महाभारत का अभियुक्त / अंक 5 / राजेंद्र त्यागी
अंक पाँच
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दृश्य-एक
(प्रात:काल , देवस्थानम स्थल पूर्व की भांति न्यायालय का दृश्य। कल के अपेक्षा नगरवासियों की संख्या आज अधिक है। सभी अलग-अलग समूहों में विभक्त चर्चा में व्यस्त हैं। एक-एक कर न्यायाधीश भी अपने आसनों पर विराजमान हो जाते हैं। उसके बाद नगरवासियों की भीड़ से निकल कर सुदीर्घ न्यायाधीशों सहित उपस्थित प्रजा का अभिवादन कर आसन ग्रहण करते हैं। इसी बीच तीव्र गति से भीष्म पितामह का भी आगमन होता है और सुदीर्घ , हस्तिनापुर की प्रजा व न्यायाधीशों को अभिवादन कर भीष्म आसन ग्रहण करते हैं। उपस्थित प्रजा का निरीक्षण कर मुख्यन्यायाधीश सुवीर्य ने कार्यवाही प्रारंभ करने के उद्देश्य से विक्रांत की ओर संकेत किया। इसके साथ संबंधित पत्रों पर नजर दौड़ाते हुए भीष्म पितामह पर अगला आरोप पढ़ने के लिए आसन से खड़े होते हैं। भीष्म सहित हस्तिनापुर की जनता जिज्ञासा भाव से विक्रांत की ओर निहारती है। सुदीर्घ के मुख मंडल पर विजय मुस्कान के भाव स्पष्ट हैं।)
विक्रांत (आरोप पत्र पढ़ते हुए) : माननीय भीष्म पर द्वितीय आरोप है कि जीवनपर्यंत वह नारियों को हेय दृष्टि से देखते रहे, और...!
भीष्म (आवेश में चित्कार करते हुए मध्य ही में) : ..नहींऽऽऽ!
नवोदित (मध्य ही में हस्तक्षेप करते हुए) : माननीय, भीष्म! ...न्यायालय की मर्यादा भंग करने की चेष्ठा न करें! ...आरोप पत्र पूर्ण होने के उपरांत ही आपको पक्ष प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाएगा।
(क्षमा याचना करते हुए भीष्म के मुख पर खिन्नता व लज्जा के भाव उतर आते हैं और वह अनमने मन के साथ आसन ग्रहण करते हैं। नवोदित का संकेत प्राप्त होते ही आरोप पूर्ण करने के लिए विक्रांत पुन: आसन से खड़े हो जाते हैं।)
विक्रांत (सहज भाव से) : माननीय भीष्म पर द्वितीय आरोप है कि जीवनपर्यंत वह नारियों को हेय दृष्टि से देखते रहे! ...जब कभी अवसर प्राप्त हुआ, तब-तब उन्होंने या तो स्वयं ही नारी का अपमान किया अथवा नारी-अपमान के समय मूक दर्शक बने रहे!
(आरोप सुनकर भीष्म तिलमिला कर रह जाते हैं। अनायास ही उनके मुख से ' हे , कृष्ण ' शब्द निकलता है।)
नवोदित (भीष्म की ओर संकेत करते हुए) : माननीय भीष्म! आप अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र हैं।
(मुख पर खिन्न भाव लिए भीष्म मौन ही रहते हैं। प्रतीक्षा के उपरांत सुदीर्घ आसन से खड़े होते हैं और पक्ष प्रस्तुत करने के लिए नवोदित से अनुमति प्राप्त करते हैं।)
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : श्रीमान! गंगा-पुत्र देवव्रत के मौन को मौन-स्वीकृति के रूप में लिया जाना चाहिए! ...अत: न्यायालय की कार्यवाही निर्णय की ओर बढ़ाई जानी चाहिए!
नवोदित (गंभीर भाव से)
- नहीं! ...पक्ष प्रस्तुत करने के लिए भीष्म को पूर्ण अवसर प्रदान किया जाएगा! ...ऐसा न करने पर न्यायालय का उद्देश्य पूर्ण न होगा! ... (व्यवस्था देने के उपरांत नवोदित ने पुन: भीष्म की ओर संकेत किया।)... कृपया अपना पक्ष प्रस्तुत करें, माननीय भीष्म!
