मालवगढ़ की मालविका / भाग - 37 / संतोष श्रीवास्तव
उस रात मेरी जिंदगी और प्रताप भवन के सबसे अधिक भयंकर दो हादसे हुए जिन्होंने मुझे हिलाकर रख दिया। रात नौ बजे खबर आई कि हरिश्चंद्र घाट की सीढ़ियों पर से बड़े बाबा का पैर फिसल गया है और वे पत्थरों की चोट खाते हुए गंगा में जा गिरे हैं। बड़े-बड़े तैराक गंगा में कूद पड़े थे पर बड़े बाबा किसी को नहीं मिले। हताश वीरेंद्र लौट आया था यह सवाल लिए कि बड़े बाबा गए कहाँ? बेहद पीड़ित कर देने वाली घटना थी वह। संध्या बुआ रोए जा रही थीं और बाबूजी अजय फूफासा को फोन लगा रहे थे। सभी रंज में डूबे हुए अपने-अपने बिस्तरों पर करवटें बदल रहे थे कि करीब ग्यारह बजे अम्मा ने आखिर साँस ली। न तड़पीं, न किसी से कुछ बोलीं, न प्यास, न पानी। अचानक उर्मिला उनके बाजू में सोए गुड्डू और गप्पू को यह कहती उठाने गई कि दोनों भाई चलकर अपने बिस्तरों पर सोएँ, यहाँ दादी को तकलीफ होगी तो गुड्डू ने उनकी ओर इशारा किया - "दादी हिलती भी नहीं, कुछ बोलती भी नहीं।"
उर्मिला चीख पड़ी। सभी दौड़े। लेकिन खेल खत्म था। मैं फटी हुई आँखों से अम्मा के निर्जीव चेहरे को निहार रही थी। होंठ थोड़े खुले हुए से। मानो कह रहे हों - "न पायल न... रोना बिल्कुल नहीं... रोना तो आत्मबल न होने का सबूत है... बुजदिली का सबूत है। मूढ़ता का सबूत है कि तुम इतना भी नहीं जानती कि जिसने जन्म लिया है वह मरेगा भी।"
और मैंने अपने पर काबू पा लिया। आश्चर्य! कैसे? कैसे मैंने अम्मा का जाना स्वीकार कर लिया बल्कि तमाम परंपराओं को ताक पर रखकर मैं तो श्मशान भी गई और दिल की जगह पत्थर रखकर का टुकड़ा स्थापित कर मैंने अम्मा की चिता का जलना भी देखा। बस, फिर मुझे कुछ याद नहीं रहा... सब कुछ धुएँ में समा गया।
धुआँ अरसे तक मुझे घेरे रहा, बंबई लौटकर भी... दिन, रात, हफ्तों, महीनों और जैसी कि धुएँ की आदत होती है दम घोंटने की... तो सहसा ही यह दमघोंटू विचार तेजी से मुझे चीरता चला गया कि बड़े बाबा की लाश क्यों नहीं मिली गंगा में? शायद इसीलिए कि वे संन्यासी हो गए थे और हमें दाह संस्कार के कर्ज से भी उबार गए थे। उनकी विरक्ति नाते-रिश्ते और उनके अपने खून तक की विरक्ति बन गई थी। मेरी तीनों बुआएँ उनके खून का अंश आईं ज़रूर लेकिन किसी ने भी ये जिज्ञासा नहीं जताई कि आखिर गंगा मंं गिरा उनका मृत शरीर गया कहाँ? क्या काशी करवट बन गया उनका शरीर जिसमें ढोंगी पंडितों ने सशरीर स्वर्ग भेजने का ढोंग रचा