मालवगढ़ की मालविका / भाग - 9 / संतोष श्रीवास्तव

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आहट हुई. पन्ना ने दरवाजे पर दस्तक दी - "पायल बिटिया, मालकिन पूछ रही हैं तुम्हें।"

मैंने फुर्ती से नोटबुक बंद कर संध्या बुआ के कमरे में ठीक उसी जगह रख दी जहाँ से निकाली थी। लेकिन मन बेचैन था। नोटबुक पूरी नहीं पढ़ पाई. फिर भी स्थितियाँ स्पष्ट थीं। संध्या बुआ और अजय पिछले ढाई वर्षों से इश्क की आग में जल रहे हैं। बड़ी विकट परिस्थिति थी। क्या होगा, सोचकर कलेजा काँप जाता था। संध्या बुआ मोम-सी पिघल रही हैं। उजाले में परछाइयाँ काँप रही हैं... एक बड़े अंधकार के दायरे की रेखाएँ खिंचनी शुरू हो गई हैं। हवा हर दरीचे से अंदर घुसती चली आ रही है।

मारिया का संकल्प पूरा हो रहा है। सेवा केंद्र के लिए जगह की मंजूरी मिल गई है। मारिया ने ऐसी जगह चुनी है, जहाँ नयनाभिराम हरियाली है... हरियाली में गुँथी बावलियाँ... इधर-उधर चरते मवेशी। जगह खूब रौनकदार है। सामने ही पक्की सड़क है जो बाईं ओर मुड़कर राजपथ तक जाती है। लेकिन आसपास एक भी अस्पताल नहीं है। बीमार आदमी को स्ट्रेचर तक नसीब नहीं। उसे कंबल पर लिटाकर, कंबल के कोने मोटी लकड़ियों में फँसाकर दो आदमी उन लकड़ियों को कंधे पर रखकर अस्पताल ले जाते हैं। कंबल में झूलता आदमी वैसे ही अधमरा हो जाता है। मारिया ने यह सब देखा है, इसीलिए यह जगह उसे पसंद आई है। दादी की इच्छा है भूमिपूजन हो। मारिया को मानना पड़ता है। मुहूर्त परसों का है। कल थॉमस आ जाएगा। मारिया के बापू नहीं आ पाएँगे। अभी रोग की शिथिलता है।

दादी ने सेवा केंद्र के लिए एक लाख रुपयों का दान दिया है मारिया को। मारिया तो हतप्रभ रह गई. वह तो सोच भी नहीं सकती थी कि उसका स्वप्न इतनी जल्दी फलित हो जाएगा।

"छोटी आंटी, आप तो मेरे लिए देवदूत बन गईं।"

उसने गद्गद हो दादी से कहा तो दादी अपनी निर्भीक सहज मुस्कान से उसे भिगोती मीठी झिड़की देने लगीं - "बस-बस, मेरी शान में कशीदे मत काढ़ो। थे तो दिए, नहीं होते तो कहाँ से देती?"

"नहीं... दिल है तो दिया, दिल नहीं तो आदमी कंजूस का कंजूस। छोटी आंटी, कल थॉमस आ जाएगा। अपने किसी दोस्त के यहाँ रुक रहा है वह। आंटी, भूमि पूजन की तैयारी कैसे होगी, आप बता देना।"

"तुम चिंता मत करो मारिया, कंचन ने सारा इंतजाम कर लिया है।" कहती दादी पलंग पर लेट गईं, मारिया उनके पैर दबाने लगी। दादी की आँखें धीरे-धीरे मूँदने लगीं... दस नौकरों के होते हुए भी दादी के बिना किसी का काम नहीं चलता था। घर के प्रत्येक काम की शुरुआत, हर समस्या, हर मुसीबत केवल दादी के सामने बखानी जाती। कुछ इस विश्वास से कि वे हैं तो किसी का काम रुक ही नहीं सकता। मैं तो दादी के नख से शिख तक मोहित थी। उनकी सुंदरता, सादगी, स्वभाव का मीठापन, मृदुलता, बेहद सलीका और साफगोई... विचारों में तर्क और सोच की गहराई... वे सचमुच विलक्षण प्रतिभा-संपन्न थीं। दया और कल्याण की साक्षात प्रतिमा।

