महाभारत का अभियुक्त / अंक 4 / राजेंद्र त्यागी
अंक चार
-दृश्य एक-
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(प्रत:काल की बेला। मंच पर एक साधारण से प्रासाद का साधारण कक्ष। प्रात:कालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर भीष्म पितामह विश्राम की अवस्था में हैं। शरीर पर एक भी आभूषण नहीं है , केवल एक श्वेत धोती शरीर पर लिपटी है। यद्यपि उनके मुख मंडल पर क्लांति स्पष्ट हो रही है। उपरांत इसके मुख पर पूर्व की भांति कांति विद्यमान है। श्वेत केश और दाढ़ी कांति में और वृद्धि कर रहे हैं। कुल मिलाकर एक संत का-सा स्वरूप।)
प्रतिहार (अभिवादन के साथ) : हस्तिनापुर-प्रजा के संदेशवाहक श्रीमान विक्रांत भेंट की इच्छा रखते हैं।
भीष्म (आश्चर्य भाव से) : हस्तिनापुर-प्रजा का संदेशवाहक...!
प्रतिहार : ...जी, महाराज!
भीष्म (तन पर लिपटी धोती संवारते हुए) : ससम्मान कक्ष में ले आओ!
विक्रांत (प्रणाम कर अपना परिचय देते हुए) : मैं विक्रांत! ...हस्तिनापुर की प्रजा का संदेश लेकर आपके समक्ष प्रस्तुत हुआ हूँ!
भीष्म (अभिवादन स्वीकार करते हुए) : आसन ग्रहण करो, वत्स! ...(उत्सुकता के साथ)... हस्तिनापुर की प्रजा का क्या आदेश है, वत्स?
विक्रांत (शीश झुका कर) : पितामह! ...हस्तिनापुर की प्रजा ने आपका स्मरण किया है!
भीष्म (प्रसन्नता एवं आश्चर्य भाव के साथ) : मुझे, पुत्र!
विक्रांत : अवश्य, आदरणीय!
भीष्म (जिज्ञासा भाव से) : प्रयोजन, पुत्र!
(विक्रांत कुछ बोलने का प्रयास करता है , किन्तु संकोचवश बिना किसी उत्तर के लिखित संदेश भीष्म की ओर बढ़ा देता है। भीष्म ध्यान से संदेश पढ़ते हैं। विक्रांत शीश झुकाए खड़ा रहता है। संदेश पढ़ने के बाद भीष्म आश्चर्य व क्षोभ व्यक्त करते हैं)
भीष्म (स्तब्ध व क्षोभ भाव के साथ)
- मैंऽऽऽ! ...अभियुक्त! ...युद्ध के लिए! ... (नेत्र नद्ध कर क्षण भर के लिए भीष्म अतीत की कंद्राओं में विचरण करने लगते हैं। अगले ही क्षण थिर नेत्रों से विक्रांत को निहारते हुए)...
(विक्रांत किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना पूर्व स्थिति में ही शीश झुकाए मौन खड़े रहते हैं। क्षणभर के लिए कक्ष में मौन व्याप्त हो जाता है।)
भीष्म (स्वयं को संयत कर आत्म-विश्वास के साथ) : ...उचित! ...भीष्म! ...न्यायालय के समक्ष अवश्य उपस्थित होगा! ...न्यायालय का प्रत्येक निर्णय शिरोधार्य होगा! ...अवश्य ही मृत्यु-उपरांत भी मैं हस्तिनापुर की रक्षा के प्रति प्रतिज्ञद्ध हूं, वत्स!
विक्रांत (संकोच के साथ विनय भाव से) : क्षमाप्रार्थी हूँ, पितामह! ...मुझे आदेश हुआ है कि श्रद्धेय को अपने साथ लेकर ही न्यायालय के समक्ष उपस्थित...!
भीष्म (क्षुब्ध भाव से मध्य ही में) : ...ओऽऽऽह! ...एक साधारण अभियुक्त के समान!
विक्रांत (शीश झुकाए शांत भाव से) : ...आपके तैयार होने तक प्रासाद के बाहर आपकी प्रतीक्षा कर लेता हूँ!
भीष्म (क्षुब्ध भाव से)
- ओऽऽऽह! ...मैं इतना संदिग्ध! ...हस्तिनापुर की प्रजा के हृदय से पूर्ण विश्वास समाप्त ...ओऽऽऽह! ... (व्यथित भीष्म आकाश की ओर निहारते हैं। तत्पश्चात विनीत स्वर में)... मेरे पास कोई संदेशवाहक तो नहीं है, पुत्र! ...क्या मेरा संदेश हस्तिनापुर
विक्रांत : अवश्य पितामह!
भीष्म (आत्म-विश्वास के साथ) : ...तो जाओ, वत्स! ...प्रजा से कहना, मृत्युलोक से गमन करने के उपरांत भी देवव्रत स्वयं को प्रजा-ऋण से उऋण नहीं मानता है! ...ब्रह्मलोकवासी होने के पश्चात भी देवव्रत हस्तिनापुर सिँहासन व उसकी प्रजा के प्रति प्रतिज्ञाब्ध है! ...अत: संदेह का कोई कारण नहीं! ... (क्षणिक मौन और तत्काल ही विनीत स्वर में)...भीष्म तुम्हें वचन देता है! ...निर्धारित समय पर मैं स्वयं ही न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा! ..अत: नि.:संदेह, नि:संकोच जाओ, पुत्र! ...और, प्रजा से कहना कि उनका अभियुक्त आ रहा है! ...अभियोग चलाने की तैयारी पूर्ण की जाए!
(भीष्म का संदेश सुनने के पश्चात एक क्षण के लिए विक्रांत जड़वत हो जाता है और फिर पितामह को प्रणाम कर कक्ष से प्रस्थान करता है। भीष्म के मुख पर विकृत एक मुस्कान व्याप्त हो जाती है और सहसा ही मुख से निकल जाता है , ' कर्म गति ' । तत्काल ही भीष्म के मन में विभिन्न विचार उतरने लगते हैं। उन्हें प्रतीत होता है कि जैसे उनके अंतरमन में स्थित कोई अज्ञात शक्ति चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है। अज्ञात शक्ति के रूप में नेपथ्य से ध्वनि गूंजती है।)
नेपथ्य से : प्रारब्ध! ...संभवतया प्रारब्ध के सूर्य ने अभी उत्तरायण प्रवेश नहीं किया है! ...संभवतया शर-शय्या-शयन के भोग अभी पूर्ण नहीं हुए हैं! ...भीष्म से भी अधिक शक्तिशाली हैं, प्रारब्ध भोग! ...मनुष्य की तो सामर्थ्य ही क्या? ...प्रारब्ध भोग से देवता भी मुक्त नहीं हो पाते हैं! यह प्रारब्ध की ही सामर्थ्य तो है कि ब्रह्मलोक में भी...!
-दृश्य दो-
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(भीष्म की श्रवणेन्द्रियों में अज्ञात शक्ति की कर्कश वाणी गूँज ही रही थी कि तभी उनके कक्ष में माँ गंगा का प्रवेश होता है। माँ के प्रवेश का अनुभव कर एक क्षण के लिए उनका शरीर तरंगित-सा हो जाता है। वह शरीर को झटका देकर शय्या से खड़े हो जाते हैं।)
भीष्म (स्तब्ध भाव के साथ) : माँऽऽऽ! ...आप! ...(तत्काल ही स्वयं को संयत कर माँ गंगा के चरण स्पर्श करते हैं।)
गंगा (आश्चर्य भाव से) : पुत्र! ...अभी तो सूर्यदेव का पूर्ण आगमन भी नहीं हुआ है! ...और तुम? ...यह तो तुम्हारे विश्राम का समय है, पुत्र!
भीष्म : मौन!
गंगा (मुस्कराते हुए) : ...अरे! ...कहीं, मैं असमय तो नहीं आ गई! ...हाँ-हाँ! ...मैं समझ गई, पुत्र! ...मेरा असमय आना ही तुम्हारे आश्चर्य का कारण भी है, संभवतया!
(भीष्म की ओर से पुन: कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता है। मौन अवस्था में ही वे माँ को निहारते रहते हैं।)
गंगा (उत्सुकता के साथ संदेह भाव से) : मौन क्यों हो, पुत्र! ...कुछ बोलते क्यों नहीं? …(क्षणिक वाणी विराम के उपरांत)...मौन का कारण, पुत्र?
भीष्म (उपेक्षा भाव से) : कुछ नहीं माँ! ...बस यूँ ही पूर्वजन्म का स्मरण हो आया था!
गँगा (पुन: आश्चर्य भाव से) : पूर्वजन्म का स्मरण, पुत्र! ...ओह! अतीत में जीना संभवतया कुरुवंश का स्वभाव बन गया है! ...(क्षणिक विचार करने के उपरांत पुन:)... किन्तु! ...ऐसा कर कहीं तुम वर्तमान के यथार्थ पर आवरण डालने का तो प्रयास नहीं कर रहे हो, पुत्र!
भीष्म (अपराध भाव के साथ) : नहीं, माँ!
गंगा (दृढ़ भाव के साथ भीष्म के नेत्रों में नेत्र डालकर)
- व्यक्ति का मन भले ही अगम्य हो! ...उसका मन भले ही सहस्र रहस्य छिपाने की क्षमता रखता हो! ...किन्तु, माँ के लिए पुत्र-मन अगम्य नहीं हो सकता! ... (अल्प मौन के पश्चात)... पुत्र के व्यथित मन से उत्पन्न तरंगों से माँ का मन व्यग्र न हो! ...पुत्र! यह किस प्रकार संभाव है? ...मेरा यहाँ
भीष्म (अपराध बोध के भाव लिए) : माँऽऽऽ! ...हस्तिनापुर की प्रजा ने स्मरण किया है!
गंगा (आश्चर्य भाव से) : तुम्हें!
भीष्म (सहज भाव से) : हाँ, माँ!
गंगा (संदेह भाव से) : प्रयोजन, पुत्र?
भीष्म : पुन: मौन!
