मालवगढ़ की मालविका / भाग - 1 / संतोष श्रीवास्तव
मैं मारिया के इस तर्क पर चकित थी। यह साधारण-सी, साँवली-सी, अनाकर्षक चेहरे वाली आदिवासी महिला इस कदर असाधारण। यह महिला बड़ी दादी की पीड़ाओं से पीड़ित है जबकि उनकी तीनों लड़कियाँ - मेरी बुआएँ उनके पास फटकती तक नहीं। तीनों बुआओं ने अपनी माँ को पलंग के दायरे में कैद मान लिया है। रजनी बुआ को गहरी नींद सता रही है, जबकि मारिया की आँखें झपक भी नहीं रही हैं।
“सो जाओ पायल बाई... अब मैं थोड़ी देर प्रेयर करूँगी... प्रेयर में बड़ी शक्ति होती है। वह हममें आत्मविश्वास भी जगाती है। मेरे बापू ने मुझे पढ़ाया, नर्स बनाया और माँ ने प्रेयर करना सिखाया। प्रेयर करते-करते मेरी माँ बड़ी शांति से मरी। सारा गाँव उनकी मौत पर नतमस्तक था... सोते-सोते रात के किसी प्रहर में ही अंतिम साँस ली उसने। न वह बीमार थी, न उसे साँप-बिच्छू ने ही काटा था। उसे तो देवदूत उठाकर ले गए।”
“और तुम्हारे बापू?”
“बापू उसी झोपड़ी में रहते हैं। मैं उन्हें पैसे भेजती हूँ... अब तो वे मिशनरी अस्पताल के रोगियों के सिरहाने बैठकर उन्हें थपकियाँ देकर सुलाते हैं। बापू की उँगलियों में जादू है, मिनटों में नींद आ जाती है।”
मारिया के बापू की उँगलियाँ मानो तानपुरा हों... हलका-हलका नशीला संगीत गुँजाती जिनकी तरन्नुम में अपने रोगों से जूझता असहाय प्राणी सपनों की बाँहों में खो-सा जाता होगा।
सुबह जब मैं बाथरूम की ओर जा रही थी और बाबा के टहलने जाने से दादी का कमरा भी अँगड़ाई ले रहा था तो मैंने देखा मारिया बड़ी दादी के पायताने करवट लिए सो रही है और बड़े बाबा कमरे के सामने गलियारे में तखत पर लेटे खिड़की की ओर टकटकी बाँधे हैं। पन्ना ने मेरे नहाने के पानी में गुलाबजल डालकर गुलाब की पंखुड़ियाँ भी तैरा दी थीं। मुझे वे पंखुड़ियाँ नहाते हुए खूब चुभीं, मारिया के आगे अपना ऐश्वर्य उपहासजनक प्रतीत हुआ।
होश सम्हालते ही अगर किसी व्यक्ति को मैंने खामोश, विरक्त और गुमसुम देखा है तो वे बड़े बाबा थे। वैसे भी वे अपना बड़प्पन नहीं निभा पाए... सब कुछ बाबा ने ही सम्हाला... जमीन, जायदाद... खेत-खलिहान... खानदान... सब कुछ बाबा और दादी के जिम्मे था। बड़े बाबा के स्वभाव का सीधापन और बड़ी दादी की बीमारी दोनों ने उन्हें दीमक-सा चाट लिया था। वे गलियारे में तखत पर अक्सर रात बिताते या फिर अपने स्टडी रूम में मोटी किताबों में उलझे रहते और लगातार कुछ लिखते रहते। वे लिखते... बड़ी दादी छीजतीं... वे जिंदगी को थामने की कोशिश में लगे रहते और बड़ी दादी के हाथ से जिंदगी फिसलती जाती। ज्यों मुट्ठी में दबी रेत आहिस्ता-आहिस्ता फिसलती रहती है, फिर मुट्ठी खाली हो जाती है। बड़ी दादी खाली मुट्ठी से घबराती थीं इसीलिए मारिया पर झल्लाती रहतीं। लेकिन उनकी झल्लाहट मारिया की तड़प को कई गुना बढ़ा देती है यह बड़ी दादी क्यों नहीं समझ पातीं।
एक दिन बड़े बाबा से मिलने कोई साधू आया। लंबी दाढ़ी, सिर पर जटाएँ, गले में रुद्राक्ष की माला और माथे पर त्रिपुंड... उनके आते ही बड़े बाबा ने कमरा बंद कर लिया और घंटों नहीं खोला लेकिन उनके कमरे की खिड़की से निकलता चिलम का धुआँ दादी को बेचैन करता रहा।
“इस घर में साधू फकीरों का क्या काम?”
