मालवगढ़ की मालविका / भाग - 22 / संतोष श्रीवास्तव
"पायल बाई... छोटी आंटी के साथ जो कुछ हुआ उसे मैं भूल नहीं सकती। मैं उनसे मिलने मिस्टर जिम के बंगले पर गई थी। पता चला उन्होंने छोटे साहब की डेथ के बाद से भोजन को हाथ भी नहीं लगाया है। रो-रोकर बुखार चढ़ा लिया है। माथे में भयंकर दर्द... आँखें शोलों जैसी दहक रही थीं। जिम ने डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठा कर ली थी पर न वे दवाई खा रही थीं, न इंजेक्शन लगवा रही थीं। मेरे पहुँचते ही टकटकी बाँधकर मुझे देखने लगीं। मैं उनसे लिपट गई तो उनकी आँखों से जैसे आँसुओं का सोता फूट पड़ा -" आंटी, प्लीज मत रोइए."
"मारिया, मैं मर क्यों न गई... इस तिल-तिल जलने से तो एक साथ, एक बार में ही जल मरना अच्छा था। क्या तुम्हारे साहब मुझे माफ करेंगे? उनकी आत्मा कलपती होगी।"
"आंटी... आपको तसल्ली रखनी होगी। आंटी सब ठीक हो जाएगा धीरे-धीरे।" मैंने झूठी तसल्ली देनी चाही तो वे बिफर पड़ीं - "नहीं, कुछ ठीक नहीं होगा... छूट गया मुझसे सब कुछ... मेरा घर द्वार... मेरे बच्चे... पायल, संध्या... क्या बिगाड़ा था मैंने जीजी का जो मुझे सती करना चाहा उन्होंने? मैंने तो अपनी तरफ से उन्हें कोई दुख नहीं दिया कभी! इनकी मृत्यु के बाद मेरे आँसू पोंछने की जगह मुझे मार डालने की साजिश?"
कहते-कहते उनका सारा शरीर पत्ते-सा काँपने लगा और पूरा चेहरा आँसुओं से भर गया। पायल बाई... इतने सारे गाँवों के जमींदार खानदान की छोटी आंटी की ऐसी दुर्दशा की मैंने कभी कल्पना भी नहीं कि थी। मैं अपने रूमाल से उनके आँसू पोंछती रही।
"मारिया... पल के पल में सब कुछ खतम हो गया मेरा। कल तक मेरा संसार आसमान की ऊँचाई तक था... आज पैरों के नीचे की धरती भी छिन गई. त्रिशंकु बनी मैं निर्वासन झेलने को विवश हूँ।"
अब मैं भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई. देर तक उनके साथ मैं भी रोती रही। थोड़ा नॉर्मल होने पर मैंने अपना मुँह धोया, उनका चेहरा गीले तौलिए से पोंछा और अपनी कसम दिलाकर दो-चार निवाले जबरदस्ती उनके गले के नीचे उतारे। फिर दवा खिलाई, इंजेक्शन लगाया। थोड़ी राहत मिलने पर वे सबके बारे में पूछती रहीं। आप बहुत याद आती हैं उन्हें पायल बाई... बस यही बोलीं - कि'न जाने क्या होगा संध्या का?'और चुपचाप लेट गईं। मैं उनका सिर सहलाती रही। जब वे सो गईं तो मैं आहिस्ता से उठकर बाहर आ गई. मिस्टर जिम कार से मुझे सेवा केंद्र छोड़ गए. रास्ते में बताने लगे कि किसी भी तरह सम्हल नहीं रही हैं मालविका... डरता हूँ, कहीं उन्हें कुछ हो न जाए. अगर प्रताप भवन उन्हें वापस बुला ले तो मैं खुद बड़े सम्मान के साथ उन्हें वहाँ छोड़कर आऊँगा। मैं आशंका से भर गई, कहीं प्रताप भवन में उन्हें प्रवेश नहीं मिला तो वह स्थिति छोटी आंटी के लिए बड़ी शर्मनाक होगी खासकर मिस्टर जिम के सामने। मैंने कहा -
"नहीं, ऐसा सोचिए भी मत। अब वे आपके साथ ही रहेंगी, मैं उन्हें मना लूँगी। मैं रोज उनकी देखभाल के लिए आऊँगी। आप चिंता न करें। थोड़ा वक्त गुजरने दीजिए. सब ठीक हो जाएगा।" जिम के चेहरे पर चमकती आस मैंने साफ देखी। पायल बाई... मैं रोज जाती हूँ बिला नागा उनके पास। मिस्टर जिम तो फरिश्ता हैं, मैंने इतना भला इनसान छोटी आंटी के बाद यह दूसरा देखा।
जाने कब मारिया चुप हो गई, कब उसने मेरे बहते आँसू पोंछे, मुझे तसल्ली दी, कॉफी पिलाई और दादी की खबर देते रहने का वादा कर बग्घी में मेरे साथ मुझे कोठी तक छोड़ने आई. मेरे लाख इसरार करने पर भी बग्घी से वह नहीं लौटी... पैदल ही आगे बढ़ गई... उस सड़क पर जो जिम के बंगले की ओर जाती थी।
रात को मैंने अम्मा बाबूजी से कहा - "मैं बनारस जाकर पढ़ना चाहती हूँ।"
बाबूजी चौंके - "बनारस?"
