मालवगढ़ की मालविका / भाग - 14 / संतोष श्रीवास्तव
बिना ईश्वर के यह सेवा केंद्र चल भी नहीं सकता और मेरे ईश्वर का स्वरुप हैं छोटी आंटी और अंकल..."
कहते हुए मारिया की आँखें चू पड़ीं। बाबा ने सम्हाला।
"मारिया ने जो यह तप किया है... गरीब, असहाय और सताए हुए लोगों की सेवा करने का जो संकल्प लिया है, उसके इस कार्य का बखान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। हाँ, यह सच है कि भाभीसा वर्षों से बीमार हैं। उनका यहाँ आना... वर्षों बाद प्रताप भवन की ड्योढ़ी फलाँगना मारिया की सेवा भावना का सबूत है। आइये, हम सब इस छोटी-सी तपस्विनी को नमन करें।"
एक साथ कई हाथ जुड़े, कई आँखें भीगीं, कई दिल हिले। थॉमस के जज्बातों के फूल माला बनकर मारिया के गले में सज गए. मारिया नववधू-सी लजा गई. उस शाम खुशियों का सागर उमड़ा पड़ रहा था। अब थॉमस और बापू सेवा केंद्र में ही अलग से बने अपने निवास स्थानों पर रहेंगे। अब मारिया भी हमारे साथ नहीं रह पाएगी, अलबत्ता बड़ी दादी की देखभाल वह नियमित हाजिरी देकर जारी रखेगी।
बड़ी विचलित कर गई मारिया की जुदाई. प्रताप भवन में मारिया बेटी की हैसियत से रहती थी... अब उसके साथ रहने की सबको आदत-सी पड़ चुकी थी। मेरी तो कई सूनी रातों में मेरा साथ दिया है। कभी उपदेशक बनकर, कभी अपने अनुभवों का खजाना खोलकर... अब कौन मेरे सूने कमरे में पहचल बनकर आएगा; मेरी चित्रकारी, बातिक डिजाइनों पर अपनी कीमती सलाह देगा। मेरी फोटोग्राफी के नुक्स निकालेगा और कविताएँ सुनकर सपनों में खो जाएगा; मारिया एक सपना अक्सर सुनाती थी। एक मकान है, एकदम खंडहरनुमा... चील, कौवों का बसेरा... खंडहर के पीछे दहकते शोले... सूखी लकड़ियाँ, पत्ते बटोरकर थॉमस उन शोलों को और भड़का रहा है... उनकी आँच मारिया तक पहुँचती है और वह स्वयं आग बन जाती है। बिल्कुल ककनूस पक्षी की तरह जो आग के गीत गाते-गाते स्वयं जलने लगता है। पंख लपटें छोड़ने लगते हैं। जैसे-जैसे आग बढ़ती जाती है, गीत के सुर भी बढ़ते जाते हैं और फिर... मात्र चंद लम्हों में वहाँ राख की छोटी-सी ढेरी होती है। ककनूस ढेरी में बदल जाता है और बदल जाते हैं जमीन आसमान।
"पायल बाई... आग विद्रोह की प्रतीक है न?"
"नहीं, सर्जन की। आग सब कुछ राख कर देती है और उस राख में से नए अंकुर निकलते हैं।"
आज उन अंकुरों को कोमलता से सम्हाले मारिया बिदा ले रही है। दादी ने ठीक बेटी की बिदाई जैसी रस्म अभी-अभी पूरी की है और मारिया सबके गले लगकर अंत में मेरे पास आई है - "पायल बाई, अपने अंदर की आग बुझने न देना। भले ही उसे अभी दबाकर रखना पड़े..."
और मुझे मारिया की ही सुनाई वह बात याद आ गई. उसने बताया था कि उसके गाँव में चूल्हे की आग कभी ठंडी नहीं पड़ती, उसे चावल के भूसे में दबा दिया जाता है। जब ज़रूरत होती है फुँकनी से भूसा उड़ाकर आग भड़का ली जाती है...
