी एकत्रित हो जाते हैं। एक अंतराल के पश्चात सुवीर्य का रथ भी उसी वृक्ष की छांव में आकर रुक जाता है। एकत्रित समस्त जन सुवीर्य के नेतृत्व में संत सुदीर्घ के आसन के समीप जाते हैं। हस्तिनापुर वासियों के आगमन का अनुभव कर सुदीर्घ आसन से खड़े हो जाते हैं। सुवीर्य सहित अन्य सभी पाँचों प्रतिनिधि एक-एक कर संत के चरण-स्पर्श करते हैं। शेष नगरवासी अपने-अपने स्थान पर ही खड़े रहकर अपनी-अपनी विधि से संत का अभिवादन करते हैं। आशीर्वाद के लिए संत का हाथ आकाश की ओर उठता है और जनसमूह की ओर से जयघोष। इसके साथ ही संत देवस्थानम के चिरपरिचित मंच की ओर चलने लगते हैं और शेष उनका अनुसरण करते हैं। हस्तिनापुरवासियों को संबोधित करने के लिए संत मंच पर खड़े हो जाते हैं और उत्सुकता के साथ हस्तिनापुरवासी मंच के सामने।)

सुदीर्घ (जिज्ञासा भाव के साथ प्रश्न)  : निश्चित ही आप महायुद्ध के अभियुक्त का निर्धारण कर चुके होंगे?

सुवीर्य (शान्त भाव से)  : अवश्य, आदरणीय..!

सुदीर्घ (क्लांत भाव के साथ मध्य ही में)  : ..कोई भी निर्णय दुर्भावना पूर्ण नहीं होना चाहिए! ...क्योंकि, हमारा उद्देश्य सिँहासन के विरुद्ध विद्रोह अथवा राज्य में अराजकता उत्पन्न करना कदापि नहीं है! ... (क्षणिक मौन के उपरांत)... यदि हम दुर्भावना के वशीभूत होकर अपना संकल्प पूर्ण करने की चेष्ठा करते हैं! ...तो महायुद्ध के लिए उत्तरदायी व्यक्ति पर अभियोग चलाकर संकल्प पूर्ण करने का नैतिक अधिकार हम स्वयं ही विनष्ट कर देते हैं! .. .(कहते-कहते संत भावुक मन साथ आकाश की ओर निहारने लगते हैं। तत्पश्चात गंभीर भाव से)... यदि किसी एक भी व्यक्ति के मन-वचन में दुर्भावना के लक्षण परिलक्षित हुए तो! ...मैं अधूरे संकल्प के साथ अज्ञातवास के लिए लौट जाऊंगा...!

सुवीर्य (मध्य ही में किन्तु विनीत व आश्वासन के स्वर में)  : ..श्रद्धेय! हस्तिनापुरवासियों की ओर से मैं आपको पूर्ण आश्वस्त करता हूँ कि हमारा निर्णय सर्वसम्मत और दुर्भावना रहित है! ...समस्त पूर्वाग्रह व विद्वेष का त्याग कर ही हस्तिनापुर की प्रजा ने अभियुक्त का निर्धारण किया है, आदरणीय!

सुदीर्घ (संतोष के स्वर में)  : आप से ऐसी ही आशा की अपेक्षा रखता हूँ! ...उचित! ...निर्णय से अवगत कराने का कष्ट करें!

सुवीर्य (सहज भाव से)  : आदरणीय! हस्तिनापुर की प्रजा धर्मराज युधिष्ठिर व भीष्म पितामह को संयुक्तरूप से महायुद्ध के लिए उत्तरदायी मानती है!

(देवस्थानम का मैदान करतल ध्वनि गुंजाने लगती है)

सुदीर्घ (शांत भाव से)  : किन्तु! ...प्रमुख अभियुक्त कौन? ...(क्षणिक अंतराल के उपरांत)... समस्त कुरुवंश पर अभियोग चलाना तो राज्य में अराजकता व स्थिरता उत्पन्न करने के समान होगा!

सुवीर्य  : आदरणीय! ...प्रजा की इच्छा है कि दोनों में से प्रमुख का निर्धारण आप स्वयं करें!

सुदीर्घ  : किन्तु! ...(क्षणिक विचार के पश्चात)... यह निर्णय भी प्रजा को ही करना चाहिए! ...समस्त अधिकार प्रजा के पास सुरक्षित हैं! ...मैं तो निमित मात्र हूँ!