गंगा (दया भाव से)
- मौन रहकर व्यक्ति कुछ छिपाने का प्रयास अवश्य करता है! ...किंतु यह विस्मृति कर देता है कि मौन की भाषा वाणी की भाषा से कहीं अधिक सशक्त होती है! ...(प्रश्नवाचक दृष्टि से भीष्म की ओर निहारते हुए)... मैं तुम्हारी जननी हूँ! ...जननी से रहस्य गोपन...तात्पर्य ? ...( आर्द्र नेत्रों के साथ)…नि:संकोच भाव से कहो, पुत्र! ...संभवतया वेदना के इन क्षणों में मैं तुम्हारे लिए सहायक सिद्ध हो सकूँ!
भीष्म (शांत भाव से , रुक-रुक कर) : माँ! ...हस्तिनापुर की प्रजा को संदेह है! ...कि कुरुक्षेत्र-महायुद्ध का मुख्य कारण मैं ही हूँ! ...उसके लिए मैं ही...!
गंगा (व्यग्र भाव से मध्य ही में) : ...तब?
भीष्म (पूर्व भाव से) : प्रजा मुझ पर अभियोग चलाना चाहती है, माँ!
गंगा (आश्चर्य मिश्रित क्रोध भाव से) : महायुद्ध के लिए उत्तरदायी! ...अभियुक्त! ...अभियोग!
भीष्म (पूर्व भाव से) : नि:संदेह, माँ!
गंगा (पूर्व भाव से) : उस व्यक्ति पर! ...जिसने हस्तिनापुर व उसकी प्रजा के हित में अपना संपूर्ण जीवन होम कर दिया! ...समस्त अधिकार, सुख-वैभवों का त्यागकर जो आजीवन शर शय्या पर पड़ा रहा! ...इतनी कृतघ्न हो गई है, हस्तिनापुर की प्रजा? …(गंगा के नेत्रों में अश्रुजल छलक आते हैं।)
भीष्म (उसी शांत भाव से) : प्रजा कृतघ्न नहीं है,माँ ...(अपने उत्तरीय से माँ के अश्रु पोंछते हुए)... संभवतया प्रारब्ध के लेख हैं, माँ!
गंगा (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : तो क्या न्यायालय के समक्ष तुम्हारा उपस्थित होना आवश्यक है?
भीष्म (शांत भाव से) : नि:संदेह, माँ!
गंगा (बल पूर्वक) : यदि मैं कहूँ, नहीं?
भीष्म (पूर्व भाव से) : हस्तिनापुर-सिँहासन और प्रजा के प्रति भी प्रतिज्ञाब्ध हूँ, माँ!
गंगा (क्षोभ व्यक्त करते हुए) : जीवन-त्याग के उपरांत भी?
भीष्म (पूर्व भाव से) : इसे ही तो प्रारब्ध-भोग कहते हैं, माँ! ...फल-भोग के बिना प्रारब्ध कर्म नष्ट नहीं होते हैं! ...प्रारब्ध-भोग जीव की विवशत है, माँ!
गंगा (पूर्व भाव से) : किन्तु, पुत्र...!
भीष्म (पूर्व भाव से मध्य ही में) : ...माँऽऽऽ! ...विधि के विधान में 'किन्तु' शब्द का विधान नहीं है! ... (गंभीर भाव से)...उसका विधान ऋजुमार्गी है, चक्रमार्गी नहीं!
गंगा (आश्चर्य भाव से) : क्या? ...ऋजुमार्गी, पुत्र!
भीष्म (गंभीर भाव से)
- हाँ, माँ! ...विधि के विधान में यदि किन्तु-परन्तु होता तो काल का आमंत्रण अस्वीकार कर भीष्म सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा न करता! ... (भावुक मन से)... और, अपने काल का सर्वश्रेष्ठ योद्धा भीष्म! ...तब वीरगति के पुण्य से वंचित हो कर अट्ठावन दिन तक शर-शय्या पर पड़ा दारुण कष्ट
गंगा (क्षुब्ध भाव से) : भीष्म प्रतिज्ञा की अग्नि में दग्ध होने के उपरांत अब और कौन-से प्रारब्ध शेष रह गए हैं, पुत्र?
भीष्म (स्वयं को संयत का माँ के अश्रुकण पोंछते हुए) : संभवतया वे आठवें वसु 'द्यौ' के रूप में प्राप्त जन्म के प्रारब्ध थे ...!
गंगा (अधीरता के साथ मध्य ही में) : ...और अब?
भीष्म (पूर्व भाव से) : संभवतया, देवव्रत के रूप में प्राप्त जीवन के! ...(अल्प विराम के उपरांत पुन:)... मैं नहीं चाहता माँ! ...कि पूर्व जन्म के प्रारब्ध नए जीवन तक मेरा पीछा करें! ...अत: उपस्थित होना ही श्रेयस्कर होगा, माँ!
गंगा (निराश भाव से) : तो क्या पुत्र! ...मां की अवज्ञा...?
भीष्म (शांत भाव से मध्य ही में) : ...अवज्ञा नहीं, माँऽऽऽ! ... जननी के आदेश का पालन करना पुत्र का धर्म है! ...किन्तु, हस्तिनापुर की धरती ने मेरा पालन-पोषण किया है, माँ! ...उसके प्रति भी तो मेरे कुछ दायित्व हैं! ....उनका निर्वाह करना भी तो मेरा धर्म है!
गंगा (पुन: निराशा भाव से) : पुत्र! ...आजीवन मातृभूमि-धर्म का ही तो पालन किया है! ...(आंचल से अश्रु पोंछते हुए)...जननी की उपेक्षा और कब तक...?
भीष्म (भावुक मन से मध्य ही में) : ...ऐसा न कहो, माँ! ...मातृभूमि के प्रति कर्तव्य निर्वाह का संभवतया यह अंतिम अवसर होगा! ...अत: मुझे जाने का आज्ञा दो, माँ!
(आंचल से भीगी पलके शुष्क कर गंगा एक क्षण के लिए पुत्र भीष्म का मुख निहारती हैं और उसके उपरांत दृष्टि धरती की ओर केंद्रित कर लेती हैं।)
गंगा (भावुक मन से शनै: शनै:) : ठीक है, पुत्र! ...जाओ! ...मातृभामि के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करो! ...(ममता भरे नेत्रों से पुत्र भीष्म को निहारते हुए पुन:)... नहीं जानती! ...मेरे प्रारब्ध-भोग का मार्ग कितना दीर्घ है! ...(क्षणिक मौन के उपरांत पुन:)...जाओ, पुत्र! ...जाओ!
(भीष्म को अनुमति प्रदान कर भीगे नेत्रों के साथ गंगा द्रुत गति से कक्ष से बाहर चली जाती हैं। भीष्म को माँ गंगा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करने की भी अवसर प्राप्त नहीं होता है। भीष्म कुछ समय तक कक्ष का द्वार ही निहारते रहते हैं। तत्पश्चात मन व हृदय के वेग-आवेगों पर नियंत्रण कर जन-न्यायालय की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।)
-दृश्य-तीन-
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( देवस्थानम स्थित मंच को न्यायालय का स्वरूप दे दिया गया है। मंच के मध्य चार आसन सुसज्जित हैं। मध्य में स्थित एक आसन पर मुख्य न्यायाधीश नवोदित , उनके दक्षिण पार्श्व में न्यायाधीश देवदत्त व विराज और वाम पार्श्व में विजयानन्द व विदर्भ विराजमान है। न्यायाधीशों के आसन के समक्ष कुछ अंतर पर आमने-सामने दो और आसन हैं। उनमें से एक आसन अभियोक्ता संत सुदीर्घ के लिए है और दूसरा आसन अभियुक्त देवव्रत के लिए। सभी अपने-अपने आसन पर विराजमान हैं। केवल अभियोक्ता सुदीर्घ और अभियुक्त देवव्रत के लिए आरक्षित आसन ही रिक्त हैं। मंच के समक्ष रिक्त स्थान हस्तिनापुर के नागरिकों के लिए आरक्षित किया गया है। वहां उपस्थित सभी जन संदेशवाहक विक्रांत के साथ भीष्म के आगमन की प्रतीक्षा कर रहें हैं। भीष्म आएंगे भी या नहीं , नगरवासी इस विषयों को लेकर परस्पर चर्चा करने में व्यस्त हैं। तभी क्षितिज से धूल उठती दिखई देती है। जन-न्यायालय परिसर में उपस्थित समस्तजन उत्सुकता के साथ उस ओर देखने लगते हैं। धूल के मध्य रथ दिखाई देता है। सभी के मुख से एक ही शब्द निकलता है- लो , भीष्म आ गए। तत्काल ही सभी एक अप्रत्याशित संदेह में डूब जाते हैं और मुख से निकलता है -अरे! ये तो विक्रांत अकेले ही हैं। रथ से उतरकर विक्रांत मुख्य न्यायाधीश नवोदित के समक्ष उपस्थित होते हैं। शेष जन उत्सुकता के साथ उस ओर निहारने लगते हैं।)
नवोदित (विस्मय व जिज्ञासा भाव से) : और,भीष्म...?
विक्रांत (विश्वास के साथ शांत भाव से) : वे आ रहें हैं, श्रीमान!
नवोदित (संदेह भाव से) : कब? ...साथ क्यों नहीं? ...क्या अवश्य आएंगे?
विक्रांत (आत्म-विश्वास के साथ सहज भाव से) : नि:सदेह! ...वे शीघ्र ही आते होंगे! ...हस्तिनापुर की प्रजा के लिए उनका यही संदेश है!
नवोदित (संदेह भाव से अन्य न्यायाधीशों की ओर देखते हुए) : प्रतीक्षा करना उचित होगा?
देवदत्त (आत्मविश्वास के साथ) : अवश्य ही! ...वह 'भीष्म' हैं! ...संदेह व अविश्वास का कोई कारण नहीं!