“मालकिन... आप तो खाने का परोसा सोचो। पूड़ी आलू की सब्जी और हलवा मँगवाया है सूजी का बड़े मालिक ने।”
महाराजिन ने दादी को बताया और पल्लू में मुँह छुपाकर हँसी। अब साधू फकीर का मन हलवा-पूड़ी खाने को हो तो हम गिरस्ती वालों का क्या हाल हो?
लेकिन दादी सोच में पड़ गई... कहीं जेठ जी संन्यास तो नहीं ले रहे... भले ही घर के चार कामों में हाथ नहीं बँटाते लेकिन उनकी मौजूदगी का साया ही काफी है घर के लिए। कम-से-कम बड़ों की मौजूदगी तो बनी है। और जब दादी ने बाबा से यह कहा तो बाबा ठहाका लगाने लगे - “तुम भी महारानी कबूतरी-सी सहम जाती हो बात-बात पर... अरे भाभीसा के बीमार रहने पर भाईसा विरक्त नहीं होंगे क्या? वो तो उस साधू की लँगोटी तक धोते हैं अपने हाथ से... हाँ, मैंने खुद देखा है।”
“कब? ये तो पहली बार आया है घर।”
“तो क्या हुआ? भाईसा जाते हैं उसके घर बिलानागा, कुएँ के पास ही तो कुटिया है इसकी। बनास नदी जाते हुए जो दाहिने हाथ पर कुआँ पड़ता है।”
दादी ने भी देखी है यह कुटिया कई बार नदी की ओर जाते हुए। कुटिया की गोबर लिपी दीवारों पर कचरी, फूट की बेलें छाई हैं और कुएँ के नजदीक ही एक धूनी भी जलती रहती है। कुएँ से पानी भरने के लिए आई हुई पनिहारिनें कभी सत्तू, कभी बाजरे की रोटी और गुड़ साधू के लिए लाती रहती हैं। बदले में वह उनके माथे पर भभूत लगाकर आशीर्वाद देता है। इलाके भर में प्रसिद्ध है कि उसके भभूत का आशीर्वाद फलित होता है। वैसे साधू है औघड़दानी... शंकरजी के लिंग के ऊपर रोटी रखकर खाता है, शराब पीता है और साथ-ही-साथ पास बैठे कुत्ते को भी खिलाता जाता है। ऐसे अघोरी का घर में आना दादी को नागवार लगता पर करें भी क्या। बड़े बाबा से कहने की हिम्मत ही नहीं, वैसे भी गृहस्थी में उनका दखल न के बराबर है। दादी ही एकमात्र वह व्यक्ति है जिन्होंने पूरी गृहस्थी ओढ़ रखी है। किसी का ब्याह हो, मुंडन हो, कनछेदन हो, नए घर में प्रवेश, भूमि पूजा हर नेग दस्तूर दादी को बिना भूल-चूक याद रहता। दादी मानो वो समंदर थीं जिसकी लहरें भाप बनकर बादल के रूप में आकाश में छा जातीं और फिर बरसकर सबको तृप्त करतीं। बुआओं की हर फरमाइश दादी से और दादी का सदाव्रत हमेशा खुला रहता।
