माधवी / भाग 1 / खंड 2 / लमाबम कमल सिंह

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तलहटीवाला उद्यान

शजिबु (शजिबु : मणिपुरी वर्ष का प्रथम माह) प्रारम्भ होने को था और हैबोक पर्वत का दृश्य बड़ा मनोरम था। पश्चिमी दिशा में नम्बुल् नदी वक्रगति से बह रही थी| पूर्वी दिशा की ओर एक छोटी सी झील थी। इस झील में सदा निर्मल जल भरा रहता था। कमल, कुमुदिनी और थारिक्था (थारिक्था : कुमुदिनी की प्रजाति का मसृण डंठल वाला जल-पुष्प विशेष) के नए पत्तों से झील पर हरियाली छा गई थी। तलहटी तरह-तरह की हरी-भरी, छोटी-बड़ी, समान लम्बाई वाली घास से ढँकी थी और धीरे-धीरे ढलान पर फैले झील के पानी तक पहुँच गई थी। तलहटी की हरी घास और झील के कमल, कुमुदिनी तथा मखाने के पत्तों की हरियाली का यह मिलन-पर्वत के ऊपर से देखने पर ऐसा मनोहर लगता था मानों, तलहटी से झील तक हरी रेशमी चादर बिछा दी गई हो। पहाड़ी-कन्दरा से बहनेवाले छोटे-छोटे झरने सदा झील को पानी से भरे रखते थे। तलहटी में, झील के किनारे और पहाड़ी-कन्दरा में दूर-दूर आम और कटहल के पेड़ थे। गाय, घोड़ा, बकरी आदि घरेलू पशु जगह-जगह झुंडों में घास चर रहे थे, कुछ घने पत्तोंप की छाया में विश्राम कर रहे थे। झील के जल-कणों, कमल के पत्तों तथा तलहटी के फल-फूलों की सुगन्ध से लदे पवन ने सारे पहाड़ी-ढलान को अत्यधिक सुवासित कर दिया था। पहाड़ के ऊपर से ङानुथङ्गोङ् (ङानुथङ्गोङ् : बतख की प्रजाति का, छोटे आकार का जल-पक्षी विशेष) पंक्तियों में दाना चुगने उड़े आ रहे थे। बीच-बीच में चरवाहे पहाड़ पर उगे हैजाम्पेत् (हैजाम्पेत् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा और उसका फल) तोड़कर खा रहे थे। एक युवक हाथ में किताब पकड़े छतनार आम के पेड़ के नीचे बैठा इस भरे-पूरे मनोरम दृश्य को देख रहा था, बीच-बीच में किताब पर नजर भी डाल रहा था। उसी समय किसी ने पीछे से अचानक दोनों हथेलियों से उस युवक की आँखों को कसकर दबा लिया। युवक ने उसका सिर छू कर पहचानने की कोशिश की, किन्तु वह हिलडुल नहीं सका; बाद में उसके हाथ टटोलते हुए सामने के लम्बे केशों तक पहुँच गए ओर बोला, “शशि! समझ गया हूँ, व्यर्थ है, छोड़ दो।” यह सुनकर दूसरे व्यक्ति ने उसे छोड़ दिया और “राजकुमार, तुम बहुत चतुर हो” कहते-कहते सफेद दाँत चमका कर खिलखिलाते हुए वीरेन् के सामने लोट-पोट हो गया। फिर वह बोला, “इस एकान्त में किस सोच में डूबे हो? कहीं प्रेम-वियोग तो नहीं? यहाँ किसकी राह देख रहे हो?” “मेरे कान पक गए, ऐसी बातें मत करो” कहते हुए वीरेन् किताब उठाकर चलने को हुआ। यह देखते ही शशि ने “अरे, मजाक कर रहा हूँ” कहकर वीरेन् के हाथ पकड़ लिए। “कल भोर के पहले ही उठकर देव-दर्शन को चलना है, देवता पर चढ़ाने के लिए फूल चुन लिए? चलो, चुन लेते हैं।” कहते हुए वीरेन् का हाथ पकड़कर ले गया। दोनों ईशान कोण की दिशा में काँची के लैरेन्-चम्पा (लैरेन्-चम्पा : स्थानीय चम्पा विशेष, जिसका फूल आकार में बड़ा होता है और अत्याधिक सुगन्धित भी होता है) के नीचे पहुँच गए। “इस लैरेन्-चम्पा पर शायद लैरोन् (लैरोन् : खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद खिलनेवाला एकाध फूल) खिला है, खुशबू आ रही है। मैं चढ़कर तोड़ता हूँ। तुम्हें तो चढ़ना नहीं आता, इसलिए दूसरी जगह खिले फूल, जो अपने हाथों से तोड़ सकते हो, तोड़ लो।” कहकर पहाड़ी चोटी के बराबर ऊँचे, चार लोगों की कौली में भी न समा सकने वाले उस चम्पा के पेड़ पर चढ़ गया। उसकी बात मानकर वीरेन् उत्तर की तरफ चला गया।