मैं उसके कान में फुसफुसाई - "निश्चिंत रहो मारिया। मैं देवताओं से आग छीनकर ही धरती पर आई हूँ। यूनान के प्रमथ्यु की तरह।" उसने संतुष्टि में मेरी ओर देखा और न जाने उसे क्या हुआ कि मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में भरकर उसने मेरे गालों को चूम लिया... वह थरथराहट भरा उसका चुंबन मेरे हृदय के तारों को झंकृत करता दिशाओं में गूँज उठा... मैंने देखा ढलती साँझ में उसका ताँगा धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है।
न जाने कहाँ लेकर गई हैं दादी संध्या बुआ को। मुझे बताया नहीं पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि आजकल अधिकतर समय दादी संध्या बुआ के कमरे में ही बिताती हैं... घंटों बातें होती हैं दोनों में।
"खूब दोस्ती हो गई है चाची और संध्या जीजी में।" रजनी बुआ ने बताया - "मैं तो माँ तक के कमरे में नहीं जाती, संध्या जीजी की पिटाई के बाद उनके कमरे की दहलीज लाँघना मैंने खुद के लिए वर्जित कर लिया है। उस दिन भूले से मैं उनके कमरे में चली गई थी, मारिया ने ही मुझे थर्मामीटर में उनका बुखार देखने के लिए बुलाया था। उसका चश्मा नहीं मिल रहा था कहीं..."
"चलो भागो यहाँ से? नहीं ज़रूरत है मुझे किसी लड़की की। कोई यहाँ मत आया करो। मैंने तो कोख से नागिनों को जन्मा है सो डँस रही हैं मुझे।"
फिर भी तुम जाया करो बुआ... बड़ी दादी अकेलापन महसूस करती होंगी।"
"नहीं पायल... वहाँ जाकर उनकी झिड़की सुनना मेरे वश की बात नहीं। मैं तो होश सम्हालते ही उन्हें बिस्तर पर देखती आ रही हूँ। झिड़कियाँ सुनती आ रही हूँ। और कितना सुनूँ? उन्हें भी समझना चाहिए कि अब हम बड़े हो रहे हैं पर उन्होंने अपनी औलाद को कभी औलाद समझा ही नहीं... तिरस्कार... झिड़की... अपमान... उफ..."
कोई अनुभव अपने आप में पूर्ण नहीं होता... धीरे-धीरे वक्त उसमें और सूत्र जोड़ता जाता है... तब अनुभव की रस्सी गँठकर तैयार होती है। तीन बुआओं की रस्सी गँठ चुकी है अब उसके रेशे नहीं उधेड़े जा सकते। बड़ी दादी की यह दूसरी हार थी। पहली बार पति को खोने की, दूसरी औलाद को खोने की। कितनी लाचार थीं बेचारी। मारिया के हाथों रोगों के निदान में उलझी... उलटे तमाम रोगों को पोसतीं पलंग की चौखट में कैद एक जिंदा एहसास...
