मालवगढ़ की मालविका / भाग - 21 / संतोष श्रीवास्तव
कोदू हम सबको खुश देखकर आश्वस्त हुआ। उसने पूरी शवयात्रा का मानो चित्र-सा खींच दिया -
"श्मशान भूमि के फाटक पर थोड़ी देर को शवयात्रा रुकी। एक बड़ी-सी थाली में महावर उँडेलकर उसमें दादी की हथेलियाँ रंगी गईं और फाटक पर उनकी दोनों हथेलियों की छाप उकेरी गई. बड़ी शानदार चंदन की चिता पहले से तैयार थी। सारे अंतिम कर्म करके मालिक को चिता पर लेटाया गया और जब मालकिन को चिता पर बैठाने लगे तो कुँवरसा (बाबूजी) ने अपना सिर पत्थर पर पटक लिया... खून की धारें फूट पड़ीं... पर किसे परवाह? सबका ध्यान तो छोटी मालकिन पर था। उन पर फूल और नारियल का ढेर-सा लग गया। ढोल, नगाड़े, ताशे जोर-जोर से बजने लगे। बीच-बीच में चमचों से उनके सिर पर घी उँडेलते हुए लोग चिता को छूते हुए सती माता की जय बोलते जा रहे थे। तभी हवा में बंदूक की गोलियाँ चलीं, लोग सहमकर पीछे हटने लगे। श्मशान घाट में सन्नाटा छा गया... क्रांति की दहशत ने वैसे ही लोगों को सहमा रखा था... अचानक चिता के पास एक घोड़ा आकर रुका और उस पर से अंग्रेज ऑफीसर जिम उतरा... लोगों ने साँस रोककर देखा कि जिम ने एक हिकारत भरी निगाह भीड़ पर डाली और झटके से दादी को चिता पर से फूल की तरह उठा लिया... हवा में फिर गोलियाँ दगीं और जिम ने दादी को घोड़े पर बैठाकर सरपट घोड़ा दौड़ा दिया... बड़ी देर बाद भीड़ में हरकत आई... आधे लोग तो डर के मारे चुपचाप खिसक लिए... बाकी ने झटपट मालिक की चिता को आग दी। कुँवर-सा के सिर से खून निकलने के कारण वे अर्धमूर्छित-से चिता के पास लाए गए थे और चिता की जलती लकड़ी उनके हाथ में पकड़ा चिता में छुला दी गई थी। तभी मारिया और थॉमस पुलिस लेकर वहाँ पहुँच गए. लेकिन हम तो हुकुम छोटी मालकिन के घोड़े के पीछे भाग रहे थे। हम उन्हें दिखाई थोड़ी दे रहे थे। पगडंडी से गए थे न हम।
छोटी मालकिन जिम की बाँहों में अचेत थीं। घोड़ा एक शानदार बंगले के सामने आकर रुका। बंगले के बाहर बरामदे में बिछे तखत पर जिम ने मालकिन को लेटाया और अपनी नौकरानी से कहा कि वह उन पर लगा घी, सिंदूर सब स्पंज से साफ कर दे। फिर खानसामे को डॉक्टर लाने दौड़ा दिया। हम तो पास की झाड़ी में दुबके सारा नजारा साफ-साफ देख रहे थे। घंटा भर छुपे रहे झाड़ियों में हम। जब मालकिन अच्छी हो गईं तो सामने बैठे जिम को देखकर चौंक पड़ीं - "मुझे आप क्यों ले आए यहाँ? क्यों बचाया मुझे? मर जाने दिया होता। अब मैं कहाँ जाऊँ? प्रताप भवन मुझे क्यों स्वीकारेगा? समाज भी ठुकराएगा... मैं अपराधिन हो गई... पापिन हो गई." और वे रोने लगीं। जिम उनके पास आया। जेब से रूमाल निकालकर उनकी ओर बढ़ाया - "लीजिए, आँसू पोंछ लीजिए. मैं हूँ न। मेरे रहते आपको रोने की ज़रूरत नहीं।"
"आप! आप कौन हैं मेरे? बोलिए..."