तभी तो जिद कर बैठी थी मैं। अम्मा ने मुझेशमीज परनींबू रंग की सुंदर फ्रॉक पहनाई थी जिसके गले और बाँहों में शटल की लेस और मोती जड़े थे। हफ्ते भर बाद दादी, अम्मा, उषा बुआ, संध्या बुआ समेत खानदान के करीब पचास लोग सवा महीने की वृंदावन यात्रा पर जा रहे हैं। दादी के गुरुजी मथुरा से इस तीर्थ यात्रा का नेतृत्व करेंगे। कुल मिलाकर पाँच सौ यात्री तो होंगे। खूब मजा आएगा। “मैं भी चलूँगी दादी।”
“ऊब जाओगी पायल बिट्टो... सवा महीने कुछ कम नहीं होते। तपस्या है पूरी... उधर बच्चों का न सधेगा।”
“पर मैं जाऊँगी... तंग नहीं करूँगी दादी आपको।”
दादी नहीं मानीं। उनका तर्क सही था। तीर्थ यात्रा कष्टों से भरी होती है... मेरी वयस के बच्चे बाधक ही तो होंगे उनके... लेकिन कोई भी तर्क मानने को मैं तैयार न थी। बस, जाना है मुझे... रजनी बुआ न जाएँ, उषा बुआ और संध्या बुआ तो जा रही हैं। घर में बचेगा कौन... बड़ी दादी... मुझे नहीं रहना बड़ी दादी के साथ।
एकादशी के दिन यात्रा शुरू होने वाली थी। मेहमानों से प्रताप भवन खचाखच भरा था। पूरी तैयारी हो चुकी थी और मैं आसन पाटी लिए ऊपर की मंजिल में पड़ी थी। रात दादी आई... हाथ में मखानों की खीर से भरा चाँदी का कटोरा था - “ले, जीम ले जिदन और चल, सूटकेस में कपड़े रखवा ले अपनी अम्मा से।”
“क्याऽऽऽ” ...मैंखुशी से लगभग चीखती हुई सी दादी के गले से झूल गई और उनके गालों को चूम डाला - “अरी, मार थूक लिभड़ाये दे रही है। चल, चल, बहुत हो गया लाड़।”
और प्यार से मेरे मुँह में खीर की चम्मच रख दी - “ईश्वर परम कल्याणकारी है, तेरी यात्रा में उनकी मर्जी है तभी मुझे संकेत मिला।” कहकर उन्होंने श्रद्धा से अपने मुरली मनोहर को याद किया। मैं परम तृप्ति से खीर खाने लगी।
पता चला रजनी बुआ भी जा रही है। बाबा नहीं जाएँगे। पार्टी के बहुत जरूरी कार्यक्रम हैं। फिर उनका उद्देश्य भारत की आजादी है और वे तन-मन-धन से उसी में लगे हैं। रात्रि जागरण से उनकी आँखें सूजी थीं। दादी उनके सिर में तेल ठोंक रही थीं - “मैंने महाराजिन को सब समझा दिया है। देव बाबा की मड़िया बिला नागा खाना जाएगा। तुम चिंता नहीं करना और अपना खयाल रखना।” बाबा ने तरलाई युक्त आँखों से अपनी मालविका को देखा। तीर्थ यात्रा के तेज से उनका चेहरा दमक रहा था। बालों का जूड़ा बाँधा था फिर भी कुछ लटें माथे पर बिखर आई थीं।
“सवा महीने बाद लौटोगी, इस बार अमावस सवा महीने की पड़ रही है न।”
पहले तो दादी कुछ समझी नहीं और जब बात समझ में आई तो शरमा गईं। बाबा ने उनका चाँद-सा चेहरा हथेलियों में भर लिया था। प्रताप भवन के बुर्ज पर बैठे मयूर कूकने लगे थे।