(आसन से खड़े होकर नवोदित उपस्थित नगरवासियों को भीष्म के संदेश से अवगत कराते हैं। भीष्म के आगमन विषय पर उत्पन्न संदेह और विश्वास पर नगरवासी के मध्य चर्चा शुरू हो जाती है।)
भूपति (नगरवासियों के मध्य से सत्यव्रत से संशय व्यक्त करते हुए) : भीष्म क्यों आएंगे? ...आने का कोई कारण नहीं है! ...संभवतया वे नहीं आएंगे!
सत्यव्रत (आत्मविश्वास के साथ) : नहीं-नहीं! ...भीष्म अवश्य आएंगे! ...उन्होंने विक्रांत को आश्वासन दिया है! ...प्रतिज्ञा-पालन के लिए जिस पुरुष ने सर्वस्व त्याग कर दिया! ...उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है, वत्स सुवीर्य!
(चर्चा के मध्य ही क्षितिज से एक बार पुन: धूल उठती दिखाई दी। ' लो भीष्म आ गए , भीष्म ही होंगे! ' की ध्वनि के साथ पुन: समस्त जनों की दृष्टि उस ओर उठती है। )
सत्यव्रत (अनुमान लगाते हुए) : अवश्य भीष्म ही हैं!
भूपति (संदेहपूर्ण वाणी में) : मुझे विश्वास नहीं होता!
सत्यव्रत (व्यंग्य भाव से) : तुम्हें विश्वास ही हो यह आवश्यक तो नहीं!
(अगले ही क्षण धूल उड़नी बंद हो जाती है।)
भूपति (अनुमान के आधार पर संदेह भाव से)
- मैंने कहा था न! ...भीष्म का आना आवश्यक नहीं है! ...(व्यंग्य भाव से)... देखो! ...भीष्म आगमन के तुम्हारे संकेत पर धूल पड़ गई है! ... (ऐसा कहने के साथ ही भूपति मुस्करा देता है।)
सत्यव्रत (मुख पर लज्जा के भावों के साथ) : धैर्य के साथ प्रतीक्षा करो, मित्र! ...भीष्म अवश्य आएंगे!
(तभी जन-न्यायालय-मंच से कुछ दूर रथ-त्याग कर भीष्म अकेले ही पैदल आते दिखलाई पड़ते हैं)
सत्यव्रत (हर्ष के साथ चिहुँक कर) : देखो-देखो! ...भीष्म ही हैं! ...वे ही आ रहे हैं!
भूपति (आश्चर्य व लज्जा मिश्रित वाणी में) : किन्तु! ...पैदल ही! ...यह कैसे संभव हो सकता है, मित्र! ...भीष्म और पैदल! ...मुझे अभी भी संदेह हो रहा है!
(शनै: शनै: भीष्म और निकट आ जाते हैं)
सत्यव्रत (विजय भाव से) : अब तो संदेह का कोई कारण नहीं है! ...ध्यान से देखा, मित्र! ...भीष्म ही हैं!
भूपति (संदेह भाव से प्रश्न करते हुए) : किन्तु, पैदल ही क्यों?
संत सुदीर्घ (आदर भाव से) : न्यायालय के सम्मान में! ... देवव्रत को व्यर्थ ही भीष्म की उपाधि से विभूषित नहीं कर दिया गया था!
-दृश्य चार-
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(तनाव रहित शांत मुख मंडल। समस्त राजषी वैभव से दूर शरीर पर केवल एक श्वेत धोती और उसके ऊपर श्वेत ही अंगवस्त्र , विराट आभा मंडल के साथ भीष्म शनै: शनै: न्यायालय-मंच की ओर बढ़ रहे हैं। नगरवासियों के मध्य से भीष्म-भीष्म-भीष्म और जय-जयकार की ध्वनि हवा में गूंजने लगती हैं। हस्तिनापुर की प्रजा का अभिवादन स्वीकारते हुए भीष्म न्यायालय-मंच के समीप पहुंचते हैं और शीश झुका कर न्यायाधीशों का अभिवादन करते हैं। समस्त न्यायाधीशों के मुख पर गंभीर भाव व्याप्त हो जाते हैं। न्यायाधीशों का अभिवादन कर भीष्म उपस्थित जन-समूह की ओर मुख कर हस्तिनापुर की प्रजा का अभिवादन करते हैं। तत्पश्चात शांतभाव से नगरवासियों के साथ ही अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते हैं। कुछ काल के लिए वातावरण में नीरवता व्याप्त हो जाती है। एक अंतराल के उपरांत भीष्म मुख्यन्यायाधीश के आसन पर विराजमान नवोदित की ओर अभिमुख होते हैं।)
भीष्म (विनय भाव से) : हस्तिनापुर की प्रजा का अभियुक्त! ...मैं देवव्रत उपनाम भीष्म न्यायालय के समक्ष उपस्थित है! ...(क्षणिक विराम के पश्चात)... मेरे लिए क्या आदेश है, माननीय न्यायाधीश?
(न्यायालय के प्रति भीष्म का गरिमा युक्त व्यवहार से प्रभावित नवोदित भावुक हो जाते हैं। वह उनके सम्मान में आसन से खड़े होने लगते हैं। किन्तु तभी उन्हें अनुभूत हुआ कि वह सामान्य नागरिक नहीं , जन-न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हैं। तत्काल ही वह अपने निर्बल भाव नियंत्रित करते हैं और अर्द्ध उत्तिष्ठ अवस्था से ही आसन पर पुन: बैठ जाते हैं।)
नवोदित (सम्मान के साथ अभियुक्त के आसन की ओर संकेत करते हुए) : आसन ग्रहण करें, देवव्रत! ...क्या न्यायालय की कार्यवाही प्रारंभ की जाए? ...आप तैयार हैं?
भीष्म (शांत किन्तु आत्म-विश्वास के साथ) : नि:संदेह! ...हस्तिनापुर की प्रजा के आदेश का ही पालन करने के उद्देश्य से ही यहां उपस्थित हुआ हूँ, श्रद्धेय!
नवोदित : पुन: आसन ग्रहण करने का संकेत करते हैं।
(भीष्म पुन: शीश झुका कर नगरवासियों और न्यायाधीशों का अभिवादन करते हैं और इसके साथ ही आसन ग्रहण करते हैं। उनके आसन ग्रहण करने के साथ ही विक्रांत न्यायालय की कार्यवाही प्रारंभ करते हुए आसन ग्रहण करने के लिए अभियोक्ता संत सुदीर्घ को भी आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करते हैं। नगरवासियों के मध्य से बाहर आकर सुदीर्घ भी आसन ग्रहण करते हैं। संत सुदीर्घ को देखकर भीष्म उनके सम्मान में आसन से खड़े हो कर उनके चरण स्पर्श करते हैं। आशीर्वाद प्रदान करते हुए सुदीर्घ भीष्म को बांहों में भर लेते हैं। और , इसके साथ ही दोनों के नेत्र अश्रु पूरित हो जाते हैं। बांहों के बंधन से मुक्त कर सुदीर्घ स्वयं भीष्म को आसन पर बिठाते हैं और फिर स्वयं बैठते हैं। इसके साथ ही विक्रांत आसन से खड़े हो कर भीष्म पर लगाए गए आरोप पढ़ना प्रारंभ करते हैं।)
विक्रांत (स्वयं को संयत करते हुए) : देवव्रत उपनाम भीष्म के ऊपर प्रथम आरोप है! ...कि हस्तिनापुर राज्य व उसकी प्रजा की उपेक्षा कर भीष्म ने सदैव ही स्वहित में निर्णय लिए! ...और, हस्तिनापुर राज्य के लिए महायुद्ध की परिस्थितियां उत्पन्न की हैं!
(भीष्म शांत भाव से आरोप सुनते हैं। उनके मुख पर भी किसी प्रकार के विपरीत भाव अंकित नहीं हैं)
नवोदित (भीष्म की ओर संकेत करते हुए सहज भाव से) : आरोप के संबंध में क्या आप कुछ कहना चाहेंगे, भीष्म?
भीष्म (अंग वस्त्र संवारते हुए आसन से खड़े होकर सहज भाव से) : मिथ्या आरोप, माननीय मुख्य न्यायाधीश! ...(कुछ क्षण रुकने के बाद आश्चर्य भाव से)... जिसका संपूर्ण जीवन हस्तिनापुर व उसकी प्रजा के लिए समर्पित रहा! ...हस्तिनापुर सिँहासन की सुरक्षा व संवर्धन के लिए जिस व्यक्ति ने संपूर्ण वैभव व समस्त सुखों का त्याग कर हस्तिनापुर हित में आजीवन प्रतिज्ञा का निर्वहन किया! ...उसी पर हस्तिनापुर व उसकी प्रजा की उपेक्षा का आरोप? ...(दीर्घ श्वांस-पान करने के उपरांत)... मेरे ऊपर लगाया गया यह आरोप देशद्रोह समान है! ...मैं और देशद्रोही? ...मुझे स्वीकार नहीं हैं, आपका आरोप!
(अपना पक्ष रख भीष्म शांत भाव से आसन ग्रहण करते हैं और देवस्थानम में अप्रत्याशित मौन व्याप्त हो जाता है। तभी नेपथ्य से निषादराज व देवव्रत के मध्य वार्तलाप और देवव्रत की भीष्म-प्रतिज्ञा की ध्वनि गूंजती है। उपस्थित समस्त जनों का ध्यान ध्वनि पर केंद्रित हो जाता है।)
नवोदित (आश्चर्य व भय के मिश्रित भाव के साथ) : विक्रांत! ...यह वार्तालाप? ...कौन हैं, वे?
संत सुदीर्घ (विक्रांत से पूर्व ही) : यह सत्यवती के पालनहार निषादराज व हस्तिनापुर के युवराज देवव्रत के मध्य वार्तालाप की प्रतिध्वनि है, माननीय, मुख्य न्यायाधीश! ...वह वार्तालाप, जिसमें देवव्रत ने हस्तिनापुर-सिँहासन के प्रति निष्ठा के नाम पर आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी! ...इसी प्रतिज्ञा के आधार पर युवराज देवव्रत भीष्म-उपाधि से विभूषित हुए थे, माननीय!
