मालवगढ़ की मालविका / भाग - 11 / संतोष श्रीवास्तव

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इसके बाद के पृष्ठ कोरे थे और वहीं चितकबरा पंख रखा था। मैंने आहिस्ता-से नोटबुक बंद की, उसे यथावत रखा और कमरे से बाहर निकलकर हॉल में आ गई. दादी और अम्मा सोफे पर बैठी क्रोशिया बुन रही थीं और पन्ना आरती की बत्तियाँ बना रही थी, रुई की फूलबत्तियाँ। तभी मारिया लौट आई. खून देने से उसका चेहरा कुम्हला गया था। कंचन उसके लिए बनाए खास भोजन को थाली में परोसने लगी।

"जसोदा, तुम भी खा लो, फिर सूरज अस्त हो जाएगा।" दादी ने दिन भर एकादशी का व्रत रखे जसोदा से कहा।

व्रत तो दादी और अम्मा ने भी रखा था पर उनका फलाहार का समय दूसरा था... शाम की आरती के बाद दादी बाबा और बाबूजी के खाने के बाद ही अम्मा के साथ जीमती थीं। सदा का नियम था उनका। वे एक अन्न खाती थीं। जसोदा अन्न को एकादशी के दिन हाथ भी नहीं लगाती थी। महराजिन ने जसोदा के लिए घी में भुने आलू और खूब गाढ़ा औटाया हुआ दूध तैयार किया था।

"दूध में काजू किशमिश भी डाल दो... जसोदा तो जान देने पर तुली है। मरेगी तो पाप हमारे सिर आएगा।"

अम्मा ने महाराजिन से कहा तो जसोदा हँस पड़ी - "नहीं मरूँगी हुकुम... आपकी ड्योढ़ी में जीवन मिलता है, मरूँगी क्यों?"

"चल-चल... अब खा ले जाकर... बहुत कसीदे काढ़ लिए तूने।"

अम्मा की मीठी झिड़की सुन जसोदा भी मारिया के पास बैठकर खाने लगी। अंतर इतना भर था कि मारिया ने खाने के टेबिल पर थाली रखी थी और जसोदा ने आसनी पर बैठकर पीढ़े पर थाली रखी थी। पीढ़े के आसपास आचमन किए जल का घेरा था, मानो एक लक्ष्मण रेखा... कि पारायण करते समय कोई उसे छुए न!

रात मारिया मेरे कमरे में आई. रजनी बुआ सो चुकी थीं और मैं बातिक की डिजाइन बुक से चादर में बातिक करने के लिए नमूना ढूँढ़ रही थी। इस बार मैं केवल काले और भूरे रंग का ही बातिक करूँगी। यह चादर अम्मा की शादी की सालगिरह तक बन जाना चाहिए, पूरा एक महीना है अभी।

"पायल बाई... आज सोने का इरादा नहीं है क्या?" मारिया ने पलंग पर बैठते हुए कहा।

"नींद तो तुम्हें भी नहीं आ रही मारिया।"

"कैसे आएगी नींद? दिल में धीरज नहीं कि इंतजार करूँ सेवा केंद्र बनने का। रोज जा-जाकर देखती हूँ... अभी तो नींव भरी है।"

मैं मारिया के चेहरे की चमक देख विस्मित हो गई. वहाँ केवल प्रेम की अलौकिक चमक के और कुछ न था। प्रेम से ही दया उपजती है, करुणा उपजती है। प्रेम शाश्वत है। धरती के कण-कण में समाया है। प्रेम न हो तो पतंगा शमा पर क्यों मंडराए जबकि जल जाना उसकी नियति है। जलती तो शमा भी है अपनी ही जगह पिघल-पिघलकर, लेकिन उसकी लौ को चूमने को आतुर पतंगे का प्रेम अलौकिक है...

"सेवा केंद्र बन जाएगा तो मैं और थॉमस साथ-साथ रहेंगे। देखो न पायल बाई... कितना अपना लगता है अब थॉमस। उसके त्याग ने मेरे दिल को मथ डाला है। हम दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करने लगे हैं... अपने भाग्य से, विचारों से, कार्यों की समानता से हम एक हैं। प्रेम की भावना अब जो मेरे सामने उभरकर आई है... उसका कोई दूसरा रूप हो ही नहीं सकता, हम दोनों ने बड़ी कठिन राह चुनी है... अंधकार में कूदने जैसी... बल्कि कूद ही पड़े हैं अंधकार में। न सुख पाने की चाह है, न घर बसाने की, न मौज करने की... बस साथ-साथ संघर्ष करना है, अंधकार से जूझना है... लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अगर मिट भी गए तो यह हमारा साझा समझौता है।"

मारिया की आँखों में विश्वास की पौ फट रही थी। मैंने इस विदुषी महिला के आगे अपना माथा झुका लिया। एक विलक्षण तेज से युक्त... त्याग और बलिदान की मूर्ति मारिया के चरणों को छू लेने की उद्दाम लालसा मैं कैसे रोक पाई, मैं ही जानती हूँ। एक ओर अपनी खुशियाँ बटोरती संध्या बुआ हैं... प्यार वे भी करती हैं... लेकिन उस प्यार में निजत्व है, व्यक्तिगत सुख की चाह है... जबकि मारिया का प्यार पूरे समाज को लेकर है। एक विशाल मिशन... सारे विश्व को एक कुटुंब मानकर कर्तव्य पालन की चाह... धन्य हो देवी तुम!

