मालवगढ़ की मालविका / भाग - 25 / संतोष श्रीवास्तव

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बिदा होकर संध्या बुआ अजय फूफासा के घर पूरे क्रिसमस वेकेशन रहीं और छुट्टियाँ समाप्त होते ही हम साथ-साथ कलकत्ता लौटे। चलते समय अम्मा ने कहा था -"पायल, इधर वीरेंद्र की पढ़ाई की डाँवाँडोल स्थिति है... उसे भी शांतिनिकेतन भेजने का सोच रहे हैं तुम्हारे बाबूजी."

"लेकिन इस साल नहीं... अगले साल! तुम हर हफ्ते पत्र लिखना बेटी... मेरा मन ही नहीं लगता यहाँ। लेकिन रजनी बाई के कारण मैं हिल भी तो नहीं सकती यहाँ से।"

मैं अम्मा की मजबूरी समझती थी। यह भी जानती थी कि अभी तो स्थिति सुधरने में सालों लगेंगे। दस साल तक तो रजनी बुआ की शादी का सवाल ही नहीं उठता। फिर उन्हें तो वकील बनना है।

"क्यों जलाती हो यह कहकर मुझे... पायल! मेरी वकील बनने की जिद ने ही चाचा-सा की जान ली... चाची-सा के लिए ये घर पराया हो गया। सारे बवाल की जड़ मैं ही हूँ।"

और वे रो पड़ीं। मैंने उन्हें गले से लगा लिया। निःशब्द वे अपनी तेज धड़कनों से बड़ी देर तक अपनी मनःस्थिति उजागर करती रहीं। फिर आँसू पोंछे -

"सब चले गए... दोनों जीजियाँ, चाची सा... तुम भी जा रही हो पायल। घर काटने को दौड़ता है अब। सबने अपने-अपने ठिकाने खोज लिए, मैं कहाँ जाऊँ?"

अब की अम्मा ने उन्हें हुलसकर लिपटा लिया - "मैं हूँ न! और फिर तुम तो मेरी बेटी जैसी हो... ननद तो बस रिश्ते भर की हो। अब पायल जा रही है तो क्या तुम मेरी देखभाल नहीं करोगी?"

"भाभी सा..." रजनी बुआ के कातर शब्द उनकी हिचकियों में दब गए.

हावड़ा स्टेशन पर हम जैसे ही उतरे मेरा मन खुशी से और आश्चर्य से भर गया। दादी और जिम हमारी ओर तेजी से आ रहे थे। दादी के हाथ में फूलों की मालाएँ थीं और वे बेहद सुंदर ढाका सिल्क की साड़ी और पूरी बाँह का ब्लाउज पहने थीं। उसी रंग का पश्मीने का शॉल। उनके माथे पर सिंदूर की बिंदी जगमगा रही थी। कोट, पतलून और टाई में जिम को मैं पहली बार देख रही थी। नहीं... पहली बार नहीं... धुँधला-धुँधला याद आया... यह चेहरा कोठी पर भी देखा है मैंने। हाँ, बाबा के समय जिम आते रहे हैं वहाँ। मैं'दादीऽऽ'कहती तेजी से उनसे लिपट गई. उनका भी पूरा शरीर सिसकियों से हिल उठा। मैंने महसूस किया दादी काफी दुबली हो गई हैं। उन्होंने अजय फूफा-सा और संध्या बुआ को भी अपने से लिपटाकर मालाओं से सजा दिया। सब रो रहे थे... कहता कोई कुछ भी न था। मानो वक्त थम गया था, ठिठककर हमारी बरबादी और क्षणिक खुशहाली पर वह ठगा-सा खड़ा था। न जाने कितने लम्हों, घंटों, दिनों, महीनों का ज्वार हमारे दिलों को आलोड़ित किए था। हमसे छूटा हमारा वक्त, निर्वासित हुए हम सब और सामने पड़ा जिंदगी का लंबा रास्ता जिस पर चलना हमारी मजबूरी थी। हमें देख जिम ने भी चश्मे के अंदर बहते अपने आँसुओं को पोंछा और कहीं और देखकर जैसे ही इशारा किया, बैंड बज उठे। प्लेटफार्म पर ही दादी ने बैंड का इंतजाम किया था। जब हम नॉर्मल हुए तो दादी ने जिम से हम सबका परिचय कराया। फिर हम फूलों से सजी कार में बैठकर दादी के द्वारा अरेंज किए बेहद आलीशान होटल में आए जहाँ जिम के अंग्रेज दोस्तों का जमघट, शानदार डिनर और रिकॉर्ड प्लेयर हमारा इंतजार कर रहा था। दादी ने, शादी में जो कसर रह गई थी वह पूरी कर दी।