था। आदमी अपनी जमीन, जायदाद, गहने मंदिर की ट्रस्ट के नाम इसी लालच में कर देता था कि वह सशरीर स्वर्ग चला जाएगा। बस एक करवट लेगा और स्वर्ग के द्वार पर जा खड़ा होगा। भंडा तब फूटा जब एक आदमी काशी करवट की यातना से बचकर आया और उसने अंग्रेज कलेक्टर के आगे सारी घटना बयान की। सारी संपत्ति मंदिर ट्रस्ट को दान कराके उसे मंदिर के ही नीचे बने तलघर में ले जाया गया जहाँ एक बड़े-से पलंग पर उसे आँख मूँदकर लेटने के लिए कहा गया - "बस, आँख मूँदते ही तुम स्वर्ग पहुँच जाओगे।"
उसने श्रद्धापूर्वक आँखें मूँदी लेकिन घबराकर तुरंत खोल दीं और आँखें खुलते ही उसे छत पर लटकी बड़ी-सी तलवार दिखाई दी जिसकी रस्सी ढीली हो रही थी और वह किसी भी क्षण उसके शरीर के आर-पार हो सकती थी। वह फुर्ती से पलंग से हट गया। तलवार गिरी और बिस्तर में धँस गई. वहाँ कोई न था उस वक्त। रस्सी काबू में रखने का काम भी छुपे तरीके से पंडित ही करते थे। तलघर की दीवार में एक बहुत बड़ी खिड़की थी जो सीधे गंगा की ओर खुलती थी। इसी खिड़की से रातोंरात मृत शरीर को गंगा में बहा दिया जाता था। वह व्यक्ति भी इसी खिड़की के रास्ते गंगा में कूदकर अपनी जान बचा पाया था। अंग्रेज कलेक्टर ने तुरंत छापा मारकर पंडितों को गिरफ्तार करके मंदिर सील कर दिया था। यह घटना बाबूजी कई बार सुना चुके थे और हर बार इसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। पंडितों के प्रति वितृष्णा से मेरे दिमाग की नसें तिड़कने लगती थीं।
मैंने यह घटना समित को भी सुनाई थी। समित इलाहाबाद से लैक्चरर की पोस्ट पर यहाँ आया था। उम्र में मुझसे दस-बारह साल छोटा लेकिन ज्ञान और तजुर्बे में मुझसे कहीं बड़ा। वह कवि भी था और उसकी बेहतरीन कविताओं की मैं कायल थी। न जाने कैसे लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता... समय के व्यतीत होते-होते वह मेरी जिंदगी से जुड़ी हर घटना को जान गया था। खासकर दादी ने उसे बहुत प्रभावित किया था।
"हाँ समित, मेरी दादी एक असाधारण व्यक्तित्व थीं।"
"मुझे बहुत अधिक ताज्जुब होता है पायल, खासकर संध्या बुआ की शादी को लेकर उनकी ओर से की गई पहल का।"
हम जुहू बीच पर बैठे थे और वह बीच की रेत पर अपनी उंगली की पोर से कविता की एक पंक्ति लिख रहा था - मैं उजड़ चुके अतीत के बियाबाँ में भटकने लगी -
"समित, केवल संध्या बुआ ही नहीं - मारिया, मैं, बाबा सभी के प्रति उनकी विशालता मुझे विचलित कर जाती है। कहाँ मैं अदना-सी."