भीष्म (आसन पर बैठे-बैठे ही व्यग्र भाव से) : मिथ्या आरोप, श्रीमान! ...आरोप मुझे स्वीकार नहीं है!
सुदीर्घ (घृणा भाव से) : श्रीमान! भावावेश में आजन्म ब्रह्मचर्य व सत्तासीन न होने की प्रतिज्ञा तो करली और देवव्रत से 'भीष्म' भी बन गए! और, भीष्म-प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु आजीवन प्रतिज्ञा का पालन भी करते रहे! ...किंतु, श्रीमान! युवा देवव्रत के मन में सिँहासन और नारी दोनों ही के प्रति शनै:शनै: घृणा भाव उत्पन्न होता गया! ...ऐसा होना स्वाभाविक भी था, महोदय! ...क्योंकि, युवराज देवव्रत के भी तो अपने कुछ स्वप्न रहे होंगे! ...(दसों अंगुलियों से केश संवारने के उपरांत)... श्रीमान, 'भीष्म-प्रतिष्ठा' की रक्षा हेतु भीष्म के अंतर्मन पर देवव्रत-मन व्यापक रहा! ...अत: घृणा का जन्म हुआ! ...और, उसी घृणा के फलस्वरूप भीष्म के लिए हस्तिनापुर-सिँहासन के हित गौण हो गए और उनके लिए नारी एक मृत संपत्ति बनकर रह गई...!
भीष्म (मध्य ही में आवेश से)
- विराम दो! ...व्यर्थ के अपने आलाप पर, संत! ...कब विराम लगाओगे अनर्गल आरोप की इस श्रंखला पर, माननीय, सुदीर्घ ! ... (पीड़ा और विवशत के भाव प्रदर्शित करते हुए)... ओह! ...(भावावेग पर नियंत्रण करते हुए आदर व विनीत भाव से) ...आदरणीय, संत
(भाव विह्वल होने के कारण भीष्म की वाणी साथ नहीं देती है और ' आह ' भरते हुए मध्य ही में आसन ग्रहण कर लेते हैं। संतप्त हृदय से उत्पन्न भीष्म के उद्गारों का श्रवण कर उपस्थित नगरवासियों के मुखों पर पश्चाताप की रेखाएं उभर आती हैं। संपूर्ण वातावरण में क्षोभ व दया भाव व्याप्त हो जाता है। एक अंतराल के उपरांत सुदीर्घ पुन: आसन से खड़े होते हैं।)
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : चिरकुमार, भीष्म! ...भरे स्वयंवर से काशिराज-पुत्रियों का हरण क्या नारी अपमान नहीं था? ...आप स्वयं ही बताओ, भीष्म! ...आपके उस कृत्य को किस संज्ञा से अलंकृत किया जाए?
भीष्म (शांत भाव से) : काशिराज पुत्रियों का हरण मैंने स्वयं के लिए नहीं किया था! ...और, न ही किसी के अपमान के उद्देश्य से! ...मैने उन्हें सदैव ही पुत्रियों के समकक्ष सम्मान प्रदान किया!
सुदीर्घ (घृणा भाव से) : 'काशिराज-पुत्रियों का हरण मैने स्वयं के लिए नहीं किया था!' ..(भीष्म का तर्क दोहराने के उपरांत गंभीर भाव से) ...काशिराज-पुत्रियों के लिए इससे अधिक और अपमान का विषय क्या हो सकता है, भीष्म! ...नारी भोग की वस्तु नहीं है कि उसका हरण कर किसी के भी समक्ष उपहार के रूप में अर्पित कर दिया जाए...!
भीष्म (मध्य ही में आवेश भाव से) : ...किसी और नहीं, सुदीर्घ ! हस्तिनापुर-सम्राट अनुज विचित्रवीर्य के लिए! ...और, उन्हीं के साथ ही विवाह संपन्न किया गया था!
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : स्वयंवरों से कन्याओं का हरण नहीं अपितु वरण किए जाने की आर्य-परंपरा है, आर्य पुत्र!
