महाभारत का अभियुक्त / अंक 6 / राजेंद्र त्यागी

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अंक छह

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दृश्य-एक

(मंच पर भीष्म-आवास का दृश्य। देवस्थानम न्यायालय से क्लंत तन-मन लेकर लौटे भीष्म प्रथम शीतल जल से हाथ-मुख प्रच्छालन करते हैं। तदुपरांत पलके झपका कर शैय्या पर विश्राम करने का प्रयास करते हैं। तभी द्वार से पदचाप की आहट सुनाई पड़ती है। माँ गंगा के पदचाप की आहट का अनुभव कर भीष्म स्वयं को व्यवस्थित करते हैं और स्वागत के लिए द्वार की ओर बढ़ जाते हैं। द्वार पर ही माँ के चरण-स्पर्श कर उनका अभिवादन करते हैं और आलिंगन कर श्यनकक्ष तक लाते हैं और फिर माँ गंगा को शैय्या पर बिठा देते हैं। पुत्र भीष्म के इस अप्रत्याशित व्यवहार से गंगा क्षणभर के लिए हतप्रभ-सी हो जाती हैं। तभी उनके नेत्र भीष्म के मुख की ओर उठते हैं।)

गंगा (चिंता पूर्ण जिज्ञासा भाव से)  : अब कौन से जन्म के प्रारब्ध की चिंता में डूबे हो, पुत्र?

भीष्म (संकोच भाव से)  : नहीं, माँ! ...चिंता नहीं चिंतन!

गंगा (मुस्कराने का प्रयास करते हुए)  : चिंतन! ...अथवा प्रारब्ध भोग की चिंता?

भीष्म (सहज भाव से)  : नहीं माँ! ...जो अवश्यंभावी है, उसकी चिंता कैसी? ...प्रारब्ध-वृक्ष पर लगे फलों का रसास्वादन तो प्रत्येक मनुष्य को करना ही है! ...अनिवार्य की चिंता का औचित्य क्या? …( मुख पर उतर आए चिंता के भावों को शब्दों के आवरण से ढकने की चेष्टा करते-करते भीष्म माँ की गोद में शीश रखकर नेत्र मुकुलित कर लेते हैं। पुत्र-स्नेह से बोझिल गंगा के नेत्र भी भीष्म-मुख की ओर झुक जाते हैं और कोमल अंगुलियों से भीष्म के केश सहलाने लगती हैं।)

गंगा (आश्चर्य भाव से)  : पुत्र, यह क्या! ...भीष्म से पुन: देवव्रत बनने की इच्छा?

भीष्म (सहज भाव से)  : कितना अच्छा होता, माँ! ...यदि यह संभव होता! ...(दीर्घ सांस लेकर भीष्म ने आगे कहा)... माँ! ...भीष्म यदि एक बार भी देवव्रत के यथार्थ का अनुभव कर पाता! ...तो प्रतिज्ञा-दुराग्रह की तपती धरती पर जीवनयापन करने के लिए बाध्य न होता! ...(क्षणिक मौन और)... भीष्म यदि पुन: देवव्रत बन जाता तो अनुज विचित्रवीर्य के मृत्यु के उपरांत राजमाता सत्यवती का आग्रह न ठुकराता! ...और, हस्तिनापुर को महायुद्ध की त्रसदी सहन न करनी पड़ती! (भीष्म माँ के आँचल से मुख छुपा लेते हैं।)

गंगा (भावुक मन से)  : भीष्म...!

भीष्म (बाल सुलभ भाव से)  : माँऽऽऽ! ...देवतुल्य आठ वसुओं की कथा तो सुनाओं, माँ! ...उन्हें मृत्युलोक में क्यों आना पड़ा था, माँ? ...तद् उनका उद्धार किस प्रकार हुआ?

(गंगा पुत्र भीष्म को आश्चर्य भाव से निहारती हैं।)

भीष्म (बालहट भाव से)  : ...सुनाओं ना माँ!

गंगा (अन्यमनस्क भाव से)  : पुत्र! ...अतीतचर्वण...?

भीष्म (गंभीर भाव से)  : हाँ, माँ! ...मनुष्य जब कभी अंधकार मार्ग में गुम हो जाए, तब उसे अतीत के प्रकाश से ही मार्ग खोजना चाहिए! ...(विचार मुद्रा में)... कभी-कभी अतीत से प्रेरणा प्राप्त करना भी शुभ होता है!

