माधवी / भाग 3 / खंड 4 / लमाबम कमल सिंह

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प्रतिशोध

चन्द्रनदी के किनारे एक सुन्दर उद्यान था। हैबोक् पर्वत का स्पर्श करती सूर्य-रश्मियों से उद्यान के पुष्प और सरिता-तट के वृक्ष स्वर्णिम आभा में रँग गए थे। उद्यान के ही समीप चन्द्रनदी की तन्वंगी-धारा कल-कल करती दक्षिण की ओर बह रही थी। सन्ध्या समय सफेद वस्त्र पहने एक गंजा व्यक्ति अपने एक दास के साथ उद्यान की दिशा में आ रहा था।

आकाश में पश्चिम की ओर से बादलों का एक समूह उड़ आया। उस समूह के धीरे-धीरे फैलकर आकाश की पूरी पश्चिमी दिशा को ढँक लेले से वहाँ अँधेरा छा गया। चन्द्रनदी के दोनों किनारों पर घना जंगल था और बड़े-बड़े पीपल के वृक्ष भी थे। हवा तीव्र वेग से चलने लगी। तेज हवा के झोंकों से पीपल के पत्तों से सर-सर की आवाज आने लगी और उसी आवाज के कारण डरावना वातावरण उत्पन्न हो गया। उस पार के किनारेवाले घने जंगल में लोमड़ी हुआँ-हुआँ करने लगी। निकट वाले पीपल के वृक्ष पर उल्लू बोल रहा था। नदी के किनारे की मिट्टी ढह कर झम् से पानी में गिर पड़ी। सारा शरीर कीचड़ में सना एक आदमी किनारे के एक गड्ढे में छिपा दूर से आने वाले दो व्यक्तियों की ओर छुप-छुपकर देखते हुए एक शिला पर अपनी तलवार की धार तेज करने लगा।

निकट और दूर कोई भी नहीं दिख रहा था। उस गंजे व्यक्ति ने अपने दास से पूछा, “उस रोगी का क्या हुआ?”

दास - “रोगी कल मर गई।”

स्वामी - “बहुत अच्छा हुआ, उसे लर्म्श-मृत्यु (लर्म्श-मृत्यु : घर से दूर, कहीं परदेस या जंगल आदि में आने वाली मृत्यु) मिल गई। शव का दाह-संस्कार हो गया या ऐसे ही सड़ रहा है?”

दास - “दाह-संस्कार हो गया।”

स्वामी - “क्या? काँची में कौन हिम्मतवाला था, जिसने उसका दाह संस्कार किया? तुमने देखा और मुझे बताया नहीं?”

दास - “इस मोहल्ले के किसी भी व्यक्ति ने उसका दाह-संस्कार नहीं किया। कीचड़ में सना एक पागल आया था, उसने ही दाह-संस्कार किया। वह पागल कौन था, वह मैं नहीं जानता स्वामी।”

स्वामी - (मुस्कुराते हुए) “उसका कोई दूसरा प्रेमी होगा। उसके असली पति की हत्या तो मैंने परदेस में ही करवा दी थी।”

यह कहते हुए स्वामी और दास, दोनों अट्टहास करने लगे। उसी समय बादल जोर से गर्जा, तो स्वामी और दास दोनों चौंक पड़े। तभी कीचड़ में सना आदमी झूमते हुए उस ओर आया।

दास - (उँगली से इशारा करते हुए) “देखिए, वह पागल इधर आ रहा है।”

स्वामी - “उसे यहाँ बुलाओ।”

दास - (ऊँची आवाज में) “अरे ओ पगले! यहाँ आओ, जल्दी।”

उस आदमी के नजदीक आ जाने पर स्वामी ने पूछा - “तुम कौन हो? शव ढूँढ़ते हुए इधर-उधर क्यों भटक रहे हो? तुम किसी के भूत हो क्या? तुमने कल मरी उस औरत का दाह-संस्कार क्यों किया?”

पागल - “वह औरत मेरी पत्नी थी। मुझे मालमू था, कोई भी उसका दाह-संस्कार नहीं करेगा, इसलिए मैंने कर दिया।”

स्वामी - “उसके पति को मरे बहुत दिन बीत गए। क्या तुम उसके श्मशान की रखवाली करनेवाले उसके दूसरे पति हो?”

हृदय विदीर्ण करने वाली वह बात सुनते ही उस आदमी का शरीर क्रोध के कारण थर-थर काँपने लगा, उसकी दोनों आँखें एकदम लाल हो गईं। गरजते हुए बोला, “भुवन के बाप! तुम अपने पापों के चलते स्वयं अपनी मौत ढूँढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचे हो। मेरी बेटी की हत्या कर दी, मेरी पत्नी को घोर यातनाएँ दीं, मुझे श्मशान में कमर तक गड़वा दिया और इन सबके अलावा एक निर्दोष सती पर लांछन लगाया - मैं इसका प्रतिशोध लूँगा, मैं तुम्हारे प्राण ले लूँगा।” यह कहते हुए कपड़ों के भीतर छिपाई तेज तलवार भुवन के बात की छाती में भोंक दी। भुवन का पापी बाप पीठ के बल गिर गया।

अकस्मात भुवन के बाप की हत्या हो जाने पर दास डर के मारे अपने प्राण बचाकर घर की ओर भाग गया।

पाठक! जान गए होंगे कि यह पागल नवीन था। उसने सोचा, यहीं यूँ ही रहकर अपने को पकड़वा दूँ। मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई है। मैं स्वयं चल कर अपने को पकड़वा दूँगा, किंतु अभी वह समय नहीं आया, एक दिन इसका अवसर अवश्य आएगा।” यह सोचते हुए वह उस पार वाले किनारे के जंगल में खो गया।

दास ने भागकर घरवालों को सूचना दी। परिवार में कोहराम मच गया। कई दास हाथों में कुछ-न-कुछ लिए उद्यान की ओर भागे। भुवन के बाप को वहाँ पड़ा देखा। लेकिन हत्यारा वहाँ नहीं था। पुलिस को खबर दी गई।