"मैं आपके पति मिस्टर अभयसिंह का दोस्त हूँ। आपकी कोठी पर कितनी बार मैंने आपके हाथ का बना खाना खाया है। आप नहीं जानतीं... मैं उसी दिन आपके रूप का दीवाना हो गया था जिस दिन अपने नौकर के हाथ सब्जी का डोंगा पकड़ाते हुए बीच में पड़ा परदा उड़ गया था। वह पल भर का दर्शन मेरे जीवन की साध बन गया था... मालविका... कोहरे में लिपटी चाँदनी-सी आप नशा बनकर मेरे अंग-अंग पर छा गई थीं।"
मालकिन ने कानों पर हाथ रख लिए - "बस करिए... मेरे लिए यह सुनना भी पाप है।"
जिम अचानक उत्तेजित हो उठा - "और वह पुण्य था जो आपके परिवार वाले आपके संग कर रहे थे? आपका मर्डर कर रहे थे सब मिलकर। मैं चाहूँ तो सबको फाँसी पर चढ़ा दूँ। है कोई ऐसा कानून जहाँ इनसान को जिंदा जलाना धर्म है? सच कहिए... अपने इकलौते बेटे की कसम खाकर कहिए कि आप अपनी मर्जी से जलने को तैयार थीं? क्या आपके साथ जबरदस्ती नहीं कि गई?"
मालकिन ने सिर झुका लिया और फूट-फूटकर रो पड़ीं। फिर हमसे वहाँ रुका नहीं गया हुकम! मालकिन का रोना देखा नहीं जा रहा था।
कहते-कहते कोदू खुद भी रो पड़ा। आँसू तो हम सबके भी बहे जा रहे थे पर हमें उनका एहसास नहीं था। जो कुछ हुआ वह मेरे लिए सुखद था लेकिन अविश्वसनीय भी। पुलिस को खबर करके दादी को बचाने की मारिया की कोशिश ने मेरी नजरों में उसके प्रति मान और बढ़ा दिया था।
जैसे ही श्मशान घाट से सब वापस लौटे, बड़ी दादी कलपने लगी - "हे ईश्वर... इस खानदान की इज्जत मिट्टी में मिल गई. अब कैसे पार लगेंगे हम सब? अब कैसे बेटियाँ ब्याही जाएँगी? ऐसे कैसे हिम्मत पड़ी उस मुए फिरंगी की? मुझे तो दाल में काला नजर आता है। आता तो था... मुआ... सींग उठाए रोज मिलने... अब मैं बीमार। शरीर से लाचार। देखने वाला कौन? लो, कर लो देश को आजाद। अपनी दुलहिन तो सम्हाली नहीं गई. और रहो महीनों-महीनों घर से गायब... कट गई न नाक।"
"चुप भी रहो माँ... इतने रिश्तेदारों के सामने क्या अच्छा लग रहा है ये सब।" संध्या बुआ ने उन्हें चुप कराना चाहा तो वे उसी पर बरस पड़ीं - "तू भी उसी रंग में रंगी है, वैसे ही लच्छन हैं तेरे भी। घुसी रहती थी न चाची... चाची करके उसके कमरे में।"
उषा बुआ संध्या बुआ का हाथ पकड़कर ले जाने लगीं तो संध्या बुआ'जीजी'कहकर उनसे लिपटकर रोने लगी।
प्रताप भवन को जैसे साँप सूँघ गया। किसी की किसी चीज में रुचि नहीं रही थी। सब मानो जिंदगी ढो रहे थे और मैं पागल बनी प्रतीक्षा कर रही थी दादी के लौटने की, जबकि कोठी के दरवाजे उनके लिए बंद हो चुके थे। कितना निर्मम था सब कुछ। हृदयहीन बड़ी दादी के उठे एक कदम ने इनसानियत को कुचल डाला था... हाँ मेरी दादी इनसानियत की पर्याय थीं। इस घर की देखरेख और रौनक उनसे थी। मुझसे तो उनके कमरे की ओर देखा भी नहीं जा रहा था। जहाँ हमेशा दादी