थोड़ी सी दूर जाने के बाद एक उरीलै-लता (उरीरै-लता : बेल पर खिलनेवाला सुगन्धित पुष्प विशेष) कोई सहयोगी पेड़ न मिलने के कारण जमीन पर ही आगे बढ़ते हुए अपने ही चारों ओर लिपटती दिखाई दी। उरीलै-लता के बीच माधवी-लता के भी लिपट जाने से वह जगह पर्णकुटी-सी बहुत सुन्दर लगने लगी। “खुशबू आ रही है, शायद फूल खिले हैं” सोचकर वह तुरन्त उसी ओर बढ़ा, लेकिन पूर्ण प्रफुल्लित कोई भी स्तबक नहीं मिला। हर गुच्छे में कुछ खिले फूल थे, तो कुछ कलियाँ थीं। “कलियों को नहीं तोड़ना चाहिए” मन में कहते हुए पूरा खिला गुच्छा ढूँढ़ने लगा। अन्त में कहीं न मिलने पर “कलियाँ भी होने दो, यह सामने वाला गुच्छा ही तोड़ लूँगा” सोचकर हाथ बढ़ाया कि तभी दूर कहीं वीणा के स्वर-सा एक अस्पष्ट कोमल नारी-स्वर सुनाई पड़ा। आश्चर्यचकित होकर चारों ओर देखा, किन्तु कोई भी नहीं दिखा। मन में आया, “फूल तोड़ते समय भँवरों के गुनगुनाकर उड़ने के स्वर को शायद मैंने नारी-स्वर समझ लिया है”, किन्तु पुनः फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो इस बार भी वही स्वर सुनाई पड़ा; मानो स्वर-ध्वनि कह रही है-”निराश होकर अविकसित कलियाँ तोड़ने के बजाय अधखिली हमें ही तोड़ लीजिए।” ऐसी निर्जन जगह पर यह नारी-स्वर किस ओर से आ रहा है! वीरेन् पूरी तरह आश्चर्यचकित हो गया, उसने सोचा, “मुझे कलियाँ तोड़ने को उद्यत देख शायद वन-देवी दुखी होकर मुझे रोक रही है! या वारुणी-दर्शन को जाने हेतु कोई कुँआरी लड़की फूल तोड़ रही है?” वह घने पत्तों को हाथों से हटाते हुए उस लता-कुँज के भीतर प्रवेश कर गया| जैसे समुद्र के मध्य लक्ष्मी-सरस्वती, दोनों विराजमान हों, उस लता-कुञ्ज में दो युवतियाँ एक ही चँगेरी से फूल उठा-उठाकर मालाएँ बनाती दिखाई दीं। दोनों युवतियों के सौन्दर्य और रूप-रंग की आभा घने पत्तों के बीच ऐसे बिखर रही थी, मानो चन्द्रमा बँसवाड़े के बीच अपना प्रकाश बिखेर रहा हो। वीरेन् आश्चर्यचकित हो, टकटकी बाँधे देखता रहा, उसके मन में आया, “शायद यह स्वप्न-लोक है।” थोड़ी देर तक उसी तरह देखने के बाद निस्तब्धता भंग करते हुए बोला, “एक ही डंठल पर उरीरै और माधवी दोनों एक साथ खिले हैं। कितना अच्छा हुआ। पुष्प-वाटिका में पूर्ण प्रफुल्लित उरीरै-माधवी तो मिले नहीं, इसलिए गृह-वाटिका में खिलने वाली इन उरीरै-माधवी को ही वारुणी महादेव पर चढ़ाऊँगा।” कहते-कहते वह लताओं और पत्तों को तोड़ अन्दर आ गया। “वरूणी महादेव पर फूल चढ़ाने से पहले स्वामी की आज्ञा के बिना पुष्प-वाटिका में घुस आने और अबलाओं के आश्रय-कुँज के लता-पत्रों को तोड़ डालने के अपराध में तुम्हें बन्दी बनाती हूँ।” कहते हुए दानों युवतियों में से एक ने जल्दी से उठ कर फूल-माला वीरेन्द्र सिंह के गले में लपेट दी। वीरेन् मन्त्र-मुग्ध व्यक्ति की भाँति, कपड़े की गुड़िया-सा कुछ भी नहीं बोल पाया, चुपचाप खड़ा रह गया। कोई और फूल-माला होती, तो आसानी से तोड़ी जा सकती थी, लेकिन वीरेन् उस माला को नहीं तोड़ सका। तन ही नहीं, शायद मन को भी बाँध दिया गया था! “इस जगह से हिलना नहीं” कहते हुए उस युवती ने चँगेरी से फूल उठाकर वीरेन् के सिर पर बिखेरने शुरू कर दिए। वीरेन् बिना हिले-डुले पत्थर की मूर्ति-सा चुपचाप खड़ा रह गया।

