मालवगढ़ की मालविका / भाग - 10 / संतोष श्रीवास्तव
मारिया तैयार होकर निकली तो संध्या बुआ की बग्घी भी तैयार पाई. वह भी हाथ में किताबें लिए कमरे से निकल रही थीं - "अस्पताल जाना है न! चलो छोड़े देते हैं।"
संध्या बुआ और मारिया को लेकर बग्घी सड़क पर दौड़ने लगी। कतारबद्ध आम, जामुन के पेड़, नीम की हरी भरी शाखाएँ उस दौड़ से सहमकर पल भर डोलकर स्थिर हो गईं। नीम की डाल पर अपनी लंबी पूँछ लटकाए मोर ने आम के पेड़ तक की उड़ान भरी। उसके खुले सतरंगी पंखों का रंग माहौल में होली के रंगों-सा बिखर गया। संध्या बुआ निश्चय ही अजय से मिलने गई हैं और वह उनकी नोटबुक... सधे कदमों का शगल... संध्या बुआ के कमरे में रैक पर सजी किताबों के बीच वह नोटबुक नहीं थी पर इस बार संध्या बुआ के हाथ से लिखी एक दूसरी मोरपिंच कलर की नोटबुक थी। अंदर के पृष्ठों में एक मुलायम चितकबरा पंख रखा था... उस पंख के निशान तक लिखा गया था। फिर वही धड़कते दिल और काँपते हाथों से हुआ कारनामा... दरवाजे की चिटकनी आहिस्ता से चढ़ाना और पलंग पर बैठकर जल्दी-जल्दी पढ़ना... ओह, यह सब मेरी आदत क्यों बनता जा रहा था? क्यों जानना चाहती थी मैं संध्या बुआ और अजय के संबंधों को... यह कैसी चाहत थी मेरी? पत्तों में छुपी दर्जी चिड़िया जैसी जो जिस डाल पर बैठी होती उसी की पत्तियों की तिनकों से सिलाई कर अपने लिए घोंसला बना लेती... उसे पता नहीं होता कि पत्तियाँ सूखकर पीली पड़ जाएँगी, डंठल कमजोर हो जाएगा और एक दिन उस पेड़ की नंगा झोली लेती पतझड़ी हवा उसे भी उड़ा ले जाएगी। संध्या बुआ ने लिखा है...
'तुम मेरे हो अजय और मैं वह नदी जो अनंत काल से सिर्फ तुम्हारे लिए बह रही है। मेरी निर्मल जलधारा ने तलहटी में पड़े हर गोल पत्थर को शिव बना दिया है। शिव ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। बेहद चरित्रवान, मात्र पार्वती को चाहने वाले। जब कामदेव ने अपने बाणों से उन्हें घायल किया तो पार्वती का सर्वांग प्रेममय बना दिया उन्होंने। इतना प्रेम! इतना अद्भुत प्रेम कि पार्वती शिवमय हो उठीं। इस प्रेम में वे तीनों लोक भूल गए... सुबह, शाम, रात... बस प्रेम, प्रेम का अखंड विशाल तत्व इस ब्रह्मांड में समा सकता है भला? छोटा है यह संसार प्रेम के लिए. मैंने कालिदास का कुमारसंभव पढ़ा है। ओह... पार्वती का समर्पण और शिव के द्वारा उस समर्पण को स्वीकार करना... अद्भुत वर्णन है... जब पार्वती के लिए कण-कण शिवमय था और शिव के लिए कण-कण पार्वतीमय। अजय, चाची की नौकरानी है जसोदा... कहती है, प्रेम करने वाला पति चाहिए तो शिव की उपासना करो। मेरी माँ कहती हैं... शिव-सा पति किस काम का? जटा-जूट धारी, श्मशान की राख मले शरीर पर... नाग लिपटे... मेरे बाबूजी ऐसे ही हो गए हैं। साधु। साधुओं की संगत उन्हें भाती है... वे घर में रहकर भी घर से पृथक हैं... उन्हें आसपास का कुछ औरता नहीं, कुछ सालता नहीं। मुझे डर लगता है अजय, तुम्हारे साथ अपने संबंधों को लेकर, संबंधों पर अपने बाबूजी की प्रतिक्रिया को लेकर। कल क्या होगा? क्या होगा जब घर में मेरी शादी की चर्चा चलेगी। उषा जीजी के बाद अब शादी का मुद्दा मेरी ओर मुड़ने ही वाला है। मैं आशंका से भयभीत हूँ। सब कुछ धुँधला-सा हो जाता है और आँखों के फोकस में तुम्हीं नजर आते हो, मेरे इतने करीब... तुम्हारी साँसों की छुअन और मेरे शरीर में भड़कता लावा... अजय, इस कगार तक निरापद तुम हो और बीच में टूटी किर्चों, काँटों और मुरम का चुभता फैलाव। क्या यह प्रेम की परीक्षा है? हाँ... मैं चल सकती हूँ इस दुर्गम मार्ग पर। क्या होगा? लहूलुहान होंगे न पैर। छाले और