मालवगढ़ की मालविका / भाग - 36 / संतोष श्रीवास्तव
दादी की डायरी ने मेरे मन के सन्नाटे चीर डाले और हलचल मचा दी। अगला पृष्ठ मेरे नाम सारी संपत्ति करने का खुला दस्तावेज था जिसे अभी पढ़ने की मुझमें ताकत नहीं थी। जिम के बारे में सोच-सोचकर मैं लगभग शून्य हो चली थी। जितना उन्हें जाना उससे बढ़कर उन्हें पाया। वे फरिश्ता थे जो प्रेम और मानवता का सम्मान करता है। पहले मैं सोचती थी कि जिम दादी को पाकर धन्य हो गए लेकिन अब सोचती हूँ कि दादी जिम जैसे व्यक्ति को पाकर धन्य हो गईं। ये उनके सत्कर्म थे जिसने उन्हें वरदान के रूप में जिम दिया। मैंने हाथ बढ़ाकर नाइटलैंप ऑफ किया और बिस्तर में लेटते हुए मन के सारे किनारे तोड़कर मैं बुदबुदा उठी - "बाबा, जिम बाबा।"
रोम से एक निमंत्रण पत्र कब से मेज पर रखा हुआ मेरी बाट जोह रहा था। खोलने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। दादी की डायरी ने एक नया अध्याय मेरी जिंदगी से जोड़ दिया था। मैं उसी में सोती-जागती मानो नशे में डूबी रहती। संध्या बुआ फोन करके हालचाल जानना चाहतीं - "आ क्यों नहीं रही हो शाम को, हम तुम्हारे इंतजार में बैठे रहते हैं।"
क्यों बुआ? क्यों मेरा इंतजार? मुझे मेरी शामों की तनहाइयों के एहसास में जीने क्यों नहीं देतीं? मैं अनुभव करना चाहती हूँ, महसूस करना चाहती हूँ कि तनहाई क्या होती है? अगर मैं किसी की तनहाई बाँट सकती तो यह जिंदगी तो नहीं ही होती न बुआ? मैं तुम्हारी बेटी बनूँ... क्यों बुआ... क्यों? लेकिन फोन पर बस इतना ही कहा - आऊँगी बुआ... कुछ ज़रूरी पर्चे तैयार करने थे जिन्हें सेमिनार में पढ़ना है। अगले महीने बंबई में सेमिनार है न बुआ।
बुआ ने मीठी झिड़की दी - "अब तू मुझे पुरानी खबरों का हवाला न दे। अजय भी तो तेरे ही साथ जॉब करते हैं। तुमसे पहले मुझे सब पता चल जाता है। अच्छा बता, मिहिर की शादी का कार्ड आया?"
"नहीं तो... या आया हो तो मैंने तीन-चार दिनों से डाक देखी नहीं, अभी देख लेती हूँ।"
संध्या बुआ मेरी लापरवाही पर दिल खोलकर हँसीं। फिर बोलीं - "अच्छा, तुम चिट्ठियाँ पढ़ो। मेरे वफादारों (उनके कुत्ते) के नाश्ते-पानी का वक्त है। झबरू को इंजेक्शन भी लगवाना है - ओ.के.।"
रिसीवर रखकर मैंने डाक देखी - सबसे पहले निमंत्रण पत्र। हाँ, मिहिर का ही था। तो मिहिर अपनी रोमन प्रेमिका से आखिर ब्याह रचाने ही वाला है। उसी की खातिर तो वह रोम में सैटिल हुआ था। उसकी प्रेमिका है भी बेहद अच्छी लड़की। लेकिन एक बात अच्छी नहीं लगी कि मिहिर रोमन तरीके से शादी कर रहा है। चर्च में जाकर... आखिर विवाह में माँ-बाप भी शामिल होंगे। हिंदू तरीके से ब्याह होना चाहिए उसका या फिर दोनों तरीकों से। आखिर इतना इंतजार किया है मिहिर ने जबकि शादी वह उसी साल करने वाला था जिस साल मैंने रोम से विदा ली थी। कुछ महीनों तक मिहिर के पत्र आते रहे। उसकी माँ को दिल की बीमारी थी... उनके लिए कोई भी शॉकिंग न्यूज जानलेवा हो सकती है इसलिए वह कैसे बताए कि वह रोमन लड़की से शादी करना चाहता है जबकि उसकी माँ कलकत्ते में एक बंगाली लड़की से उसकी शादी तय कर चुकी हैं। बस इसी कशमकश में लंबा अरसा गुजर गया। अब शायद वह माँ को मना पाया होगा। निमंत्रण पत्र के साथ दो लाइन का खत था - "पायल, तुम्हें रोम आना है और हमारी दोस्ती की डोरी को और मजबूत करना है।"
