माधवी / भाग 3 / खंड 9 / लमाबम कमल सिंह

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विलक्षण विवाह

निश्चित समय पर निमन्त्रण प्राप्त बड़े-बुजुर्ग, मौहल्ले की औरतें, राजवंश की रमणियाँ सब राजेन् कविराज के घर आ पहुँचे और सभी को आदर-सत्कार के साथ उचित आसन पर बिठाया गया। पुरुषों का संकीर्तन शुरू हो गया।

उधर वीरेन् भी वर की वेश-भूषा धारण करके यात्रा के लिए तैयार हो गया। फिरुक् (फिरुक् : एक ढक्कनदार टोकरी विशेष, जिसमें विवाह या देवी-देवताओं की पूजा आदि में गुड़वाली धान की खील, फल आदि पूजा-सामग्री रखकर ले जाई जाती है) लेकर चलनेवाली नारियाँ फल लेकर चलनेवाले लड़के, मित्रगण और वर के साथ अन्य युवकों का दल काँची की सड़क पर भीड़-भाड़ के रुप में निकले। उसी समय सड़क की पश्चिमी दिशा से तलहटी के नजदीक वाले वन के निकट के संकरे मार्ग पर फिरुक ढोनेवाले लोगों की एक अन्य पंक्ति भी चली आ रही थी। वह दूर से देखने पर अंडे ढोनेवाली चींटियों की पंक्ति जैसी सुन्दर लग रही थी। पीछे आनेवाला दल वीरेन् के दल से मिलकर एक हो गया। वीरेन् के दल द्वारा पूछे जाने पर उस दल ने उत्तर दिया, “धीरेन् ने अपने मित्र के लिए भेजा है। सभी लोग विवाह-स्थल पर मंडप में पहुंचकर यथायोग्य सम्मान के साथ अपने-अपने आसन पर बिठा दिए गए। विधि-विधानपूर्वक वर का स्वागत किया गया।

शुभ लग्न में वर जंगली हाथी की तरह धीरे-धीरे चलकर विवाह की चौकी पर बैठा| धीरेन् मित्र की सहायता करने लगा। उस समय सभी उपस्थित जन बहुत व्यस्त रहे। दाहिने हाथ से पान लिया, बाएँ हाथ में चिलम थामी, दृष्टि वर पर और मुँह में कुछ खाद्य पदार्थ। पान खाया जाए या हुक्का पिया जाए या वर की नुक्ता चीनी की जाए, सब मुश्किल में पड़ गए। वर भी धरती पर नजर गड़ाए ऐसे बैठा कि कहीं उसकी दृष्टि फिसल न जाए। उसे देखकर सभी “ऊँघने लगा है, ऊँघने लगा है, गिर जाएगा” कहकर शोर मचाने लगे। एक बार पलकें झपकाते ही बोले, “आँखें खुल गई हैं।” हलका-सा हिला तो फिर बोले “हिलने लगा है, हिलने लगा है।” ऐसे ही कुछ देर तक सभी क्या-क्या बोलते रहे। किन्तु बहुत बक-झक करने पर भी वर की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर और बकते-बकते थक जाने के कारण खाने में रुचि लेने लगे। तभी कन्या को लाने के लिए कहा गया। उसी वक्त कन्या के घर में कोहराम मच गया, परिवार के सभी लोग बदहवासी में इधर-उधर भागने लगे। कारण पूछने पर पता चला “कन्या गायब हो गई, ढूँढने पर भी नहीं मिल रही है।” यह सुनते ही सभी लोग इधर-उधर, आगे-पीछे भागने फिरने लगे। दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट में पुरोहित 'अनर्थ हो गया' कहते हुए आगबबूला हो गया। अकस्मात उसी पूरबवाले ओसारे के कोने से एक लड़की निकली, उसने वर के गले में वरमाला डाली। वर ने भी उस लड़की के गले में पुष्पमाला डाली। दोनों अगल-बगल में बैठ गए। विवाह सम्पन्न हो गया। सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए| कुछ लोग पहचानकर कहने लगे, “यह तो उरीरै है, उरीरै है।” थोड़ी देर पश्चात् राजेन् की बेटी और भुवन दोनों को पकड़कर सबके सामने लाया गया। राजेन् के यह पूछने पर कि दोनों को कैसा दंड दिया जाए, वीरेन् ने उत्तर दिया, दोनों में परस्पर प्रेम है तो इसी वक्त दोनों का विवाह संस्कार सम्पन्न होना ही सही दंड होगा; मैं बड़ा भाई बनकर कन्यादान करुँगा। “सही बात है" कहते हुए सभी युवक चिल्लाने लगे। अब राजेन् बिना किसी के बताए स्वयं समझ गए कि प्रेम एक बहुत ही ऊधमी कीड़ा है; उपदेशों से इसका स्वभाव कोमल नहीं बनाया जा सकता, डाँट-डपट और मार से इसे नहीं समझाया जा सकता। यह सिर्फ खूबसूरती ही नहीं चाहता, धनवानों के यहाँ ही आश्रय नहीं लेता, सिर्फ शिक्षितों को ही नहीं देखना चाहता। इसलिए राजेन् ने बखेड़ा करने के बजाय चुपचाप बेटी का कन्यादान करके अपनी गलती को सुधारा।