(ममता से ओतप्रोत माँ गंगा अपनी कोमल हथेलियों से भीष्म-मस्तक का स्पर्श करते हुए वसु-कथा सुनाना प्रारंभ करती हैं...।)

भीष्म (आश्चर्य भाव से मध्य ही में)  : क्या, माँ! ...पत्नी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वसु द्यो ने भाइयों की सहायता प्राप्त की और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की गौ का अपहरण कर लिया! ...तत्पश्चात क्या हुआ?

गंगा (व्यथित भाव से)  : ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने आठों वसुओं को मनुष्य-योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया, पुत्र!

भीष्म (जिज्ञासा भाव से)  : वसुओं ने क्या शाप से मुक्ति के प्रयास नहीं किए, माँ?

गंगा (पूर्व भाव से)  : प्रयास किए थे, पुत्र! ...महर्षि की शरण में जाकर उनसे अनुनय-विनय की थी! ...क्षमा याचना के साथ उनसे प्रार्थना की थी, पुत्र!

भीष्म  : तदुपरांत माँ! ...क्या महर्षि प्रसन्न हुए?

गंगा (पूर्व भाव से)

न्यूनाधिक! ...केवल संशोधन! ...मृत्युलोक में जन्म तो लेना ही होगा, किन्तु जन्म के साथ ही शाप से मुक्ति भी प्राप्त होती जाएगी! ... (अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ)... किन्तु अभागा था, द्यो! ...क्योंकि, उसने ही पत्नी के आग्रह पर महर्षि की दिव्य गौ का अपहरण किया था! ...अत:
उसे दीर्घ काल तक मृत्युलोक में वास करने ...(मौन नेत्रों से भीष्म को निहारते हुए)... और, पितृ-हित में स्त्री सुख का त्याग करने का शाप प्राप्त हुआ था! ...पुत्र! यह स्थिति तब थी, जबकि उसे सभी शास्त्रों का ज्ञाता व धर्मात्मा होने का वरदान उसके साथ था!

भीष्म (शोक व्यक्त करते हुए)

माँऽऽऽ! ...वसु द्यो तो बड़ा अभागा निकला! समस्त लोकों का अधीश्वर होते हुए भी मृत्युलोक में वास करने के लिए विवश होना पड़ा! ... (जिज्ञासा भाव से)... माँ! ...अब तक सभी वसु शाप से मुक्त हो गए होंगे? ...(क्षणभर के लिए मौन और)... अब तो
द्यो भी मृत्यु को प्राप्त होकर शाप से मुक्त हो गया होगा, माँ?

(प्रश्न सुनकर माँ गंगा मौन हो जाती हैं और निरीह भाव से पुत्र भीष्म को निहारने लगती हैं। अगले क्षण ही गंगा के नेत्र अश्रुपूरित हो जाते हैं और अनचाहे ही नेत्रों की सीमाओं का अतिक्रमण कर ऊष्ण अश्रु भीष्म का मुख भिगोने लगते हैं।)

गंगा (अश्रुपूरित नेत्रों से भीष्म को निहारते हुए)  : हाँ! ...द्यो मृत्यु का तो वरण कर चुका है, किन्तु मुक्ति...?

भीष्म (मध्य ही में शांत भाव से)

...हाँ, माँ! ...मृत्युलोक में जन्म लेने के उपरांत सहज मुक्ति कहाँ...! ...(दार्शनिक भाव से)...'लोकास्तु कर्मबंधन:!' मृत्युलोक कर्म से बँधा है! ....और, कर्म गति बड़ी ही विचित्र है माँ! ...'कृतस्य कर्मणो नाशो। नास्ति जन्मशतेष्वपि।।' माँ! कर्मो का विनाश सैंकड़ो जन्मों के पश्चात भी नहीं होता है!... (रहस्यात्मक मुद्रा में)...अवश्य ही माँ! ...मृत्योपरांत भी द्यो को मुक्ति प्राप्त नहीं हुई होगी! ...अभी उसे मनुष्य योनि के कर्मफल भी तो
भोगने होंगे! ...है, ना माँ!