सुवीर्य (जिज्ञासा भाव से)  : श्रद्धेय! तब क्या दोनों पर?

सुदीर्घ (सहज भाव से)  : कदापि नहीं! ...हमारा उद्देश्य राजसत्ता तक केवल यह संदेश पहुँचाना है कि प्रजा पारिवारिक कलह-जन्य युद्ध का समर्थन नहीं करती है! ...और, इस उद्देश्य की पूर्ति केवल मुख्य उत्तरदायी पर अभियोग चलाने से ही पूर्ण हो जाती है!

सुवीर्य (अन्य प्रतिनिधियों के साथ विचार-विमर्श करने के उपरांत)  : मुख्य अभियुक्त का निर्धारण आप स्वयं ही करें, यही प्रजा की इच्छा है, श्रद्धेय!

सुदीर्घ (क्षणिक विचार करने के पश्चात)  : प्रजा की यदि यही इच्छा है, तो दोनों से संबंधित आरोप प्रस्तुत करें!

(धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्म पितामह पर लगाए गए आरोपों की सूची संत सुदीर्घ को सौंप दी जाती हैं। सुदीर्घ उनका सूक्ष्म अध्ययन करते हैं।)

सुदीर्घ (अध्ययन करने के उपरांत सहज भाव से)

प्रस्तुत आरोप पत्रों के आधार पर श्रद्धेय भीष्म पितामह को ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए! ... (करतल ध्वनि के साथ नगरवासी सुदीर्घ के सुझाव का समर्थन करते हैं। करतल ध्वनि के मध्य ही आग्रह भाव से)... तो फिर श्रद्धेय भीष्म पर अभियोग
चलाने के लिए शेष औपचारिकताएं पूर्ण की जानी चाहिए...! ... (अवश्य-अवश्य के स्वर के साथ नगरवासी अपनी सहमति व्यक्त करते हैं। तत्पश्चात सहज भाव से)... उचित! ...तब जन-न्यायलय का गठन करना ही उचित होगा! ...(सुवीर्य की ओर संकेत करते हुए)... वत्स! प्रजा के मध्य से ही मुख्य न्यायाधीश व चार अन्य न्यायाधीशों का चयन किया जाना चाहिए! ...चयन में सर्वसम्मति का होना आवश्यक है!

सुवीर्य (विनीत भाव से)  : मुख्य न्यायाधीश के उत्तरदायित्व का निर्वाह आप स्वयं करे, आदरणीय!

सुदीर्घ (शान्त भाव से)  : नहीं! ...अभियोक्ता न्यायाधीश कैसे हो सकता है, वत्स? ...मेरी सम्मति में इस दायित्व का निर्वहन आप ही करें, वत्स सुवीर्य!

(अवश्य-अवश्य की ध्वनि के साथ नगरवासी सुदीर्घ के प्रस्ताव का समर्थन करते हैं।)

सुवीर्य (सहज भाव से)  : हस्तिनापुरवासियों की भावना का सम्मान करता हूँ! ...(क्षणिक मौन के पश्चात)...किन्तु, श्रद्धेय! अभियुक्त के नाम का निर्धारण मेरे ही नेतृत्व में हुआ है! ...अत: मुख्य न्यायाधीश का उत्तरदायित्व भी मुझे ही सौंपना न्यायसंगत न होगा, श्रद्धेय! ...श्रीमान नवोदित योग्य और निष्पक्ष छवि के व्यक्ति हैं! ...अत: यह दायित्व उन्हें ही सौंप देना उचित होगा!

(करतल ध्वनि के साथ नगरवासी ने अपनी सहमति व्यक्त करते हैं। नवोदित के नाम पर हर्ष व्यक्त कर सुदीर्घ भी अपनी सहमति व्यक्त करते हैं। नवोदित के साथ विचार-विमर्श करने के उपरांत न्यायाधीश पदों के लिए देवदत्त , विराज , विजयानन्द और विदर्भ के नाम का प्रस्ताव किया जाता है। सुदीर्घ सभी नाम के लिए अपनी सहमति व्यक्त करते हैं। संदेश वाहक के रूप में विक्रांत को अभियोग संबंधी संदेश-पत्र लेकर भीष्म पितामह के पास भेज दिया जाता है।)