मालवगढ़ की मालविका / भाग - 23 / संतोष श्रीवास्तव
अक्टूबर की एक शाम मारिया ने थॉमस के हाथ खबर भिजवाई कि फौरन आकर मिलिए. वैसे तो कभी लाइब्रेरी, कभी स्कूल, कभी मंदिर में मारिया आती थी और दादी के समाचार सुना जाती थी। वे अब काफी सम्हल चुकी हैं और सभी परिस्थितियों को उन्होंने स्वीकार कर लिया है। मेरा मन उनसे मिलने को तड़पता रहता था पर जाना नामुमकिन था... वैसे भी प्रताप भवन में पत्ता भी हिलता है तो सबको खबर हो जाती है। अब मैं भी सम्हल-सम्हलकर पाँव रख रही थी। वक्त से पहले बचपन बिदा ले चुका था और प्रौढ़पन ने दस्तक देनी शुरू कर दी थी।
मुझे तैयार होते देख संध्या बुआ भी साथ चलने के लिए तैयार हो गईं। अम्मा को हमने बता दिया था कि हम लोग सेवा केंद्र जा रहे हैं। जब बग्घी गेट पर रुकी तो देखा मारिया बेचैनी से हमारा इंतजार कर रही है। उसने बहुत खूबसूरत सिल्क की साड़ी पहनी थी और हलके-हलके मोती के जेवर भी।
"मेरे कमरे में चलिए, बताती हूँ सब।"
हम तीनों तेजी से कमरे में आए... उसने हमें कुर्सियों पर बैठाया और पहले से तैयार शरबत गिलासों में उँडेलकर सामने रख दिया।
"कुछ बताओ भी तो मारिया, बात क्या है?"
"आज मिस्टर जिम की शादी है।"
"शादी? किसके साथ?" संध्या बुआ ने आशंकित हो पूछा।
मारिया एक पल रुकी लेकिन फौरन ही उसने स्थिति स्पष्ट कर दी - "मिस्टर जिम छोटी आंटी से शादी कर रहे हैं। चर्च में, कैथोलिक तरीके से। मैं वहीं जा रही हूँ। छोटी आंटी ने खास आप दोनों को लेकर आने की प्रार्थना की है।" संध्या बुआ को जैसे अंगारा छू गया - "क्याऽऽऽ चाची शादी कर रही हैं?"
"क्यों नहीं... इस तरह कब तक दोनों साथ रह सकते हैं? और कोई चारा भी तो नहीं है।" मारिया ने निर्भीकता से कहा।
"चलिए, वरना देर हो जाएगी।"
"नहीं मारिया... हमारा जाना मुमकिन नहीं है।" संध्या बुआ ने कहा तो मैं झल्ला पड़ी - "मगर मैं जाऊँगी... मैं ज़रूर जाऊँगी।"
"बचपना मत करो पायल! हमारा वहाँ जाना ठीक नहीं है। भावावेश में तुम आगे तक का बिगाड़ कर लोगी। ज़रा सोचो, शादी में हमारा शामिल होना कितनी बड़ी बात रखता है। वह वजह बन जाएगा पूरे खानदान के शामिल होने का।"
संध्या बुआ की बात में वजन था। मारिया को भी यही ठीक लगा। उसने दूसरे दिन लाइब्रेरी में आकर सब कुछ बताने का आश्वासन दिया और चली गई.
रात बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। करवटें बदलते-बदलते मैं थक गई. पूरा प्रताप भवन रात की चादर में दुबका था। हलका-हलका जाड़ा पड़ना शुरू हो गया था। मुझे दादी के फैसले पर ज़रा भी अफसोस न था। आखिर वे कर भी क्या सकती थीं इसके सिवा... ऐसे ही जिंदगी नहीं बीत जाती! यहाँ तो उन्हें दूध की मक्खी-सी निकालकर फेंक दिया गया था जैसे इस कोठी में उन्हें कोई जानता ही न हो, जबकि सारी घटनाओं के लिए केवल बड़ी दादी जिम्मेदार थीं। क्या दोष था दादी का? क्या गुनाह किया था उन्होंने? कैसे मर-मरकर जी रही होंगी वे वहाँ? क्या हक था बड़ी दादी को उन्हें चिता की आग में झोंकने का? बाबा के बाद उनकी बगिया को सँवारने का क्या दादी का हक न था? क्या कोठी के कोने-कोने में बसी बाबा की आत्मा उनसे जवाब नहीं माँगती कि मेरे बाद तुम्हीं सब कुछ सम्हालने वाली थीं और तुम्हीं जीवन से पलायन कर रही हो? क्या अम्मा-बाबूजी के सुखी संसार को देख उनकी इच्छा न होती कि अपने तिल-तिल श्रम से उपजे सुख को वे भोगें? पर समाज ने ऐसा होने न दिया। दादी के लिए इस कोठी की देहरी पराई हो गई. बिरादरी बेगानी हो गई और वे स्वयं हव्य सामग्री बन गईं। कैसे स्वीकार किया होगा दादी ने उस विदेशी संस्कृति वाले माहौल को... कैसे भूल पाई होंगी कोठी के कोने आतड़ को, तीज, करवाचौथ को... पापड़, अचार को... बाबा के एहसास को। सोचते-सोचते मुझे ध्यान आया कि कब से मेरा तकिया आँसुओं से भीग रहा है, यह तो सुबह भी हो गई.