(पुत्र का कर्मफल-दर्शन का श्रवण कर माँ के नेत्र-जल-प्रवाह की गति और तीव्र हो जाती है। और , पूर्व की भांति ही अश्रु भीष्म का मुख भिगोते रहते हैं। माँ की स्थिति का अनुभव कर भीष्म ने आगे कहा।)

भीष्म (विनीत भाव से)  : माँऽऽऽ! अभी तो कहानी शेष है और आप...?

गंगा (आ‌र्द्र भाव से)  : यह मातृ-स्वभाव है, पुत्र! ...जब पुत्र माँ की गोद में लेटकर आनंद की प्राप्ति का प्रयास करता है, तो मां के नेत्र सजल हो ही जाते हैं और पुत्र के क्लांत तन-मन को शीतलता प्रदान करते हैं।

भीष्म (जिज्ञासा भाव से)  : किन्तु, माँ! ...दुर्भागी वह माता कौन थी, जिसने आठ वसुओं की मुक्ति हेतु उन्हें जन्म तो दिया, किन्तु पुत्र-सुख से वंचित रही?

गंगा  : मौन...!

भीष्म  : मौन क्यों हो माँ?

गंगा (व्यथित हृदय से)

दुर्भागी! ...नहीं! ...पुत्र-सुख प्राप्त तो कर रही हूँ! ...(अंगुलियों से भीष्म के केश संवारते हुए)... यह पुत्र-सुख ही तो है, पुत्र! ... (गंगा एक ही उत्तर से भीष्म के दोनों प्रश्नों का समाधान कर देती है। भीष्म माँ की गोद से उठकर उन्हें हृदय से लगा लेते हैं।)

भीष्म (प्रसन्न मुद्रा में)  : सत्य का भान हो गया है, माँ! ...सत्य का! ...(क्षणिक विराम के उपरांत भाव-विभोर मुद्रा में)... माँऽऽऽ! द्यो मुक्ति चाहता है! ...देवव्रत 'भीष्म' से मुक्ति चाहता है, माँ! ...(पुन: क्षणिक विराम के उपरांत) ...मुक्ति-मार्ग प्राप्त हो गया है, माँ! ...मुक्ति-मार्ग का मुझे भान हो गया है, माँ! ...अतीतचर्वण का उद्देश्य पूर्ण हुआ माँ! ...पूर्ण हुआ!

(पुत्र की मानसिक स्थिति का भान कर गंगा की वेदना में और वृद्धि हो जाती है। साथ ही गंगा को प्रतीत होता है कि भीष्म को अब विश्राम की आवश्यकता है।)

गंगा (भीष्म के शीश पर हाथ रखकर आशीर्वाद की मुद्रा में)  : भीष्म! दिनभर के विश्रांत तुम्हारे तन-मन को विश्राम की आवश्यकता है! ...और, मनुष्य योनि के कर्मफलों का रसास्वादन करने हेतु प्रात: देवस्थानम-न्यायालय के लिए भी तो प्रस्थान करना होगा! ...अत: पुत्र अब विश्राम करो! ...(भीष्म को विश्राम करने का परामर्श देने के उपरांत गंगा शय्या से खड़ी हो जाती हैं। भीष्म माँ की चरण-रज शीश पर धारण करते हैं।)

दृश्य-दो

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(प्रात:काल। मंच पर पूर्व के समान न्यायालय का दृश्य। मुख्य न्यायाधीश नवोदित विक्रांत की ओर संकेत करते हैं। संकेत प्राप्त कर विक्रांत भीष्म पर लगाया गया नया आरोप पढ़ते हैं।)

विक्रांत (विनम्रभाव से)  : देवव्रत उपनाम भीष्म जीवनपर्यत धर्म की दुहाई देते रहे! ...परंतु, समर्थन सदैव सदैव अधर्म का ही किया! ...अधर्म के समर्थन में खड़े रहना भी युद्ध का प्रमुख एक कारण रहा! ...अत: भीष्म ही कुरुक्षेत्र युद्ध के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं!

नवोदित (भीष्म की ओर संकेत करते हुए)  : आरोप के संबंध में कुछ कहना चहेंगे, भीष्म?

भीष्म  : शांत भाव के साथ मौन..!