भूमि पूजन के दिन थॉमस घर आया। ऊँचा, साँवला, पतली मूँछों का आकर्षक युवक। मारिया ने सबसे परिचय कराया। उसकी आँखों में मारिया के लिए जुनून भरा प्यार नजर आया। सब तैयार थे। प्रताप भवन से चार बग्घियाँ और एक जीप रवाना हुई. जीप में पूजा का सामान, पंडितजी, कोदू और बंसीलाल थे। ड्राइवर के बाजू में बाबा और बाबूजी. महाराज ने पूरी सेंककर टोकरों में भर दी थीं, आलू की भुजिया, मिठाई के डिब्बे, थर्मस में चाय, बाबा का पानदान और पानी का जग। मारिया तो खुशी से खिली पड़ रही थी। यों लग रहा था जैसे सब जंगल में पिकनिक मनाने जा रहे हों। घर में बस बड़ी दादी थीं जसोदा के साथ। उनका तो चलना-फिरना ही मुश्किल था।

पंडितजी ने जमीन पर आसनी बिछाकर मंत्रोच्चारण करते हुए भूमि पूजन किया। ये हमारे कुल के पंडितजी ही थे लेकिन इनके मन का कलुष यज्ञ वाले दिन धुल गया था। मारिया की जाति को लेकर इनके मन में अब कोई संशय न था। शगुन का कलावा उन्होंने मारिया और थॉमस दोनों को बाँधा। मारिया की जिद थी कि नींव के लिए पहली कुदाल दादी चलाएँ। दादी बाबा के सामने हिचक रही थीं लेकिन फिर उनकी आँखों से रजामंदी का संकेत पा दादी ने कुदाल चलाई. वह निर्जन भूमि प्रभु के समवेत नामोच्चारण से गुंजित हो चली। दूसरी कुदाल बाबा ने बड़े बाबा से चलवाई. फिर एक के बाद एक घर के सभी सदस्यों ने कुदाल चलाई. नारियल फोड़े गए और प्रसाद ग्रहण कर सब हरी भरी घास पर बिछाई गई दरियों पर बैठकर नाश्ता करने लगे। पंडितजी को अलग से परोसा गया। मारिया की आँखों में आँसू थे।

"क्या बात है मारिया? बापू की याद आ रही है?"

दादी के पूछने पर मारिया आँखें पोंछती हुई हँस पड़ी।

"नहीं छोटी आंटी... बापू का प्रतिरूप तो छोटे साहब हैं, मुझे तो अपने भाग्य पर यकीन नहीं हो रहा।"

"सच, आंटीजी... सोचा भर था कि सेवा केंद्र खोलेंगे लेकिन इतनी जल्दी यह सपना सच होगा, ताज्जुब है! सब आपकी बदौलत..."थॉमस ने कहा।

बाबा ने थॉमस और मारिया को बधाई दी - "तुम दोनों की लगन कारगर हुई... जल्दी ही बिल्डिंग भी बन जाएगी।"

थॉमस हफ्ते भर रहा। मारिया लगातार उसके साथ रही लेकिन बड़ी दादी के प्रति अपने कर्तव्य को भी नहीं भूली। दवाई, इंजेक्शन, स्पंज, चादर, तकिए का गिलाफ बदलना, कंघी, चोटी... सब नियमपूर्वक किया उसने। केवल खाने-नाश्ते का जिम्मा जसोदा ने ले लिया था। मारिया ने खाने नाश्ते के समय का चार्ट बनाकर जसोदा को समझा दिया था। घर के सभी सदस्यों के मन में मारिया को लेकर कोमल भावनाएँ थीं। धीरे-धीरे थॉमस के बारे में भी सबको पता चल गया था अतः दोनों के घूमने में किसी को आपत्ति न थी। अलबत्ता बड़ी दादी अपनी आदतवश चीखती चिल्लाती रहतीं। जिस दिन थॉमस को जाना था, उनके अँगूठे की नस घुटने तक खिंची जा रही थी और वे दर्द से तड़प रही थीं। मारिया मालिश करती रही। सुकून मिला तो नींद आ गई. थॉमस की गाड़ी का समय हो गया था। उसे स्टेशन छोड़ने चली गई. इधर नींद खुलने पर मारिया को न पा उन्होंने घर सिर पर उठा लिया -

