मालवगढ़ की मालविका / भाग - 15 / संतोष श्रीवास्तव

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अजय ने दादी के हाथ भरपूर विश्वास से थपथपाए. उन हाथों की मर्दानी गर्मी ने दादी को विश्वस्त किया होगा कि उन्होंने जो इतना बड़ा खतरा उठाया है उसे वे जग हँसाई बनाकर नहीं छोड़ेंगे। अजय ने मेरी ओर भी मुस्कुराकर देखा। मैंने उनके नजदीक जाकर उन्हें बधाई दी तो दोनों ने एक साथ मुझे आलिंगन में भर लिया। दादी ने हम तीनों को ही अपने हाथ से लड्डू खिलाया तो अजय ने भी दादी के मुँह में लड्डू का टुकड़ा रखते हुए जेब से लाल कागज में लिपटी कोई चीज निकालकर उन्हें भेंट स्वरुप दी।

"चाची, आप हमारी नई जिंदगी की ब्रह्मा हैं। इतनी कूवत तो नहीं कि कुछ दे सकूँ आपको, यह केवल निशानी है आज के दिन की।"

दादी ने पुड़िया खोली तो उसमें माणिक जड़ी बहुत खूबसूरत अँगूठी थी जिसे अजय ने स्वयं अपने हाथों दादी को पहना दिया।

"जानती हैं चाची, 'भृगु संहिता'में क्या लिखा है मेरे और संध्या के बारे में? लिखा है प्राचीन काल में मैं राजा दुष्यंत था और संध्या कण्व के आश्रम में पली शकुंतला। इसीलिए तो इस जनम में भी हमारा गंधर्व विवाह हुआ। हम दोनों के मिलन में यह अँगूठी अब दोबारा रुकावट न डाले इसीलिए बहुत सुरक्षित हाथों में सौंप रहा हूँ इसे।

दादी हँस दीं। सांध्यतारा निकल आया था और मंदिर की सीढ़ियों पर इक्का-दुक्का भक्तों का आगमन होना शुरू हो चुका था। दादी ने संध्या बुआ से अपनी सिंदूर भरी माँग को बालों की लट से ढँक लेने के लिए कहा। अजय को वहीं छोड़कर हम तीनों बग्घी में बैठकर घर लौट आए.

अब संध्या बुआ स्थिर चित्त थीं और प्रताप भवन में यह खबर फैल गई थी कि दादी मंदिर से संध्या बुआ को किसी पंडित-ओझा से झड़वा फुँकवाकर लाई हैं... और अब सब ठीक है।

संध्या बुआ के गुप्त विवाह के बाद की यह पहली करवाचौथ थी। नाश्ते की टेबिल पर उनका इंतजार हो रहा था। मैं आँखें झुकाए धीरे-धीरे नाश्ता कर रही थी, डर था कहीं दादी से आँख न मिल जाए और अन्य लोगों तक उन नजरों का भेद न खुल जाए. जब से मारिया गई है बड़ी दादी व्हील चेयर पर पूरी कोठी में आती-जाती रहती हैं। इस काम के लिए पन्ना को नियुक्त किया है कि वह उनकी चेयर चलाए. दादी और अम्मा तो निर्जला व्रत रखती थीं लेकिन बड़ी दादी के व्रत इतने कठोर न थे। बीमारी के कारण उन्हें दवाएँ लेते समय फलाहार लेने की छूट थी। पन्ना उनकी चेयर खाने की टेबिल तक लाई तो बड़ी दादी ने पूछा - "संध्या कहाँ है?"

"संध्या जीजी को नहीं खाना है।" रजनी बुआ तपाक से बोलीं।

"क्यों? उसे तो सुबह उठते ही भूख सताने लगती है, आज क्या हुआ?"

"शायद तबीयत ठीक नहीं है, कल रात सिरदर्द की शिकायत कर रही थी।"

दादी ने झूठ नहीं कहा था, संध्या बुआ को सचमुच कल रात सिर में तेज दर्द था। लेकिन मुझे लगा कि दादी ने इस बहाने उनके करवा चौथ के व्रत की रक्षा कर ली है। जैसे कोहरा अपनी धुंध की चादर में फूलों को समेट ले। फूल भी सुरक्षित रहें और दुनिया की नजर से बचे भी रहें।

दिन भर चौके में तरह-तरह के पकवान बनते रहे। जसोदा और कंचन भी व्रत से थीं। दोनों के पति भी रात का खाना कोठी में ही खाने वाले थे। जसोदा ने सबको मेहँदी लगाई. मुझे शुरू से ही मेहँदी अच्छी नहीं लगती। बड़ा अजीब लगता है हाथों में चित्रांकन... जबकि दूसरों के हाथों में मैं खुद मेहँदी के चित्र बना देती हूँ... बहुत बारीक और घने... शगुन के लिए जसोदा ने हथेली के बीचोंबीच मेहँदी की एक बिंदी-सी लगा दी।

"राजपूतों में तुम जाने कहाँ से पैदा हो गईं पायल बिटिया... तुम-सी हमने दूसरी नहीं देखी।"

"दूसरी हो भी न जसोदा... मैं पहली ही बनी रहना चाहती हूँ।"

कंचन करवे खरीद लाई थी। मिट्टी के टोंटीदार। ऊपर छत पर रंगोली सजाई जा रही थी। गेरू भिगोकर सुंदर चित्रकारी की जा रही थी। घर की सभी महिलाओं ने रेशमी रंग-बिरंगी साड़ियाँ, लहँगे पहने। बालों में जुही की कलियाँ सजाईं, भारी-भारी सोने, हीरे, कुंदन के आभूषण पहने। दादी ने संध्या बुआ को इतना खूबसूरत असली रेशम का लहँगा और ओढ़नी पहनाई कि मैं देखती ही रह गई. हलके-हलके हीरे के आभूषण, हाथों में मेहँदी भी खूब रची थी। संध्या बुआ पर सुहाग का सत खूब चढ़ा था... आज अजय उन्हें देखते तो कहते धरती पर चाँद कैसे?