(पूर्व की भांति संत सुदीर्घ के मुख पर आत्म-विश्वास की आभा स्पष्ट थी। किन्तु , भीष्म के शांत मुख पर संतोष के भावों का अवलोकन करते हुए सुदीर्घ उलझन में पड़ जाते हैं। भीष्म के मौन का आभास कर नवोदित सुदीर्घ की ओर संकेत करते हैं।)

सुदीर्घ (आत्म-विश्वास बटोर कर)  : श्रीमान! भीष्म को यह भलीभांति ज्ञात था कि पाण्डु-पुत्र धर्ममार्ग का अनुशरण कर रहे हैं! ...और, धृतराष्ट्र-पुत्र अधर्म मार्ग के अनुगामी हैं! ...उपरांत इसके अंतकाल तक भीष्म अधर्मी कौरवों के ध्वजवाहक बने रहे! ...(अल्प विराम के पश्चात)... श्रद्धेय! कुरुक्षेत्र रणभूमि में यदि भीष्म कौरवों के ध्वजवाहक बनना अस्वीकार कर देते तो दोनों पक्षों का सैन्य-बल शिविर में लौटने के लिए बाध्य हो जाता! ...और, हस्तिनापुर के आकाश में आच्छादित युद्ध के बादल छँट जाते, किन्तु...!

भीष्म (मध्य ही में शांत भाव से)  : महाराज! पूर्व में ही कह चुका हूँ कि मैं हस्तिनापुर सिँहासन के प्रति वचनबद्ध था! ...और, सिँहासन पर कौरव विराजमान थे! ...अत: मेरी विवशता थी!

सुदीर्घ (विजय भाव से)  : और, आपकी यही विवशता हस्तिनापुर साम्राज्य को कुरुक्षेत्र रणभूमि तक ले जाने में सहायक सिद्ध हुई! ...(व्यंग्य भाव के साथ आगे)... विवशता का कारण, भीष्म? ...(क्षणिक मौन के उपरांत स्‍वत: ही प्रश्न का उत्तर दे हुए) ...संभवतया सत्ता सुखपभोग! ...कुरुश्रेष्ठ भीष्म! प्रतिज्ञा की प्रतिबद्धता के अतिरिक्त आपकी विवशता का कारण कहीं सत्ता-सुखपभोग से भी तो संबद्ध नहीं था!

भीष्म (मुस्कराते हुए)  : आपकी आशंका आधारहीन है, श्रद्धेय, सुदीर्घ ! ...सत्ता-सुख का परित्याग तो देवव्रत प्रतिज्ञाबद्ध होकर कर ही चुका था! ...और, सत्ता का यदि मोह फिर भी होता तो जीवन में अनेक ऐसे अवसर प्राप्त हुए थे, जब देवव्रत प्रतिज्ञा के बंधन से मुक्त होकर सिँहासन -आरूढ़ हो सकता था! ...(गंभीर भाव से)... ऐसा विचार करना भी मिथ्या होगा कि सिँहासन विहीन होते हुए भी देवव्रत सत्ता के समस्त सुखों का उपभोग करता रहा! ...(आवेश पर नियंत्रण कर सहज भाव से) ... यथार्थ तो यह है, श्रीमान! कि पुत्र पाण्डु के निधन के उपरांत धृतराष्ट्र जैसे ही सिँहासन-आरूढ़ हुए! ...भीष्म की उपेक्षा प्रारंभ हो गई थी! ...और, धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन जैसे-जैसे युवा होता गया भीष्म-उपेक्षा में वृद्धि होती गई! ...(व्यथित भाव से) ...राजपरिवार ने टुकड़ों-टुकड़ों में भीष्म को सम्मान प्रदान किया भी! ..वह भी केवल इसलिए कि भीष्म किसी वीर-अश्व की भांति भूमि-मेख से बंधा रहे! ...फलस्वरूप उसका उपयोग पाण्डु-पुत्रों को प्रभावित करने तथा संभावित युद्ध के लिए किया जा सके!

सुदीर्घ (आ‌र्द्र भाव से)  : किन्तु, कुरुश्रेष्ठ! ...क्या कारण था कि आप आजीवन अपमान की ज्वाला में झुलसते रहे? ...मिथ्या राजसी वैभव का त्याग कर वनगमन का आश्रय क्यों नहीं लिया?

भीष्म (प्रायश्चित भाव से)  : वही भीष्म-प्रतिज्ञा का अहम, मान्यवर!