"संध्या... तुम्हारी शादी कोई मामूली घटना नहीं है... ये दो ऐसे दिलों का मिलन है जो सिर्फ प्रेम करने के लिए ही दुनिया में आए... मेरी तुम दोनों ही से प्रार्थना है कि अपने दिल की आवाज पहचानने का, सुनने का अपने में माद्दा पैदा करो। शादी तो सभी करते हैं पर कोई एक शादी ही मिसाल बनती है।"

संध्या बुआ का सिर झुका था... दादी ने उन्हें पुनः गले से लगाया और मेरी ओर मुखातिब हुईं -

"और तुम पायल! तुमने जो संध्या के लिए गवाही दी है उसने मेरा सिर ऊँचा कर दिया... इसीलिए तो मैं तुम्हें साथ लेकर आगे बढ़ी थी क्योंकि तुममें साहस की परछाई मैंने देख ली थी। और संध्या, तुम्हें पायल का शुक्रगुजार होना चाहिए. जानती हो इसी के खत से मुझे तुम्हारी शादी की बात और यहाँ आने की तारीख पता चली।"

"आपकी माँ जो है ये... फिर भूल कैसे सकती है?" संध्या बुआ ने मेरे गाल दबाए. जिम दूसरे कमरे में बैठे अपने दोस्तों के पास अजय फूफा-सा के साथ चले गए तो एकांत होते ही दादी ने कोठी का हाल विस्तार से पूछा। बीच-बीच में रोती भी जा रही थीं वे। लेकिन आश्वस्त भी थीं। बताया -

"मिस्टर जिम बेहद भले और सभ्य इनसान हैं बल्कि तुम्हारे बाबा के बाद यही मुझे पूर्ण इनसान नजर आए. इन्होंने किसी बात का दबाव मुझ पर नहीं डाला। अगर मैं कोठी में जाना चाहती तो ये भेज देते पर मैं ही नहीं गई. जहाँ से जलाने के लिए निकाली गई वहाँ मेरा जिंदा होना कैसे कबूला जाता? मिस्टर जिम मुझे कुछ भी याद नहीं करने देते। उनका मानना है कि बीते हुए लम्हे इनसान के कदमों को आगे बढ़ने से रोकते हैं। उन्हें वक्त की कब्र में दफन कर देना चाहिए."

"दादी... मुझे माफ करें लेकिन न जाने क्यों मन बेताब है यह जानने के लिए कि आप खुश तो हैं न?" मैंने हिम्मत करके पूछा।

"ये बात जिम से पूछो क्योंकि मेरा तो यह दूसरा जन्म है। पहले जन्म के दुख दूसरे जन्म में सालें, ऐसा कहाँ संभव है?"

"मैं शिमला आऊँगी दादी।"

वे मुस्कुरा दीं... शायद उनके मन की भीतरी परतों में कोई नासूर था जिसने उनकी जबान खुश्क कर दी थी।

रात भर जश्न होता रहा। सुबह दादी और जिम मुझे कार से शांतिनिकेतन पहुँचा गए. अजय फूफा-सा और संध्या बुआ भी मुझे पहुँचाने आए थे।

"लौटते हुए हम संध्या और अजय को उनके बंगले पर छोड़कर रात की फ्लाइट से दिल्ली चले जाएँगे। दिल्ली में हमें थोड़ा काम है... वहाँ से दो दिन बाद शिमला..."