"ऊपर जब हम सब चाँद को अर्घ्य दें तो तुम मन-ही-मन उन्हें पूज लेना। फिर नीचे अपने कमरे में आकर खिड़की से अर्घ्य दे लेना। कोई नहीं देख सकेगा।"

और ऊपर छत पर जाने से पहले मेरे मन में फुसफुसाईं - "तुम संध्या का ध्यान रखना।"

मैंने दादी के कथन पर हामी में सिर हिलाया तो उन्होंने मेरे सिर पर हलकी-सी चपत मारी और हँस दी।

संध्या बुआ छत पर आ गईं। व्रत के कारण उनका चेहरा कुम्हला गया था। रेशमी लहँगे और आभूषण तो मैंने और रजनी बुआ ने भी पहने थे इसलिए किसी का ध्यान संध्या बुआ की सजावट पर नहीं गया लेकिन उनके कुम्हलाए चेहरे को देख अम्मा चिंतित हो गईं - "संध्या बाई तबीयत ज़्यादा ही खराब लग रही है?"

"नहीं भाभीसा... कल रात सिर दर्द की हालत में देर तक पढ़ती रही न... इसीलिए..."

चाँद निकल आया था। खूब बड़ा, गाढ़ा गुलाबी-सा... जब तक पूजा चली, सबने अर्घ्य दिया तब तक चाँद शीतल, ठंडी रोशनी से भर चुका था। दादी सोलहों शृंगार किए बेहद खूबसूरत लग रही थीं। रूप तो उनका बेमिसाल था ही, ऊपर से श्रृंगार। मैं तो लट्टू हो गई उन पर। पूजा के समापन पर दादी को छोड़कर सब नीचे उतर गईं तो मैंने बाबा को सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाते देखा। कौतुहलवश मेरे पैर ठिठक गए. कनखियों से देखा दादी ने खड़े-खड़े ही बाबा के माथे पर तिलक लगाया, उन पर फूल बरसाए, आरती उतारी और झुककर उनके पैर छुए. उठते-उठते सिर पर से उनका आँचल सरक गया। बाबा ने उन्हें गले से लगा लिया और कुरते की जेब में इसी क्षण के लिए बड़े जतन से रखी जुही की वेणी उनके जूड़े में टाँक दी। आसमान में चाँद मानो थम-सा गया। तब तक संध्या बुआ आखिरी सीढ़ी से भी ओझल हो गई थीं।

पन्ना ने कंचन से शर्त बदी थी कि इस बार बारिश अच्छी होगी और जो अच्छी हुई तो वह कंचन से चाँदी की पाजेब लेगी। राजस्थान में बारिश की शर्तों का चलन बहुत अधिक है। बारिश होगी या नहीं इस बात की शर्त पर अच्छा खासा सौदा तय होता है। कितने ही लोग इन शर्तों में तबाह हो गए. दिसंबर भी बीता जा रहा है और कंचन ने अभी तक पाजेब खरीदकर पन्ना को नहीं दी। इस बात की शिकायत लेकर वह दादी के पास गई तो दादी ने हँसकर उसे पान के बीड़े लगाने का हुकुम दिया। ऊपर से चाँदी की तश्तरी में सभी बीड़ों को रखकर गुलाबजल छिड़कने की ताकीद भी की। पन्ना ने बड़ी खूबसूरती से बीड़े सजाए... वह हौले-हौले कोई गीत गुनगुनाती जा रही थी। कोठी पर आज फिर अंग्रेजों का जमघट था। घोड़े, बग्घी और जीप बाहर खड़ी थीं। बड़े हॉल में व्हिस्की के दौर चल रहे थे। दादी ने पूर्ण शाकाहारी खाना बनवाया था। जब से यज्ञ हुआ है इस घर में मांसाहार पकने पर पाबंदी लग गई है। दादी की इस इच्छा के आगे बाबा नतमस्तक हैं। भोजन के बाद दादी पान के सुगंधित बीड़े भी भिजवाएँगी।

"पन्ना, तुझे चाँदी की पाजेबों के साथ मैं सोने के कर्णफूल भी दूँगी।"

पन्ना ने आश्चर्य से दादी को देखा। दादी हँस पड़ीं - "अरी बावली, मन्नत माँग... मन्नत... उषा के लड़का हो... फिर देखना तेरा मुँह लड्डूओं से भर दूँगी।"

पन्ना एकदम किलकारी मारकर खड़ी हो गई और नृत्य की मुद्रा में गोल घूम गई.

"बाईसा के घर जाकर मैं तो खूब गाऊँगी, खूब नाचूँगी... मैं तो उनसे करधनी भी लूँगी।"

"ठीक है जा... तैयारी कर ले। तेरे साथ संध्या और रजनी भी जाएँगी जोधपुर।"

"छूछक लेके."

"तू तो सच में बावली हो गई है। अभी जचकी हुई नहीं और छूछक ले जाने लगी।"

इतने में बंसीलाल पान लेने आ गया... पान की तश्तरी उसे पकड़ाकर पन्ना अंदर के कमरे में दौड़ गई.

अंग्रेजों को विदा कर बाबा जब दादी के पास आए तो कुछ थके से दिख रहे थे। आते ही पलंग पर लेट गए. जाड़ों में वैसे ही रात जल्दी गहराने लगती है... राजस्थान का मरू खूब ठंडाता है रात में... ठंडी-ठंडी रेत माहौल भी ठंडा कर देती है।