युवतियों को कैसे अबला पुकारा जाता है! कैसे उन्हें अबोध कहा जाता है! देखो, चतुर, शिक्षित और बलवान वीरेन् अपनी चतुराई का प्रयोग नहीं कर पाया, अपनी शक्ति नहीं दिखा सका। उसका बल, शिक्षा, ज्ञान-सब उन युवतियों के सामने धूप में बर्फ के पिघलने जैसा हो गया। पलकें झपकीं नहीं, हिल-डुल सका नहीं, कुछ भी बोल सका नहीं, सचमुच पत्थर की मूर्ति-सा बन गया।

वीरेन् को पाषाण-प्रतिमा-सा खड़ा देख दूसरी युवती बोली, “सखी उरीरै! कल तुम्हें वारुणी-दर्शन कराने ले जानेवाला कोई नहीं था, इसलिए तुम बहुत दुखी थी। तुम्हारे मन का दुख जानकर महादेव स्वयं पत्थर की मूर्ति के रूप में अवतरित हुए हैं, उन्हें पूजकर मनचाहा वर माँग लो।” यह बात सुनते ही, “हाँ, सही है सखी माधवी” कहते हुए उस युवती ने अभी-अभी अवतरित महादेव के चरणों पर फूल चढ़ाए, किन्तु वह वर माँगने की इच्छा होते हुए भी मुँह से बोल नहीं सकी। और, दाता महादेव भी बहुत देर तक पत्थर की मूर्ति नहीं बने रहे, “तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो” कह कर वर प्रदान कर दिया। उरीरै ने मन में सोचा, “वर प्रदान करनेवाले महादेव भी तुम हो, माँगा हुआ वर भी तुम ही हो।”

माधवी बोली, “सखी उरीरै! महादेव ने स्वयं ही तुम्हें वर प्रदान किया है, तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हो जाएगी; आओ, अब तो चलें।” यह कहकर वे दोनों चँगेरी उठाकर कुटिया-कुँज से बाहर निकल आईं। उसके हृदय को प्रेम-पाश में बाँध उरीरै द्वारा खींच लिए जाने पर वीरेन् अकेला उस कुटिया-कुँज में महादेव बनकर नहीं रह सका; इसीलिए पुकारते हुए बोला, “फूल चुनने वालियो! महादेव ने तुम पर कृपा की है, अब मुझे इस बन्धन से मुक्त कर दो।” उरीरै नाम वाली युवती ने उत्तर दिया, “प्रतिज्ञा कीजिए कि हमारी एक प्रार्थना मान लेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ सकूँगी।” “क्या बात है, पहले मुझे बताओ।” “कल मुझे देव-दर्शन को ले जानेवाला कोई भी भाई नहीं है, इसलिए मुझे ले चलने का वादा करेंगे तो छोड़ दूँगी।” “उसके लिए चिन्ता मत करो, किन्तु एक सन्देह है, तुम्हारे माँ-बाप मुझ अजनबी ओर पराए के साथ जाने की अनुमति तुम्हें कैसे देंगे, यह तो सोचो।”

शशि पहले से ही चम्पा के पेड़ पर चुपचाप यह नजारा बहुत मजे से देख रहा था, जैसे थिएटर देख रहा हो, लेकिन वीरेन् का 'हाँ, ले चलूँगा' न कहकर घुमा-फिराकर कहते रहना सुनकर उसे बहुत गुस्सा आ गया और चुपचाप बर्दाश्त न कर सकने के कारण पेड़ पर से ही चिल्ला उठा, जैसे बादल गरजा हो, “अरे ओ संन्यासी बिल्ले! 'हाँ, ले चलूँगा' बोलो, क्यों फालतू बातें कर रहे हो?” यह जानकर कि वहाँ कोई और भी छिपा हुआ मौजूद था, उरीरै और माधवी, दोनों शर्म के मारे बात पूरी किए बिना ही झटपट चली गईं। शशि ने सोचा कि उसके उतरने से पहले दोनों निकल जाएँगी, इसलिए एक चालाकी करनी चाहिए। वह बोला, “फूल चुननेवालियों! दुर्लभ लैरेन्-चम्पा चँगेरी भरकर ले जाओ।” उरीरै ने उत्तर दिया, “शजिबु में खिलनेवाला चम्पा साधारण चम्पा नहीं होता, उसे चँगेरी में नहीं, हृदय में ही रखा जा सकता है।” यह कहकर शीघ्रता से चली गईं। कुद दूर चलने के बाद माधवी बोली, “सखी उरीरै, मेरा यह शरीर किसी व्यक्ति के प्रति अर्पित किया जा चुका है, इसलिए मैं स्वछन्द होकर नहीं निकल सकूँगी, आज से तुम मुझसे नहीं मिल सकोगी, कहीं अगर मुसीबत में फँस जाती हैं, तभी मिलेंगी।” यह कहकर वह घर की ओर चली गई। उरीरै भी आश्चर्यचकित होकर प्रेम और लज्जा से भरी घर लौट आई। उस दिन से माधवी फिर कहीं नहीं दिखाई दी।