भीष्म (हतप्रभ-सी स्थिति में) : किन्तु, इसका अभियोग से क्या संबंध?
संत सुदीर्घ (आग्रह भाव से)
- है, माननीय भीष्म! ...संबंध है! ...यही वह प्रतिज्ञा थी और यही वह क्षण था, जब हस्तिनापुर की भूमि पर महायुद्ध के बीजारोपण हुए थे! ... (भीष्म की ओर संकेत कर क्षुब्ध भाव से सुदीर्घ ने आगे कहा)... ध्यान से सुनों और स्मरण करो उन क्षणों का, माननीय भीष्म!
(समस्त जन नेपथ्य से ध्वनित वार्तालाप श्रवण में व्यस्त हो जाते हैं।)
नेपथ्य से निषादराज (विनीत भाव से) : सम्राट शांतनु के साथ पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे लिए हर्ष का विषय है, युवराज! ...किन्तु...!
युवराज देवव्रत (व्यग्र भाव से) : किन्तु, क्या निषादराज?
निषादराज (पूर्व भाव से) : युवराज! ...पुत्री सत्यवती की जन्म कुंडली में उल्लेख है कि उसके पुत्र का शत्रु अति प्रबल होगा! ... और, युवराज देवव्रत जिसके आप शत्रु हो जाएँ, वह गंधर्व हो या असुर उसका जीवित रहना असंभव है! ...सत्यवती के विवाह में यही एक दोष है और मेरी चिंता का विषय भी! ...ऐसा ही विचार कर मैने आपके पिता शान्तनु के हाथ में पुत्री सत्यवती का हाथ नहीं दिया, युवराज!
देवव्रत (गंभीर व गर्व भाव से) : निषादराज! ...मैं वचन देता हूँ कि सत्यवती के गर्भ से जो भी पुत्र उत्पन्न होगा, वही हस्तिनापुर का सम्राट होगा!
निषादराज (चिंतित भाव से) : यह तो उचित है, युवराज! ...किन्तु मेरे मन में एक संदेह और...!
देवव्रत (मध्य ही में जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...वह भी व्यक्त करो, निषादराज! ...आपकी प्रत्येक ‘किन्तु‘ के निवारण का प्रयास करूंगा!
निषादराज : आप तो प्रतिज्ञाबद्ध हो गए, युवराज! ...किन्तु, यदि आपका पुत्र सत्यवती के पुत्र से राज्य छीन ले तो...?
देवव्रत (पुन: गर्व के साथ) : अपने पिता के लिए राज्य का परित्याग तो मैं कर ही चुका हूँ, निषादराज! ...अब संतान के लिए पुन: प्रतिज्ञा करता हूँ,! … मैं देवव्रत! ...पृथ्वी, जल...!
(देवव्रत की प्रतिज्ञा के साथ ही नेपथ्य से भयानक प्रतिनाद उत्पन्न होता है। समस्त जन के मुखों पर भय व्याप्त हो जाता है। भीष्म-प्रतिज्ञा के शब्द अविराम ध्वनित होते रहते हैं।)
… मैं देवव्रत! ...पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और पवन को साक्षी कर यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज से मेरा ब्रह्मंचर्य अखंड होगा! ...स्त्री-संसर्ग कर अपनी वंशवृद्धि न करने के लिए आजीवन दृढ़-प्रतिज्ञ रहूँगा!
(नेपथ्य से आने वाली वार्तालाप की ध्वनि शांत हो जाती है। देवस्थानम के वातावरण में एक बार पुन: नीरवता व्याप्त हो गई। हस्तिनापुरवासी मौन नेत्रों से एक-दूसरे का मुख निहारने लगते हैं। प्रश्नवाचक दृष्टि से नवोदित सुदीर्घ की ओर देखते हैं। संकेत की भाषा का भान कर सुदीर्घ अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए आसन से खड़े होते हैं।)
सुदीर्घ (मुस्कराते हुए व्यंग्य भाव से) : श्रीमान! ...इसी प्रतिज्ञा के लिए देवताओं ने युवराज देवव्रत को 'भीष्म' की उपाधि से अलंकृत किया था! ...और, इसी प्रतिज्ञा के आधार पर भीष्म हस्तिनापुर राज्य की प्रजा के प्रति निष्ठा का अधिकार प्रदर्शन कर रहे हैं! ...किन्तु, श्रीमान! इसका हस्तिनापुर की सुरक्षा और संवर्धन से क्या संबंध? ...( क्षोभ व्यक्त करते हुए)... यह तो कामातुर पिता के लिए एक भावुक पुत्र की प्रतिज्ञा थी, आदरणीय!
नवोदित : आपके इस कथन का मंतव्य क्या है, सुदीर्घ ? ...और, अभियोग से इसका क्या संबंध है?
सुदीर्घ (क्षुब्ध भाव के साथ) : मंतव्य भी स्पष्ट है और अभियोग से उसका संबंध भी, श्रीमान! ...(दीर्घ श्वांस-पान करने के पश्चात)... माननीय! ...पारिवारिक कलह के कारण उत्पन्न युद्ध की ज्वाला शनै: शनै: हस्तिनापुर को अपने आगोश में समेटती रही और आदरणीय भीष्म ज्वाला की तपन अनदेखी कर प्रतिज्ञा का आँचल थामे बैठे रहे! ...आदरणीय! ...युवराज देवव्रत यदि 'भीष्म' होने का मिथ्या मोह त्याग राष्ट्र-हित में प्रतिज्ञा लेते तो हस्तिनापुर का परिदृश्य आज कुछ और होता!
(संत सुदीर्घ के आरोप और समर्थन में दिए तर्क सुनकर भीष्म के शांत मुख पर शनै: शनै: क्रोध भाव स्पष्ट होने लगते हैं। कर्कश वाणी में उनके मुख से निकलता है ' सुदीऽऽऽर्घ '! शांत भीष्म का रौद्र रूप देखकर समस्त जन आश्चर्यचकित व भयभीत हो जाते हैं।)
भीष्म (आवेग पर नियंत्रण कर शांत भाव से) : श्रद्धेय सुदीर्घ ! ...शान्तनु न केवल मेरे पिता थे, अपितु हस्तिनापुर राज्य के सम्राट भी थे! ...सम्राट का मन यदि खिन्न रहे तो राजकीय कार्य प्रभावित होने लगते हैं! ...किसी भी सम्राट की विकृत मनोदशा राज्य व प्रजा दोनों के लिए ही घातक होती है! ...अत: यह कहना मिथ्या होगा कि मेरी प्रतिज्ञा राज्य हित में नहीं थी! (तर्क प्रस्तुत कर भीष्म ग्लानि भाव किन्तु शांत मन के साथ आसन ग्रहण करते हैं।)
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : नि:संदेह! ...महाराज शान्तनु पिता ही नहीं सम्राट भी थे! ...किन्तु, भीष्म! ...क्या सम्राट की उचित-अनुचित प्रत्येक इच्छाओं की पूर्ति करना प्रजा का धर्म है? ...क्या सम्राट की कामवासना पूर्ति हेतु राज्य-हित को तिलांजलि देना उचित है?
भीष्म (पूर्व भाव से) : सम्राट की इच्छापूर्ति राज्य-हित को तिलांजलि देना कैसे? ...सम्राट- हित राज्य-हित से प्रथक तो नहीं?
सुदीर्घ (गंभीर मुद्रा में)
- मिथ्या तर्क, भीष्म! ...मिथ्या तर्क! ...तुम्हारे स्वभाव से भलीभांति परिचित हूँ और उस पर गर्व भी करता हूँ, भीष्म! … (अल्प विराम के पश्चात)... शान्तनु यदि केवल सम्राट ही होते! ...युवराज देवव्रत के पिता न होते, तो उनकी विकृत कामेच्छा के विरुद्ध राज्यहित
भीष्म (नवोदित की ओर अभिमुख होकर) : श्रीमान, संदेह का कोई आधार नहीं है! ...मेरी प्रतिज्ञा राज्यहित में ही थी! ...सदैव ही राज्यहित मेरे लिए सर्वोपरि रहा है! ...तदुपरांत मेरी निष्ठा पर संदेह...!
सुदीर्घ (मध्य ही में उत्तेजित भाव से) : ...निषादराज के विनियम पर सत्यवती के साथ विवाह करने से यदि किसी भी प्रकार से राज्य का अहित न था, तो महाराज शान्तनु ने निषादराज के विनियम स्वीकार कर विवाह क्यों नहीं किया? ...(प्रश्न का उत्तर स्वयं ही देते हुए)... माननीय, मुख्य न्यायाधीश महोदय! ...केवल इसलिए कि निषादराज के विनियम हस्तिनापुर-हित में नहीं थे!
नवोदित (व्यवस्था देते हुए) : प्रश्न उचित है! ...और, प्रश्न का उत्तर स्वयं महाराजा शान्तनु से ही जानना उचित होगा! ...(विक्रांत की ओर संकेत करते हुए)... महाराज शान्तनु को न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाए।
(सुवीर्य के निर्देश का पालन करते हुए विक्रांत महाराज शान्तनु का आह्वान करते हैं।)
-दृश्य पाँच-
/
(राजसी वस्त्र धारण किए शान्तनु न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। उपस्थित नगरवासी सम्राट शान्तनु के सम्मान में जयघोष करते हैं। भीष्म के ही समीप शान्तनु के लिए आसन की अलग से व्यवस्था की गई है। भीष्म पितामह भी उनके सम्मान में आसन से खड़े हो जाते हैं और शीश झुका कर उन्हें प्रणाम करते हैं। हस्तिनापुर व न्यायाधीश अपने-अपने आसन पर विराजमान रहते हैं। सम्राट शान्तनु हस्तिनापुर-प्रजा का अभिवादन स्वीकार करते हैं। तत्पश्चात सुदीर्घ और न्यायाधीशों का क्रम से अभिवादन करते हुए पुत्र भीष्म को आशीर्वाद देते हैं। शान्तनु का अभिवादन स्वीकारते हुए मुख्य न्यायाधीश नवोदित आसन ग्रहण करने का संकेत करते हुए प्रश्न करते हैं। )
नवोदित : सम्राट शान्तनु! ...क्या आप निषादराज-पुत्री सत्यवती से प्रेम करते थे?