घावों से पट जाएँगे न तलवे! तो स्वीकार है मुझे, यह मार्ग स्वीकार है परंतु तुम्हारे बिना जीवन का एक लम्हा भी स्वीकार नहीं। तुम्हारी उदासीनता तो ज़रा भी नहीं स्वीकार है। जानते हो अजय, जो उदासीन होते हैं उन्हें चाहने वाले बिल्कुल टूट जाते हैं, जैसे मेरी माँ टूटी हैं... वर्षों से पलंग की चौखट में एक तस्वीर की तरह जड़ चुकी हैं वे। वे अच्छा होना नहीं चाहतीं और जो अच्छा होना नहीं चाहता... दवाइयाँ क्या असर करेंगी उस पर? उनके अंदर की मरती जीवन आकांक्षा की वजह हैं मेरे बाबूजी. मेरे बाबूजी ने क्यों की शादी जबकि उनके अंदर गृहस्थ धर्म निभाने की इच्छा न थी। वे देह रहते हुए भी विदेह रहे... न जाने कैसे हम तीनों बहनों ने जन्म लिया। वे माँ की इच्छाओं की पूर्ति न कर सके. मुझे याद है अजय। बता देने में कैसी शर्म? सच तो बेपर्दा होता है हमेशा। माँ का बुखार उतरा था... मारिया ने उनके बाल धोए थे और उनका हाथ पकड़कर उन्हें घुमाने बगीचे तक ले गई थी। वहाँ आरामकुर्सी में उन्हें बैठाकर मुझे जताकर वह अस्पताल चली गई थी उनके लिए दवा और इंजेक्शन लाने। पढ़ाई की धुन में मैं भूल ही गई कि उन्हें बगीचे से बिस्तर तक पहुँचाना है। रात की पदचाप को सुन... अँधेरे में टिमकते जुगनुओं को देखती जब मैं तो देखा माँ कुर्सी से उठकर बाबूजी के तखत पर बैठी उनके सीने पर झुकी जा रही हैं। प्रतिक्रिया में बाबूजी की निश्चलता ने उनमें उत्तेजना भर दी... शायद अभिसार के अपमान की उत्तेजना... वे ये भूल गईं कि वे बीमारी से जरा-सा ठीक हुई हैं... रात का अँधेरा है, प्रताप भवन में रात्रिकालीन सरगर्मियाँ हैं। इधर-उधर घूमते नौकर, चाकर, दास-दासियाँ हैं। चाचा के अंग्रेज दोस्तों के आने का वक्त है और नौकरों को भी अपने-अपने काम पूरे करने की जल्दी पड़ी है। हालाँकि बाबूजी के तखत के पास, कमरे, बरामदे और बरामदे से लगी बोगनबेलिया की झाड़ी में अक्सर सन्नाटा रहता था। माँ ने बाबूजी के कुरते में नाखून गड़ा दिए... कुरता जगह-जगह से फटने लगा। माँ ने उनके होंठ कचकचाकर काट डाले। बालों को मुट्ठियों में भर लिया। बाबूजी डर गए'क्या हो गया है तुम्हें... छोड़ो मुझे।'
सहसा माँ फुँफकारती हँसी हँसी - "डायन बन गई हूँ, जिंदा गाड़ दिया है न तुमने मुझे, इसीलिए डायन बन गई हूँ।" और वे बाबूजी की धोती भी खोलने की कोशिश करने लगीं। अब सब कुछ बरदाश्त से परे था। जमींदार घराने की बड़ी बहू और ऐसा बर्ताव! उन्होंने माँ को जोरदार धक्का दिया... सँभलते-सँभलते माँ ने अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उनके माथे पर खरोंचे डाल दीं... वे एक हाथ से उनका सिर पकड़े थीं और दूसरे हाथ से नाखूनों से उनके माथे पर जाने क्या कर रही थीं। कुछ क्षणों के लिए बाबूजी भी अवाक हो गए. फिर बाँहों से पकड़कर उन्हें घसीटते हुए पलंग तक लाए, पटककर बाहर से साँकल चढ़ा ली... मैं अपनी जगह खड़ी थरथर काँपने लगी, रुलाई मेरे अंदर समा नहीं रही थी। कुमारसंभव पढ़कर माँ के आवाहन और बाबूजी की उदासीनता ने मुझे आलोड़ित कर दिया था। प्रेम वीतराग बन गया था। झाड़ियों में उलझी अपनी ओढ़नी धीरे से छुड़ाकर मैं अपने कमरे में लौट आई. जब तक मारिया लौटी... माँ को तेज बुखार चढ़ गया था और बाबूजी साधु की कुटिया की ओर पैदल निकल गए थे। उनके माथे पर माँ के नाखूनों का घाव झिलमिला रहा था। अजय, समझ में नहीं आता कि उन दोनों के संबंधों में अलगाव क्यों है? कभी मैं दोनों को एक-दूसरे का दोषी पाती हूँ, कभी केवल माँ को जिनके जिद्दी स्वभाव और अहंकार ने बाबूजी को विरक्त कर दिया, कभी बाबूजी को, उनकी विरक्ति ने माँ को जिद्दी बना