सुदीर्घ (आश्चर्य भाव सें)  : क्याऽऽऽ! ... भीष्म-प्रतिज्ञा का अहम!

भीष्म (शांत भाव से)  : अवश्य, मान्यवर! वह भीष्म-प्रतिज्ञा का अहम ही था! ...पितृभक्ति की भावुकता में युवराज देवव्रत ने जब आजीवन ब्रह्मचर्य व सिँहासन के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा ग्रहण की थी! ...तभी देवताओं ने 'भीष्म-भीष्म' की मिथ्या प्रशंसा के उद्घोष से चारों दिशाएं गुंजायमान कर दी थी! ...उसी क्षण से देवव्रत के मूल स्वरूप पर 'भीष्म' का अहंकार युक्त आवरण आच्छादित हो गया था! ...तब से मृत्युपर्यत तक देवव्रत उस मिथ्या आवरण से मुक्त नहीं हो पाया और उसी आवरण में श्वांस ग्रहण करता रहा!

नवोदित (हतप्रभ मुद्रा में)  : इसका तात्पर्य भीष्म! ...परोक्ष रूप से आप आरोप स्वीकार कर रहे हैं!

भीष्म (सहज भाव से)  : परोक्ष नहीं प्रत्‍यक्ष रूप से, श्रद्धेय! ...न्यायालय के समक्ष आज भीष्म नहीं 'देवव्रत' उपस्थित है!

(भीष्म की स्वीकारोक्ति सुन हस्तिनापुर की प्रजा स्तब्ध हो जाती है। न्यायाधीश भी जिज्ञासा व प्रश्नवाचक दृष्टि से एक-दूसरे को निहारते हैं। सुदीर्घ को भीष्म की स्वीकारोक्ति पर विश्वास नहीं होता है। अत: वह निपुण अधिवक्ता के समान प्रत्येक बिंदु स्पष्ट कर लेना चाहते हैं। उद्देश्य पूर्ति के लिए वह भीष्म से प्रश्न करने के लिए नवोदित से अनुमति-याचना करते हैं।)

सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से)  : सहज स्वीकारोक्ति! ...अथवा आत्मसमर्पण...!

भीष्म (मुस्कराते हुए)

देवव्रत भावुक हो सकता है, किन्तु कापुरुष नहीं! ...हस्तिनापुर श्रेष्ठ सुदीर्घ ! भीष्म के शब्दकोष में आत्मसमर्पण नाम का कोई शब्द नहीं है! ... (अल्प विराम के उपरांत)... यह आत्मसमर्पण नहीं, हृदय-स्वीकारोक्ति है,श्रद्धेय! ...आत्मसमर्पण निर्बल की ढाल है और सत्य-स्वीकार वीरों का
अलंकरण! ...अत: आत्मसमर्पण का नाम देकर वीरता का अपमान न करें, श्रद्धेय!

सुदीर्घ (लज्जा भाव से शीश झुकाकर)  : मैं लज्जित हूँ, कुरुश्रेष्ठ! ...क्षमाप्रार्थी हूँ! ...अपमान करना मेरा उद्देश्य कदापि न था!

भीष्म (आ‌र्द्र व आदर भाव से)  : नहीं-नहीं, संत सुदीर्घ ! ...आप हस्तिनापुर राज्य के सर्व-सम्मानित महापुरुष हैं! ...आपके मुख से निकले ऐसे वचन समस्त हस्तिनापुर के लिए लज्जा का विषय हो सकते हैं!

नवोदित (विनम्रभाव से)  : क्या आप सभी आरोप स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं! ...भावुकतावश तो नहीं, शान्तनुनन्दन भीष्म?

भीष्म (गर्व भाव से)  : संदेह का प्रश्न ही नहीं है, श्रद्धेय! ...(एक क्षण के उपरांत दृढ़ता के साथ)...यह आत्मसमपर्ण नहीं है, माननीय मुख्यन्यायाधीश! ...अत: इच्छा अथवा अनिच्छा का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है! ...यह भावुकता में लिया गया निर्णय भी नहीं! ...देवव्रत की अंतरात्मा की आवाज है! ... (मुख आकाश की ओर कर गर्व भाव से)... देवव्रत प्रायश्चित्त करना चाहता है!