मैंने बातिक के लिए चादर पर मोम लगाना शुरू कर दी। अप्रैल का महीना था... हवाओं में चैत्र मास का तेवर था। होली के बाद से यूँ भी हवाएँ तेज चलने लगती हैं... वन, कंदरा, घास के मैदानसभी को ये हवाएँ पागल कर देती हैं... रेतीले मैदानों में ऊँचे-नीचे रेत के पठारों पर उँगली की पोर बराबर छेद हो जाते हैं और उनमें से हवाओं की बाँसुरी दूर-दूर तक अपनी तान छेड़ देती है। पन्ना ने रात खूब बड़े पानी के बर्तन में गुलाब की पंखुड़ियाँ भिगोकर गुलाब जल तैयार किया था जो लगभग प्रतिदिन का शगल था पहले। लेकिन उषा बुआ की शादी के बाद हफ्ते में दो-तीन दिन ही गुलाब जल तैयार होता। हाँ, उबटन लगाने की परंपरा रोज ही निभाई जाती। पन्ना जिद कर रही थी - "पायल बिटिया, उबटन लगवा लो... फिर डिजाइन बनाना।"

"तू पहले बुआओं को लगा आ... तब तक मेरा डिजाइन भी पूरा हो जाएगा।"

मैंने चादर पर झुके-झुके पन्ना की ओर देखे बिना कहा - "जरा-सी देर में तो मोम पपड़ा जाती है। अभी ही करना ज़रूरी है, नहीं तो दुबारा मोम पिघलाने की जहमत उठानी पड़ेगी।"

"नहा लीं वह दोनों तो... संध्या बाई-सा को कॉलेज जो जाना है... अगले महीने से इम्तहान शुरू हो रहे हैं।"

और पन्ना मेरे पाँवों में उबटन चुपड़ने लगी। फिर बाईं बाँह अपने घुटने पर टिकाकर उबटन लगाने लगी। उसकी कलाई की चूड़ियाँ एक लय में खनक रही थीं। पन्ना को मुझे उबटन लगाने, नहाते समय मेरी पीठ मलने, मेरी कंघी-चोटी करने में बहुत आनंद आता था। इस दौरान वह जमाने भर की बातें मुझे बताती। पूरी कोठी की खबर रखती थी वो... दिन भर डोलती रहती। हाथ में कच्ची कैरी और नमक की पुड़िया लिए कोठी का जर्रा-जर्रा खँगालती रहती।

"नया फानूस लगा है बड़े हॉल में... गलीचे, सोफे सब बदल दिए गए हैं। देखा नहीं तुमने पायल बिटिया इतना सुंदर शीशम का फर्नीचर आया है... कल दिन भर बंसीमल और कोदू उसी में जुटे रहे... रखने, सजाने में। आज शाम मेहमान आने वाले हैं उदैपुर से।"

"रुकेंगे क्या यहाँ?"

"इधर नहीं... उधर डाक बंगले में रुकेंगे... उधर भी खूब सजावट चल रही है। तुम तो अपने कमरे में बंद रहकर पढ़ती रहती हो दिन भर... कोई खोज-खबर ही नहीं रखतीं।"

"अच्छा, अब मैं नहाऊँगी... गुसलखाना तैयार है न।"

मुझे पता था कि इस बातूनी के रहते मेरा कुछ काम नहीं हो पाएगा। यूँ भी मेरी परीक्षाएँ निपट चुकी थीं और फुरसत के दिन थे। अम्मा के लिए बतौर उपहार चादर भी तैयार कर लेनी थी।

पन्ना ने घंटा भर मुझे तैयार करने में लगाया। गुलाब जल से स्नान, कंघी, चोटी, तेल फुलेल... छोटी-सी थी जब... अम्मा बाबूजी की इकलौती लाड़ली बिटिया तो दाइयों का हुजूम साथ लगा रहता था। कोई मालिश करती, कोई नहलाती, कोई बाल सँवारती लेकिन नाश्ता, खाना मैं अम्मा के हाथ से ही करती। फिर वीरेंद्र के जन्म के बाद काफी सारे काम मैं खुद करने लगी थी। हमेशा से मेरे पहनने के कपड़ों का चुनाव पन्ना ही करती थी।

संध्या बुआ बग्घी में बैठकर कॉलेज चली गई थीं और जसोदा भी जाने के लिए तैयार हो रही थी। आज फिर उसका व्रत था और उसे राधा कृष्ण के मंदिर पूजा करने जाना था।

"जसोदा तू सुबह ही मंदिर हो आया कर, फिर धूप चढ़ जाती है। इधर भी काम का समय हो जाता है... आज तो ज़्यादा ही काम है। शाम चार बजे ही मेहमान आ जाएँगे।"

अम्मा ने ताकीद की तो जसोदा ने पूजा की थाली में फूल रखते हुए तसल्ली दी - "बस हुकुम, गई और आई."

लेकिन जसोदा का मंदिर से लौटना विस्फोटक था। आते ही वह तीर की तरह अम्मा के कमरे में चली आई. मैं अम्मा के पास ही बैठी थी। अम्मा के चेहरे पर थकावट के चिह्न झलक आए थे। तीन-चार घंटों से जुटी थीं वे दादी के साथ तैयारी में। बाद में पता चला कि मेहमान उषा बुआ की ससुराल से आने वाले हैं... फूफा-सा के कोई दूर के मामा, मामी और उनके दो लड़के... इसीलिए स्वागत का विशेष इंतजाम है। नौकरों को तो दम मारने की फुरसत नहीं। अम्मा ने जसोदा को कमरे में आते देखा तो पहले शरबत पीने की हिदायत दी - "खश का शरबत पी ले जसोदा। आज तो काम में लगना ही पड़ेगा... सब जुटे हैं।"