मालवगढ़ की मालविका / भाग - 24 / संतोष श्रीवास्तव
शांतिनिकेतन के आम्रकुंजों में, आकाश की छत के नीचे लगी कक्षाओं में पढ़ते हुए मैं रोमांचित थी। लगता था जैसे मैं प्राचीन काल में गुरुकुल आश्रम की कोई तपस्विनी शिष्या हूँ। ऐसा अद्भुत स्कूल मैंने पहली बार देखा, सबसे ज़्यादा प्रभावित किया मुझे नंदलाल बोस और रामकिंकर बेज की मूर्तिकला और भित्तिकला ने। काली मिट्टी से बने कला भवन की दीवारों पर काली मिट्टी से ही उभारी गई प्राचीन लास्य नृत्य में लीन अप्सराओं और देवताओं की मूर्तियों ने मेरा मन मोहित कर लिया। मैंने यहाँ बातिक कला भी बाकायदा सीखनी शुरू कर दी जिसकी कक्षाएँ ताल कुटीर में होती थीं। ताड़ के वृक्ष को घेरकर बनाया गया ताल कुटीर। मैं नियमित विश्व भारती प्रकाशन विभाग पुस्तकालय भी जाने लगी। मन ऐसा रम गया था कि कुछ दिनों के लिए मालवगढ़ का खयाल तक न आया लेकिन तभी अम्मा का खत आया कि "क्रिसमस की छुट्टियों में तुम्हें लेने तुम्हारे बाबूजी आ रहे हैं... फौरन चली आओ."
फौरन! क्यों? दो महीनों में ही मेरी क्या ज़रूरत आन पड़ी वहाँ? मेरा इरादा तो इन छुट्टियों में शांतिनिकेतन शिक्षा केंद्र को पूर्णतया समझने का था। यह केवल स्कूल नहीं है बल्कि इनसान को इनसानियत में खरा करने की एक विशाल कसौटी है और यह तय है कि इस कसौटी पर परीक्षित किया इनसान कभी भटक नहीं सकता।
मुझे जाना पड़ा। बाबूजी आए थे लेने और बगैर एक दिन भी रुके वे मुझे फौरन ले गए. रास्ते में पढ़ाई के विषय में औपचारिक बातें होती रहीं। मैं भाँप गई थी कि कोई गंभीर मसला ज़रूर है पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मुझे मालवगढ़ आने तक धैर्य रखना पड़ा लेकिन कोठी में प्रवेश करते ही मानो स्थिति स्पष्ट हो गई. संध्या बुआ की आँखें लाल थीं और अम्मा ने मुझे उनसे उस वक्त कुछ भी पूछने को मना कर दिया था। अम्मा मुझे अपने कमरे में ले गईं। जसोदा मेवों वाला दूध और घेवर ले आई और अपने हाथ से मुझे खिलाने लगी। अम्मा ने उसी के सामने मुझसे पूछा - "संध्या बाई और अजय की शादी के समय मंदिर में तुम थीं न?"
मेरे काटो तो खून नहीं... तो राज खुल गया।
"बताओ पायल, एकमात्र तुम्हीं चश्मदीद गवाह हो उस शादी की क्योंकि तुम्हारी दादी तो यहाँ हैं नहीं... मुझे सब कुछ विस्तार से बताओ."
"हाँ पायल बिटिया, बता दीजिए सब क्योंकि संध्या बाईसा ने अपने मुँह से ही हुकम के आगे शादी की बात कबूल कर ली है।" जसोदा ने इसरार किया तो मैं दंग रह गई. संध्या बुआ ने पूरे घर के सामने खुद ही अपनी शादी का ऐलान कर दिया था और अब वे चाहती थीं कि उनकी बिदा कर दी जाए.
