माधवी / भाग 3 / खंड 7 / लमाबम कमल सिंह

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वन में उरीरै

कोचिन् काँची का एक घना वन था। इस वन में उरीरै वन देवी बनकर गोपनीय रूप से रह गयी थी। कभी-कभी शिकारी द्वारा पीछा करनेवाली हिरणी की भाँति घबराती हुई पीछे मुड़-मुड़कर देखती, तो कभी विरहाग्नि का ताप सहन न कर सकने के कारण धरती पर लोट-पोट होकर रोती, कभी जाल से छूटकर उड़ आए तोते की तरह हाँफती, कभी पर्वतीय ताम्ना जैसी अकेली पेड़-पौधों के नीचे, रास-मंडल के समीप, लैरेन्-चम्पा के पेड़ के नीचे बैठकर धीमे स्वर में गाती -

जलती दावाग्नि दूर पर्वत पर बुझ जाएगी अपने आप! अधिक गहरी होते ही रात्रि गिरने से आकाश से ओस। अग्नि जलती है अंतर में भड़कने लगती अधिक और! रात्रि होते ही कुछ अधिक गहरी बरसने से आकाश से ओस विशाल रास-मंडल की पोखरी में निर्मल न होते हुए भी पहले की भाँति आती रहीं ङानुथङ्गोङ् दाना चुगने। शाम की बेला आई मानकर प्रेम की विरहाग्नि से सूख चुकी मेरे मन की इस पोखरी पर उड़ आएगी क्या ङानु-थङ्गोङ् चुगने के लिए दाना पुनः ? विरहाग्नि से सूखने जा रहे मेरे इस मन-उद्यान में विकसित होगा क्या नव-किसलय, वसन्त के आगमन पर ? आंखों में देखने की लालसा मात्र देख नहीं सकती सुख-कमल। प्रतीक्षातुर हैं, कान आता नहीं प्रियतम का संदेश!

थोड़ी देर तक गीत गाते रहने के बाद उरीरै लेरेन-चम्पा के पेड़ के नीचे चली आई और बोली, “हे लैरेन-चम्पा! तुम ऊँचे हो, क्या तुमने मेरे प्रियतम को देखा है? तुम भी मेरी तरह अभागे हो; जैसे मैं लोगों का अत्याचार न सह सकने के कारण इस वन में भाग आई हूँ, वैसे ही तुम भी लोगों द्वारा डालियाँ तोड़ दिए जाने के डर से पर्वत के समीप इस निर्जन में आकर खिलते हो। तुम छिपने की कितनी भी कोशिश करो, कैसे बच पाओगे, रूप ही तुम्हारा जाल है, सुगंध तुम्हारी शत्रु है। पवन भी तुम्हारा शत्रु है। मेरा सन्देश मेरे प्रियतम तक पहुँचाने की बात ध्यान से कोई नहीं सुनता, किन्तु छिपकर-छिपकर रहने वाली तुम्हारी सुगन्ध ले जाकर हर व्यक्ति को तुम्हारा पता बता देता है। सुगन्ध को चाहने वाले, लेकिन मन की प्रेम भरी बातों के महत्व को न पहचानने वाले काँची के युवक यहाँ आकर तुम्हारी डालियाँ तोड़ डालेंगे, वे तुम्हारी कलियाँ भी तोड देंगे।”

उसके बाद रास-मंडल के किनारे तक आई, रोते-रोते बोली, “हे रास-मंडल! एक समय तुम कितने निर्मल थे, किन्तु अब इतने मैले क्यों हो? काँची की देवी के दुख-दर्द को देखकर तुमने भी क्या दुख-सूचक वस्त्र धारण कर लिए हैं? मेरे अन्तर में जलती अग्नि के इस ताप को अपने शीतल जल से एक बार तो शान्त करो!” यह कहकर अपने तन पर अंजलि भर-भर जल छिड़कने लगी।

