मालवगढ़ की मालविका / भाग - 38 / संतोष श्रीवास्तव

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तुलसी कॉफी बना।

"इसीलिए तो पायल, तुम्हें संपत्ति सौंपी गई क्योंकि तुम्हें लालच नहीं था, ज़रूरत नहीं थी।"

मैं समित के तर्क पर चकित थी।

"अगर यह संपत्ति लालची हाथों में पड़ती तो नामोनिशान मिट जाता अब तक और कोई नहीं चाहता कि दुनिया से जाने के बाद उसका नामोनिशान मिटे।"

कॉफी का आखिरी घूँट लेकर समित उठ खड़ा हुआ - "चलते हैं अब, कल यूनिवर्सिटी में मुलाकात होगी।"

उसके जाने के बाद असीम शांति से भरकर मैंने आरामकुर्सी पर अपना सिर टिका लिया। अब मेरे मन में कोई द्वंद्व न था। संशय के सारे जाले मैंने उतार फेंके थे और एक साफ सुथरा एहसास हो रहा था बल्कि अब तो जिम की विरासत को सहेजकर रखने की चाह-सी उठने लगी थी मन में। हाँ, जिम के और दादी के विश्वास को कायम रखना ही होगा। अभी तक इस नजरिए से तो मैंने सोचा ही नहीं था।

पश्चिमी आकाश में उठने वाली आँधी शांत हो चुकी थी और समुद्री हवाओं में बंगले के फाटक पर लगा अशोक वृक्ष झूम रहा था। रात मैंने वीरेंद्र को फोन लगाया। हालचाल पूछने-बताने के बाद मैंने शिमला से सेब के बगीचे, कॉटेज, मालवगढ़ का बंगला, फार्म हाउस आदि की व्यवस्था के बारे में जानना चाहा तो वीरेंद्र ताज्जुब से भर उठा -"जीजी! क्या बात है? मन तो ठीक है न आपका?"

मैं हँस पड़ी - "मन ने चेताया तभी तो होश आया कि ये तुम्हारी कामचोर जीजी सारा भार तुम्हारे कंधों पर डालकर निश्चिंत बैठी है और तुम खटे जा रहे हो।"

"नहीं जीजी, आपके ऊपर भी तो यूनिवर्सिटी के काम की जिम्मेवारी है। यहाँ उर्मिला सम्हालती है सब। अगर आप चाहें तो उर्मिला के साथ शिमला और मालवगढ़ जाकर देख आएँ सब। बच्चों की छुट्टियाँ भी रहेंगी, उर्मिला निश्चिंत होकर जा सकेगी।"

"हाँ वीरू, जाना पड़ेगा लेकिन शिमला बाद में, पहले मैं मालवगढ़ जाऊँगी। मेरे ऊपर एक बोझ-सा है।" वीरेंद्र ने उस बोझ को छेड़ना उचित नहीं समझा। फोन बाबूजी को दिया - "इस बार तुम छुट्टियों में नहीं आ रही हो?" बाबूजी की काँपती बूढ़ी आवाज ने मुझे विचलित-सा कर दिया। एकदम मना नहीं कर पाई. अम्मा के बाद वे अकेलापन बहुत महसूस करने लगे थे।

"आऊँगी बाबूजी... मालवगढ़ में रहने के बाद भी अगर छुट्टियाँ बचती हैं तो आऊँगी।"

बाबूजी ने बुझी हुई आवाज में -'ठीक है बेटा'कहा और रिसीवर रख दिया। उनकी आवाज देर तक मुझे झँझोड़ती रही।

सुबह उठते ही मैंने चाय पीते हुए लछमन को समझा दिया था कि'इंक्वायरी से पूछ लेना कि मालवगढ़ के नजदीक तक कौन-सी ट्रेन जाती है, जहाँ से मालवगढ़ के लिए, जीप आसानी से मिल सके. पच्चीस दिसंबर से छुट्टियाँ शुरू हो रही हैं... उसी तारीख का टिकट ले आना।'

फिर समित को फोन लगाया -

"समित, तुम्हें बताना भूल गई थी। आज जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रभा रॉय की एकल प्रदर्शनी है, तुम आओगे न। मंल तो यूनिवर्सिटी नहीं जाऊँगी आज।"

"ओह! लेकिन मेरे पीरियड्स हैं, कोशिश करूँगा।"

"हाँ प्लीज। और सुनो, इस बार क्रिसमस वेकेशन में मैं मालवगढ़ जा रही हूँ।"

"क्याऽ... मालवगढ़? अरे क्यों भई, अचानक कैसे प्रोग्राम बना लिया पायल?"

"तुम्हीं ने तो चेताया था वरना इतने बरसों तक मुझे सुध ही नहीं थी।"

फोन रखकर मैंने इत्मीनान की साँस ली।

"के सोचो हो बेटी सा! सब उजाड़ हो गयो। इ खाली कोठी मं थारो मन लागणोमुश्किल हे! म्हें थारे वास्ते के करां?"