बड़ी दादी ने माथा पीट लिया था।
"अरे, ये क्या उलटी-सीधी बातें सिखाती रही मालविका इन सबों को।"
बड़ी दादी अब उन्हें दुल्हन नहीं कहती थीं। जसोदा, कंचन और पन्ना की तरह उन्हें भी नाम से संबोधित करती थीं।
"हमें तो कुछ पता ही नहीं चला। न कुछ बताया गया और उधर शादी भी कर आई जाकर। खुद के बेटी होती तो क्या इसी तरह टारती उसे।"
"हाँ पायल, बताओ क्या-क्या हुआ था।"
बड़ी दादी के कमरे में दरबार लगा था। संध्या बुआ अपराधी के कठघरे में थीं और मैं गवाह के... अम्मा, बाबूजी, बड़े बाबा, रजनी बुआ और तमाम सेविकाएँ भी वहाँ मौजूद थीं। संध्या बुआ ने चुनौती भरी नजरों से मुझे देखा कि देखें कितनी कूबत है तुममें सच उगलने की। मेरे सामने एक संपूर्ण जीवन था... सिर्फ मेरी गवाही संध्या बुआ को उस जीवन में प्रवेश करने की अनुमति दिला सकती थी। दादी शिमला चली गई थीं और जिम के बंगले में ताला था। और यहाँ थीं बड़ी दादी, पितृसत्ता की पक्षधर... उनकी नजर में विधवा का शादी कर लेना गुनाह था, लड़कियों का मर्दों की बराबरी से चलना गुनाह था... फिर संध्या बुआ ने तो मर्दों तक को मात दे दी थी। उन्हें डूब जाने का डर नहीं था इसीलिए बड़े आराम से उन्होंने अपने लिए घरौंदा बना लिया था।
"अरी, गूँगी बनी क्यों खड़ी है?"
मुझे मानो चिंगारी छू गई - "हाँ, बुआ की मंदिर में शादी हो चुकी है। माँग में सिंदूर भी भर दिया अजय ने जयमाला पहनाकर..."
"अरी कुलच्छिनी, कुलबोरनी... मर जाती तू सोबर में तो मैं गंगा नहा लेती। देख... देख... ये पाँव मेरे कितने सूज गए हैं... सब तेरी करनी से... अरे कब तक भुगतूँ मैं... शाप लग गया इस कोठी को... कहते थे मेरे मायके के पंडितजी कि मत करो इस खानदान में शादी, भुगतेगी लड़की जिंदगी भर।"
"माँ, क्यों कोसती रहती हो खुद को और सबको, क्या मिलता है तुम्हें।"
"मिला न, कुलतारिनी होने का प्रसाद मिला न मुझे। अरे वाह! मुँहजोरी तो देखो इस धींगड़ी की। करतूत करके अब मुझी पर चढ़ी जा रही है।"
"हाँ, मैंने करतूत की... पाप किया... सब पापी हैं इस घर में... चाची भी पापी हैं... सब पापी हैं... सब पापी हैं... पर तुम तो पुण्यात्मा हो, तो लो, रोओ मेरी लाश पर।"
और संध्या बुआ ने सामने रखी फलों की डलिया से चाकू उठाकर अपनी कलाई की नसों को काटने के लिए कलाई पर जोर से मारा। अम्मा और मैं उन्हें रोकने दौड़े तो चाकू हमारी ओर तान दिया - "कोई आगे मत बढ़ना वरना पेट में भी भोंक लूँगी ये चाकू।"
उनकी आँखों में अपने को स्वाहा करने की वहशत सुलग उठी थी। हम जहाँ के तहाँ रुके थे पर कंचन और जसोदा ने दबे पाँव पीछे से जाकर उन्हें दबोच लिया और चाकू छीन लिया। संध्या बुआ की कलाई लहूलुहान थी पर नसें नहीं कट पाई थीं। सब हक्का-बक्का थे इस कांड से। कलाई से बहता लहू फर्श पर टपक रहा था पर दर्द की एक लकीर भी उनके चेहरे पर न थी। बड़ी दादी खामोश थीं और मुँह में पल्ला ठूँसे रो रही थीं। बड़े बाबा बाहर चले गए थे और बाबूजी संध्या बुआ को अपने से चिपटाकर उनके कमरे तक ले आए थे। जो देखा वह मेरे दिल में खुद गया हमेशा के लिए... हमेशा के लिए आँखों के आगे बिछ-सा गया... लगता है जैसे ये धड़कते हुए पल धीरे-धीरे आकार लेकर एक विशाल आग का गोला बन गए हैं और फिर उस गोले में विस्फोट हुआ है और एक जला हुआ टुकड़ा उसमें से गिरा है, यह टुकड़ा प्रेम था और वह प्रेम मेरी संध्या बुआ हैं। धीरे-धीरे आग ठंडी पड़ गई और सारी कायनात अँधेरे के आगोश में समा गई.