उसी समय उसने मार्ग के किनारे निमन्त्रण-पत्र लेकर जानेवाला एक लड़का देखा। उस लड़के को बुलाकर कहा “ओ पथिक भैया! थके-माँदे काँची की ओर मुँह करके क्या सोच रहे हो? आओ, तनिक काँची का प्राकृतिक सौन्दर्य तो देखो, यह सोचकर मन में न घबराना कि एक समय का राजमहल अब घने जंगल में बदल गया है। एक बार आकर देखो, पता चलेगा कि निर्जन में ही शान्ति का वास है। पहले रास-मंडल के निर्मल जल में कटहल, आम और हैजाङ् (हैजाङ् : स्थानीय फल विशेष या उसका काँटेदार वृक्ष।) के वृक्षों से भरे पर्वत का प्रतिबिम्ब देखो, फिर आगे जाकर घने पत्तोंवाले आम के वृक्ष के नीचे बैठो हरे-भरे तृणों पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम करो। रास-मंडल के शीतल जल की बूँदों से भीगा, काँची के श्रेष्ठ चम्पा से मिलकर दक्षिण दिशा से आया सुगन्धवाही पवन तुम्हारी तपन को मिटा देगा। घने पत्तों के बीच बैठकर बोलने वाले पक्षी का मधुर स्वर सुनकर तुम्हारा सारा कष्ट दूर हो जाएगा। पोखरी में भ्रमरों के आघात से बिखरी कमल की पँखुडियों से अपनी दृष्टि नहीं हटा सकोगे, यह सब देखकर मान लेना कि यह वही पहले वाला काँचीपुर ही है।”

इतनी सारी बातें करने के बाद उसने लड़के से पूछा, “भैया, तुम कहाँ जा रहे हो? काँची का कोई नया समाचार लाए हो? लड़के ने उत्तर दिया, “परदेश में शिक्षा प्राप्त करके हाल ही में लौटे राजकुमार वीरेन् के साथ कल राजेन् कविराज की पुत्री का विवाह होगा, मैं उसी का निमन्त्रण बाँटने जा रहा हूँ। इसके सिवाय काँची का कोई खास समाचार नहीं सुना। उरीरै नाम की एक युवती को डाकू उठाकर ले गए, और उसकी चिन्ता में उसकी माँ भी मर गई। धनवान भुवन के बाप की भी एक पागल व्यक्ति ने हत्या कर दी। बस, इतना ही है।” यह बताने के बाद, “देर हो गई है” कहते हुए वह लड़का तुरन्त चला गया, “उरीरै जड़ से उखाड़ दिए गए केले के पौधे की भाँति बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी।

उरीरै सहनशीलता में धरती के समान थी। बिना खाए-पिए रहना सहन कर सकती थी, खान-पान और वस्त्रादि का अभाव झेल सकती थी, किन्तु दो विषय ऐसे हैं, जिन्हें वह सहन नहीं कर सकती - पहला, कुटिया में रहने वाली अकेली माँ की मौत की खबर, और दूसरा, वीरेन् द्वारा उसे छोड़ किसी और के साथ विवाह का समाचार। यही दो समाचार एक साथ सुनने से वह एकदम मूर्छित हो गई, जैसे उसके सिर पर वज्रपात हो गया हो।

थोड़ी देर तक मूर्छित रहने के बाद चेतना लौटने पर वह उठने लगी। दुख, शंका, मन की पीड़ा, चिन्ता, ईर्ष्या आदि के एकत्र होने से उसका हृदय अन्दर ही अन्दर जलने लगा। इतने बड़े संसार में उसे पल-भर के लिए चैन से रहने की जगह नहीं मिली। वह सोचने लगी कि बालू-कण से लेकर संसार की समस्त वस्तुओं, जीव-जन्तुओं तक में कोई भी उसका हितू नहीं रहा। उसने सोचा, “पुरुष जात! कितनी निष्ठुर होती है। इतने दिनों तक उसके चरणों का ही स्मरण करके जीती आई हूँ, खान-पान सोना त्याग चुकी हूँ, दिन-रात, हर पल उसके चेहरे का स्मरण ही मेरी शक्ति बना रहा। इसी प्रतीक्षा में हूँ कि कब मैं उसका मुख कमल देख पाऊँगी किन्तु वही मुझे छोड़कर किसी और लड़की को ब्याहने का निश्चय कर चुका है। उसकी विरहाग्नि सहन करने के लिए माँ तक को छोड़ आई, मेरे बिछोह के कारण माँ भी प्राण त्याग चुकी है।