वृद्ध नगरवासी (नागरिकों के मध्य ही से) : स्वयंवर में प्रतिभाज्ञी स्वयं अपने लिए जाते हैं, भ्राता अथवा किसी अन्य के लिए नहीं! ...काशिराज पुत्रियों का वरण जब आपने स्वयं के लिए नहीं करना था! ...तब स्वयंवर में जाकर पौरुष-प्रदर्शन का औचित्य क्या था? ...प्रिय अनुज विचित्रवीर्य को क्यों नहीं...?
भीष्म (मध्य ही में शांत किन्तु संकोच भाव से) : विचित्रवीर्य स्वयंवर में जाने योग्य नहीं थे! ...और, उनके विवाह के लिए काशिराज-पुत्रियों का हरण हस्तिनापुर-सिंहासन के प्रति मेरी प्रतिबद्धता थी!
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : निर्वीर्य पुरुष के लिए कन्याओं का हरण क्या नारी-अपमान नहीं है, भीष्म? ...जब तुम्हारा अनुज विचित्रवीर्य स्वयंवर के योग्य ही न थे! ...तो फिर निर्वीर्य और अक्षम अनुज के लिए तीन-तीन कन्याओं का हरण क्यों? ...(व्यंग्य करते-करते अनायास ही व्यथित भाव के साथ)... आर्यश्रेष्ठ भीष्म! ...अपनी कथित प्रतिबद्धता के लिए काशिराज-पुत्री अंबा, अंबिका और अंबालिका के कोमल भावनाओं की उपेक्षा! ...नारी के लिए इससे बढ़कर अपमान और क्या हो सकता है?
भीष्म (गर्व भाव से) : हस्तिनापुर-सम्राट के साथ विवाह! ...किसी स्त्री की कोमल भावनाओं के साथ खिलवाड़ कैसे, संत? ...यह तो किसी भी स्त्री के लिए गर्व का विषय है!
सुदीर्घ (अट्टहास के उपरांत व्यंग्य भाव से)
- सत्य वचन! ...शत-प्रतिशत सत्य! निर्वीर्य सम्राट के साथ विवाह-बंधन किसी भी स्त्री के लिए गौरव का ही तो विषय है! ... (हस्तिनापुरवासियों की ओर संकेत कर) ...सुनो वह गौरव गाथा! ...जो स्त्रीयों के लिए अपमान का नहीं गर्व का विषय है...!
(मेघ -गर्जना के साथ नेपथ्य से स्त्री-कंठ-ध्वनि)
नेपथ्य से स्त्री-स्वर : गंगापुत्र भीष्म ही के अपमान के कारण मुझे अग्नि की शरण में जाने के लिए बाध्य होना पड़ा, और...!
नवोदित (भय मिश्रित भाव के साथ जिज्ञासा) : तुम कौन हो देवी? ...आपका परिचय?
स्त्री स्वर (ग्लानि भाव से) : काशिराज-पुत्री अम्बा हूँ! ...मैं अम्बा की अतृप्त आत्मा! ...यद्यपि भीष्म को मृत्यु-द्वार तक पहुँचाकर मेरा संकल्प पूर्ण हो चुका है! ...किन्तु मेरी आत्मा अभी तक अशांत है! ...जब तक भीष्म का अस्तित्व रहेगा, तब तक मुझे मुक्ति प्राप्त न होगी! ...जब-जब, जहाँ-जहाँ भीष्म उदित होगा, तब-तब अम्बा वहाँ-वहाँ उपस्थित रहेगी!
नवोदित (साहस बटोर कर विनय भाव से) : काशिराज-पुत्री! जो कुछ भी कहना है, साक्षात रूप से न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो कर ही कहें!