नवोदित (गंभीर भाव से)  : भीष्म! ...क्या इस प्रायश्चित्त-स्वीकारोक्ति के परिणाम से परिचित हो!

भीष्म (मुस्कराते हुए दृढ़ भाव से)  : मान्यवर! ...प्रायश्चित्त भी! ...और परिणाम की चिंता भी! ...मान्यवर! दोनों विषय एक साथ नहीं हो सकते! ...वैसे भी, मान्यवर! वीर परिणाम की चिंता कब करते हैं?

सुदीर्घ (परामर्श भाव से)  : यह युद्ध भूमि नहीं है, भीष्म! ...जन-न्यायालय है...!

भीष्म (मध्य ही में)  : मुझे बोध है, श्रद्धेय! ...(आत्म-विश्वास के साथ)... मैं हस्तिनापुर प्रजा का अभियुक्त हूँ! ...प्रजा का निर्णय! ...प्रजा-दण्ड सहर्ष स्वीकार है, आदरणीय, संत!

(भीष्म पितामह का निर्णय सुनने के पश्चात क्षण भर के लिए न्यायालय परिसर में नि:स्तब्धता व्याप्त हो जाती है। अगले ही क्षण प्रजा के मध्य से भीष्म-भीष्म-भीष्म , भीष्म पितामह की जय हो-भीष्म पितामह की जय हो की ध्वनि गूंजने लगती है। मुख्य-न्यायाधीश आसन से खड़े होकर सभी को शांत करते हैं।)

नवोदित (भीष्म की ओर संकेत कर)  : देवव्रत उपनाम भीष्म! ... आप सभी आरोप स्वेच्छा से स्वीकार कर चुके हो! ...उपरांत इसके यह न्यायालय विचार करने के लिए आपको एक और अवसर प्रदान करता है...!

भीष्म (मध्य ही में खड़े होकर विनय भाव से)  : आदरणीय! ...देवव्रत का निर्णय अंतिम निर्णय है! ...इस संबंध में देवव्रत अब और विचार करने की इच्छा नहीं रखता है!

नवोदित (सहज भाव से)  : तब न्यायालय अपना निर्णय सुनाने के लिए स्वतंत्र है! ...(क्षणभर तक भीष्म को निहारने के उपरांत)... अल्प-अवकाश के उपरांत यह न्यायालय अपने निर्णय से अवगत कराएगा। तब तक के लिए न्यायालय की कार्यवाही स्थगित की जाती है।

(नवोदित का आदेश सुनने के उपरांत सुदीर्घ व भीष्म अपने-अपने आसन से खड़े होकर जिज्ञासा भाव से एक दूसरे को निहारते हैं तदुपरांत पिता-पुत्र की भांति दोनों साथ-साथ एक वृक्ष की छाया में बैठ जाते हैं। प्रजाजन भी विभिन्न समूह में परस्पर चर्चा करते हुए मंच से प्रस्थान कर जाते हैं। निर्णय पर विचार-विमर्श करने के लिए केवल न्यायाधीश ही अपने-अपने आसनों पर विराजमान रहते हैं और निर्णय तैयार करने में व्यस्त हो जाते हैं।)

दृश्य-तीन

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(अल्प अवकाश के उपरांत पूर्व की भांति मंच पर न्यायालय का दृश्य। सभी यथा स्थान विराजमान हो जाते हैं और सुदीर्घ व भीष्म सहित हस्तिनापुर की प्रजा उत्सुकता व जिज्ञासा भाव से मुख्य न्यायाधीश नवोदित की ओर निहारने लगते हैं।)