संध्या बुआ का मन अब पढ़ाई में लगना कठिन था। बेहद विचलित थीं वे... दादी को चिंता थी कहीं साल न बिगड़ जाए उनका। साल भर की मेहनत पर पानी न फिर जाए... उनके कदमों को वापस लौटाना मुश्किल था... प्यार के जज्बे ने उनके अंग-अंग को अपने मादक रस में डुबो लिया था। ज़्यादा सख्ती बरती तो सब कुछ खत्म हो जाने की आशंका थी।
चिलचिलाती धूप अभ्रक के समान चमक रही थी। माली ने लॉन के बीचोंबीच एक क्यारी में अफीम के पौधे लगाए थे जिनके सतरंगी फूल सूरज की सतरंगी किरणों को दोगुना रंगीन बना रहे थे। बाबा इन दिनों बनारस गए हुए थे और बड़े बाबा कीना बाबा आश्रम में साधुओं के जमघट के बीच किसी तंत्र-मंत्र में डूबे थे। कीना बाबा बनारस के सिद्ध तांत्रिक थे, उन्हीं के शिष्य ने यहाँ भी वैसा ही खजूर के पेड़ों से घिरा आश्रम बनवाया था जहाँ तंत्र साधनाएँ होती थीं। खजूर के अलावा अन्य जाति के छतनारे पेड़ों की वजह से यहाँ काफी ठंडक रहती थी। सामने ही मीठे पानी का कुआँ, कुएँ पर महिला प्रवेश वर्जित था जबकि तांत्रिकों की सारी साधनाएँ बिना महिला के संभव न थी। क्या इनकी सिद्धदेवी भैरवी के अस्तित्व से इनकार किया जा सकता है? और दादी का साहस इतना कि इसी आश्रम के पीछे एक छोटी-सी टेकड़ी पर बने रास बिहारी के मंदिर में मुझे और संध्या बुआ को बग्घी में बिठाकर ले गईं। वहाँ अजय पहले से आकर खड़े थे। उन्होंने झुककर दादी के पैर छुए... हमें मंदिर के फर्श पर बैठने का संकेत कर दादी ने मंदिर की परिक्रमा की। अच्छी तरह पूरे मंदिर का मुआयना कर वे अजय से बोलीं - "वीरान रहता है यह मंदिर। एक तो सुनसान में है दूसरे तांत्रिकों के आश्रम के पास होने की वजह से कोई आता-जाता नहीं है यहाँ। इक्का-दुक्का लोग शाम तक आएँगे।"
उन्होंने संध्या बुआ को हाथ में पकड़ा मखमली कत्थई बटुआ खोलने को बटुए में दो अँगूठियाँ और डिब्बी में सिंदूर था।
"अजय और संध्या... भगवान को साक्षी मानकर एक-दूसरे को पति-पत्नी रूप में स्वीकार करो।"
मेरे तो होश उड़ गए... दिल की धड़कनें आँधी-तूफान की गति से बढ़ने लगीं। कल्पना से परे था सारा मंजर। मेरी आँखों में एक-एक क्रिया गहरे खुबती चली गई. पहले अजय ने बुआ को अँगूठी पहनाई फिर बुआ ने अजय को। अजय ने उँगली की पोर सिंदूर की डिब्बी में छुआकर संध्या बुआ की माँग में बिल्कुल हल्की सिंदूर की रेखा खींच दी। दोनों ने झुककर पहले रास बिहारी की मूर्ति के, फिर दादी के पैर छुए. दादी ने दोनों को गले से लगा लिया - "ईश्वर तुम दोनों को हिम्मत दे, प्यार के अंजाम को सहने की ताकत दे, घर-परिवार का सामना करने का हौसला दे।"
मुझे लगा सूरज की सतरंगी किरनों में से एक किरन जुदा हुई और दादी के वजूद में समा गई... और वजूद और किरन मिलकर आग का शोला बन गए. इस शोले ने उन अँधियारों को रोशन कर दिया जहाँ कभी अकेली किरन पहुँच नहीं सकती थी। यह उस शोले का जज्बा था जो अंधियारे की बर्फ को बूँद-बूँद पिघलाकर हम सब पर शीतलता की बौछार कर रहा था।
दादी ने बूँदी के लड्डू का पैकेट खोलकर सबको लड्डू खिलाए. फिर मुझे अपने करीब खींचकर चूमा - "तुम गवाह हो इस गंधर्व विवाह की। जानती हो गंधर्व विवाह गुप्त होता है। तुम्हें भी सब कुछ गुप्त रखना है। वक्त आने पर सबको बता दिया जाएगा।"
"अजय और संध्या, मैंने यह विवाह करके समझो साँप के मुँह में हाथ डाला है आज। अपना भविष्य बनाकर दिखाओ कि प्रताप भवन खुद तुम दोनों के इस विवाह पर रजामंदी की मोहर लगाए."