"वो तो चाहती है मैं मरूँ तो टंटा खतम हो। अरे, उसे छोड़ने बंसीमल जा सकता था... इसी को जाने की क्या ज़रूरत पड़ गई. अरी जसोदा, अँगूठे की नस तो पकड़... मर जाऊँगी मैं तो दरद से।"

बड़ी दादी की झुँझलाहट घर के हर प्राणी पर उतरा करती। उन्हें अगर कोई अच्छा लगता था तो भैया। भैया का नामकरण भी उन्होंने किया था - "कुँवर वीरेंद्र सिंह। वीरों में इंद्र है मेरा पोता।"

बड़ी दादी को बेटे की चाह थी। पर हुईं बेटियाँ ही बेटियाँ... सो सारा लाड़ भैया पर... भैया उनके कमरे में कुछ भी करने के लिए आजाद था। वह कालीन पर अपने खिलौने बिखेर सकता था। जूते पहने हुए उनके पलंग पर चढ़ सकता था। वह उनके सिरहाने बैठकर अपनी उँगली से उनके चेहरे पर काल्पनिक सिंगार करता... कमेंट्री सहित... ये लगाया बड़ी दादी को काजल, ये बिंदी... नाक ऊपर करो दादी... ये पहना दी नाथ... और ये भर दी माँग।

"तू मेरी माँग भरेगा, मेरा राज दुलारा। ज़रूर पिछले जन्म में मेरा प्रेमी है तू।" बड़ी दादी लाड़ में भरकर उसे चूम लेतीं।

"मैं प्रेमी नहीं... कुँवर वीरेंद्र समरसिंह हूँ।" कहता हुआ भैया बाहर दौड़ जाता। जसोदा और पन्ना हँसते-हँसते पेट पकड़ लेतीं।

भक्तिन थी जसोदा। हर सोमवार व्रत, हर एकादशी व्रत... दिन भर निर्जला रहती, सूरज ढले ही व्रत का पारायण करती और व्रत का पारायण भी कैसा... उबले आलू, दूध और केले... अम्मा मावे की मिठाई मँगवाती। वह भगवान को चढ़ाती और चुटकी भर प्रसाद ग्रहण करती। आज उसका एकादशी का व्रत था... आज मारिया को भी रक्तदान के लिए जाना था। दादी ने सबेरे ही कंचन से कह दिया था कि निशास्ता बना ले। बादाम की गिरी और घी थोड़ा ज़्यादा डाले। मारिया को खून देने के बाद कमजोरी आएगी उसी के लिए टॉनिक था यह। पिछली दफे ओट बनाया था कंचन ने पर मारिया को पसंद नहीं आया था। थोड़ा-सा लेकर बाकी वापस लौटा दिया - "हीक मारता है... रहने दो न कंचन... अभी खाना खाऊँगी तो सब ठीक हो जाएगा।"

"तुम जानो... छोटी मालकिन गुस्सा हों तो हमें बीच में मत डालना। वे तो कहती हैं मारिया तप कर रही है। अपने शरीर का खून देना कोई मामूली बात नहीं है, तप है तप।"

मारिया मन-ही-मन मुस्कुराई. अगर यह तप है तो वह इस तप को सलाम करती है। वह तो इतना जानती है कि परमात्मा का दिया यह शरीर मानव मात्र के कल्याण के लिए है, हर मानव में ईश्वर का वास है। उसके थॉमस में भी ईश्वर का वास है, बल्कि वह तो पूर्ण ईश-स्वरुप है। उसके हृदय में प्रेम ही प्रेम है। उसका दिल करता है वह चिड़िया की तरह उड़े और आसमान से धरती के जर्रे-जर्रे को देखे और जहाँ दुख दिखाई दे वहाँ अपने पंखों की छाँव देती उतर जाए... मारिया तलाशेगी, दुख तलाशेगी औरों के और उन्हें अपने सेवा केंद्र की शीतल गोद में आश्रय देगी। यही व्रत है उसका और थॉमस का।