मुख्यन्यायाधीश (प्रजा की ओर संकेत कर लिखित निर्णय पढ़ते हुए)  : प्रजा से श्रेष्ठ न महि है और न ही महीप! ...किन्तु सिँहासन पर वर्चस्व को लेकर पारिवारिक अंतर्कलह के कारण कुरुवंश ने प्रजा की उपेक्षा की है! ...पारिवारिक अंतर्कलह और प्रजा की उपेक्षा का परिणाम कुरुक्षेत्र-युद्ध के रूप में सामने आया है! ...युद्ध के कारण व्यर्थ ही जन-धन की हानि हुई! ...प्रजा में असुरक्षा की भावना उत्पन्न हुई! ...एष एव परो धर्मो यद् राजा रक्षति प्रजा: - राजा का प्रथम धर्म प्रजा की रक्षा करना है! ...किन्तु स्वार्थ के वशीभूत कुरुवंश इस राजधर्म की उपेक्षा ही करता रहा! ...(क्षणिक विराम के पश्चात)... मान्यवर भीष्म, अपने ऊपर लगे सभी आरोप स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं! ...तथा परिस्थिति जन साक्ष्यों का अवलोकन व दोनों पक्षों के तर्क सुनने के पश्चात यह न्यायालय भी अंतिम रूप से इसी निर्णय पर पहुँचा है कि कुरुक्षेत्र महासमर के लिए कुरुवंश की अंतर्कलह के साथ-साथ हस्तिनापुर सम्राट शान्तनु पुत्र देवव्रत उपनाम भीष्म ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं! ... (निर्णय पढ़ते-पढ़ते नवोदित वाणी को विराम देते हैं और सुदीर्घ व भीष्म को निहारते-निहारते प्रजा की ओर निहारने लगते हैं। निर्णय का अंश सुनने के पश्चात संत सुदीर्घ के मुख पर चिंता की गंभीर रेखाएं उभर आती हैं , किन्तु भीष्म मुख पर पूर्व के समान हर्ष एवं आत्म-विश्वास के भाव उपस्थित हैं। हस्तिनापुर की प्रजा भी चिंतित व गंभीर दिखलाई देती है। क्षणभर निहारने के उपरांत नवोदित निर्णय का द्वितीय अंश पढ़ना प्रारंभ करते हैं।) ... न्यायालय का स्पष्टमत है कि 'भीष्म-प्रतिज्ञा' युवराज देवव्रत की भावुकता का परिणाम थी! ...देवव्रत की इसी भावुकता के परिणाम स्वरूप महासमर के बीज रोपित हुए और पुनश्च: 'भीष्म-प्रतिज्ञा' के मिथ्या अहम ने बीजों को अंकुरित और पोषित करने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया और परिणाम स्वरूप हस्तिनापुर को महायुद्ध की त्रासदी से पीड़ित होने के लिए विवश होना पड़ा! ... ( एक अल्प विरामके उपरांत नवोदित पुन: प्रजा की ओर निहारते हैं और अगले ही क्षण निर्णय का अंतिम अंश पढ़ना प्रारंभ करते हैं) ...यह जन-न्यायालय देवव्रत उपनाम भीष्म, पुत्र सम्राट शान्तनु को विनाशकारी युद्ध के लिए दोषी मानता है! ...किन्तु अपने सभी आरोप स्वीकार करते हुए भीष्म जन-न्यायालय व हस्तिनापुर-प्रजा के समक्ष त्रुटियों के लिए प्रायश्चित करने का 'भीष्म-संकल्प' ले चुके हैं! ...अत: न्यायालय सर्वसम्मति से इस निर्णय पर पहुँचा है कि भीष्म को! ...क्षमा कर दिया जाए! ...क्योंकि दण्ड का अभिप्राय प्रतिशोध नहीं, अपितु प्रायश्चित करने के लिए प्रेरित करना होता है! ...और, भीष्म प्रायश्चित करने का स्वेच्छा से स्वयं ही संकल्प ले चुके हैं! ... अत: न्याय का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है! ...निर्णय पर पहुँचते समय न्यायालय ने प्रजा की भावनाओं का भी सम्मान किया है! ...क्योंकि प्रजा से श्रेष्ठ न महि होती है और न ही महीप! ... यह जन-न्यायालय इस आशा के साथ भंग किया जाता है! ...कि भविष्य में सम्राट स्वहित का परित्याग कर जनहित में ही निर्णय करेंगे और प्रजा को अब किसी महायुद्ध की त्रासदी सहन करने के लिए बाध्य न होना पड़ेगा!

(न्यायालय का निर्णय सुनने के उपरांत सभा स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है। वायुमण्ल में जन-न्यायालय की जय हो , संत सुदीर्घ की जय हो , भीष्म पितामह की जय हो के उद्घोष से देवस्थानम का आकाश गूँजायमान हो जाता है। झुककर न्यायाधीशों को प्रणाम कर भीष्म सुदीर्घ के चरण स्पर्श करते हैं और सुदीर्घ उन्हें अपनी भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लेते हैं। )

समाप्त