"नहीं पायल, ऐसा सोचना भी दादी के प्रति गुनाह होगा। तुम अदना नहीं बल्कि वह मोती हो जो उनकी आँच में पकता रहा है।"
मैंने कहना चाहा - मोती नहीं वह सहमा हुआ सच हूँ जिसने बहुत छोटी उम्र से दादी के एक-एक पल को बहुत नजदीक से देखा, परखा और अपने जेहन में उतार लिया और अपनी जिंदगी के ठोस फैसले कर डाले। इन फैसलों को लेकर मुझे लानत मलामत भी बहुत मिली लेकिन मैं जानती थी कि ऊपर से मीठी लगती उनकी सीख गन्ने के मीलों फैले वह खेत हैं जिनकी धारदार पत्तियों के बीच से गुजरते हुए, लहूलुहान होते हुए भी मैं अपने लक्ष्य तक पहुँच सकती हूँ। मेरे अंदर अम्मा का जज्बा था और दादी की ताकत - इन दोनों के अभाव में मैंने उषा बुआ और रजनी बुआ को गृहस्थी में होम होते देखा था। संध्या बुआ अजय फूफासा के कारण होम होने से बच गईं। अजय फूफासा के कायस्थी कुल गोत्र ने संध्या बुआ को संरक्षण दिया।
"क्या सोचने लगीं?" समित ने काफी देर की खामोशी के बाद पूछा।
"नहीं, यूँ ही... समित, मुझे पूर्ण संतुष्टि है अपने को लेकर। मैं तो दूसरों का सोच-सोचकर व्याकुल होती रहती हूँ।"
वह ठठाकर हँस पड़ा। लहरें सहमकर वापस समुद्र की ओर लौट गईं। एक घोड़े वाला नजदीक आकर जिद करने लगा - "एक चक्कर लगा लीजिए न साहिब।"
"अरे, क्यों भाई? अच्छी जबरदस्ती है।"
"साहिब, सुबह से कुछ खाया नहीं, एक चक्कर लगा लेते तो..."
"तो ऐसा कहो न?" समित ने उसे जेब से निकालकर कुछ रुपए दिए - "लो भई -समझ लो हमने चक्कर लगा लिया।"
वह अवाक्... ताज्जुब से भरा कभी हाथ में पकड़ा नोट और कभी हमें देखने लगा। समित ने उसका कंधा थपथपाया -
"आज हमारी तरफ से खाना खा लो।"
उसके चेहरे पर अविश्वास भरी मुस्कराहट खेल गई - "हाँ भाई, जाओ अब। अपने घोड़े को भी घास खिला देना।"
उसने कई बार हमें सलाम ठोंका और तेजी से चला गया। एक बड़ी विशाल लहर ने हमारे पाँव भिगो दिए थे।
जुहू बीच पर शाम ढल रही थी। आसमान लुभावना हो उठा था। आमदरफ्त भी बढ़ती जा रही थी।
"समित, अब चलें... घर चलकर कॉफी पिएँगे। मैं कुछ गजलों के कैसेट्स लाई हूँ अगर सुनना चाहोगे तो..."
"अब लाई हो तो सुनना ही पड़ेगा।" वह खड़े होकर पैंट पर से रेत झाड़ने लगा। समुद्र गरज रहा था और हवाएँ भी तेज हो रही थीं। अचानक पश्चिमी आकाश आँधी के संकेत देने लगा। हम तेजी से कार की तरफ आए. स्टीयरिंग समित ने ही सम्हाला और मेरे लिए दरवाजा खोल दिया। घर लौटे तो बंगले के आगे लगे फूलों की क्यारियों में माली पानी सींच रहा था। पाइप क्यारी में डाल वह दौड़ा आया और सलाम ठोंककर फाटक खोला। कार पोर्टिको में खड़ी कर हम अंदर आए. लछमन सेवा में तैनात था। पता नहीं क्यों माली को, लछमन को और खाना पकाने वाली तुलसी को देखकर मैं अपनी सारी उदासी भूल आती हूँ। जैसे मैं एक बड़े परिवार की मालिक हूँ। जब ये बात मैंने समित से कही तो उसके पास इसका काट मौजूद था - "पायल, ये कैसी इच्छा है तुम्हारी? अगर परिवार ही बसाना था तो फिर शादी क्यों नहीं की?"
"शादी भी तो एक सौदा है। खाना, कपड़ा, मकान और औलाद पैदा करने के एवज जिंदगी साथ ढोने का सौदा। उस सौदे से ये सौदा अच्छा। ये अपनी मेहनत का पैसा लेते हैं बिना किसी अपेक्षा के।"
समित से कुछ कहा नहीं गया था फिर।