शान्तनु (शांत भाव से) : अवश्य, श्रीमान!
नवोदित : क्या सत्यवती के साथ विवाह करने की इच्छा रखते थे?
शान्तनु : अवश्य!
नवोदित : क्या सत्यवती अथवा निषादराज विवाह में बाधक थे?
शान्तनु : कदापि नहीं, श्रीमान!
नवोदित : तब विवाह न करने का कारण?
शान्तनु (करुण भाव से पुत्र भीष्म की ओर देखते हुए) : मुझे निषादराज का विवाह विनियम स्वीकार न था!
नवोदित (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : विनियम क्या थे, सम्राट?
(नवोदित के प्रश्न के साथ ही नेपथ्य से पुन: ध्वनि गूंजती है)
नेपथ्य से शान्तनु का स्वर : निषादराज तुम्हारी पुत्र ने मेरे हृदय का आखेट किया है। ...उसके रूप ने मेरा छल किया है। ...मैं उसे अपनी धर्मपत्नी बनाना चाहता हूँ।
निषादराज का स्वर : राजन! जब से यह दिव्य कन्या मुझे प्राप्त हुई है, तभी से मैं इसके विवाह के लिए चिंतित हूँ। ...इसके लिए मुझे आप से अच्छा वर और कौन मिलेगा! ...किन्तु इससे पूर्व आपको एक प्रतिज्ञा करनी होगी...!
शान्तनु का स्वर (आश्चर्य भाव से मध्य ही में) : ...प्रतिज्ञा! ...कैसी प्रतिज्ञा, निषादराज!
निषादराज का स्वर (दृढ़ता के साथ) : इसके गर्भ से जो भी पुत्र होगा, आपके उपरांत वही हस्तिनापुर का सम्राट होगा, अन्य कोई नहीं!
(नेपथ्य से आने वाले स्वर शांत हो जाते हैं और नवोदित सम्राट शान्तनु की ओर देखते हैं)
नवोदित (गंभीर मुद्रा में) : सम्राट शान्तनु! जब आप सत्यवती पर आसक्त थे तो आपने निषादराज के विनियम स्वीकार क्यों नहीं किए?
शान्तनु (गंभीर भाव से) : क्योंकि विनियम राज्यहित में न थे!
नवोदित : उसमें राज्य का अहित क्या था?
शान्तनु : क्योंकि, राज्य पुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर चुका था! ...और, युवराज ही सिँहासन का उत्तराधिकारी होता है!
नवोदित : यह निर्णय परिवर्तित भी किया जा सकता था?
शान्तनु : ऐसा करना राज्यहित, मर्यादा और परंपरा के अनुकूल न होता! ...क्योंकि, ज्येष्ठ पुत्र ही सिँहासन का उत्तराधिकारी होता है!
(प्रश्नोत्तर के उपरांत नवोदित क्रमश: सुदीर्घ व भीष्म की ओर संकेत कर महाराज शान्तनु से प्रश्न करने के संबंध में उनकी इच्छा ज्ञात करते हैं। किन्तु दोनों ही अनिच्छा व्यक्त कर देते हैं। तत्पश्चात नवोदित सम्राट शान्तनु का आभार व्यक्त करते हुए उन्हें न्यायालय से बिदा होने की अनुमति प्रदान करते हैं। शान्तनु नगरवासी , सुदीर्घ और न्यायाधीशों का अभिवादन करने के पश्चात निरीह भाव से पुत्र भीष्म की ओर निहारते हैं और न्यायालय स्थल से प्रस्थान कर जाते हैं।)
नवोदित (भीष्म की ओर संकेत करते हुए) : सम्राट शान्तनु के वक्तव्य के संबंध में कुछ कहना चाहते हो, भीष्म?
भीष्म : ...मौन!
नवोदित (सुदीर्घ की ओर संकेत करते हुए) : कोई प्रश्न?
सुदीर्घ (गर्व भाव से) : सम्राट शान्तनु के साक्ष्य से यह सिद्ध हो चुका है कि देवव्रत की भीष्म-प्रतिज्ञा राज्य हित में न थी...!
नवोदित (मध्य ही में चेतावनी की मुद्रा में) : ...क्या सिद्ध हुआ है, क्या नहीं! ...यह निर्धारित करना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है! ...अन्य कोई प्रश्न करना है, तो कर सकते हो!
सुदीर्घ (क्षमा याचना के साथ) : जिस मर्यादा का त्याग सम्राट शान्तनु को राज्यहित में प्रतीत नहीं हुआ! ...उसी मर्यादा का उल्लंघन कर क्या युवराज देवव्रत ने राज्य-व्यवस्था के विरुद्ध कृत्य नहीं किया था? ...(आश्चर्य व्यक्त करते हुए)... तदुपरांत भी आजीवन राज्यहित में तपस्या करने का अधिकार-प्रदर्शन! ...नितांत मिथ्या प्रदर्शन, आदरणीय!
भीष्म (शांत भाव से) : मेरे स्थान पर माता सत्यवती के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करना सम्राट शान्तनु के लिए मर्यादा उल्लंघन का प्रश्न हो सकता था! ...किन्तु, मेरे लिए नहीं, क्योंकि...!
सुदीर्घ (मध्य ही में व्यंग्य भाव से) : ...क्या सम्राट और युवराज के लिए मर्यादा के मापदंड प्रथक-प्रथक निधारित थे, माननीय भीष्म? ...संभवतया नहीं!
भीष्म (पूर्व भाव से)
- संत सुदीर्घ ! ...यदि तनिक धैर्य का आलंबन करते तो आपको निरर्थक प्रश्न करने का कष्ट न करना पड़ता! ... (क्षुब्ध भाव से मुख्य न्यायाधीश की ओर अभिमुख होकर)... आदरणीय! ...निषादराज का विनियम स्वीकारना सम्राट के लिए यथार्थ में मर्यादा उल्लंघन का
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से मुस्कराते हुए) : माननीय, भीष्म! ...युवराज पद से आपको हस्तिनापुर की प्रजा ने सुशोभित किया था! ...त्याग करने से पूर्व क्या आने प्रजा से अनुमति ली थी? ...क्या हस्तिनापुर सम्राट से अनुमति के लिए याचना की थी? ...(क्षुब्ध भाव से)... माननीय! अर्जित सम्पदा और अर्जित उपाधि से विरक्त होना त्याग की श्रेणी में अवश्य आता है! ...किन्तु, प्रदत्त उपाधि का स्वत: त्याग तो प्रदानकर्ता का अपमान कहलाया जाता है!
नवोदित (भीष्म की ओर संकेत करते हुए) : युवराज-पद-त्याग से पूर्व क्या आपने हस्तिनापुर-प्रजा अथवा सम्राट से अनुमति प्राप्त की थी, भीष्म?
भीष्म : मौन..!
सुदीर्घ (भीष्म-मौन के पश्चात विजय भाव से) : अनुमति प्राप्त न करना तो फिर हस्तिनापुर-प्रजा व सिँहासन का अपमान हुआ ना, श्रद्धेय भीष्म! ...फिर, आपका कथित यह त्याग को राज्यहित की श्रेणी में किस प्रकार आता है?
(प्रश्न करने के उपरांत सुदीर्घ आसन ग्रहण कर लेते हैं। तत्पश्चात मुख्य न्यायाधीश नवोदित जिज्ञासा भाव से भीष्म की ओर निहारते हैं और सुदीर्घ के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उन्हें प्रेरित करते हैं। किन्तु नेत्र-बद्ध भीष्म शीश झुकाए मौन ही आसन पर बैठे रहते हैं। भीष्म की ओर से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्राप्त न होने के उपरांत कुछ कहने के लिए सुदीर्घ पुन: मुख्य न्यायाधीश से अनुमति की याचना करते हैं।)
सुदीर्घ (व्यग्र भाव से) : माननीय! ...कुरु-राजवंश के उत्तराधिकार से स्वयं को वंचित करने का अधिकार भीष्म के पास सुरक्षित था, यदि यह स्वीकार कर भी लिया जाए, मुख्य न्यायाधीश महोदय! ...किंतु निषाद-पुत्री सत्यवती को राजमहिषी व राजमाता जैसे महत्वपूर्ण पद पर सुशोभित करने का यह अधिकार युवराज देवव्रत को किसने दिया? ...क्या प्रतिज्ञा के माध्यम से निषादराज को ऐसा वचन देकर देवव्रत ने अनाधिकार चेष्टा नहीं की?
सुवीर्य (भीष्म की ओर संकेत करते हुए) : इस संबंध में आप कुछ कहना चाहेंगे, पितामह?
भीष्म : मौन...!
सुदीर्घ (पुन: अनुमति प्राप्त कर भावुक मन से) : ...अनाधिकार उस चेष्टा में राज्य की सुरक्षा निहित थी अथवा असुरक्षा? ...मर्यादा का उल्लंघन था अथवा मर्यादा-पोषण, महोदय? …( भीष्म की ओर तीक्ष्ण प्रश्नों चलाते-चलाते भावुक सुदीर्घ का शरीर सूखे पात के समान कम्पायमान हो गया और क्लांत तन-मन के साथ सुदीर्घ आसन पर पसर-से गए। सुदीर्घ के बैठ जाने के उपरांत नवोदित ने प्रश्न वाचक दृष्टि से पुन: भीष्म को निहारा।)
भीष्म (नवोदित का संकेत प्राप्त कर खिन्न भाव से) : मुख्य न्यायाधीश, महोदय! ...युवराज होने के नाते, यह अधिकार मेरे पास सुरक्षित था!