अतीत को वर्तमान ने निगल लिया और उस भयानक सत्य से मैं सहम गई. देखा - उदासी और सन्नाटे में डूबे प्रताप भवन का जर्रा-जर्रा मेरे वर्षों बाद आने की एवज में खुशियाँ जताने की कोशिश कर रहा है। मैं भी सहज होना चाहती हूँ, रामू काका को भी सहज देखना चाहती हूँ जो अपने पिता कोदू के मरने का बाद बड़ी मुस्तैदी और वफादारी से प्रताप भवन को जिलाए हैं।

"काका! खाना-वाना कौन बनाएगा?"

"सब बंदोबस्त हो जावेगा बेटी सा! थारे वास्ते के चीज की कमी ह? एक महाराजिन तो मं बुला ल्यायो हूँ। आप जितना दिन अठे रहोगो, वा अठे ही रहकर थारी सेवा करसी."

मैं मुस्कुरा दी। थकान और अतीत की स्मृतियों ने मुझे और भी थका डाला था। नहाकर मैं सोना चाहती थी। सुबह फिर रामू काका को समझाना भी है अपने प्रोग्राम के बारे में। अचानक काम आ जाने की वजह से उर्मिला मालवगढ़ नहीं आएगी, मेरे शिमला पहुँचने पर वहीं आएगी।

मेरा कमरा! मैंने इस कमरे में बरसों बरस कितनी जिंदगियों के उतार-चढ़ाव महसूसे हैं। संध्या बुआ और अजय फूफासा का पावन प्रेम, मारिया और थॉमस का समर्पित प्रेम, उषा बुआ का अनचाहा वैवाहिक जीवन, दादी की त्रासदी, बड़ी दादी का अपने बिस्तर पर बरसों बरस स्लो पॉयजन लेने के बाद की स्थिति-सा धीमे-धीमे घुलना, छीजना। मेरे अपने जीने के तमाम ऐसे कोने जिन्हें समेटकर मैंने अपनी चादर बुन ली है... झीनी-झीनी रे बिन लीन्हीं चदरिया...

आज हम चादर को ओढ़ते-बिछाते-समेटते वर्षों बाद मैं उस टुकड़ा भर धरती पर लौटी हूँ जहाँ से इस चादर का निर्माण शुरू हुआ था। रेशा-रेशा जोश, उद्देश्य, लक्ष्य और एक ठानी हुई मनोभावना से रचा बसा...

तारों भरी रात थी... हवाओं में गुलाब की मोहक सुगंध बसी हुई. कहीं से एक टिटहरी'टीटीहु-टीटीहु'की पुकार लगाती उड़ी तो घड़ी पर नजर गई. झाड़फानूस की मद्धम रोशनी में उसके रेडियम से लिखे अंक चमके - एक बजकर बीस मिनट। मैंने जबरदस्ती आँखें मूँद लीं।

सुबह-सुबह महाराजिन चाय लेकर कमरे में आई. मैं जाग चुकी थी और तरोताजा कमरे से निकलने ही वाली थी - "बाई सा! नास्ता मंके बणेगा, बता द्यो। थारे न्याणे वास्ते बाथरूम भी तैयार कर दियो ह।"

"अरे, इतनी सुबह? अभी तो पूरी तरह कोहरा भी नहीं छँटा है।"

महाराजिन खिड़की खोलकर परदे वगैरह ठीक करने लगी। बाहर घना कोहरा था जिसमें सूरज की किरणें घुसने की चेष्टा कर रही थीं। जैसे स्नान के लिए जल में प्रवेश करती कोई तन्वांगी।

"घंटा डेढ़ घंटा कोहरो और रहेसी, रात न ठंड भी भोत ही थी... आओ बाई सा, थारी मालिश कर द्यूँ।"

महाराजिन मेरे मना करने पर भी कटोरी भर तेल ले आई और मेरी मालिश करने लगी। सचमुच अच्छा लगा। बदन का पोर-पोर खुलने-सा लगा। मालिश के बाद उसने परंपरागत तरीके से मुझे बादाम का उबटन लगाया और फिर बाथरूम की ओर ले आई -"टब मं हल्को गुनगुनो पानी ह बाई सा! केवड़ा को जल तो डाल दिया है, गुलाब जल तो हो ही नहीं।"

"अरे, मुझे इन सबकी आदत नहीं है महाराजिन। महानगर में दो-दो घंटे नहाने में लगाऊँगी तो हो चुका काम।"

उसकी आँखों में आश्चर्य था। न चाहकर भी सब कुछ अच्छा लग रहा था। पुराने दिनों के लौट आने जैसी आहट कानों में सुनाई दे रही थी... लेकिन नहीं, मैं कुछ भी याद करना नहीं चाहती। यह पलायन नहीं है बल्कि प्रताप भवन के नियमों, कायदों के विरुद्ध खुला जेहाद है जो मैं बचपन से करती आई हूँ।

नाश्ते की टेबिल पर मैं अकेली थी। महाराजिन परोस रही थी और रामू काका सफेद कुरते धोती पर काली फतोई पहने, पीला साफा बाँधे मेरे नजदीक ही खड़े थे।

"रामू काका, आप भी जीम लो। आज उधर चलना है बंगले की तरफ।"

अधिक विस्तार से कहना नहीं पड़ा। रामू काका समझ गए मैं जिम के बंगले की बात कर रही हूँ। वीरेंद्र आता रहता है, रामू काका ही ले जाते होंगे उसे। पता नहीं वहाँ की देखभाल कौन करता है।