वीरेन् भी बड़ा भाई बन कर राजेन् की पुत्री के कन्यादान में शरीक हुआ। उसी समय उरीरै को “मेरा कोई भाई, माँ-बाप न होने के कारण मेरा कन्यादान करने वाला कोई नहीं है” कहते हुए अनवरत आँसू बहाते देखकर मंडप के एक कोने से एक अधेड़ व्यक्ति निकला और “बेटी, मैं हूँ तो” कहकर अपनी बेटी को छाती से लिपटाते हुए बिलख पड़ा। सचमुच वह व्यक्ति उरीरै का बाप नवीन था। जब “उरीरै नहीं मरी, बाप भी नहीं मरा” कहते हुए सभी लोग परस्पर फुसफुसा रहे थे, तभी घर के भीतर से एक औरत निकल आई और उरीरै से लिपटकर खूब रोई। जिन्हें लोग मरा हुए सोचते थे, उन माँ- बाप और बेटी, तीनों के मिलन से सभी अत्यन्त खुश हुए। इसके अलावा अपने प्राण बचानेवाले युवक को दामाद के रूप में पाकर नवीन की खुशी का ठिकाना न रहा। वीरेन् भी अनाथिनी जैसी अलग-थलग रही उरीरै के माँ-बाप के सबसे सामने प्रकट हो जाने से बेहद खुश हुआ। नवीन्, थम्बाल् और उरीरै कैसे जीवित बचे, इसकी कहानी सबको सुनाई गई। सभी लोग अत्यन्त खुश हुए और कहने लगे कि यह विलक्षण विवाह है। सबके सामने नवीन ने अपने को भुवन के बाप का हत्यारा घोषित किया। उरीरै द्वारा शशि को निर्दोष बताए जाने पर उसे बन्दीगृह से छुड़ाकर वहाँ लाया गया। तब वीरेन् ने कहा, “मित्र, तुमने मेरे लिए बहुत कष्ट सहा, उसी के पुरस्कार-स्वरूप मैं तुम्हें अपनी छोटी बहन सौंप रहा हूँ” और अपनी बहन थम्बाल्सना का कन्यादान शशि के साथ किया। बन्दीगृह से निकलते ही राजवंश की एक कन्या को पाने पर शशि मुस्कुराया और बड़बड़ाया, “राजवंश कभी अपनी जबान से पीछे नहीं हटता।” राजेन् ने विवाह का सारा खर्च उठाया।

एक ही जगह, एक ही दिन तीन विवाह-संस्कार सम्पन्न होते देख सभी लोग समान रूप से खुश हुए और हर एक को तीनों विवाहों के लिए तीन-तीन दक्षिणाएँ मिलने से वहाँ तारीफ के पुल बँध गए। पुरोहित ने भी दक्षिणा से वंचित होने की घबराहट से मुक्त होकर, अधिक दक्षिणा मिलने से, “मेरे द्वारा सम्पन्न कराया कार्य कभी असफल होता है क्या!” कहकर अपनी खुशी जाहिर की।

इस प्रकार का विलक्षण समाचार सुनकर देश के शासक ने नवीन को प्राण दंड से मुक्त कर दिया।

उरीरै ने सोचा कि अब उसकी सारी विपत्ति दूर हो गई है, इस अवसर पर अगर सखी माधवी से उसकी मुलाकात हो जाती तो बेहद खुशी होती। माधवी के सही ठौर-ठिकाने का पता नहीं चल सका, लेकिन जब भुवन ने उसे बाँधकर जंगल में रखा था, तब उसे बचानेवाली और भविष्य में उसका सारा दुख-दर्द मिट जाने की भविष्यवाणी करनेवाली उस देवी की आवाज माधवी जैसी लगती थी और हाल ही में रास-मंडल में कूदकर आत्महत्या का प्रयास करते समय 'सखी' कहकर पुकारने वाली उस युवती की आवाज भी माधवी की ही लगती थी। पर ठीक से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला था। उसने सोचा कि विपत्ति के समय उसकी रक्षा और वीरेन् से उसका मिलन-यह सब माधवी की ही कृपा है। यही सच भी था। माधवी के स्वार्थ त्याग और उदारता के बारे में सोचकर उरीरै को विश्वास नहीं हुआ कि वह एक इंसान थी, सोचने लगी कि वह हैबोक् की देवी ही है। विश्वास नहीं होता कि ऐसा इंसान संकीर्ण और धोखेबाज समाज में फिर दिखाई देगा, सचमुच ही दिखाई भी नहीं दिया।