माधवी / भाग 1 / खंड 3 / लमाबम कमल सिंह

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चीड़्गोई वारुणी

(चीड्गोइ वारुणी : नोड्माइजिड् पर्वत के समीप बहनेवाली एक छोटी सी नदी है। वारुणी पर्व के दिन देव-दर्शन को आए सभी लोग इस नदी में स्नान करके चावल, तिल, फूल आदि का तर्पण करते हैं। अतः वारुणी-पर्व से सम्बन्धित इस अनुष्ठान को चीड्गोइ वारुणी नाम से जाना जाता है)।

कृष्ण-पक्ष की रात थी। स्वभाव से कृष्ण-पक्ष की रात बहुत गहरी होती है और सन्नाटे भरी भी, किन्तु आज की रात बहुत जल्दी ही बीत गई, शायद भोर की देवी ने पहले ही जागकर वारुणी महादेव का स्तुति-गान शुरू कर दिया था। रात के सन्नाटे को चीरकर पूर्वी आकाश में थबा (थबा : भोर के समय पूर्वी दिशा में स्पष्ट दिखाई देनेवाला एक तारा विशेष) नाम के तारे ने अन्धकार का कुछ हिस्सा मिटाना शुरू कर दिया, गली-गलियारों में जल्दी जागनेवाली उचिन्नाओं (उचिन्नाओ : बया की प्रजाति की स्थानीय चिड़िया विशेष) आदि चिड़ियों के चहचहाने का स्वर फैल गया। सभी लोग देव-दर्शन को जाने की तैयारियाँ करने लगे। कोई-कोई अपने मित्र को बुला रहा था। सभी लोगों के शोरगुल से नींद टूट जाने के कारण छोटे-छोटे बच्चे भी जाग गए और 'मैं भी चलूँगा' कह-कहकर रोने लगे। इस तरह सब जगह कोलाहल छा गया। सड़कों पर लोगों की भीड़ लग गई। इसी समय शशि हड़बड़ाते हुए नींद से उठकर 'देर हो गई' बड़बड़ाते हुए वीरेन् के घर की ओर भागा। उस समय भी वीरेन् खर्राटे लेकर सो रहा था। शशि ने दरवाजे पर बार-बार दस्तक दी। सभी लोग उठे और नहाए। वीरेन्, शशि और थम्बाल्सना-तीनों नोड्माइजिड़ पर्वत की ओर चले। उसी समय पूर्वी दिशा में सूर्य नोड्माइजिड् के पीछे से चमकता हुआ निकला। रास्ते पर चलते समय सभी लोगों के मन बहुत आनन्दित थे, किन्तु वीरेन् के मन को आनन्द नहीं हुआ; उसे ऐसा लगा, जैसे कोई चीज छूट गई हो, गिर गई हो या किसी चीज का अभाव महसूस हुआ हो, मन बहुत व्याकुल हुआ। उधर शशि उसे डाँटते हुए कह रहा था कि “चलने में बहुत फिसड्डी हो, जल्दी भाग आओ।” ऐसा करते-करते नोड्माइजिड्. पर्वत नजदीक आ गया। हरी-भरी घास से ढँकी झील, पहाड़ी कन्दराओं से सीढ़ियों की भाँति बहती जलधाराएँ, जगह-जगह वसन्त आगमन के कारण कटहल, आम आदि के नव-पल्लवित-नवांकुरित पेड़ जमीन पर उगी छोटी-छोटी लैपाक्लै (लैपाक्लै : ग्रीष्म ऋतु में कड़ी जमीन को तोड़कर खिलनेवाला नाजुक पंखुड़ियोंवाला (बैंगनी प्रभा लिए श्वेत) एक स्थानीय फूल विशेष। इसका डंठल नहीं होता। खिलने का मौसम समाप्त हो जाने के बाद इस फूल के स्था न पर केवल पत्ते निकल आते हैं। मणिपुरी साहित्य में यह फूल सहनशीलता का प्रतीक माना जाता है), कोम्बीरै (कोम्बीरै : कम गहरे पानी या नमीवाले स्थायन पर उगनेवाला बैंगनी रंग का एक स्थानीय फूल विशेष, जो मणिपुरी नव वर्ष के त्योहार की पूजा में देवताओं पर अक्सर चढ़ाया जाता है), दावाग्नि के बाद उगनेवाले नए-नए हरे पत्तों के बीच उथुम् (उथुम : छोटे आकार का स्थानीय पक्षी विशेष, जो धान के खेतों या घास के बीच देखा जाता है) का 'तुम-तुम्' स्वर, मन्द पवन के झोकों से धीरे-धीरे दोलायमान पहाड़ी ढलान पर उगे हाओना (हाओना : सरपत की प्रजाति की चौड़ी पत्तेवाली एक स्थानीय घास विशेष) के लहलहाते पत्ते, इन सब दृश्यों ने वीरेन् के मन को आनन्द देने के बजाय और दुखी कर दिया। वह बुझा चेहरा लिए चुपचाप चल रहा था, अचानक उसकी धोती का पल्लू काँटे में अटक गया। पीछे मुड़ा तो काक्येल्-खुजिल् (काक्येल्-खुजिल् : एक कँटीला झाड़ीदार पौधा विशेष) की झाड़ियों के बीच खिलते जाति-पुष्प को देखा। आश्रय लेना ही लता का स्वभाव है, ऐसा सोचकर बिना भाई वाली, लता जैसी उरीरै के लिए मन-ही-मन बहुत दुखी हुआ। “काँटेदार पौधे तक जाति-पुष्प को अपने से लिपटाकर आश्रय देते हैं और मैं मानव-जाति में पैदा होते हुए भी शरण में आई एक लड़की की इच्छा पूर्ण नहीं कर सका” यह सोचते हुए वह अपने आप को कोसने लगा। सच कहा जाए तो वीरेन् के फूल-से कोमल हृदय में प्रेम-कीट घुस गया था और उसने काटना शुरू कर दिया था। वीरेन् ने सोचा, “शर्मीलियों के बीच जन्मी, भोर में खिलनेवाले मल्लिका-पुष्प जैसी कोमल उरीरै देव-दर्शन के लिए आई होगी या नहीं, उसे अपने साथ ले जानेवाला कोई न होने के कारण अपनी डार से बिछुड़े धनेष की भाँति अकेली रोती रह गई होगी, या संशय के कारण साहस न जुटा सकने वाले, मेरी प्रतीक्षा करती रही होगी! मार्ग में इतने सारे युवक-युवतियों के होते हुए भी आँखों को शून्य-सा ही दिखाई दे रहा है और युवक-युवतियाँ बाजार में बेचे जानेवाले गुड्डे-गुड़ियों से दिखाई दे रहे हैं, किन्तु इन्हीं में यदि उरीरै भी होती तो यह मार्ग एकदम भरा-भरा लगता!” यही सोचते-सोचते चीड्.गोइ नदी तक आ पहुँचा। देव-दर्शन हेतु जाने वाले सभी लोग चीड्गोइ में डुबकी लगा रहे थे। कोई-कोई स्नान के बाद चावल, तिल आदि से तर्पण कर रहा था। कंकड़-पत्थरों के मध्य वा-वा करते हुए बहनेवाला चीड्.गोइ का निर्मल जल गँदला हो गया था। लोगों द्वारा तर्पण किए चावल-तिल-फूल जगह-जगह भर गए थे। चीड्गोइ की पतली-सी जलधारा पुष्प-धारा बन गई थी। किनारे पर उगे शिड्नाड् (शिड्नाड् : झाड़ी के रूप में उगनेवाली लम्बे डंठलवाली घास विशेष) आदि का सफाया हो गया था। टेढ़ी-मेढ़ी बहती चीड्.गोइ के दोनों किनारों पर लोगों की भीड़ छा गई। वीरेन् और उसके दल के लोगों ने भी नहाकर तर्पण किया। उस जगह से अग्नि-कोण की ओर एक सँकरा रास्ता जाता था। सभी लोग उस रास्ते पर चल पड़े। वीरेन् के दल के पहाड़ की चढ़ाई के बीच पहुँचते-पहुँचते दोपहरी चढ़ आई। यहाँ तक आते-आते धूप और लम्बे सफर की थकान के कारण अधिकांश कमजोर नारियाँ आग में झुलस गए कोमल पत्तों की भाँति मुर्झाने लगीं। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद यात्रीगण 'बम्-बम्' का घोष करने लगे। वीरेन् ने आँखें ऊपर की तरफ दौड़ाईं, तो देखा कि वह रास्ता पहाड़ की चढ़ाई पर था और सभी लोग लताओं का सहारा ले-लेकर चल रहे थे। रास्ता कठिन था, क्षणिक विश्रान्ति के लिए भी कहीं स्थान नहीं था। जब लोग आधी चढ़ाई पर पहुँचे, तो पहाड़ी चढ़ाई पर चढ़ने से थकी कमजोर रमणियाँ लज्जा त्यागकर, यह विचारे बिना कि ये उनके अपने छोटे या बड़े भाई नहीं हैं-जैसे लता अपने निकटवर्ती वृक्ष पर लिपट जाती है, वैसे ही अपने-अपने पासवाले युवकों के पल्लू पकड़ने लगीं।

