मालवगढ़ की मालविका / भाग - 12 / संतोष श्रीवास्तव
"चित्त तो ठिकाने हो।" जसोदा नीचे फर्श पर बैठ गई.
"क्यों... क्या हुआ?"
जसोदा ने सिर इधर-उधर घुमाकर कमरे का जायजा लिया, फिर थोड़ी देर मेरे चेहरे पर उसकी निगाहें थमीं... न जाने कौन-सा राज बताने वाली है जसोदा, आशंका से मेरी धड़कनें बढ़ गईं।
"हुकुम, काट लो मेरी बोटी-बोटी जो एक शब्द भी झूठ बोलूँ। उपवास का दिन, मेरा तो चित्त ही ठिकाने नहीं आ रहा है। न प्यास सता रही है न भूख।"
"क्या हुआ, बोलती क्यों नहीं?" अम्मा ने परेशान होकर कहा तो जसोदा ने उनके पैर पकड़ लिए - "हुकुम, मैं आपकी चेरी... मेरा अपराध क्षमा... बड़ी ग़लत बात देखी... राधाकृष्ण मंदिर के रास्ते पर लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर संध्या बाईसा और एक अनजान लड़का दोनों खड़े थे। संध्या बाईसा का हाथ उनके हाथ में था। दोनों हँस रहे थे, बतिया रहे थे... मेरा तो खून जम गया हुकुम, दौड़ी चली आ रही हूँ इधर।"
मैं सन्न रह गई. तो जसोदा ने संध्या बुआ और अजय को साथ-साथ देख लिया। हे भगवान! अब क्या होगा? तभी मुझे हलचल-सी सुनाई दी। लगा, अम्मा के कमरे की बगीचे की ओर खुलती खिड़की के नीचे से कोई अभी-अभी गया है। खिड़की का परदा जरा-सा हटाकर मैंने देखा मारिया बड़ी दादी को बगीचे में धीरे-धीरे टहला रही है।
"अम्मा... बड़ी दादी।" मैं आतंक से सिहरकर अम्मा के पास दुबक गई. डर अम्मा पर भी छा गया। उत्तेजना में जसोदा थोड़ा ऊँचा ही बोल रही थी। अगर जसोदा की बात बड़ी दादी ने सुन ली होगी तो? प्रश्न के काँटे मेरे और अम्मा के बीच तेजी से उग आए. न जाने ये काँटे किसे कब लहूलुहान कर दें? कब कहर बरस पड़े इस कोठी पर... शाप... साँप के रूप में बिल में घुसा जिंदा शाप... केवल इस कोठी की स्त्रियों को मिला शाप, सुख दूर छिटका पड़ा है जिनसे, बस जलना है... दुखों की भट्टी में सुलगना है... यही नियति है हमारी। लेकिन मुझे इस नियति से इनकार है। मैं इस भट्टी में से मशाल जलाऊँगी और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल पडूँगी। अंधकार से भरा मार्ग थोटीड़ा तो रोशन होगा। मशाल की लपट में परछाइयाँ तो थरथराएँगी... अपने होने का, अपनी मौजूदगी का एहसास कराती... फिर भले ही परछाईं मेरी अपनी हो...
"जसोदा, तूने कुछ नहीं देखा। समझी।"
"जी, हुकुम... भूल गई सब। कुएँ में झौंक डाला सब कुछ... लो, जीभ काट ली जो किसी से कहूँ तो।"
और जसोदा ने जीभ निकालकर दाँतों के बीच दबा ली।
बड़ी दादी ने तो अपने कानों से ही सब सुन लिया था। उन्होंने फौरन दादी को बुलाया और लगभग घंटे भर तक उनका कमरा बंद रहा। दादी जब कमरे से बाहर निकलीं तो उनके चेहरे पर सफेदी-सी पुती थी। चार बजे उषा बुआ के ससुराल वाले आ गए और हवेली सहमी-सहमी-सी अँगड़ाई लेने लगी। विशाल मेज पर चाँदी के बर्तनों से पकवानों की महक भूख जगाने लगी। लेकिन भूख न मुझे थी न अम्मा को। दादी अलबत्ता बहुत संयम से समधियाने का स्वागत कर रही थीं। ये फूफा-सा के वही मामा थे जिन्होंने द्वार पूजा के समय जब दादी ने दूल्हे का आरती उतारी था तो ठिठोली की थी। अलीगढ़ वाली मामी ने दूल्हे को काजल लगाकर जब शीशा दिखाया तो काजल की एक टिपकी गाल पर लगी देख इन्हीं मामा ने छेड़ा था - "लो, अपनी नजर से बचा रही हैं तुम्हें?"