अम्मा सहम-सी गईं - "वह तो आंदोलन का गढ़ बना है और ज्यादातर क्रांतिकारी विद्यार्थी ही हैं।"
"तो क्या हुआ? मैं भी क्रांति में भाग लूँगी। देश को आजाद करूँगी। बाबा के अधूरे काम को कोई तो पूरा करे।"
थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा। बाबूजी ने समझौते का रुख अपनाया - "ठीक है, ये साल निकाल लो, अगले साल चली जाना।"
"नहीं बाबूजी मेरा मन नहीं लगता यहाँ... मैं दादी को भूल नहीं पाती... हर घड़ी मन में कचोट मची रहती है। अगर इसी तरह की हालत रही तो... हो चुकी मेरी पढ़ाई."
मेरी गंभीरता पर दोनों सोचने पर मजबूर हो गए. अपनी बात कहकर मैं उठने ही वाली थी कि बाबूजी बोले - "बेटी अगर तुम बनारस की बजाय शांतिनिकेतन जाकर पढ़ो तो कैसा रहे? शिक्षा की उससे अच्छी व्यवस्था और कहीं नहीं है।"
मुझे इनकार न था, मुझे बस यहाँ से हटना था। नहीं मन लगता मेरा यहाँ।
"ठीक है बाबूजी, जैसा आप कहें।"
"हम तुम्हें कल बताएँगे वहाँ जाने के बारे में।"
मैं मन-ही-मन आश्वस्त थी लेकिन विस्फोट तो होना था मेरे शांतिनिकेतन जाकर पढ़ने का। बाबा और दादी के चले जाने के बाद से फैला कब्रिस्तान जैसा सन्नाटा इस विस्फोट से थर्रा गया। बड़े बाबा निर्विकार थे। मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले - "पायल बेटे, मेरी तरफ से तुम्हें कोई भी फैसला करने की पूरी छूट है। तुम समझदार हो, अच्छा ही सोचोगी।"
लेकिन बड़ी दादी के दाँतों की आरी चल पड़ी - "तो अब इस घर के फैसले छोरियाँ करेंगी। वह भी बित्ते भर की छोरी... नाक पोंछने तक का तो शऊर नहीं... शांतिनिकेतन जाकर पढ़ेंगी... अपने बाप की बराबरी करना चाहती हैं, हम सब मर गए हैं क्या तेरे लिए?"
कोई कुछ न बोला। मेरे अंदर क्रोध की ज्वालाएँ भड़क उठीं। बड़े बाबा मुझे अपने सीने में दबोचे थे और लगातार पीठ थपथपा रहे थे।
"उलटी करनी तुम सब करते हो और भुगतती हूँ मैं। ये सब तुम लोगों की करनी का नतीजा है जो खटिया तोड़ रही हूँ मैं। वह कुलबोरन तो कुल को बोर कर चली गई... एक-एक कर तुम सब चली जाओ, फिर आ जाना मेरे कीड़े बीनने।"
सहसा बड़े बाबा ने मुझे झटके से छोड़ा और जाकर बड़ी दादी के बाल झँझोड़ डाले - "एक शब्द भी और कहा तो घोंट डालूँगा गला। जीना हराम करके रखा है सबका।"
"हाँ... हाँ... घोंट डालो। ऐबी तुम्हीं हो... तुम्हारे ही कारण मेरी ये दुर्गत हुई है।" और वे चीख-चीखकर रोने लगीं। पर वहाँ कोई झाँका तक नहीं... न कंचन, न जसोदा, न पन्ना... सब तटस्थ-से थे जैसे। संध्या बुआ ने मेरा हाथ पकड़ा और अपने कमरे में ले गईं-
"देख पायल, तू शांतिनिकेतन ज़रूर जाएगी। भाईसा से मैं खुद बात करूँगी। पर एक बात मत भूलना... जब मुझे तेरी ज़रूरत पड़ेगी तो तुझे आना होगा।"
मैं समझ गई. संध्या बुआ का इशारा उनके गुप्त विवाह की ओर था।
"हाँ बुआ, सिर के बल आऊँगी।"
उन्होंने मुझे सीने से लगाकर मेरा माथा चूम लिया - "यूँ भी मेरा मन डरता रहता है। कलकत्ता भी आंदोलन से सुलग उठा है। बुद्धिजीवी वर्ग... पत्रकार, संपादक, लेखक, प्रोफेसर सब आंदोलन में कूद पड़े हैं। पुलिस खुफिया भंडार का पता लगाने के लिए आम जनता को टॉर्चर कर रही है। अजय के लिए सोचकर काँप उठती हूँ... मैं उनके साथ होती तो चिंता नहीं थी... यहाँ चाची भी नहीं है, कौन साथ देगा मेरा। बस, तुम पर भरोसा है और एक प्रार्थना, थोड़ा रुक जाओ पायल, अभी परिस्थितियाँ कहीं जाने लायक नहीं हैं।"
"ठीक है बुआ... सैकेंड सैशन दिवाली के बाद शुरू होता है, मैं तब चली जाऊँगी।"
संध्या बुआ आश्वस्त हुईं - "शुक्रिया पायल, तुमने मेरी बात रख ली।"