सुबह बाबूजी ने फैसला सुनाया कि संध्या बुआ की शादी हम सबको स्वीकार है और चूँकि बाबा को गए अभी पूरा साल नहीं हुआ है लेकिन फिर भी शुद्धि कराके एक सादे समारोह में शादी का ऐलान करके उन्हें बिदा कर दिया जाए. जब देश के हालात ऐसे चल रहे हैं कि कभी भी वक्त क्रांति की आग प्रताप भवन को भी छू सकती है... देशभक्तों में सिर कटाने की होड़ लगी है, खून की नदियाँ बह रही हैं ऐसे में हम अपनी परंपराओं, मान्यताओं से चिपके रहें, यह शोभा नहीं देता।
बाबूजी अचानक बाबा की जगह ले चुके थे। वैसी ही सोच, गंभीरता उनमें आ गई थी। जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें बुजुर्ग बना दिया था।
मैंने दादी को मारिया की मार्फत खत लिखा था -
"दादी, आप यहाँ नहीं हैं और संध्या बुआ बिदा हो रही हैं। एक भयानक कांड होते-होते रह गया और संध्या बुआ बच गईं, हमें वापस मिल गई वरना क्या से क्या हो जाता। आपके जाते ही प्रताप भवन पर दुर्भाग्य के घने बादल छा गए हैं। ऐसा होगा ही... जब कोई पुण्यात्मा कलपाई जाए तो ऐसा होगा ही। अपने दुखों को खुद ही निमंत्रण दिया प्रताप भवन ने... वजह बड़ी दादी बन गईं। खैर, संध्या बुआ की बिदाई के साथ ही मैं शांतिनिकेतन लौट जाऊँगी इस फैसले के साथ कि मैं कभी शादी नहीं करूँगी। मैं शादी करने के बाद जिंदा चिता में जलने, किसी के हाथों की कठपुतली बनने, बिस्तर पर सड़ने और कलाई की नसों को काटने के लिए तैयार नहीं हूँ। मेरे लिए मेरा जीवन एक चुनौती बन गया है और मैं इस चुनौती का वरण करने जा रही हूँ। बहरहाल मैंने पूरी हिम्मत से बुआ की शादी का आँखों देखा विवरण सुनाकर अब उस पर प्रताप भवन की रजामंदी का ठप्पा लगवा लिया है। बुआ के साथ ही मैं भी शांतिनिकेतन चली जाऊँगी। दादी, आप मुझसे वहाँ मिलने आइए न। मैं आपके लिए छटपटा रही हूँ, प्रताप भवन खाने को दौड़ता है इसीलिए मैंने शांतिनिकेतन में पढ़ना शुरू किया है और इसीलिए संध्या बुआ भी जा रही हैं, बाबा की बरसी के पहले ही। आपसे मिलने की प्रतीक्षा में - आपकी माँ पायल"
धार्मिक अनुष्ठानों, शांति पाठ, तर्पण, हवन आदि कराके बाबूजी ने बाबा के शोक से भरे पूरे साल को समेटकर चार महीने का कर दिया और प्रताप भवन में दबी-दबी शहनाइयाँ बज उठीं... जाहिर था लोग उँगलियाँ उठाएँगे... उठीं भी - "आज तक राजपूतों में ऐसा तो हुआ नहीं कभी जैसी चलन प्रताप भवन चला रहा है। अपने गौरवशाली अतीत को धूल में मिलाने पर तुला है वरना एक समय वह भी था कि जमींदार प्रतापसिंह का नाम लेकर लोग कसमें खाते थे। क्या जमाना आ गया है।" लेकिन बाबूजी के पास ठोस तथ्य थे। एक तो देश की डाँवाँडोल परिस्थिति, बड़ी दादी की निरंतर गिरती जा रही शारीरिक हालत और फिर अगले दो वर्षों तक अशुभ ग्रहों का कुंडली में रहना हमें मजबूर करता है शादी के लिए.
लिहाजा फुसफुसाहटें दब गईं और मालवगढ़ समारोह में शामिल हो गया। फिर भी अजय की जिद थी कि ज़्यादा धूमधाम न हो... बहुत कम रिश्तेदार आ पाए. उषा बुआ और राधो बुआ आ गई थीं। कुछ रिश्तेदार शादी की तैयारी से निकले भी तो क्रांति के अंदेशे से वापस लौट गए. भारत ने आजादी पाने के लिए जो करवट बदली थी वह देशव्यापी थी।
सबने महसूस किया मानो संध्या बुआ की इस तरह शादी करके बला टाली गई है। माना, बाबा के देहावसान के बाद प्रताप भवन भी तमाम घटनाओं का केंद्र बन गया था लेकिन उषा बुआ की शादी की धूमधाम जैसा एक अंश तो होता। सब यही कह रहे थे कि दादी जैसा इंतजाम करना किसी के बूते की बात नहीं है। बिना दादी के प्रताप भवन चरमरा गया था और उसकी चरमराहट की पहली गूँज थी मेरा शांतिनिकेतन प्रस्थान... और दूसरी संध्या बुआ की बेरौनक शादी।