"इतनी ठंड में शिमला... वहाँ तो खूब बर्फबारी हुई है।"

मुझे लगा दादी अपने उसी अंदाज में कहेंगी -'पुरखिन, सब खबर रखती है।'

लेकिन वे चुप रहीं... बस, मुझे लिपटा लिया और पीठ थपथपाती रहीं।

१५ अगस्त १९४७ की मध्यरात्रि, जब सारा संसार सो रहा था, आजाद भारत धीरे-धीरे अपनी आँखें खोल रहा था। ब्रिटिश साम्राज्य का यूनियन जैक दिल्ली के लाल किले से उतार दिया गया था और भारत का तिरंगा झंडा अपनी पूरी शान से लहरा रहा था। कलकत्ता की सड़कों पर इस वक्त सन्नाटा रहता है और जरा-सी आहट पर कुत्ते भौंकने लगते हैं। सारा वातावरण रात की काली चादर ओढ़ निष्क्रिय और सुषुप्त रहता है किंतु उस मध्यरात्रि की चहल-पहल का कहना ही क्या था। सड़कें कोलाहल में डूबी थीं, प्रकाश और उज्ज्वलता दीपों में साकार थी, हलवाइयों ने अपनी दुकानें खोल दी थीं और संदेश, रसगुल्ले लुटाने शुरू कर दिए थे। रात दुल्हन-सी सज उठी थी। और क्यों न सजे... ये स्वतंत्र भारत की पहली रात थी। वर्षों की गुलामी का एक ऐसा दस्तावेज जिस पर शहीदों ने अपने रक्त से हस्ताक्षर किए थे और जो हमारा वसीयतनामा था... काश। आज बाबा होते... तो देखते कि जिन अंग्रेजों की भीतर-ही-भीतर जड़ें खोदने में वे लगे थे... उस अंग्रेजी साम्राज्य का महावृक्ष जड़ से उखड़कर धरती पर गिर पड़ा था।

मैं संध्या बुआ के बंगले पर थी। उस रात घर में काफी मिठाइयाँ होने के बावजूद संध्या बुआ ने घी में सूजी भूनकर हलवा बनाया था और हलवे की प्लेट कतरे हुए मेवों से ढककर, वर्क लगाकर द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को भोग लगाया था। अजय फूफा-सा ने देशभक्ति के गीतों का रेकॉर्ड लगाया था और बंगले की बाउंड्री वॉल के बाहर पटाखे, अनारदाने छोड़े थे। दादी ने भी दीपक जलाए होंगे... कृष्णजी को भोग लगाया होगा... क्या पता, सत्ता की समाप्ति से जिम उदास हों या...

तभी फोन की घंटी बजी. फोन बुआ ने उठाया और उस तरफ की आवाज सुन चहकीं - "चाचीसा! ... बधाई, बहुत-बहुत बधाई... इस दिन का इंतजार वर्षों से था। चाचासा की तपस्या फलीभूत हुई. हम आजाद हो गए... हाँ देती हूँ पायल... चाचीसा का फोन है..."

मैंने झपटकर फोन लिया - "ओह दादी... आप सामने होतीं आज... सच्ची... मैंने इतनी खुशी आज तक कभी महसूस नहीं की। लेकिन दादी, अब तो आप लंदन चली जाएँगी... और फिर कभी नहीं मिल पाएँगी।" मैं रो पड़ी थी। दादी भी रो रही थीं... दोनों ओर से सन्नाटा था। दोनों ओर भावातिरेक में भरे गलों की चुप्पी थी। तभी रिसीवर जिम ने लिया और अंग्रेजी में बधाई देकर तुरंत साफ, स्पष्ट हिन्दी में कहा - "हम लंदन नहीं जाएँगे पायल, डोंट वरी, लंदन में हमारा क्या है? मेरा जन्म यहीं हुआ, भारत की मिट्टी में पल-बढ़कर मैं बड़ा हुआ। भारत मेरा है, मैं यहीं रहूँगा। खुश।"

और मारे खुशी के मेरे आँसू निकल पड़े। फोन का रिसीवर रखकर मैं चीखी -"बुआ... दादी लंदन नहीं जाएँगी। यहीं रहेंगी।"

वह रात हमारी दोहरी खुशी में जागरण करते बीती।