मालवगढ़ की मालविका / आत्मकथ्य / संतोष श्रीवास्तव

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और कलम थरथरा उठी।

देवराला से रूपकुँवर आई और मेरे कानों में फुसफुसाई - “मुझ ढकेल-ढकेल कर पति की चिता के साथ जिंदा जलाई गई को अपनी कहानी में जीवित नहीं करोगी?” मेरी कलम काँप गई- “नहीं रूपकुँवर... मैं औरत की पराजय नहीं लिख पाती। “वह ढीठ-सी जमकर मेरे सामने बैठ गई। ...उस वक्त रेडियो में से एक दर्दीले गीत की आवाज कमरे को मुखर कर रही थी, पर गीत वही तो नहीं होता जो कानों को सुनाई दे? वह शरीर के रोम-रोम से भी तो सुना जा सकता है... लहू, मांस, ज्वालाएँ और फिर राख हुई जिंदगी का गीत। अब रूपकुँवर मुस्कुराई... ‘एकदम सही नब्ज पकड़ी तुमने... ‘कहा और चली गई... और मेरी कलम थरथराने लगी। हेमंत ने उठकर रेडियो बंद कर दिया और कमरे के सन्नाटे में पैबिस्त होने लगी थी मालविका की गाथा... इतिहास की एक सनसनीखेज घटना... अंग्रेजों का समय, चिता पर आसीन एक युवा औरत और ढोल,नगाड़े, ताशे का समवेत स्वर कि अचानक घोड़े पर सवार एक युवा अंग्रेज आया और उसने चिता से उस औरत को उठा लिया और हवा में गोलियाँ दागता चला गया। बाख गई वह जिंदा जलाई जाने से... हेमंत दम साधे इस सच्ची घटना को सुन रहा था। कई सवाल उसके जेहन में उठे... मेरा कवि हृदय पुत्र हेमंत! उन सवालों के जवाब मुझसे चाहता था और मैं अपने तमाम लफ्जों,अर्थों, गहराई से अध्ययन करके बटोरी गई तमाम सच्ची घटनाओं, वास्तविकताओं को समेट जुट गई उपन्यास लिखने में... उपन्यास समाप्ति की ओर था... और हेमंत की बेचैनी हर चैप्टर को शिद्दत से पढ़ लेने की थी पर...

एक झरा पत्ता

फिर एक दूसरा झरा

फिर एक... हाय!

हेमंत सदा के लिए चला गया... असीम में समा गया... मात्र तेईस साल मेरा साथ देकर... अब इस उपन्यास की पूर्णता पर मैं चकित हूँ... कहीं यह तुम्हारी प्रेरणा तो नहीं हेमंत! जो कट-कट कर टुकड़ा रह गई मुझसे लिखवा गई इसे?

- संतोष श्रीवास्तव