सुदीर्घ (तत्काल ही उत्तेजित भाव से) : माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय! ...युवराज होने के नाते देवव्रत को राज्य-नीति संबंधी विषयों पर परामर्श देने का अधिकार तो हो सकता है! ...किन्तु, स्वतंत्र रूप से नीति निर्धारण करने का वैधानिक अधिकार किसी भी राज्य के युवराज के पास सुरक्षित नहीं होता है, महोदय! ...(विजय मुस्कान के साथ)... क्या निषादराज की पुत्री सत्यवती को राजमहिषी व राजमाता के पद पर सुशोभित करने की प्रतिज्ञा करने से पूर्व युवराज देवव्रत ने सम्राट शान्तनु से आज्ञा ली थी?
भीष्म (क्षुब्ध भाव से) : ऐसा कोई असंवैधानिक निर्णय मैंने कदापि नहीं लिया, जिसका संबंध युवराज के अधिकार क्षेत्र से न हो, महोदय!
सुदीर्घ (उत्तेजित भाव से) : मिथ्या भाषण कर भीष्म न्यायालय का समय नष्ट कर रहे हैं, महोदय! ...राजमहिषी पद से किसी भी नारी को सुशोभित करने का अधिकार केवल सम्राट के पास सुरक्षित होता है! ...(अल्प विराम के उपरांत)... और, युवराज देवव्रत ने महत्वपूर्ण इस निर्णय से पूर्व सम्राट शान्तनु से आज्ञा प्राप्त करना भी उचित नहीं समझा! ... (भीष्म की ओर संकेत कर)... क्या सम्राट शान्तनु से आज्ञा प्राप्त की थी, भीष्म?
(सन्त सुदीर्घ के तर्क और प्रश्नों से भीष्म व्याकुल-से हो जाते हैं और आसन पर बैठे-बैठे ही कभी दोनों हाथों से मुख ढकते हैं , तो कभी आसमान की ओर देखने लगते हैं। एक क्षण बाद ही आसन से उठने का प्रयास करते हैं। शायद उत्तर देने के लिए , किन्तु उत्तर दिए बिना ही पुन: मौन बैठ जाते हैं। )
नवोदित (भीष्म की भाव-भंगिमा का अवलोकन करते हुए) : संभवतया आप कुछ कहने की इच्छा रखते हैं, भीष्म?
(आसन पर मौन बैठे-बैठे भीष्म व्यथित व हताश मन से मुख्य न्यायाधीश की ओर केवल निहारते रहते हैं। भीष्म की दयनीय स्थिति का अनुमान लगाकर नवोदित अल्पावकाश की घोषणा करते हैं। समस्त जन परस्पर चर्चा करते हुए न्यायालय परिसर से गमन करते हैं। सुदीर्घ , भीष्म और न्यायाधीशों के आसन भी अल्पकाल के लिए रिक्त हो जाते हैं।)
-दृश्य छह-
/
(अल्पावकश के उपरांत सुदीर्घ , भीष्म व समस्त न्यायाधीश अपने-अपने आसनों पर विराजमान होते हैं। मुख्य न्यायाधीश नवोदित न्यायालय की कार्यवाही पुन: प्रारंभ करने का संकेत करते हैं। कार्यवाही प्रारंभ करने का संकेत प्राप्त होते ही सुदीर्घ आसन से खड़े हो कर बोलने के लिए अनुमति के लिए प्रार्थना करते हैं।)
सुदीर्घ (शांत भाव से) : श्रीमान! पित्र-भक्त पुत्र देवदत्त ने राज्य और प्रजा के कथित हित में प्रतिज्ञा करने से पूर्व न तो पिता से ही आज्ञा प्राप्त की और न ही सम्राट से! ...महोदय! यह सिँहासन की अवहेलना थी! ...(क्षणिक अंतराल के उपरांत)... श्रीमान! भीष्म न केवल सिँहासन की अवहेलना के दोषी हैं, अपितु सम्राट शान्तनु से आज्ञा प्राप्त न कर उन्होंने निषाद-कन्या सत्यवती का भविष्य भी दाँव पर लगा दिया था! ...(व्यंग्य भाव से)...नहीं-नहीं! नारियों को द्यूत-दाँव पर लगाना तो कुरुवंश की परंपरा...!
भीष्म (मध्य ही में क्रोध व्यक्त करते हुए)
- ...आदरणीय सन्त सुदीर्घ ! ...आरोप लगाएं, किन्तु मर्यादा की सीमा में! ...मर्यादा का उल्लंघन आप जैसे सन्त के लिए शोभा नहीं देता है! (दांत भींचते-भींचते भीष्म आसन ग्रहण करते हैं और सुदीर्घ के मुख पर लज्जा के भाव उतर आते हैं।)
नवोदित (चेतावनी के स्वर में सुदीर्घ की ओर संकेत करते हुए) : न्यायालय की गरिमा का पालन करते हुए तर्क शालीन व मर्यादित भाषा में प्रस्तुत करें, सन्त सुदीर्घ !
भीष्म (क्षुब्ध भाव से) : माता सत्यवती का भविष्य दाँव पर किस प्रकार, श्रीमान?
सुदीर्घ (क्षमा प्रार्थना के साथ शांत भाव से) : यदि सम्राट शान्तनु निषाद-कन्या सत्यवती को पत्नी के रूप में स्वीकार न करते, तब?
भीष्म (पूर्व भाव से) : संदेह का आधार, श्रीमान सुदीर्घ ?
सुदीर्घ (दृढ़ भाव के साथ) : सम्राट शान्तनु यदि सत्यवती को राजमहिषी के पद पर आसीन करने की इच्छा रखते होते तो पूर्व में ही निषादराज के विनियम स्वीकार कर सत्यवती के साथ ही हस्तिनापुर लौटते! ...रिक्त हाथ नहीं! ...संदेह के लिए क्या इतना पर्याप्त नहीं है, कुरुश्रेष्ठ भीष्म?
भीष्म (आत्म-विश्वास के साथ) : निषादराज-पुत्री के विरह में ही सम्राट व्यथित थे! ...अत: पत्नी के रूप में सत्यवती को अस्वीकार करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है, महोदय! ...अत: संदेह करना निरर्थक था!
सुदीर्घ (क्षोभ के साथ नवीन प्रश्न) : श्रीमान! ...हस्तिनापुर सिँहासन के लिए किसी भी व्यक्ति का राज्याभिषेक कर देने का अधिकार भी क्या राज्य की प्रजा ने अपने सुयोग्य युवराज को प्रदान कर दिया था? ...यदि नहीं! ... तो सम्राट शान्तनु के जीवित रहते हुए ही युवराज देवव्रत ने किस अधिकार के अंतर्गत सत्यवती की अजन्मी संतान का हस्तिनापुर के सिँहासन पर राज्याभिषेक करने की घोषणा कर दी? ...(कटाक्ष करते हुए)... न्यायाधीश महोदय! और, देवव्रत को यह कैसे ज्ञात था कि सत्यवती के गर्भ से पुत्र ही उत्पन्न होगा?
भीष्म (उद्विग्न भाव से) : नहीं-नहीं, श्रीमान! ...मैने किसी का राज्याभिषेक करने की घोषणा नहीं की थी! ...मिथ्या आरोप! ...नितांत मिथ्या!
सुदीर्घ (उग्र भाव से) : कुरुश्रेष्ठ भीष्म! ...पुन: स्मरण करो अपनी वही प्रतिज्ञा, जो तुमने निषादराज के सम्मुख ग्रहण की थी और भीष्म कहलाए थे!
(नेपथ्य से पुन: भीष्म प्रतिज्ञा की स्वर गूंजने लगते हैं। दोनों अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर ध्यानपूर्वक सुनते हैं)
नेपथ्य से देवव्रत के स्वर : ....निषादराज! मैं शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि सत्यवती के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही हमारा सम्राट होगा...!
(नेपथ्य से गूँजती ध्वनि पर विराम लगता है और तत्काल ही सुदीर्घ आसन से खड़े हो जाते हैं)
सुदीर्घ (पूर्व भाव से) : कहो, भीष्म! ...(एक क्षण के मौन के उपरांत)... क्या तुमने सम्राट शान्तनु के जीवित रहते ही सत्यवती-के अजन्मा पुत्र का हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर राज्याभिषेक नहीं कर दिया था? ...( प्रश्न करने के उपरांत सुदीर्घ मौन ही भीष्म की ओर निहारते हैं। किन्तु भीष्म की ओर से कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं होती है। तत्पश्चात मुख्यन्यायाधीश की ओर संकेत करते हुए पुन:) ... श्रीमन! ...सम्राट के जीवित रहते हुए किसी अन्य व्यक्ति को सम्राट घोषित करना क्या राज्यद्रोह नहीं है?...( एक क्षण के उपरांत)... नि:संदेह यह राज्यद्रोह है! ...तद्, रोजद्रोह का कोई अपराधी किस आधार पर कह सकता है कि उसने अपना संपूर्ण जीवन सिँहासन की सुरक्षा के लिए समर्पित कर दिया?
भीष्म (आदर भाव से) : श्रद्धेय, सन्त! ...आरोप लगाने के लिए आप स्वतंत्र हैं! ...किन्तु, अनुमान लगाते समय शब्दों के साथ संयुक्त भावनाओं को भी आधार बना लेना चाहिए! ...वरन् अनुमान एकपक्षीय रह जाते हैं! ...परम् श्रद्धेय ...मेरी संपूर्ण प्रतिज्ञा का कारण केवल मात्र सम्राट शान्तनु के दग्ध हृदय को शीतलता प्रदान करना था! ...क्योंकि दग्ध- हृदय कोई भी सम्राट राज्य का संचालन भलीभांति करने में असमर्थ ही रहता है!
सुदीर्घ (भीष्म की भावुक परामर्श अनसुना करते हुए) : श्रीमान, मुख्य न्यायाधीश! ...युवराज देवव्रत का निर्णय राज्यद्रोह के समकक्ष तो था ही! ...और, भावुकता में ली गई अविवेकपूर्ण प्रतिज्ञा ने अनजाने ही हस्तिनापुर की भूमि पर महायुद्ध के बीज भी रोपित कर दिए थे! ...अत: महायुद्ध के कारण हस्तिनापुर के विनाश के लिए केवल मात्र भीष्म ही उत्तरदायी हैं! ...केवल मात्र भीष्म!