आज भी वे ठिठोली के ही मूड में थे। दादी ने भी अपने पर जब्त कर रखा था... न संध्या बुआ को एक शब्द कहा, न बड़ी दादी को कुछ कहने दिया... न इस आफत को दूसरों पर प्रगट होने दिया।
रात ग्यारह-बारह बजे तक हँसी के ठहाके, चहल-पहल, गहमा-गहमी प्रताप भवन में चलती रही। बिदाई के समय दादी ने कपड़े लत्ते, मेवा मिश्री रुपए आदि देने की रस्म निभाकर पहले से तैयार जीप में उन्हें बिदा किया। बाबा गए छोड़ने, बड़े बाबा भी साथ गए और वीरेंद्र का जाना तो लाजिमी था ही। करीब दो बजे जीप लौटी. मैं जाग रही थी और बिस्तर पर करवटें बदल रही थी। एक भयानक विस्फोट की आशंका से मेरा दिल थर-थर काँप रहा था। परिस्थिति से अनभिज्ञ रजनी बुआ आराम से सो रही थीं। संध्या बुआ के कमरे की भी लाइट बुझी थी। ईश्वर ने मेरा दिल ही ऐसा बनाया है, घर का एक तिनका भी हिलता है तो विचलित मैं होती हूँ जबकि तय कर लिया है कि लीक से हटकर जीना है... उन बातों को मानना ही नहीं है जिन्हें मानकर इस कोठी की औरतों ने पीड़ाएँ झेली हैं... उन पीड़ाओं ने एक प्रतिध्वनि मुझमें जगा दी है जिससे मेरे अंतर के शब्द दिशाओं, दिशाओं के दसों कोणों में गूँजने लगे हैं। मैं लहर बनकर जलधारा में उन्मुक्त बहना चाहती हूँ... मैं पंख बनकर आसमान में उड़ना चाहती हूँ... मैं उपेक्षित झाड़ी में फूल बनकर खिलना चाहती हूँ... दुखों की गगरी में बूँद-बूँद समोए आँसूओं को मोती बना डालना चाहती हूँ। तभी तो बड़ी दादी बिस्तर पर पड़े-पड़े चीखती हैं - "जिदन है छोरी... औरत के शरीर में हिडिंबा राक्षसी का अवतार!"
हाँ, मैं हिडिंबा हूँ... भीम जैसे वज्र पुरुषों को झुका देने की ताब है मुझमें। यह बात दीगर है कि अपने लिए चुने वनवास में किसी भीम को कोई जगह नहीं देनी है मुझे।
सुबह संध्या बुआ की बड़ी दादी के दरबार में हाजिरी हुई -
"क्यों री, खानदान का नाम डुबोने को कुछ बाकी छोड़ा है तूने?"
बुआ अवाक - "माँऽऽऽ... क्या हुआ?"
बड़ी दादी की भट्टी में घी के छींटें पड़ गए - "अच्छा, तो अब ये भी बताना पड़ेगा कि क्या हुआ! देख छोरी, सीधी तरह बता वह लड़का कौन है, तेरा क्या लगता है जो तू गलबहियाँ डाले उसके साथ खुलेआम घूम रही थी।"
बुआ के काटो तो खून नहीं... किसने ये आग लगाईं? किसने उन्हें अजय के साथ देख लिया?
"अरी कुलबोरन... आज तक जो इस खानदान में नहीं हुआ वह तू करके दिखाना चाहती है। कुछ खयाल है अपने बाप दादों की इज्जत आबरू का?"