दिया, बीमार बना दिया, हम बहनों के जन्म होते गए और माँ छीजती रहीं... हर बार पहले से कहीं ज्यादा। हर बार बेटा न होने की वजह से वे प्रताड़ित होती रहीं मेरी दादी से, कुनबे की बुजुर्ग महिलाओं से। पुरुष उतना हस्तक्षेप नहीं करते जितनी चिल्लपों महिलाएँ करतीं। कुल मिलाकर सभी बातों ने हमें तटस्थ कर दिया... खासकर मुझे... मैंने अपने आपको सीप में बंद मोती-सा समेट लिया। यह हवेली मुझे संतप्त किए रहती है, बस सुख मिलता है तो तुमसे मिलकर। कई-कई दिन गुजर जाते हैं मैं माँ के कमरे में नहीं जाती, बाबूजी से सामना नहीं होता। सुबह से शाम तक चहल-पहल में डूबी यह हवेली मुझे हर लम्हा वीरान लगती है। जानती हूँ तुम्हें पाना बड़ा दूभर प्रयास है पर अब एकमात्र वही उद्देश्य रह गया है मेरा... तुम न मिले अजय तो मैं सांभर झील में जाऊँगी। नमक के पानी में गल-गलकर मर जाऊँगी... जैसे जोंक पिघलती है... नमक पड़ने से। अजय तुमने कहा था... हम मिलकर ईश्वर के बनाए भाग्य को चुनौती दे सकते हैं। चुनौती मार्ग खोलती है, मंजिल करीब आती है लेकिन मैं मार्ग में पड़े उन पैरों के निशानों का क्या करूँ जो लौट-लौटकर मुझे मेरे अतीत तक ले जाते हैं... वहाँ तो चुनौती नहीं, वहाँ तो मंजिल नहीं... एक गोधूलि बेला है जहाँ न रात समझ में आती है न सवेरा। जहाँ बने उसूलों, नियमों को अपने जीवन की जीत समझ कुँवारा मन अपने पंजे आगे बढ़ा देता है उसे पाने को... जैसे उषा जीजी ने पा लिया। लेकिन मायके की पहली ही विदाई में इस जीत की हकीकत खुलने लगी। जीजा-सा मातृभक्त हैं। माता की आज्ञा के बिना वे हिलते नहीं। उषा जीजी केवल पूरक हैं... विवाह बंधन की पूरक। उन्होंने मुझे बताया कि -
"संध्या... पहली ही बार में अपना कठपुतली होना तय पा लिया मैंने... यहाँ तक कि आधी रात के समय जब सासूजी सो जाती हैं तभी वे कमरे में प्रवेश करते हैं और आते ही पूछते हैं -"तुम जाग रही हो अब तक? "
सर्वांग कुढ़ जाता है संध्या... क्या मैं अपने मायके के लिए बोझ थी जो इस कैदखाने में लाकर पटक दिया मुझे। ससुराल के राजसी ठाठ मुझे आखिर क्यों रोमांचित करेंगे जबकि मेरा जन्म ही एक समृद्ध आलीशान घराने में हुआ है। मुझे सालता है तो उनका अपने से अलगाव... वे या तो व्यापार के कार्यों मंल व्यस्त रहते हैं या सासूजी के साथ। उनके जीवन में मैं कहाँ हूँ?
कहते-कहते उषा जीजी का गला भर आया था। लेकिन प्रवाह रुका नहीं - बड़ी ननद ने बहुत जोर दिया कि नई दुल्हन को घुमा लाओ... पर उधर भी ये जिद करने लगे कि माताजी चलें तो कार्यक्रम बनाएँ। उन्हें कलकत्ता घूमना है, दक्षिणेश्वर घूमना है। ननद बिफर पड़ी थीं -'कब तक माताजी के पल्लू से बँधे रहोगे... अरे, अब तुम शादीशुदा हो, अपना जीवन खुद जियो और माताजी आप भी इन्हें पल्लू में समेटे रहती हैं... थोड़ी आजाद भी छोड़िए.'
'लो, हम क्या पकड़े बैठे हैं। जहाँ मर्जी हो जाएँ। घूम आएँ न कलकत्ता। हमारा क्या है सबर कर लेंगे।'
उषा जीजी की बातें चौंकाने वाली थीं। फिर भी मैंने समझाया -'जीजी, तुम ही हौसला रखो। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ अपनी ओर मोड़ो। समय लगेगा पर सब ठीक हो जाएगा।'
'काश, संध्या ऐसा ही हो।'
और वे पैरों में पहनी सोने की पाजेब गोल-गोल घुमाने लगीं, इन पाजेबों को देखकर कितनी जिद की थी पायल ने चाची से - "अम्मा, तुम क्यों नहीं पहनतीं ऐसी पाजेब?" उसके तर्क का चाची क्या जवाब देतीं? उषा जीजी इन्हीं पाजेबों के सम्मोहन में ही तो बिदा की गई थीं जिन्हें अब वे बेड़ियाँ मानने लगी थीं। इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए उषा जीजी को...