माधवी / भाग 2 / खंड 6 / लमाबम कमल सिंह

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उरीरै की आशा

आशा की सम्मोहक शक्ति विलक्षण होती है। आशा-दीप की धुँधली रोशनी में मनुष्य इस अन्धकारपूर्ण संसार के मार्ग पर चलता है। अगर आशा मुस्कुराते हुए मनुष्य के मन को मोहित नहीं करती, तो इस संसार में मनुष्य का दुख-दर्द और अधिक बढ़ जाता है! जैसे धूप में यात्रा करने वाला यात्री घने पत्तों वाले पेड़ की छाया में विश्राम कर अपनी थकान कुछ कम करता है, वैसे ही इस संसार में चलने-फिरने वाले सभी जीव आशा की छाँव में विश्राम कर अपना दुख-दर्द कुछ कम करते हैं। दरिद्रता की अन्तिम सीमा पर पहुँचा, दिन में खाकर रात में उपवास रखने वाला, चीथड़े पहनकर जीने वाला व्यक्ति भी यही आशा पालता है कि किसी दिन वह भी सम्पन्न बनेगा-रोग के दर्द से दिन-रात रोने-चिल्लानेवाला, हड्डियों पर मात्र खाल ढँका रोगग्रस्त व्यक्ति भी यह आशा करता है कि एक दिन उसमें भी वही पुरानी शक्ति लौट आएगी-निस्सन्तान होने के कारण अपने बच्चों की किलकारी कभी न सुन सकनेवाले दम्पत्ति भी यही आशा करते हैं कि कभी वे भी सन्तानवाले होंगे। आशा, वृक्ष के किसलय जैसी होती है। एक बार तोड़ दिए जाने-भर से वह पूर्णतः नष्ट नहीं होती, फिर नया किसलय निकल आता है। अगर पहले का किसलय तोड़ दिए जाने पर यूँ ही सूख जाता है तो प्रिय सन्तान के-जिस सन्तान को देखकर मनुष्य आशाओं के कई उद्यान तैयार करता है, मर जाने के बाद कोई माँ-बाप जिन्दा नहीं रह पाते। आशा का किसलय फूटने और समय की धारा में सामाजिक दुख-दर्द प्रवाहित हो जाने के कारण मनुष्य का मन ज्यादा समय तक दुखी नहीं रहता। आशा के सहारे शकुन्तला परित्यक्ता और निराश्रय होते हुए भी वन में पेड़-पौधों के बीच जीवित रह पाई थी-पति की अनुपस्थिति में नाव से व्यापार करने वाले द्वारा पकड़ी गई चिन्ता देवी भी किसी तरह जिन्दा रह पाई थी-सावित्री ने भी मृत पति को अपनी बाँहों में बाँधे रखा था-ऐसे ही उरीरै भी आशा के बल पर मन का दाह अन्दर छिपाकर रख सकी और वीरेन् को पुनः देख पाने की आशा के सहारे जीवित रह सकी। जब तक मृत्यु नहीं आती, तब तक मनुष्य की आशा कभी शेष नहीं होती; मृत्यु ही आशा की सीमा है।