मालवगढ़ की मालविका / भाग - 26 / संतोष श्रीवास्तव
भले ही मैं दादी से मिल नहीं पाती थी लेकिन मेरे लिए ये तसल्ली काफी थी कि वे भारत में हैं और जिम के साथ प्यार और समझौते से भरी खुशहाल जिंदगी जी रही हैं। कई बार चाहा शिमला जाऊँ... दादी के पास थोड़ा वक्त गुजारूँ लेकिन जाना नहीं हो पाया। मैं अपनी पढ़ाई में तन-मन से आकंठ डूबी थी हालाँकि अम्मा के खत मुझे विचलित कर जाते...
पायल... मेरी गुड़िया,
पढ़ाई के प्रति तुम्हारे रुझान ने वर्षों से कसमसाते मेरे मन को राहत पहुँचाई है। मैं भी पढ़ना चाहती थी, जीवन में कुछ कर दिखाना चाहती थी लेकिन वक्त की मजबूरी और मेरी अपनी कमजोरी... कुछ कर न सकी मैं... जीवन के उतार-चढ़ाव में बिंधती चली गई... लेकिन तुम पर मेरा भरोसा है... तुम अपनी जिंदगी उसी ढंग से जी पाओगी जैसी मैं अपने लिए चाहती थी। ईश्वर तुम्हारे साथ है। इधर प्रताप भवन पर मँडराते दुर्भाग्य के स्याह बादल छँटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। बड़ी अम्माजी पूर्णतया बिस्तर से लग चुकी हैं। उनके अंग-अंग में बीमारी ने डेरा डाल लिया है लेकिन जबान की अकड़न वैसी की वैसी है -'दूसरों का किया बच्चियाँ भुगत रही हैं। रजनी की कहीं शादी ही नहीं लगती। उधर पायल भी जवान हो रही है।'उनका कोसना सुनते-सुनते मन अथाह दर्द से भर उठता है। तुमने अच्छा किया जो कोठी से कोसों दूर पढ़ने चली गईं वरना तुम्हारा मन इन बातों से दुर्बल हो उठता। लेकिन पायल, मुझे पूरा विश्वास है कि अपनी योग्यता, मनोबल को तुम कभी कम नहीं होने दोगी।
अम्मा के खत की आखिरी पंक्तियों ने मेरे मन को अधिक मजबूत कर दिया। हाँ... मैं दृढ़ रहूँगी अपने इरादे में और अपनी औरत होने की नियति से भी लडूँगी।
एम.ए. करने के बाद मैं कलकत्ते में ही कॉलेज में लैक्चरर हो गई और संध्या बुआ के साथ रहने लगी। मेरी नौकरी करने की खबर सुनकर बहुत हंगामा किया था बड़ी दादी ने। बोल-कुबोल बोले थे। नाते रिश्तेदारों ने भी नाक-भौं सिकोड़ी थी। मगर उन बातों का मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ बल्कि अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए मैं और अधिक दृढ़ संकल्प हो गई. रजनी बुआ की शादी भी बड़ी मुश्किलों से तय हो गई थी। दिक्कतें तो बहुत आईं। जहाँ भी शादी लगती, दादी और जिम के रिश्तों का हवाला पहले पहुँच जाता। उस घर में कौन संबंध करना चाहेगा जहाँ ऐसा कांड होकर चुका हो किसी को भी गहराई से उस घटना का तो पता नहीं था। दोष पूरा दादी पर... न जाने कैसे... शायद सिंगापुर में बसा होने के कारण इस परिवार से रजनी बुआ की शादी तय हो पाई थी। हीरे का व्यापार था उनका। स्वाभाविक दिन होते तो उतनी दूर शादी करना किसी को गवारा न होता लेकिन अब तो जैसे-तैसे हाथ पीले करने थे। अम्मा ने ही शादी की पूरी जिम्मेदारी उठाई. देवउठनी एकादशी के बाद का मुहूर्त निकला। तय हुआ कि संध्या बुआ पंद्रह दिन पहले चली जाएँगी, मैं और अजय फूफासा ऐन वक्त पर ही पहुँच पाएँगे। तमाम रिश्तेदार आ ही जाएँगे, काम की किल्लत नहीं होगी।
अभी सूरज पूरी तरह निकल नहीं पाया था... मैं बरामदे में बैठी आज दिया जाने वाला अपना लैक्चर तैयार कर रही थी लेकिन मन नहीं लग रहा था। रह-रह कर मैं प्रताप भवन पहुँच जाती... तो बन गईं रजनी बुआ गृहस्थन... अब वकील कैसे बनेंगी वे? खा गईं न मात परिस्थितियों से? बाबा ठीक कहते थे रजनी बुआ कभी वकील नहीं बन सकतीं।