जब वीरेन् और शशि थम्बाल्सना की एक-एक कलाई पकड़े चढ़ाई चढ़ रहे थे, तभी किसी युवती ने पीछे से वीरेन् का पल्लू पकड़ा। पीछे मुड़ा तो देखा कि चादर से चेहरा ढाँपे एक युवती थी। वीरेन् को मुड़ते देख, स्वभाव से लजालू उस युवती ने थकान से चूर होते हुए भी पल्लू छोड़ दिया। उसे देखकर वीरेन् बोला, “स्वभाव से ही आश्रिता हो, तब फिर सहारा लेने में क्यों शर्माती हो? समीप आओ, तुम्हारी कलाई पकड़कर जितना हो सकेगा, इस चढ़ाईवाले रास्त पर ले चलूँगा।” उस युवती ने उत्तर दिया, “अचल पेड़ चलने लगे हैं और आश्रित लताएँ खड़ी हैं। आश्रिता होते हुए भी वे हमेशा आश्रित नहीं रहतीं। देखिए, चढ़ाई पर उगी लताओं के सहारे इतने यात्री महादेव के दर्शन पाने वाले हैं।” यह कह कर वह युवती भीड़ में कहीं खो गई। वीरेन् ने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा, फिर भी आवाज से पहचानकर वह उसे ढूँढ़ने के लिए थोड़ी देर खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। इस बीच लोगों के अनेक समूहों के आगे बढ़ जाने के कारण शशि और थम्बाल्सना भी ओझल हो गए और वह युवती भी नहीं दिखाई दी; वह अकेला खड़ा रह गया।