माधवी / भाग 3 / खंड 10 / लमाबम कमल सिंह

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समापन अंश

रात बीत गई, सुबह हो गई। पूर्वी आकाश में प्रात:कालीन सूर्य उजले प्रकाश के साथ उदित होने लगा। काँची के उद्यान में मल्लिका, मालती, उरीरै आदि पुष्प पूर्ण रूप से प्रफुल्लित होने लगे। माधवी मन में द्वन्द्व लिए उद्यान में गई। खिले हुए मल्लिका को चँगेरी भर तोड़ा। चँगेरी में से एक-एक पुष्प उठाकर माला पिरोने लगी। उस पुष्पमाला को देखकर कहने लगी, “अर्थहीन पुष्पमाला है, मैं यह पुष्पमाला जिसके गले में पहनाना चाहती हूँ, अब वह सम्भव नहीं होगा।” उसने दोनों आँखों से खूब आँसू बहाए। उन आँसुओं से वह पुष्पमाला पूरी तरह भीग गई। उसी समय धीरेन् सुबह के समय टहलने निकला तो काँची-उद्यान के सौन्दर्य को निहारने वहाँ चला आया। निर्जन स्थान पर संन्यासिनी का रूप धारण किए एक युवती को पुष्पमाला लिए आँखों से आँसू बहाते देख आश्चर्यचकित होकर थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। बोला, “हे पुष्पमाला पिरोनेवाली! क्या तुम काँची की देवी हो? या पति-वियोग के ताप से विह्वल होकर (देखने में विवाहिता स्त्री मानकर) अपने कोमल तन पर गेरुए वस्त्र धारण किए हो? किसके लिए अपनी आँखों से आँसू बहाती हो?” माधवी अपने मन में आराधित मूर्ति, धीरेन् को सामने देखकर बिना कोई भी उत्तर दिए आँखों में आँसू भरे गौर से देखती रही। उसकी यह दशा देख धीरेन् ने दुखी मन से फिर पूछा, “पुष्पमाला पिरोनेवाली! बोलो, तुम्हारी कौन सी मनोकामना पूरी नहीं हुई है? मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ तो अपने प्राण तक देकर तुम्हारी मनोकामना पूरी करने की कोशिश करूँगा।” तब माधवी ने सोचा कि अगर वह अपना परिचय बता देगी, तो धीरेन् और राजेन् कविराज की बेटी के विवाह में बाधा उत्पन्न हो जाएगी और वह एक निर्दोष समवयसी की अपराधी हो जाएगी; इसलिए उसने अपना परिचय नहीं दिया। बोली, “हे वीर! मैं संन्यासिनी हूँ, मैंने मनोकमानाएँ त्याग दी हैं, इसलिए इस संसार में मेरी कोई भी मनोकामना अपूर्ण नहीं रही। मेरा जीवन गेरुए वस्त्रों में बीता है, शेष जीवन भी इन्हीं के संग पूरा हो जाएगा।” उसका पूरा शरीर आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, “तो इतने मन से यह पुष्पमाला क्यों पिरोई? और क्यों अपनी आँखों से आँसू बहा रही हो?" माधवी ने रोते-रोते काँपती आवाज में उत्तर दिया, "कोई व्यक्ति है, जिसके गले में यह पुष्पमाला पहनाना चाहती हूँ, इसलिए आँसुओं की एक-एक बूँद से यह माला पिरोई, यह सामान्य पुष्पमाला नहीं है, बड़ी आकांक्षा के साथ पिरोई गई माला है। यह मेरे जीवन की अंतिम माला है। इस संसार में अब यह पुष्पमाला पहनाना संभव नहीं, इस जन्म में मनोकामनापूर्वक पहनाने का अवसर नहीं मिला; जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से पहनाऊँगी।” यह कहते हुए चादर के पल्ले से चेहरा ढाँपकर बिलखने लगी। थोड़ी देर बाद टूटे स्वर में फिर बोली, “हे वीर! अच्छा ही हुआ कि आज मैं तुमसे मिली हूँ। आज मेरा अन्तिम दिन, अन्तिम समय, अन्तिम पल है। किसी के मिलने पर एक पुरानी बात याद कराने की बाट जोहती आई हूँ। कहने का विचार किया, किन्तु इतने दिनों तक कह नहीं सकी - लेकिन मन की यह बात प्रकट न करूँ तो सदा के लिए मेरे ऊपर एक ऋण रह जाएगा। अगर कोई व्यक्ति 'निश्चित बात बाद में बताऊँगी' कहकर प्रतिज्ञा करनेवाली किसी युवती को ढूँढ़ने आए तो बस, उसे इतना बता दीजिए, “निश्चित बात बताने का अवसर इस जन्म में नहीं आया, जहाँ कभी वियोग न हो, वहाँ शान्त मन से बताऊँगी।” यह कहकर उस पुष्पमाला को अपने हृदय से लगा लिया। इसके पश्चात् धीरेन् के चौड़े ललाट को एक बार गौर से देखने के बाद मुड़ी और तेजी से उत्तर की ओर चली गई। उस दिन से किसी ने भी माधवी को इस संसार में नहीं देखा।

बाद में धीरेन् ने माधवी को पहचान कर उसे ढूँढ़ने का बड़ा यत्न किया, किन्तु वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ी।

“चन्दन के वृक्ष अनेक

पर्वतों पर और जंगलों में

जैसे नष्ट हो जाते हैं सूखकर,

वैसे ही मनोद्यान के कोने में

सहेजकर रोपा हुआ पुष्प

सूख जाएगा होकर अर्थहीन

तन-मन सहित;

नहीं होगा किसी को भी ज्ञात!”

'लमाबम कमल सिंह' द्वारा लिखित 'इबोहल सिंह काङ्जम' द्वारा अनूदित उपन्यास "माधवी" समाप्त।