माधवी / भाग 3 / खंड 6 / लमाबम कमल सिंह

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विवाह की तैयारी

वीरेन् और धीरेन्, दोनों मित्र कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त करके मातृभूमि लौट आए। उन दोनों की कीर्ति जल्दी ही संपूर्ण मैतै भूमि में फैल गई। स्वभाव से ही मनुष्य पढ़े-लिखे शिक्षित युवकों के साथ अपनी बेटियों का विवाह करना चाहते हैं या संपन्न और बड़े घर की लड़की को अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं। संपन्न राजेन् कविराज की दोनों बेटियों में से बड़ी का विवाह वीरेन् के साथ और छोटी का धीरेन् के साथ करने की बात पक्की हो गई। अभिभावकों के स्तर पर बात पक्की हुई थी। लड़के और लड़कियों को, जिनका विवाह होने जा रहा था, केवल इतनी जानकारी थी कि लडकियाँ किसी संपन्न परिवार की हैं और लड़कियों को भी इतनी ही जानकारी थी कि लड़के पढ़े-लिखे हैं। कैसा चरित्र है, कैसा स्वभाव है, क्या-क्या गुण हैं - इसके बारे में किसी को भी कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अगले दिन को ही वीरेन् के विवाह का दिन निश्चित कर दिया गया था।

धनवान राजेंद्र सिंह कविराज अपनी बेटियों के लिए योग्य वर मिल जाने से मन-ही-मन बहुत आनंदित हुआ और बहुत सारे रुपए खर्च करके विवाह की तैयारियाँ शुरू की गईं। अच्छी तरह मंडप बनवाया गया। बेटियों को दहेज में देने के लिए बहुत-सारा सामान खरीद कर इकट्ठा किया गया। बड़े-बड़े अधिकारियों, रिश्तेदारों, परिचितों और मोहल्लेवालों के यहाँ निमन्त्रण पहुँचाए गए।

क्या वीरेन् और धीरेन् ने खुशी-खुशी विवाह की स्वीकृति दे दी थी! धीरेन् ने यह सुनकर कि माधवी बहुत दिन पहले ही घर छोड़कर चली गई है और यह सोचकर कि उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ होगा, विवाह की स्वीकृति दी थी।

कल विवाह का दिन है। वीरेन् क्या सोच रहा था? विवाह के लिए उसका मन तैयार था? उसने कभी उरीरै की याद नहीं की? ऐसी बात नहीं कि याद न की हो - किंतु शशि से उसके विवाह की चिट्ठी मिलने के बाद मन में उरीरै के प्रति इतना तिरस्कार जागा कि उसके बारे में पूछा तक नहीं, और क्रोध के मारे अपने लिए जेल चले गए प्रिय मित्र शशि के बारे में भी कुछ नहीं पूछा।

लोगों का कहना था कि वीरेन् बचपन से ही होनहार लड़का था, इसलिए विवाह के बारे में वह हाँ भी नहीं बोला, ना भी नहीं बोला, बस चुप ही रहा।

भारत के बड़े-बड़े प्रसिद्ध लोगों का जीवन-चरित पढ़ा जाए, तो पता चलता है कि उनमें से अधिकांश बचपन में बहुत उद्यमी थे। बचपन में 'सदाचारी है', 'आज्ञाकारी है' ऐसी प्रशंसा का पात्र लड़का बड़ा होने पर अपने सदाचारी और आज्ञाकारी होने का यश बचाए रखने की इच्छा से कोई भी कार्य स्वेच्छापूर्वक नहीं कर सकता, यानी किसी भी कार्य में अपने पुरुषार्थ का प्रयोग नहीं कर सकता। 'आज्ञाकारी है', 'होनहार है', 'कई परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं', 'कई प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए हैं' - ऐसा कहना नौकरी पाने के लिए तो बहुत अच्छा है, क्योंकि उसे किसी के अधीन काम करना है, लेकिन ऐसा व्यक्ति समाज के लिए उतना लाभदायक नहीं होता, क्योंकि भविष्य में समाज का भला करने वाला, किंतु तत्काल लोगों की दृष्टि में अनुचित प्रतीत होनेवाला कोई भी काम यश चाहने वाला व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। विधवा-विवाह का कार्य शुरू करते समय ईश्वरचंद्र को लोगों ने कितना बदनाम किया और कितना फटकारा! लेकिन ईश्वरचंद्र यश चाहनेवाले व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया था कि भविष्य में समाज का कुछ भला होता है तो वह जीवन-भर कष्ट सहेंगे! अपयश न चाहनेवाले लोगों के मन का सुविचार अंदर ही मर जाता है, बदनामी के डर से जीवन के कर्तव्य का नवांकुर अंदर ही सूखकर नष्ट हो जाता है - लोगों की बात मानकर चलने से वह कपड़े की गुड़िया बन जाता है, अवातील् (अवातील् : (PUPAE) अंडे से तितली तक के विकास के बीच का एक स्तर, जिसका सिर मनुष्य अपने हाथ के इशारे से घुमा सकता है। इस सन्दर्भ में इसका अर्थ है, 'किसी के हाथों में नाचना' या 'कठपुतली बनना') की तरह लोगों की इच्छानुसार अपनी गर्दन मोड़ता है। वीरेन् 'आज्ञाकारी' उपाधि प्राप्त लड़का था, अच्छी हो या बुरी, हर बात पर हामी भरता था, लेकिन एम.ए. की परीक्षा के बाद उसके स्वभाव में बदलाव आ गया - बड़े-बड़े लोगों के जीवन-चरित पढ़ने और आलोचना के ज्ञान से उसमें साहस आ गया, सही काम करने में संकोच का भाव चला गया, किसी की चापलूसी का प्रभाव पड़ना बंद हो गया, लोगों के उपहास पर लज्जा की परवाह नहीं रही और अच्छे कार्य के लिए प्राण तक न्योछावर करने का निश्चय करने लगा।

राजकुमार वीरेन् की ओर से किसी विरोध के बिना ही विवाह की स्वीकृति दिए जाने की बात सुनकर शशि के एक मित्र ने वीरेन् को एक निर्जन स्थान पर बुलाकर कहा, “राजकुमार! अंग्रेजी शिक्षा के चलते मित्र के प्रति कृतज्ञता, प्रेम, दुख-सब कुछ भुला बैठे हो! तुम्हारे लिए शशि का बंदीगृह पहुँचना, तुम्हारा विरह सहन न कर सकने के कारण उरीरै का कहीं खो जाना - इस सबके बारे में तुमने कुछ भी नहीं सोचा।” वीरेन् ने आश्चर्यचकित होकर उसके पीछे घटी सारी घटनाओं का विवरण विस्तार से कहलावाया और सुना। उस व्यक्ति ने यह भी बताया कि वीरेन् के पास भेजी गई चिट्ठी भुवन की एक साजिश थी और वह चाल थी, ताकि लज्जा के कारण वीरेन् स्वदेश न लौट जाए। इतना ही नहीं, उस मित्र से यह भी सुना कि भुवन वीरेन् को एक बेहद शर्मिन्दगीपूर्ण कार्य में फँसाने जा रहा है। उरीरै का निश्चित अता-पता न जान सकने से वीरेन् के मन को बेहद दुख पहुँचा। वह वहाँ बैठा नहीं रह सका, अकेला कहीं चला गया।