(वाणी को विराम देकर क्लांत पथिक के समान सुदीर्घ आसन ग्रहण करते हैं। मुख पर हताशा के भाव लिए भीष्म भी मौन ही रहते हैं।)
-दृश्य सात-
/
(नेपथ्य से माता सत्यवती व भीष्म के बीच जारी वार्तालाप की ध्वनि श्रवणेंद्रियों में गूँजने लगती है। उपस्थित सभी जन आश्चर्य व जिज्ञासा भाव से वार्तालाप का श्रवण करने लगते हैं।)
नेपथ्य से सत्यवती के स्वर (विनय भाव से) : धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्म! ...तुम्हारे प्रिय अनुज के देहावसान के कारण सिँहासन रिक्त हो गया है। अत: धर्मपूर्वक विचार कर अति-विश्वास के साथ मैं तुम्हें उत्तरदायित्व प्रदान करना चाहती हूँ!
नेपथ्य से भीष्म के स्वर (आदर भाव से) : आदेश करें, माँऽऽऽ!
सत्यवती के स्वर (विनय भाव से) : हस्तिनापुर-सिँहासन स्वीकार करो, पुत्र!
भीष्म के स्वर (पीड़ा भाव से) : यह क्या, माँऽऽऽ! ...मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ, माँ!
सत्यवती के स्वर (पूर्व भाव से) : प्रतिज्ञा मेरे कारण ही ग्रहण की थी, पुत्र! ...और, मैं तुम्हें प्रतिज्ञा-मुक्त करती हूँ!
भीष्म के स्वर (दृढ़ भाव से) : नहीं, माँ! ...प्रतिज्ञा का प्रत्यक्ष कारण अवश्य आप थीं, माँ ! ...किंतु उसमें मेरा स्वार्थ भी निहित था, माँ!
सत्यवती के स्वर (पूर्व भाव से) : किन्तु, पुत्र! ...सिँहासन यदि सम्राट विहीन रहेगा, तो शत्रु प्रबल होंगे! और, हस्तिनापुर की सीमाएं असुरक्षित हो जाएंगी!
भीष्म के स्वर (आत्म-विश्वास का प्रदर्शन करते हुए) : असंभव! ...जब तक भीष्म जीवित है, किसमें इतना साहस कि वह हस्तिनापुर की ओर दृष्टि भी कर ले! ...माँ! यदि मैं सिँहासन ग्रहण कर भी लूँ, तो भी समस्या का निदान पूर्ण रूपेण न हो पाएगा! ...क्योंकि, मेरे उपरांत भी तो सिँहासन पर विराजमान होने के लिए कुरुवंश के पास उत्तराधिकारी नहीं है, माँ! अत: ...!
सत्यवती के स्वर (मध्य ही में) : ...पुत्र! यह समस्या भी मेरे संज्ञान में है! ...और, उसका समाधान भी!
भीष्म-स्वर (जिज्ञासा भाव से) : वह क्या है, माँ!
सत्यवती-स्वर (शांत भाव से) : पुत्र! तुम्हारे अनुज विचित्रवीर्य की दोनों विधवाएं अंबिका और अंबालिका अभी अल्पायु हैं! ...अवश्य ही दोनों माँ बनने की इच्छा रखती हैं! ...अत: तुम धर्मयुक्त नियोग द्वारा वीर्य-दान कर उनके गर्भ से पुत्र उत्पन्न करो! ...इस प्रकार उन दोनों की मातृत्व-इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी और कुरुवंश को कुल-अंश भी प्राप्त हो जाएगा, पुत्र!
भीष्म-स्वर (क्षुब्ध भाव से) : माँऽऽऽ! नि:सदेह आपका प्रस्ताव धर्मानुकूल है! ...किन्तु, सिँहासन के मोह में न तो मैं राज्याभिषेक के लिए तैयार हूँ और न ही स्त्री-संसर्ग के लिए! ...दोनों ही विषयों से संबद्ध मेरी प्रतिज्ञा से आप भलीभांति परिचित हैं!
सत्यवती-स्वर (व्यग्र भाव से) : पुत्र! तुम्हारी प्रतिज्ञा हस्तिनापुर के सिँहासन के रक्षा के प्रति ही है, ना...?
भीष्म स्वर (दृढ़ भाव से) : नि:संदेह, माँ!
सत्यवती-स्वर (विनीत भाव से) : मैं भी तो हस्तिनापुर-सिँहासन की रक्षा-हेतु ही प्रतिज्ञा-त्याग के लिए विनती कर रहीं हूँ, पुत्र! ...प्रतिज्ञा-निर्वाह का दुराग्रह त्याग कर विचार करो, पुत्र! ...कि हस्तिनापुर की सुरक्षा प्रतिज्ञा-पालन में है अथवा प्रतिज्ञा-मुक्त होकर आपद्-धर्म निर्वाह में? ...प्रतिज्ञा-निर्वाह का दुराग्रह त्याग कर मेरी विनती स्वीकार करो, पुत्र!
भीष्म-स्वर (गर्व भाव से) : मेरे लिए प्रतिज्ञा-निर्वाह में ही सत्य निहित है,माँ! ...और सत्य-स्थापना के लिए मैं तीनों लोकों का राज्य, देवताओं का साम्राज्य और महत्वपूर्ण अन्य आकर्षण भी मेरे लिए त्याज्य हैं, माँ!
सत्यवती-स्वर (पूर्व भाव से) : हस्तिनापुर की रक्षार्थ केवल विनती ही कर सकती हूँ, पुत्र! ...तुम्हारी दृष्टिं में सत्य क्या और असत्य क्या होना चाहिए, इसका निर्णय करना मेरे वश में नहीं है! ...किन्तु...!
भीष्म-स्वर (क्षुब्ध भाव से , मध्य ही में) : नहीं, माँऽऽऽ! ...मैं पुन: प्रतिज्ञा करता हूँ, मैं त्रिलोक का राज्य, ब्रह्म-पद और मोक्ष का भी परित्याग कर दूंगा, किन्तु सत्य का त्याग नहीं करुंगा। ...भले ही भूमि गंध त्याग दे! ...जल रस का त्याग कर दे! ...वायु स्पर्श त्याग दे! ...सूर्य तेज! ...अग्नि उष्णता! ...आकाश शब्द! ...चंद्रमा शीतलता का त्याग कर दे! ...और, इंद्र भी अपना बल-विक्रम त्याग दे! ...स्वयं धर्मराज भले ही अपना धर्म-त्याग कर दे! ...किन्तु, मैं किसी भी स्थिति में सत्य के त्याग का विचार नहीं करूगाँ माँ! ...कदाचित सृष्टि का विनाश हो जाए! ...मैं भले ही अमरत्व से वंचित हो जाऊं! ...त्रिलोक का राज्य भी मेरे लिए त्याज्य है! ...किन्तु, मेरे लिए प्रतिज्ञा-त्याग का संकल्प भी संभव नहीं!
(नेपथ्य से गूँजती वार्तालाप की ध्वनि शांत हो जाती है। साथ ही क्षणभर के लिए वातावरण में नीरवता व्याप्त हो जाती है। ' आगे क्या होगा ' के भाव से उपस्थित जन एक-दूसरे की तरफ देखते हैं। तभी संत सुदीर्घ नवोदित से अनुमति प्राप्त करते हैं।)
सुदीर्घ (विजय भाव से भीष्म की ओर संकेत करते हुए) : माननीय, भीष्म! ...हस्तिनापुर व कुरुवंश को जब तुम्हारी प्रतिज्ञा नहीं सेवाओं की आवश्यकता थी! ...उस संकट काल में माता सत्यवती की अवज्ञा कर, पुन: प्रतिज्ञा का औचित्य क्या था, श्रीमान? ...क्या उस प्रतिज्ञा-दुराग्रह में भी हस्तिनापुर की सुरक्षा निहित थी?
भीष्म (शांत भाव से) : माता सत्यवती की अवज्ञा नहीं थी, श्रीमान! ...और न ही पुन: प्रतिज्ञा ग्रहण करना था। ...वह तो हस्तिनापुर व कुरुवंश के हितार्थ पूर्व में ली गई प्रतिज्ञा का पुनर्स्मरण मात्र था!
एक वृद्ध नगरवासी (नवोदित से अनुमति प्राप्त करने के उपरांत उत्तेजित स्वर में) : प्रतिज्ञा-स्मरण नहीं, श्रीमान! ...वह केवल भीष्म-अहम् का प्रदर्शन था, पितामह! ...(क्षुब्ध भाव से भीष्म की ओर संकेत करते हुए)... नि:संतान कुरुवंश को संतान की और हस्तिनापुर के रिक्त सिँहासन को सम्राट की अवश्यकता थी! उस आपातकाल में आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की प्रतिज्ञा का स्मरण! ...आश्चर्य... कैसी राष्ट्रभक्ति? ...स्पष्ट ही तो है, पितामह! ...आपके लिए हस्तिनापुर व कुरुवंश के कल्याण की अपेक्षा प्रतिज्ञा-व्रत का पालन कहीं अधिक महत्वपूर्ण था!
(वृद्ध के तर्क पर भीष्म दोनों हाथों से शीश थामे मौन बैठे रहते हैं , किन्तु सुदीर्घ अवसर का लाभ उठाते हैं और आसन से खड़े होकर बोलना शुरू करते हैं।)
सुदीर्घ (ग्लानि भाव से) : माननीय भीष्म! ...यह केवल एक वृद्ध नागरिक की व्यथा नहीं है! ...अपितु यह संपूर्ण हस्तिनापुर की व्यथा है!
भीष्म (व्यथित मन पर नियंत्रण करते हुए) : प्रतिज्ञा-स्मरण में अहित भी क्या था, श्रीमान?