जब तक आशा जीवित है, तब तक मनुष्य अकेला कभी नहीं मर सकता। अगर आशा नहीं रहती तो अकेला मरने में कोई बाधा नहीं होती। पहले उरीरै आशा के सहारे जी सकती थी, अब उसकी आशा केवल कोंपल-सी ही नहीं टूटी, जड़ से उखड़ गई, इसलिए उरीरै मरने को सोचने लगी, “अपने माँ-बाप से बिछुड़ी, अपने मन-देवता की करुणा से वंचित अपने इस पापी शरीर को ढोकर इस संसार में जीने से क्या फायदा। हे रास-मंडल! तुम्हारे शीतल गर्भ में कूदकर अपने जलते हृदय का यह ताप शांत करुँगी। यह कहते हुए वह रास-मंडल में उतरने लगी। बीचोंबीच की गहराई तक उतरकर अपने को गर्दन तक जल में डुबो दिया और उसका मुख-कमल वहाँ खिले कमलों में मिल गया। “इस जन्म में उनके चरण नहीं पा सकी, अगले जन्म में पाने का वरदान दो" कहकर आँखें बन्द करके सूर्य देवता की स्तुति करने लगी।

पाठक! बहुत दिनों से दुख-सागर में डूबी उरीरै का एक बार स्मरण कीजिए। राह चलते समय लोग आपस में बात करते हैं कि अमुक पुस्तक में या अमुक कथा में बहुत ही खूबसूरत, बहुत कुशल, अति शिक्षित या सम्पन्न लड़कियों के बारे में पढ़ने या सुनने को मिलता है। सुन्दरी होते हुए भी वह वस्त्राभूषणों के अभाव में चराङ् (चराङ् : जल में उगनेवाली घास की प्रजाति का एक बेलदार पौधा) के बीच उगनेवाली कमलिनी-जैसी थी, रंग-रुप ठीक होते हुए भी खाने-पीने के अभाव में अत्याधिक दुबली-पतली थी, चन्द्रमा-सा सुन्दर चेहरा होते हुए भी दुख-ताप की श्यामलता से पीड़ित थी। पीछे मुड़कर देखें तो उसका अपना कोई नहीं था, भाई नहीं थे, माता-पिता हैं भी, तो उनके ठौर-ठिकाने की जानकारी नहीं। आँखों से आँसू बहाना ही उसके जीवन में विश्राम का प्रतीक बन चुका था। इसलिए आप सोच सकते हैं कि हमारी उरीरै की कथा पढ़ने से क्या लाभ मिलेगा। किन्तु इस संसार की सभी लड़कियाँ शकुन्तला की भाँति सुन्दर नहीं होती, सावित्री की भाँति बड़े राजाओं की सन्तान नहीं, विक्टोरिया की तरह आजन्म खुशहाल नहीं; यह संसार दीन-दुखियों से भरा है। हमारी उरीरै अभागिन है। समूहों में उड़नेवाले पक्षियों से बिछुड़ गई धनेश जैसी, हवा द्वारा पेड़ से छिटका दी गई बेल जैसी, पहाड़ के भीतरी स्थलों पर अकेली चहचहानेवाली ताम्ना जैसी, घने जंगल में अकेली खिलनेवाली केतकी जैसी, बिना तने और डालियों के ग्रीष्म की धूप सहनेवाले और वर्षा में भीगनेवाले लैपाक्लै जैसी है। वह गुणों से रहित नहीं है, वृक्ष की भाँति क्षमामयी है, धरती के समान सहनशील है, नदी की भाँति अविभक्त स्वभाववाली है। नारी जाति के हमारे आकांक्षित गुण भी केवल यही हैं।