की उपस्थिति छत्र बनकर सब पर छाई रहती थी वहाँ अब जानलेवा सन्नाटा पसरा था। जानती थी, उनके बिना अब इस कोठी को भुतहा तब्दील होने में समय न लगेगा। मैंने पहली बार कोठी से बाहर अकेले घूमने का सोचा... निरुद्देश्य... शायद कुछ तसल्ली मिले। नहीं, किसी से मैंने जाने के लिए पूछा नहीं... हाँ, अम्मा को जता दिया था कि एक-दो घंटे में लौटूँगी। बग्घी तैयार थी। थोड़ी देर यूँ ही सड़कों पर बग्घी दौड़ती रही फिर मैंने मारिया के सेवा केंद्र जाने का आदेश दिया। सेवा केंद्र खूब हरा-भरा हो गया था। गेट पर लगे बोगनबेलिया में पीले, सफेद और मजंटा फूल खिले थे। बग्घी गेट पर रुकी। उतरते-उतरते मैंने चकित होकर देखा, सेवा केंद्र के गुंबद के नीचे बहुत बड़ा बोर्ड लगा है - "मालविका स्मृति केंद्र।"
अभिभूत और आलोड़ित थी मैं... मालविका के लिए प्रताप भवन के गेट पर ताला लगा है किंतु जन-जन के मानस में अंकित हैं वे... मारिया... मारिया... मैंने खुशी में भरकर चीखना चाहा। सामने थॉमस दिख गया।
"मिस पायल! आप!" और वह मुझे मारिया के केबिन में ले गया। मारिया कुर्सी पर बैठी रजिस्टर में कुछ लिख रही थी।
"आइए... पायल बाई."
उसने उठकर मुझे गले से लगा लिया। उसके माथे की चोट पर काली खुरंट जम गई थी। मुझे अपने माथे की ओर देखते पा वह हँस पड़ी - "ये आपके प्रताप भवन की निशानी है जिसे मैं कभी मिटने नहीं दूँगी क्योंकि ये मुझे याद दिलाती रहेगी कि वहाँ शैतान भी बसते हैं।"
मैंने सिर झुका लिया।
"छोटे साहब की डेथ का मुझे बहुत अफसोस है लेकिन इस बात की भी खुशी है कि छोटी आंटी सुरक्षित हैं। आपको पता है मैंने पुलिस बुला ली थी वहाँ। अगर मिस्टर जिम नहीं आते तो मैं छोटी आंटी को पुलिस की मदद से यहाँ ले आती। ओह... भयानक! भयानक दृश्य था वह... चिता के बीचोंबीच जिंदा इनसान का बैठे होना और जलने की प्रतीक्षा..."
"मारिया... प्लीज... कंट्रोल करो... ये समय पायल बाई को सांत्वना देने का है।" थॉमस ने कहा।
"ओह... सॉरी! मैं... मैं बहक गई थी... कुछ पिएँगी आप?"
"मैं कुछ लेकर आता हूँ।"
और थॉमस फुर्ती से चला गया।
"तुमने तो मारिया... शपथ ले ली है वहाँ न आने की?" अब बड़ी दादी का क्या होगा? "
"अच्छा! उन्हें है ज़रूरत तीमारदारी की?" मारिया ने व्यंग्य से कहा।
मैं कटकर रह गई.
"पायल बाई... मेरा व्रत गरीब, लाचार और शारीरिक तौर पर असहाय लोगों की मदद करना है और बड़ी आंटी ऐसी तो नहीं हैं... बड़ी कठोर शक्ति है उनमें। एक हँसती-खेलती जिंदगी को राख कर देने की शक्ति है उनमें। बल्कि अब तो मेरी कोशिश यही रहेगी कि मेरे मरीजों पर उनकी छाया भी न पड़े।"
मेरा दिल कतरा-कतरा हो गया और हर कतरे से खून रिसने लगा। मैं बिना खून की होने के लिए तड़प उठी। सुना है... बिना खून का इनसान पल भर भी जी नहीं पाता।