अम्बा (न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो कर अश्रुपूरित नेत्रों से सभी का आभिवादन करते हुए) : हे, भद्रजनों! मुझ पर जो अन्याय हुआ है! ...उसका मूल कारण यही शान्तनु-नन्दन भीष्म है! ... (कहते-कहते हृदय-व्यथा सिसकियाँ बनकर नेत्रों के माध्यम से बहने लगती हैं। सांत्वना प्रदान करते हुए संत सुदीर्घ अपना हाथ अम्बा के शीश पर रखते हैं। तत्पश्चात हृदय की कोमल भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए अम्बा ने आगे कहा). . काशिराज ने अपनी तीनों पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका के लिए स्वयंवर आयोजित किया था। ...स्वयंवर में वृद्ध भीष्म की उपस्थिति का आभास कर हम तीनों बहनों को आश्चर्य हुआ और हमने उनका वरण न करने का निर्णय कर लिया था। ...किन्तु भीष्म ने बलपूर्वक हम तीनों बहनों का अपहरण कर लिया और हमें हस्तिनापुर ले आए! ...यहीं से हम तीनों बहनों के दुर्भाग्य की कहानी प्रारंभ होती है...!
नवोदित (मध्य ही में) : स्वयंवर से कन्या-हरण तो आर्य-परंपरा है, पुत्री! ...फिर उसमें आपत्ति क्यों? ...यह दुर्भाग्य कैसे? ...और कन्या-हरण को अपहरण की संज्ञा क्यों?
अम्बा (आंसु पौंछते हुए) : इस आर्य-परंपरा से मैं अनभिज्ञ नहीं हूँ! ...किन्तु, वीर पुरुष कन्या-हरण कर उसका वरण स्वयं करते हैं! ...निरीह गाय के समान किसी अन्य के समक्ष अर्पित करने की आर्य-परंपरा नहीं है, आदरणीय! ...अत: भीष्म के इस कुकृत्य को हरण नहीं अपहरण की संज्ञा प्रदान करना ही उचित है!
नवोदित : किन्तु, पुत्री! तुम्हारा दुर्भाग्य कैसे? ...तुम्हारा विवाह तो विचित्रवीर्य के साथ नहीं किया गया था!
अम्बा (संतप्त भाव से) : मेरे अपमान व दुर्भाग्य की गाथा अन्य दोनों बहनों की अपेक्ष कहीं अधिक हृदय-विदारक है,श्रद्धेय! ...मैं शाल्वराज से प्रेम करती थी। उन्हें पति रूप में स्वीकार कर चुकी थी! शाल्वराज भी एंकात में मेरा वरण कर चुके थे। ...विचित्रवीर्य के साथ विवाह करने के अवसर पर मैंने अपनी व्यथा भीष्म को बताई और उनसे मुक्ति के लिए प्रार्थना की! ...भीष्म ने मुझे मुक्त कर दिया! किन्तु शाल्वराज ने भी मुझे ठुकरा दिया, क्योंकि भीष्म मेरा अपहरण कर चुके थे...!
नवोदित (भावुक मन से मध्य ही में) : ...तत्पश्चात क्या हुआ, पुत्री?
अम्बा (भाव विह्वल) : मैं लौटकर शान्तनु-पुत्र भीष्म की शरण में आई और मुझे स्वीकार कर विवाह करने के लिए प्रार्थना की! ...किन्तु, प्रतिज्ञा का संदर्भ देकर भीष्म ने भी मेरी प्रार्थना अस्वीकार कर दी! ...अतंत: मुझे आत्मदाह करने के लिए विवश होना पड़ा और तभी से अतृप्त मेरी आत्मा भटक रही है! ... (क्रोध के साथ भीष्म की ओर संकेत करते हुए)... यही है वह निष्ठुर! ...जिसने मुझे पति-सुख, पति-सेवा धर्म से वंचित किया!
नवोदित : माननीय भीष्म! अम्बा से कोई प्रश्न?
भीष्म : मौन...!