इंतजार था शाम होने का... लेकिन वह शाम हाथ से फिसल गई और मैं और संध्या बुआ मुँहबाए खड़े रह गए. खबर पूरे मालवगढ़ में जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी कि छोटी मालकिन ने जिम से शादी कर ली है। ईसाई हो गई हैं वे। सफेद फ्रॉक में दुल्हन बनी उन्हें कईयों ने चर्च में देखा था और यह भी खबर थी कि रात अंग्रेजों के डांसिंग फ्लोर पर अफ्रीकी ड्रम बजा था, शैंपेन खुली थी और देर रात तक मौज मस्ती की गई थी।
सारी बिरादरी थू-थू करने लगी। धिक्कार है ऐसी औरत पर जिसने हिंदू धर्म की मर्यादा को ताक पर रख दिया। जिसने पति की चिता की आग ठंडी भी न होने दी और सुहाग सेज सजा ली। ईश्वर कभी उस कुल कलंकिनी का अब मुँह न दिखाए.
बड़ी दादी दोहत्थड़ मारकर रोईं - "डायन निकली वह तो। ऐसे चलित्तर थे तभी तो जवानी में देवर साउठ गए. चली थीं सती होने... देवी कहलाने।"
कैसी ढुलमुल मानसिकता है लोगों की। जब वे सती हो रही थीं तो पवित्र आत्मा, देवी और कुलवधू थीं और जब आज उन्होंने जिंदा रहने की मजबूरी में अपने को एक पवित्र रिश्ते में बाँधा तो कुलच्छिनी हो गईं, डायन हो गईं? लेकिन मेरे लिए दादी उस महावृक्ष की तरह हैं, जिन्होंने न जाने कितने बसंत, कितने पावस के झंझावातों को झेलकर इस कोठी को सँवारा है। उनके विचारों की गहराई, ऊँचाई और सच्चाई समझने के लिए उन लोगों को उतना ही गहरा होना पड़ेगा। ऊँचाई क्या बिना शिखर पर चढ़े जानी जा सकती है?
दादी, तुम तो वह बूँद हो जिसे बादल ने मात्र पानी समझकर अपने से विलग कर दिया किंतु जो सीप में पकड़कर मोती बन गई. तुम मेरे मन में मोती-सी जड़ गईं दादी... तुम्हारे साहस ने अब मुझे किसी भी अन्याय के आगे न झुकने के लिए मजबूत बना दिया है। अब मैं शान से अपनी मर्जी से जिंदगी जीयूँगी और किया भी मैंने वही।
द्वितीय सत्र आरंभ होते ही मेरा शांतिनिकेतन के छात्रावास में दाखिला हो गया। जाने से पहले मैं दादी से मिलना चाहती थी पर पता चला वे यूरोप घूमने के लिए गई हैं और महीने भर बाद लौटेंगी, यह भी पता चला कि अब शायद वे यहाँ न रहें, शिमला जाकर रहें... वहाँ पहले से ही जिम का कॉटेज है और सेबों का बगीचा भी। अच्छा ही है। यहाँ रहेंगी तो कोठी की याद सताएगी। इस सड़क से गुजरेंगी तो कोठी के कंगूरों पर बाबा की निगाहें मुस्कुराती देखेंगी... शायद अब इतना साहस उनमें बचा न हो।लेकिन मैं शुक्रगुजार हूँ जिम की जिसने देवदूत-सा आकर मेरी दादी को बचाया। जीवन सागर की एक लहर ने दादी के साथ बगावत कर दी थी। वे डूब ही जातीं अगर तिनके की तरह जिम न आते। उन्होंने दादी को नई जिंदगी दी। उनसे शादी करके अपने प्यार को सम्मान दिया।