मिहिर का इसरार पूरा नहीं कर पाई. हालाँकि विदेश कई बार गई. सैमिनार अटैंड करने जर्मनी, लंदन, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, रूस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया। साल दर साल गुजरते गये। जिस साल ऑस्ट्रेलिया गई उसी साल मैं बंबई स्थानांतरित हो गई. और ऊँचा ओहदा और ऊँचा सम्मान। शोध के विद्यार्थियों की मेरे नाम से लगती भीड़। शोध ग्रंथों की सजिल्द मोटी किताबें मेरे कमरे की अलमारी में सजती रहीं। मेरे एक विद्यार्थी ने उस अलमारी के बाजू में एक सुंदर-सी तख्ती टाँग दी जिस पर लिखा था -'पायल सिंह की लिखी किताबें।'मानो वह एक प्रमाण पत्र था जो मेरे शिष्यों ने मुझे दिया था। इन शिष्यों के बीच मैं अपने को पूर्णतया भूल चुकी थी। कभी शरीर की नैसर्गिक भूख दस्तक भी देती तो मैं अनसुनी कर अपने को और अधिक व्यस्त कर लेती। जानती थी यह काम वासना एक फूल की उम्र के बराबर है जो खिलता है और अपनी सुगंध, सौंदर्य और रस दूसरों पर लुटाकर मुरझा जाता है बिखरकर स्वाहा हो जाता है, लेकिन जीवन चक्र चलते रहने के क्रम में उस फूल का धरती पर गिरा बीज पुनः जी उठता है। यह मुझे नहीं करना है। पायल एक ही रहेगी... एक ही अनूठी, निराली, बिरली नारी बनकर... कोई और पायल हो ही नहीं सकती। यह भी जानती हूँ यह दंभ है मेरा। ईश्वर के जन्म-मृत्यु के चक्र में अनधिकार प्रवेश की चेष्टा है... पर यह तो उस ईश्वर से लिया बदला है मेरा जिसने सर्वगुणसंपन्न नारी तो बनाई पर उन गुणों को परखने का तराजू पुरुष के हाथ में पकड़ा दिया जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी है और जिसके पास इतने वजनी माप हैं कि नारी के गुणों का पासंग हलका ही नजर आता है उसे।
मेरे बंबई आने पर वीरेंद्र और बाबूजी आए थे। कुछ सामान अम्मा ने भेजा था। लगे उलाहना देने - "इस डिब्बी जैसे मकान में जमींदार प्रताप सिंह की पड़पोती रहेगी? वह भी अकेली? उधर तो संध्या थी तो हम लोग निश्चिंत थे।"
"बाबूजी, आप तो मुझे निरी बच्ची समझते हैं अब तक।"
"सो तो तुम हो ही, उसमें समझना क्या? कभी-कभी तो घबरा जाता हूँ कि तुम्हारे बचपन को मेरे बाद सम्हालेगा कौन? अम्मा तुम्हारी इतनी बीमार न होतीं तो खुद आतीं।" बाबूजी ने हताशा भरे स्वर में कहा।
एक ही बेटी है उनकी, वह भी इतनी विद्रोहिणी! उसके घर, गृहस्थी, दामाद का सपना तो उनकी आँखों में भी अंगड़ाइयाँ लेता होगा। और मैं ऐसी निखिद्ध कि किसी के सपने में खरी नहीं उतरी।