नौकर ट्रे में चाय की केतली और प्याले लाकर रख गया। प्रायः हम तीनों सुबह की चाय साथ बैठकर पीते थे। संध्या बुआ तरोताजा और खिली-खिली-सी लग रही थीं। रजनी बुआ की शादी से वे बेहद खुश थीं और चाहती थीं कि जल्दी-से-जल्दी मालवगढ़ पहुँच जाएँ। चाय प्यालों में डालकर उन्होंने फूफासा को आवाज दी - "आइए" फूफासा के हाथ में अखबार और एक लिफाफा था। लिफाफा उन्होंने मेरी ओर बढ़ाया - "पायल, ये तुम्हारा पत्र।"
पत्र लेकर जैसे ही मेरी नजर लिफाफे पर पड़ी मन तेजी से उसे खोलने को बेताब हो उठा क्योंकि उस पर इटली की मोहर लगी थी। रोम यूनिवर्सिटी से पत्र आया था और इस जानकारी से भरा कि मेरा आवेदन पत्र मंजूर कर लिया गया था और मुझे पी-एच.डी. के लिए स्कॉलरशिप पर तीन वर्षों के लिए बुलाया गया था। मैं खुशी से लगभग चीख-सी पड़ी थी - "बुआ... फूफासा..."
"हाँ... क्या हुआ?"
"देखिए तो ये पत्र... ओह गॉड... यकीन नहीं हो रहा।"
उन्होंने मेरे हाथ से पत्र लेकर बारी-बारी से पढ़ा। संध्या बुआ ने तो मेरे कंधे पकड़कर उठाते हुए मुझे चूम ही लिया - "मुझे तुम पर गर्व है पायल।"
"संध्या... तुम्हारी भतीजी तो कमाल की निकली।"
"ओह... मैं अपनी खुशी बयान नहीं कर पा रही हूँ। अजय, तुम खुद जाकर इसके लिए रसगुल्ले लेकर आओ... पहले मैं द्वारकाधीश को भोग लगाऊँगी... रसगुल्ले भी, और राजभोग भी।"
"सच पायल... बहुत बड़ी जीत है तुम्हारी। हम इसे ज़रूर सेलिब्रेट करेंगे।" अजय फूफासा ने मेरी ओर हाथ मिलाने को बढ़ाया लेकिन मैंने उनके गले में अपनी दोनों बाँहें डाल दीं -
"अब बुआ, कहने मत लगना कि बड़ी दादी नहीं मानेंगी।"
"इसी का तो डर है पायल... सबसे ज़्यादा विरोध माँ से ही मिलेगा। बाबूजी तो तटस्थ हैं, साधु स्वभाव है उनका।"
"कुछ भी हो... अब मेरा जाना तो निश्चित है।" चाय का आखिरी सिप लेकर मैं कॉलेज जाने के लिए तैयार होने उठ पड़ी।
"तुम किसी बाद का तनाव मन में न लाना पायल, हम लोग सब सम्हाल लेंगे।" उठते-उठते बुआ ने मेरा मन तसल्ली से भर दिया।
मेरी इच्छा रोम यूनिवर्सिटी से ही पी-एच.डी. करने की थी। आज मेरा रोम-रोम मेरी दृढ़ इच्छा शक्ति का शुक्रगुजार है जिसकी बदौलत मेरा सपना साकार हुआ। अब मैं निश्चय ही अपनी मंजिल पा लूँगी। अम्मा सुनेंगी तो बेहद खुश होंगी। बड़ी दादी की मुझे परवाह नहीं, वैसे ही वे मुझे समाज विद्रोहिणी समझती हैं बल्कि समाज विद्रोहिणी, रीति रिवाज विद्रोहिणी करार दे चुकी हैं। क्योंकि न मैं गृहस्थी की गुलामी कर सकती, न गृहस्थी के लिए समर्पिता बन देवी कहला सकती। उनकी नजरों में औरत के यही दो रूप हैं... यही दो रूप उन्होंने दादी पर भी थोपे। वे जब नौ वर्ष की बालिका वधू बनकर प्रताप भवन आई थीं तो उन्हें अपनी और अपने साथ पूरी गृहस्थी की गुलामी सिखला दी थी उन्होंने। इतनी समृद्धि, दास दासी, नौकर-चाकर सब के होते हुए वे गुलाम ही बनी रहीं... जब बाबा चल बसे तो उन्हें सती बनाकर देवी का दर्जा दिलाने की कोशिश की उन्होंने। नाकामयाब रहीं यह बात दीगर है। लेकिन मुझ पर उनका वश नहीं चलेगा। मुझे तो अपने मानव स्वरूप का चुनाव करना है और वह मैंने कर लिया... पदार्थ बनकर... पुरुष की संपत्ति बनकर नहीं जीना है मुझे बल्कि गति बनकर जीना है।
प्रताप भवन रोशनी के लट्टुओं से जगमगा उठा था। रजनी बुआ की शादी में अम्मा का इंतजाम काबिले तारीफ था... घर मेहमानों से खचाखच भरा था। हँसी, ठिठोली, गाना बजाना, हल्दी उबटन का आलम था लेकिन मुझे दादी के बिना सब कुछ सूना और फीका-फीका लग रहा था। हालाँकि मेरे इटली जाकर पी-एच.डी. करने की खबर ने पूरे प्रताप भवन में तहलका-सा मचा दिया था। सबकी अपनी-अपनी तरह की प्रतिक्रियाएँ...