अम्बा (आवेश में)
- श्रीमान! भीष्म में इतना साहस नहीं है कि मेरी उपस्थिति में वह किसी प्रकार का शास्त्र उठा सके!(भीष्म पर आघात कर अम्बा अंतर्धान हो गई। भीष्म घायल योद्धा के समान आह भर कर रह जाते है, किन्तु सुदीर्घ के मुख मंडल पर विजेता के-से भाव हैं। अम्बा की व्यथा-कथा का श्रवण कर अन्य न्यायाधीश भी परस्पर चर्चा में व्यस्त हो जाते हैं।)
सुदीर्घ (अनुमति प्राप्त करने के उपरांत व्यंग्य भाव से)
- आर्यश्रेष्ठ गंगासुत भीष्म! ...काशीराज-पुत्री अम्बा से आप कोई प्रश्न न कर सके! ...कर भी कैसे सकते थे? ...आपके अंतर्मन में नैतिक साहस ही कहाँ शेष था! ...(मुस्कराते हुए)... किन्तु, अनुमति प्रदान करें तो मैं आप से प्रश्न कर लूँ? ...( भीष्म की ओर से कोई प्रतिक्रिया प्राप्त न होने के उपरांत ग्लानि भाव से)... कुरुश्रेष्ठ! अम्बा को आत्मदाह के लिए विवश कर आपने उसे तो मुक्ति
(सुदीर्घ के कटाक्ष सुनकर भीष्म की मुठियां भिंचने लगती हैं। शरीर में कंपन पैदा हो जाता है। क्रोधवश मुख पर लालिमा व्याप्त होने लगती है। खड़े होकर कुछ कहने का प्रयास करते हैं , किन्तु साहस नहीं जुटा पाते। और लड़खड़ाते हुए उसी अवस्था में पुन: बैठ जाते हैं। भीष्म की दयनीय स्थिति का आभास कर नवोदित लघु अंतराल की घोषणा कर देते हैं।)
दृश्य- दो
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(अंतराल के उपरांत मंच पर पूर्व के समान ही दृश्य। न्यायालय की कार्यवाही प्रारंभ करने की घोषणा के साथ ही। नेपथ्य से पुन: नारी कंठ से उत्पन्न हृदय विदारक चीत्कार वायुमंडल में व्याप्त हो जाती है। नवीन भय व आश्चर्य के साथ समस्त जन एक-दूजे को निहारने लगते हैं।)
नारी-कंठ (रुदन पूर्ण अवरुद्ध कंठ से) : अरे, तू मुझ रजस्वला को खींचकर कौरव-सभा में ले जा रहा है! ...अत्यंत पापपूर्ण कृत्य! ...इस भरी सभा में कोई भी वीर, कोई भी विद्वान तेरे इस कुकृत्य की भर्त्सना करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है? ...ओह, संभवतया सभी तेरे ही पक्षधर हो गए हैं!
(अवरुद्ध कंठ से निकला रुदन क्रोध में परिवर्तित हो जाता है और इसके साथ ही मंच के पृष्ठ भाग में द्रौपदी-चीरहरण का दृश्य साकार हो जाता है। न्यायालय में उपस्थित समस्त जनों का ध्यान उस ओर केंद्रित हो जाता है।)
द्रौपदी-स्वर (करुण भाव में) : अरे दुष्ट! ...इस सभा में सभी शास्त्र के ज्ञाता, क्रियावान, इंद्र के समान प्रतिष्ठित मेरे गुरुजन बैठे हैं! ...इनके समक्ष इस दशा में खड़ी हो सकूंगी? ...अरे दुराचारी! मुझे घसीट मत, नग्न मत कर! ...इस नीच कर्म से तनिक तो डर! ...भरतवंश को धिक्कार है! ...इन कपूतों ने क्षत्रियत्व का नाश कर दिया! ...सभा में बैठे हुए कुरुवंशी अपनी आंखों से कुल की मर्यादा का विनाश होते देख रहे हैं! ...गुरु द्रोण, पितामह भीष्म और महात्मा विदुर तुम्हारा आत्मबल कहाँ गया? ...बड़े-बूढ़ों इस अधर्म को क्यों देख रहे हो...? ...क्या सभी शक्तिहीन हो गए हैं? ...तभी दुष्ट दुर्योधन के इस भयानक पापाचार की निंदा करने से भी बच रहे हैं! ... (विलाप करते हुए द्रौपदी ने प्रश्न किया)... धर्मराज युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारे थे या मुझे? ...मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो आदरणीय सभासदों! ...क्या मैं धर्मानुसार द्यूत-क्रीड़ा में जीती गई हूँ?