"बस भी करो माँ! मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो खानदान की इज्जत को बट्टा लगे।" संध्या बुआ ने दरवाजे की ओट में इकट्ठा हुई जसोदा, पन्ना, कंचन, महाराजिन को महसूस कर लिया था। बड़ी दादी बोलती हैं तो फिर इन सब बातों का खयाल कहाँ रखती हैं? ऊँची आवाज को काबू करना उनके बस में नहीं।
"तुम सब यहाँ क्या कर रही हो? जाओ अपना-अपना काम देखो।" दादी ने दरवाजा बंद करते हुए सबको वहाँ से हटा दिया। गलती से मैं अंदर रह गई. जिसके लिए तसल्ली को बस एक कोना बचा था जहाँ सबकी नजरों से बचाकर खुद को खड़ा किया जा सकता था वरना संध्या बुआ की छीछालेदर देखी नहीं जा रही थी। उनकी जुबान खुलनी थी कि दादी का लावा फूट पड़ा - "अजी सुनते हो, सब तुम्हारे सीधेपन का नतीजा है। देखो तो, गज भर की जबान है इस बदतमीज की। बड़े साधू बने बैठे हैं। जब औलाद पैदा करनी थी तो हरा-हरा सूझता था। मैं गौरी ब्याह करूँगा। लो, कर लो गौरी ब्याह... कुछ उषा का कर लिया... गौरी ब्याह... कुछ संध्या का कर लो। धींगड़ी हो रही है छोरी, इधर रजनी भी तैयार हो रही है। नाथ लो बैल की जोड़ी... धूनी रमाने से परिवार नहीं चलता।" बड़ी दादी की जबान रुके-रुके कि बड़े बाबा झपाटे से तखत से उतरकर कमरे में घुसे। मैंने देखा उनके माथे पर सफेद पड़ गई लकीरों में बड़ी दादी का नाम लिखा था चंद्रकांता। अचानक संध्या बुआ की नोटबुक के वे पृष्ठ याद आ गए जिस पर उन्होंने बड़ी दादी के आमंत्रण को बड़े बाबा द्वारा ठुकराए जाने पर उनके फुँफकारते व्यवहार का खुलासा किया था। बड़े बाबा के माथे पर उनके नाखूनों से बनाई लकीरें जिनकी पपड़ी उघड़कर संकेत दे रही थी कि वे एक ऐसे पुरुष हैं जो अपनी पत्नी चंद्रकांता को नहीं सम्हाल पाए और जो इस बात का ऐलान करती तलवार-सी उनके माथे पर लटकी है। वे तो अपनी लड़कियों तक को नहीं सम्हाल पाए. अब तैश दिखाने से क्या? कगार तो टूट चुके हैं।
बड़े बाबा ने संध्या बुआ की बाँह खींची और दूसरे कमरे में ले जाकर भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया। कुंडी, काँच झनझनाए और थप्पड़ घूँसों की आवाज माहौल को थर्राने लगी। सब सकते में आ गए. किसी को सूझ नहीं रहा था कि क्या करें? सब अपनी-अपनी जगह पत्थर बन गए थे। लेकिन इन पत्थरों में एक अहल्या भी थी जो इसलिए पत्थर बनने का शाप ढो रही थी क्योंकि उसका नाता प्रताप भवन से था। यह पत्थर मेरी दादी थीं... उनके तमाम वजूद पर प्रेम की कोमल मखमली काई उगी थी। अंदर का शापित पत्थर दीखता न था। बस ये काई मन मोहती थी। वे उठीं और जाकर बंद दरवाजे की साँकल खटखटाने लगीं। कई लम्हे दस्तक बनकर बिखरते रहे, गूँजते रहे और जब दरवाजा खुला तो दादी ने संध्या बुआ को कलेजे में समेट लिया, लेकिन आश्चर्य। जो इतना पिटकर भी नहीं रोई थीं उनके नयन अश्रुधार की बाढ़ से भर गए... भर गया उनके दिल का कोना-कोना और मेरे हाथ दुआ के लिए जुड़ गए.