तो अब डॉक्टरी पढ़ेंगी बन्नो... हमारे खानदान में तो किसी लड़की ने डॉक्टरी पढ़ी नहीं... ऊँह... होता क्या है... जमाने भर की किताबें बाँच लो... दूल्हा मिलेगा व्यापारी ही... हमारे पुश्तान पुश्त की यही तो खासियत रही है। लेकिन पायल... विदेश जाना कोई ढंग की बात लगती नहीं हमें...
कहने वालों को अपनी ही बात की फूहड़ता रजनी बुआ के कारण तुरंत महसूस होने लगी... कोई बुजुर्ग-सी महिला ने बात ढँकी -'विदेश जाना तो तब सोहे जब घरवाला साथ हो।'
"अरे मामीसा, आप यहाँ बैठी हैं? उधर मेहँदी माँडने में आपका इंतजार हो रहा है।"
हँसी... खिलखिलाहट... व्यंग्य... बरसों से चली आ रही वैवाहिक परंपरा में कहीं कोई बदलाव नहीं...
रजनी बुआ की शादी में प्रताप भवन से संबंध रखने वाला मालवगढ़ का हर घर शामिल हुआ था। बस नहीं आई तो मारिया... बड़ी मानिनी निकली। अपनी शपथ को दृढ़ता से निभा रही है। हालाँकि बड़ी दादी को उसकी कमी बहुत खलती है। अब उनकी देखभाल करने वाला कोई है भी नहीं। दो-चार नर्सें आई थी पर बड़ी दादी के कर्कश स्वभाव ने उन्हें टिकने न दिया।
रजनी बुआ की बिदा होते ही मैं मारिया से मिलने मालविका स्मृति केंद्र गई. मुझे देखते ही वह हुलसकर मुझसे लिपट गई - "अरे पायल बाई... आप?" उसने मुझे माथा, गाल, पलकें और हाथों पर प्रेम भरे चुंबनों से नहला दिया - "अच्छे से निपट गई न रजनी बाई की शादी?"
"तुम तो आईं नहीं मारिया? प्रताप भवन की लड़कियों में से यह आखिरी शादी थी?" मैंने उलाहना दिया।
"मैं तो वनवास भोग रही हूँ बड़ी आंटी का दिया।" उसने पलकें झुकाकर उत्तर दिया।
थोड़ी देर खामोशी रही। कहते हैं जब दर्द बराबर-बराबर अपनी तासीर हर दिल में बाँटता है तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता। एक शून्य चारों ओर फैल जाता है जो उस दर्द को कई गुना बढ़ा देता है। मारिया ने ही खामोशी तोड़ी -
"छोटी आंटी मुझे बराबर शिमला से खत लिखती रहती हैं... प्रताप भवन मैं जाती नहीं लेकिन वहाँ की हर घटना से उन्हें वाकिफ कराती रहती हूँ। एक बार... हाँ, पिछले जाड़ों में ही वे मिस्टर जिम के साथ यहाँ आई थीं। किसी से मिली नहीं... चुपचाप मुझे बंगले पर बुलवा लिया था। अरे, क्या बताऊँ पायल बाई, नूर बरस रहा था उनके चेहरे से। वे सचमुच महान आत्मा हैं क्योंकि उनके दिल में किसी के लिए नफरत नहीं है और जिनके दिल में किसी के लिए नफरत नहीं होती उन्हें ही क्रूसीफाई होना पड़ता है... प्रभु यीशु क्षमा करें।"
उसने सीने पर क्रॉस बनाया।