(प्रश्न के साथ ही द्रौपदी का हृदय विदारक विलाप शांत हो गया और मंच से चीर हरण का दृश्य ओझल हो जाता है। न्यायालय में उपस्थित समस्त जन किकंर्तव्यविमूढ़ की स्थिति को प्राप्त हो कर मौन हो जाते हैं। भीष्म के मुख पर ग्लानि व पश्चाताप के भाव व्याप्त हो जाते हैं और वह शीश झुकाए बैठे रहते हैं। सुदीर्घ के मुख पर व्याप्त विजय भाव भी ग्लानि व पीड़ा में परिवर्तित हो जाते हैं।)
नगरवासियों के मध्य से वृद्ध (कटाक्ष करते हुए) : आर्यश्रेष्ठ भीष्म पितामह! ...काशिराज-पुत्रियों का हरण तो सिँहासन के प्रति प्रतिबद्धता थी! ...किन्तु, द्रौपदी अपमान के समय आपका मौन धारण करना...?
सुदीर्घ (मध्य ही में कटाक्ष करते हुए) : ...संभवतया यह भी सिँहासन की प्रतिबद्धता के कारण उत्पन्न विवशता थी, श्रीमान!
(वृद्ध नागरिक व सुदीर्घ के कटाक्ष के उपरांत भीष्म के मुख मंडल पर भाव परिवर्तित होते रहते हैं , किन्तु वह शीश झुकाए मौन ही बैठे रहते हैं। उन्हें मौन पाकर सुदीर्घ पुन: बोलना प्रारंभ करते हैं।)
सुदीर्घ (क्रोध व व्यथित भाव से) : नारी-सम्मान का अधिकार प्रदर्शन करने वाले शान्तनु-पुत्र भीष्म! ...द्रौपदी की हृदय विदारक पुकार सुनने के उपरांत भी आप मौन क्यों थे? ...द्रौपदी के प्रश्नों का कोई उत्तर न था अथवा भीष्म-प्रतिज्ञा की प्रतिबद्धता का अवरोध? ...मौन क्यों हो, भीष्म? ...(कटाक्ष करते हुए)... यह धृतराष्ट्र की द्यूत सभा नहीं है, भीष्म! ...निर्भिक होकर उत्तर दो, महाबली भीष्म!
भीष्म (आवेश में) : मैं मौन नहीं था! ...द्रौपदी के प्रश्नों का धर्मयुक्त उत्तर देने का प्रयास किया था!
सुदीर्घ (ग्लानि भाव से) : हाँ! ..धर्मयुक्त आपके उत्तर से भी अनभिज्ञ नहीं हूँ मैं! ..(भीष्म की ओर संकेत कर कटाक्ष करते हुए) ...संभवतय आप तन और मन दोनों ही से क्लंत हो गए हैं! ...अत: द्यूत सभा में प्रस्तुत आपका उत्तर मैं ही सुना देता हूँ! ... (सुदीर्घ द्यूत सभा में दिया गया भीष्म का कथन विराम-अल्प विराम के साथ सुनाते हैं।) ...सौभाग्यवती पुत्री! ...धर्म का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है! ...अत: तुम्हारे प्रश्न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं कर सकता! ..जो .स्वामी नहीं है, वह पराए धन को दाँव पर नहीं लगा सकता ...परंतु स्त्री को सदैव ही अपने स्वामी के अधीन देखा जाता है! ...अत: दोनों दृष्टिकोण से विचार करने के उपरांत भी मैं कुछ कहने में असमर्थ हूँ...! ...( भीष्म का वक्तव्य दोहराकर व्यंग्य भाव से)... भीष्म! यही था न आपका धर्मयुक्त उत्तर? ...किन्तु, यह तो बताओ, भीष्म! जब आपने दोनों दृष्टिकोण से विचार कर ही लिया था, तब निष्कर्ष कथन में असमर्थता का कारण?
भीष्म (क्लंत भाव से) : उस संबंध में कोई भी व्यवस्था देना मेरे लिए उचित न था, श्रीमान! ...क्योंकि, पाण्डु-पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा था, मेँ स्वयं को दाँव पर हार चुका हूँ! ...अत: प्रिय द्रौपदी! मैं तुम्हारे प्रश्न का विवेचन करने में असमर्थ हूँ...! ...( युधिष्ठिर का उत्तर सुनाने के उपरांत व्यथित भाव से पुन:)... संत सुदीर्घ ! यह भी सर्वविदित था कि दुष्ट शकुनि ने ही समस्त षड़यंत्र की रचना की थी और द्रौपदी को दाँव पर लगाने के लिए भी शकुनि ने ही युधिष्ठिर को प्रेरित किया था! ...और, फिर छल पूर्वक जीतने का षड़यंत्र भी! ...किन्तु, श्रद्धेय! युधिष्ठिर उसे शकुनी का छल स्वीकारने के लिए तैयार ही न था! ... द्रौणाचार्य व स्वयं सम्राट धृतराष्ट्र भी मौन ही थे! ...ऐसे स्थिति में किसी आधार पर मैं द्रौपदी के प्रश्न की विवेचन कर पाता! ...मैं असमर्थ था, श्रद्धेय!