महीने भर रहकर वे अपनी लाड़ली, जिद्दी बिटिया के लिए जुहू में बंगला खरीदकर, नौकर-चाकर देखभाल कर नियुक्त करके वे उसकी गृहस्थी अपनी जमींदाराना रुचि से सजा गए. जबकि मैं ये सब चाहती नहीं थी। मेरे नाम की गई जिम की सारी संपत्ति वीरेंद्र ही सम्हाल रहा था। उसके कंधों पर कितना सारा बोझ था लेकिन उर्मिला भी खूब साथ दे रही थी उसका। पूरा ऑफिस का काम वही देखती-भालती थी।
अम्मा काफी बीमार थीं। दो बार मैं भी देख आई थी उन्हें पर मेरी नौकरी ऐसी कि लगन से उनकी सेवा नहीं कर पा रही थी। यह मलाल मुझे खाए जा रहा था। अपना होना तुच्छ-सा लग रहा था कि एक दिन जी कड़ा करके महीने भर की छुट्टी लेकर मैं बनारस चली गई. मेरे पी-एच.डी. के विद्यार्थियों के लिए इतनी लंबी मेरी अनुपस्थिति जायज नहीं थी लेकिन मेरे लिए इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था।
अम्मा सूखकर काँटा हो गई थीं। मैं उनके मुट्ठी भर बचे बालों में तेल ठोकती जाती थी और रोती जाती थी। वे अपने कमजोर दुर्बल हाथों से मेरी पीठ सहलातीं - "पायल, तुम्हें इतना कमजोर मैंने कभी नहीं पाया।"
मैंने उनके सीने में मुँह गड़ा दिया - "अम्मा, न जाने क्यों बड़ा जी घबरा रहा है। जिंदगी में जो कुछ चाहा उसे हासिल किया लेकिन जिंदगी छले क्यों जा रही है मुझे?" अम्मा फीकी हँसी हँस दी - "पगली! क्या कोई अमर होकर आया है? यह जिंदगी का छल नहीं बल्कि कठोर सत्य है। पायल, अभी तुम्हारा लक्ष्य पूरा कहाँ हुआ है? जब तक एक भी विद्यार्थी तुम्हारे गाइडेंस का इच्छुक रहेगा तब तक लक्ष्य अधूरा समझो।"
कितनी बड़ी बात कह दी अम्मा ने। उन्होंने जैसे मुझे जिंदगी जीने का अंतहीन सिरा पकड़ा दिया। मैं जो समझे बैठी थी कि मेरी जिंदगी की नदी ठहर-सी गई है उसके बहाव को दिशा मिल गई.
मेरी छुट्टियाँ खत्म होने को थीं। अम्मा की हालत में भी सुधार हो रहा था। इसी बीच संध्या बुआ भी अम्मा को देखने आ गई थीं। अम्मा मुझे, बुआ को और उर्मिला को सामने बैठाकर प्रताप भवन की यादों में रमी रहतीं। उर्मिला अधिक नहीं बैठ पाती उसे ऑफिस भी देखना होता। अम्मा की तबीयत में सुधार से बाबूजी बहुत खुश थे। एक दिन बोले - "पायल, भृगु संहिता देखोगी? तमाम जन्मों का हवाला है उसमें। यहाँ है भृगु संहिता - तुम चाहो तो चलें।"
संध्या बुआ ने भी जोर दिया - "हाँ पायल, देख आओ... मैंने और अजय ने तो वर्षों पहले देख ली थी।"
अम्मा जी खुलकर हँसी - "ले जाओ इसे... दिखा लाओ, कहीं पिछले जन्म की ये मेरी दादी, पड़दादी न निकले... नहीं तो मुसीबत।"
मैंने भी अम्मा का मन हल्का करने के उद्देश्य से चुटकी ली - "कोई फायदा नहीं बाबूजी. भृगु संहिता में मेरे बारे में कुछ भी वर्णन नहीं मिलेगा। मैं तो अर्धनारीश्वर हूँ। आपकी बेटी भी, बेटा भी।"
सभी हँसने लगे लेकिन अम्मा का वह स्वस्थ दिखता-सा चेहरा बुझते दीपक की तेज लौ थी... जब तेल चुक जाता है और बत्ती तेजी से जल उठती है।