सुदीर्घ (पूर्व भाव से) : प्रतिज्ञा-स्मरण में तो किसी का भी किसी प्रकार से अहित न था, कुरुश्रेष्ठ! ...किन्तु, हस्तिनापुर व कुरुवंश के हित-अहित का ज्ञान न होना तो अहित का कारण हो सकता है, श्रीमान! ...(नवोदित की ओर संकेत करते हुए व्यंग्य भाव से)... माननीय! हस्तिनापुर और कुरुवंश की सुरक्षा भीष्म की स्व-प्रतिष्ठा में निहित थी अथवा राजमाता सत्यवती का आग्रह स्वीकारने में? ...प्रश्न विचारणीय है, माननीय! ...किन्तु, खेद! ...भीष्म ने हस्तिनापुर व कुरुवंश की सुरक्षा की अपेक्षा स्व-प्रतिष्ठा की रक्षा को ही प्राथमिकता प्रदान की! ...महोदय! शान्तनु-पुत्र भीष्म के इस दुराग्रह को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता है!
भीष्म (आवेश में) : इसमें किसी का भी अहित कहाँ हुआ, श्रीमान? ... सत्य का पालन कर मैने अपना वचन पूरा किया और माता सत्यवती के ज्येष्ठ पुत्र कृष्ण द्वैपायन की कृपा से कुरुवंश को पुत्र और हस्तिनापुर सिँहासन को उत्तराधिकारी भी प्राप्त हो गया...!
सुदीर्घ (मध्य ही में आवेश भाव से) : ...हूँ!... संतान... उत्तराधिकारी! ...(क्षणिक मौन के उपरांत)... एक और अनाधिकार चेष्टा! ...पूर्व में निषाद-पुत्री सत्यवती को राजमहिषी व राजमाता पद पर सुशोभित कर और उनके अजन्मा पुत्र का राज्यभिषेक करने का संकल्प कर अनाधिकार चेष्टा की! ...और, उसके उपरांत महर्षि कृष्ण द्वैपायन के संभावित पुत्रों को हस्तिनापुर का सम्राट पद सुशोभित करने का मार्ग प्रशस्त कर कुरुवंश की मर्यादा बाधित की! ... (आकाश की ओर मुख कर दीर्घ श्वांस-पान करने के उपरांत)... कुरुश्रेष्ठ भीष्म! कुरुवंश को अपना वंशज चाहिए था! ...न कि द्वैपायन का वंशज! ...और हस्तिनापुर कुरुवंश के वंशज को ही सम्राट पद पर देखने की इच्छा रखता था न कि अन्य किसी अन्य वंश के अंश से उत्पन्न पुत्र को...!
(सुदीर्घ अपना वक्तव्य पूर्ण किए बिना ही दग्ध मन के साथ शीश थामकर बैठ जाते हैं। न्यायालय परिसर में एक क्षण के लिए मौन व्याप्त हो जाता है। अगले ही क्षण झटके के साथ सुदीर्घ पुन: आसन से खड़े हो जाते हैं। सभी की दृष्टि उनकी ओर उठ जाती है)
सुदीर्घ (आवेश में) : दुर्भाग्य हस्तिनापुर का! ...और इस दुर्भाग्य के लिए केवल तुम और तुम ही उत्तरदायी हो, भीष्म...!
भीष्म (घृणा व आवेश के संयुक्त भाव के साथ मध्य ही में) : ...मिथ्या आरोप, श्रीमान! ...कृष्ण द्वैपायन का प्रस्ताव मेरा नहीं, माता सत्यवती का था! ...मैने तो उनके प्रस्ताव पर मात्र सम्मति व्यक्त की थी, श्रीमान!
सुदीर्घ (आश्चर्य व क्षोभ के मिश्रित भावों के साथ) : केवल सम्मति, भीष्म! ...नहीं-नहीं! कृष्ण द्वैपायन के लिए मार्ग तो तुम ही ने प्रशस्त किया था, भीष्म! ...स्मरण शक्ति तो तुम्हारी बहुत तीक्ष्ण है, ना! ...तनिक स्मरण करो, भीष्म!
(नेपथ्य से माता सत्यवती और भीष्म के मध्य हुए वार्तालाप की ध्वनि पुन: गूँजने लगती है।)
नेपथ्य से सत्यवती के स्वर (समर्पण भाव से) : ...परंतप! जिस उपाय से तुम्हारे वंश की परंपरा नष्ट न हो, धर्म की अवहेलना भी नहीं और प्रेमी हृदय भी संतुष्ट हो जाएं, वही करो!
भीष्म के स्वर : राजमाता! महाराज शान्तनु की संतान-परंपरा जिस उपाय से इस भूतल पर सुरक्षित रहे! ...धर्मयुक्त ऐसा ही उपाय मैं आपको बतलाता हूँ! ...माता! भरतवंश की संतान-परंपरा में वृद्धि और उसे सुरक्षित रखने के लिए विचित्रवीर्य की पत्नियों के साथ गुणवान किसी ब्राह्मण से नियोग संबंध स्थापित करा कर संतान उत्पन्न कराने का प्रबंध करना ही धर्मयुक्त होगा!
(नेपथ्य से आने वाली वर्तालाप की ध्वनि पर विराम लगता है और तत्काल ही सुदीर्घ आसन से उठ खड़े होते हैं।)
सुदीर्घ (आवेश में) : और इस प्रकार, श्रीमान! ...भरतवंश को एक जारज पुत्र से जारज संतान प्राप्त हो गई! ...और, हस्तिनापुर-सिँहासन पर जारज संतान आसीन होने की परंपरा का भी सूत्रपात हो गया, माननीय महोदय!
भीष्म (घृणा व आवेश के मिश्रित भाव से) : बस करो, सुदीर्घ ! ...बस करो! ...अपने दूषित बाणों को तुणीर में ही सँजोकर रखो! ...आपके लिए वही उचित होगा! ...(मंद स्वर में दृढ़ता के साथ) ... आप बारंबार मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं! ...संत! मर्यादा का उल्लंघन मैं भी कर सकता हूँ! ...किंतु नहीं! ...क्योंकि मर्यादा पालन करना मेरा धर्म भी है और नैतिक विवशता भी! ...विवशता को मेरी शक्तिहीनता न समझो, सुदीर्घ !
(इतना कह कर भीष्म शीश पकड़ कर बैठ जाते हैं। न्यायालय में उपस्थित सभी के मुख पर गंभीर भाव की रेखाएं उतर आती हैं। मुख्य न्यायाधीश वातावरण को सामान्य करने के उद्देश्य से व्यवस्था देते हैं)
नवोदित (आदेशात्मक भाव से) : माननीय, सुदीर्घ ! आपको अन्तिम बार चेतावनी दी जाती है! ...मर्यादा उल्लंघन की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती। प्रत्येक को शब्द व भाषा पर नियंत्रण रखते हुए शालीनता के साथ ही अपना पक्ष रखना चाहिए! ...(भीष्म की ओर संकेत करते हुए)... निर्भीक हो कर अपना पक्ष प्रस्तुत करें, भीष्म!
भीष्म (निराश , किन्तु आदर भाव के साथ , शनै: शनै:) : जारज संतान कैसे, संत सुदीर्घ ? ...नियोग से प्राप्त संतान वंशानुगत पिता की ही कहलाई जाती है! ...नियोग-संबंध स्थापित करने वाले पुरुष की नहीं! ...जारज संतान कह कर कुरुवंश को कलंकित न करें, आदरणीय!
सुदीर्घ (विजय मुस्कान के साथ) : यदि आपका कथन ही सत्य है! ...तो फिर अंबिका व अंबालिका के साथ नियोग स्थापित कर कुरुवंश बेल को विस्तार देने में आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, भीष्म? ...क्योंकि, आपके ही सिद्धांत के अनुरूप आपकी प्रतिज्ञा बाधित नहीं हो रही थी! ...तुम्हारे वीर्यदान से प्राप्त पुत्र तो विचित्रवीर्य के ही कहलाते न! ...तब हस्तिनापुर के सिँहासन पर आपका नहीं विचित्रवीर्य की ही पुत्र आसीन होता! ...(भीष्म की ओर एक क्षण के लिए अपलक निहारने के बाद पुन:)... भीष्म आपकी प्रतिज्ञा भी बाधित न होती और हस्तिनापुर दुर्भाग्य के संताप से भी सुरक्षित रहता! ... और हस्तिनापुर को कुरुवंश-परंपरा का ही सम्राट प्राप्त हो जाता! ...और, महायुद्ध के बीज अंकुरित होने से पूर्व ही नष्ट हो जाते!
भीष्म (सहज भाव से) : यह कैसे संभव था, श्रद्धेय! ...अनुज विचित्रवीर्य की पत्नी अंबिका और अंबालिका मेरे लिए पुत्रवधू के समान थी...!
सुदीर्घ (सहज भाव से)
- किन्तु, भीष्म! ...मनु महाराज ने कहा है, ' विधवायां नियोगार्थे निवृतते तु यथाविधि। गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्।।' अर्थात, विधवा के साथ नियोग के लिए विधि
भीष्म (पूर्व भाव से) : में स्त्री-संसर्ग न करने के लिए भी प्रतिज्ञाबद्ध था, श्रद्धेय!
सुदीर्घ (पूर्व भाव से) : पुनश्च: दुराग्रहपूर्ण तर्क! ...हस्तिनापुर सिँहासन और कुरुवंश के हित की उपेक्षा!
(मंच पर संध्याकालीन दृश्य। दीप प्रज्जवलित होने लगते हैं। नेपथ्य से पूजा-अर्चना के शंख व घंटे-घडियालों की ध्वनि गूँजने लगती है। देवस्थानम स्थल पर उपस्थित सभी के चेहरों पर थकान के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे हैं। समय का आभास कर मुख्यन्यायाधीश नवोदित अपने सहयोगी न्यायाधीशों से विचार-विमर्श कर न्यायालय की कार्यवाही अगले दिन प्रात:काल तक के लिए स्थगित करने की घोषणा करते हैं। उपस्थित सभी जन न्यायाधीशों का अभिवादन कर परस्पर चर्चा करते हुए अपने-अपने गंतव्य की ओर लौटने लगते हैं। सुदीर्घ विजयी भाव के साथ और भीष्म शीश झुकाए न्यायालय से प्रस्थान करते हैं।)