सुदीर्घ (व्यग्र भाव से आवेश में) : भीष्म! आपका कथन सत्य है! ...और, सत्य यह भी है कि युधिष्ठिर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कह पा रहे थे! ...द्रौणाचार्य मौन थे! ...और, सम्राट धृतराष्ट्र भी! ...किन्तु, भीष्म! क्या तुम उनके अनुगामी थे? ...क्या तुम भी विवेकहीन हो गए थे? ...द्रौपदी आप से विवेकयुक्त उत्तर की आशा करती थी! ...अन्य महानुभावों के कथन की समीक्षा नहीं! ...(धिक्कारते हुए)... महाबली भीष्म! एक बार साहस कर शकुनि के कपट और दुर्योधन के कुकृत्यों का विरोध तो करते! ...तुम्हारे विरोध का प्रतिरोध करने का साहस किसी भरतवंशी में न था! ...तब न द्रौपदी का अपमान होता और न ही महायुद्ध का अंकुर वटवृक्ष के रूप में विकसित हो पाता! ...भीष्म...!
(वक्तव्य पूर्ण किए बिना ही सुदीर्घ व्यथित मन और क्लांत शरीर लेकर बैठ जाते हैं। सुदीर्घ के अकाट्य तर्क और प्रश्नों के समक्ष भीष्म भी संभवतया निरुत्तर थे। फलस्वरूप संपूर्ण वातावरण में निस्तब्धता व्याप्त हो जाती है। निस्तब्धता के मध्य ही सुदीर्घ ने साहस जुटाया और नवोदित से अनुमति प्राप्त कर अधूरा वक्तव्य पूर्ण करने के लिए पुन: खड़े हो जाते हैं।)
सुदीर्घ (पूर्व भाव के साथ) : गंगासुत भीष्म! तुम्हारी तुलन में तो धृतराष्ट्र-पुत्र विकीर्ण ही साहसी निकला! ...कौरव पुत्र होते हुए भी उसने चीरहरण का विरोध किया और द्रौपदी हारने के युधिष्ठिर-अधिकार को अमान्य घोषित किया! ...(भीष्म की ओर संकेत कर)... धृतराष्ट्र नंदन विकीर्ण की घोषणा का स्मरण करो, भीष्म!
नेपथ्य से विकीर्ण के स्वर (धिक्कार भाव से) : सभासदों! ...द्रौपदी के प्रश्न के संबंध में उपस्थित सभी-जनों को गहन विचार कर उत्तर देना चाहिए! ...क्षीण-सी त्रुटि होने पर भी नरकगामी होना पड़ेगा! ...भीष्मपितामह, पिता धृतराष्ट्र और महामति विदुर जी मौन क्यों हो? ...इस विषय में परामर्श देने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे हो? ...( क्षणिक विराम के उपरांत)... द्रौपदी केवल युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं है! ...उस पर पाँचों पाण्डवों का समान अधिकार है! ...विद्वतजनों ! युधिष्ठिर ने स्वयं को हारने के उपरांत द्रौपदी को दाँव पर लगाया है! ...अत: दाँव पर लगाने के अधिकार से युधिष्ठिर स्वयं ही वंचित हो गए थे! ...अत: मेरे मतानुसा द्यूत-क्रीड़ा में द्रौपदी के हारने अथवा न हारने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है! ...द्रौपदी स्वतंत्र है!
(नेपथ्य से आने वाली विकीर्ण के स्वर शांत हो जाते हैं और पक्ष रखने के लिए सुदीर्घ खड़े होते हैं।)
सुदीर्घ (ग्लानि भाव से) : स्मरण हुआ भीष्म! ...अरे, नमन करो उस वीर बालक को! ...पीड़ित द्रौपदी को आपसे भी ऐसे ही साहस व विवेकपूर्ण विवेचना की अपेक्षा थी! ...किन्तु, भीष्म! नारी-संसर्ग न करने संबंधी दुष्कर प्रतिज्ञा ने आपका मन कुंठित कर दिया और उसकी परिणति नारी के प्रति घृणा भाव के रूप में हुई! ...(सुदीर्घ ने दीर्घ श्वांस-पान कर श्वांस-चक्र पूर्ण किया और तदुपरांत घृणा, रोष और धिक्कार के स्वर में आगे कहा।)... मन की घृणा ही थी वह, जिसके कारण आप दुर्योधन व दु:शासन के कुकृत्य का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाए! ...वह घृणा भाव ही था जिसने आपको द्रौपदी के प्रश्न पर मौन रहने के लिए बाध्य किया! ...और भीष्म! आपने उत्तर देने की औपचारिकता पूर्ण की भी तो कूटनीति का आश्रय लेते हुए उत्तर देने का दायित्व उसी धर्मराज युधिष्ठिर पर टाल दिया जो द्यूत-प्रेम में स्वयं ही धर्मभ्रष्ट हो चुका था!
भीष्म (गहन उच्छवास के उपरांत) : विराम लगाओ, संत सुदीर्घ ! ...अपने विषाक्त बाणों पर विराम लगाओ! ...आपके बाण अर्जुन के बाणों से भी अधिक पीड़ादायक हैं! ...और, भगवान परशुराम को भी आत्म-समर्पण करने के लिए बाध्य करने वाला यह भीष्म आज विवश है! ...वरन्...! ...(भीष्म अयास ही द्रवित हो जाते हैं और उसके पश्चात विनय भाव से आगे कहते हैं)... कभी तो सकारात्मक भाव से विचार किया होता, संत सुदीर्घ ! ... (क्षणिक मौन के उपरांत) ...सम्राट धृतराष्ट्र पुत्र-मोह में मतांध थे! ...और उनका पुत्र दुर्योधन अहंकार से ग्रसित था! ...उन दोनों के मध्य हस्तिनापुर सिँहासन के प्रति वचनबद्ध, किन्तु उपेक्षित यह भीष्म...! ... (कहते-कहते भीष्म का मन व्याकुल हो जाता है। उनकी पलकों पर अश्रुकण उभर आते हैं। तत्काल ही ओंठों पर हथेली का स्पर्श कर भावुक मन को शांत करने का प्रयास करते हैं और क्षुब्ध भाव से आगे कहा।) ... भीष्म ने जब कभी उनके कुकृत्यों का विरोध करने की चेष्ठा की! ...तब-तब अपमान के ही घूँट पीने पड़े! ...अत: मुझे यही उचित लगा कि द्रौपदी को दाँव पर लगाने वाले युधिष्ठिर को ही त्रुटि-सुधार का अवसर दिया जाए! और...!
(पश्चाताप का ताप और ग्लानि भाव भीष्म के मुख मंडल पर स्पष्ट होने लगता है। नेत्र-मार्ग से बहते भाव-जल को वे उत्तरीय से रोकने का प्रयास करते हैं। पश्चाताप की अग्नि में दग्ध भीष्म वाक्य पूर्ण किए बिना ही बैठ जाते हैं। उनकी भावकु दशा का अनुभव कर संत सुदीर्घ के मुख मंडल से भी विजय भाव अनायास लुप्त हो जाते हैं और हृदय की करुणा उसका स्थान ले लेती है। आर्द्र मन व नेत्रों से सुधीर मुख्य
न्यायाधीश नवोदित की ओर निहारते हैं। सुधीर के भावों का अनुभव कर नवोदित अन्य न्यायाधीशों की ओर अभिमुख होकर संक्षिप्त विचार-विमर्श करते हैं। उसके उपरांत मध्याह्न ही में नवोदित न्यायालय की कार्यवाही अगामी दिवस-प्रात:काल तक के लिए स्थगित करने की घोषणा कर देते हैं।)