मालवगढ़ की मालविका / भाग - 39 / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खा-पीकर हम बाहर निकले तो रामू काका ने गैरेज से जीप बाहर निकाली। जाने कब धो पोंछकर चमका ली थी जीप उन्होंने। मैं ड्राइवर की सीट पर बैठी, रामू काका को अपनी बगल की सीट पर बैठने का संकेत किया। वे संकोच और लिहाजवश सिकुड़े हुए बैठे थे - "देखिए रामू काका, आप फ्री होकर नहीं बैठेंगे तो बहुत मुश्किल हो जाएगा मेरे लिए जीप चलाना। प्लीज काका, आप अपने को प्रताप भवन का सदस्य क्यों नहीं समझते?"

रामू काका की आँखें भर आईं। मैंने जीप कोठी के गेट से नीचे उतार ली। लंबी-सीधी सड़क पर जीप तेजी से दौड़ने लगी।

बंगले का गेट खुलते ही बंगले के केयर टेकर भानुप्रताप बाहर निकले, अदब से झुककर सलाम किया और मुझे हॉल के सोफे पर बैठाया। मैं बैठी नहीं। सारे कमरों को बारी-बारी से देखकर मैंने भानुप्रताप द्वारा सौंपी फाइल का निरीक्षण किया। सब कुछ बहुत व्यवस्थित ढंग से चल रहा था। वीरेंद्र और उर्मिला के इंतजाम की दाद देनी पड़ेगी जिसमें कोई दोष न था। लगभग दो घंटे बंगले में बिताते हुए मुझे एहसास हुआ कि शिमला के कॉटेज में दादी की मौजूदगी जैसी रची-बसी देखी वैसी यहाँ नहीं। यहाँ शायद दादी बेचैनी से दिन गुजार रही हों क्योंकि बंगले के टैरेस के पूर्वी भाग से प्रताप भवन की बुर्जियाँ दिखाई देती हैं। दादी को शायद रिस-रिसकर याद आता होगा कोठी का कोना-कोना-नाते-रिश्ते-दास-दासियाँ, क्रिया-कलाप, तीज-त्यौहार-उनके लिए जी पाना बहुत मुश्किल रहा होगा। मेरी अपनी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

"फार्म हाउस चलें?" रामू काका ने मुझे गुमसुम बैठे देख पूछा।

"हाँ, चलिए."

फार्म हाउस में तमाम फलों के झाड़, पौधों की और सब्जियों की क्यारियाँ तरतीबवार बनी थीं। बीचोंबीच एक कमरा लाल सफेद रंग से पुता, उभरे हुए पत्थरों की कलात्मक दीवार वाला। कमरे के पीछे की तरफ कुआँ... जाली से ढँका, पक्की जगत वाला... कमरा जिम की सुरुचि का परिचायक था। वीरेंद्र कहता है इतना लंबा अरसा गुजर गया लेकिन हमने जिम के बंगले और कॉटेज में कोई परिवर्तन नहीं किया, सब कुछ वैसा ही है जैसा वे छोड़ गए थे। लेकिन न जाने क्यों मुझे ये बातें सुकून नहीं देतीं। शिमला में सेब के बगीचे और यहाँ का फार्म हाउस तो ठीक है। उपज होती है और मंडी में जाकर बिक जाती है। ल्रेकिन दोनों जगह के बंगले, कॉटेज क्यों फिजूल में बंद रखे जाएँ। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। जनसंख्या इतनी बढ़ गई है, लोगों के पास रहने को घर नहीं है और हम भावुकता में इतने बड़े-बड़े घरों को ताला लगाए बैठे हैं। इन जगहों को लाइब्रेरी या म्यूजियम में तब्दील किया जा सकता है। प्रताप भवन में भी अच्छा-खासा स्कूल खोला जा सकता है। किसी की स्मृतियाँ बंद घरों में नहीं होतीं बल्कि दिल में होती हैं। आदमी तभी मरता है जब दिल से उसकी स्मृतियाँ पुँछ जाएँ।

लौटते हुए मैं मारिया से मिलने गई थी। एकदम बदल गई है मारिया। सिर के बाल खिचड़ी हो गए हैं। आँखों पर चश्मा चढ़ गया है लेकिन मुझे फौरन पहचान लिया और लिपटकर रो पड़ी - "पायल बाई... कहाँ थीं अब तक?"

थॉमस भी हमारी आवाज सुनकर बाहर निकल आया और एकदम भावुक हो उसने मेरे हाथ थाम लिए. ठंड के कारण हम अस्पताल के पिछवाड़े बने बगीचे के बैंचों पर बैठ गए. वहाँ गुलाबी धूप छिटकी थी।

'मालविका स्मृति केंद्र'का बाईं तरफ और विस्तार हो गया था। कई कमरे बनवा लिए थे मारिया ने, कई डॉक्टर भी अपॉइंट किए थे। यूनानी, एलोपैथी और आयुर्वेदिक तीनों पद्दतियों से इलाज करने के विभाग बन गए थे।

"अब तो काम इतना ज़्यादा बढ़ गया है कि मालविका स्मृति ट्रस्ट बनानी पड़ी।"

मैंने मारिया को लाड़ से देखा - "तुम सचमुच सच्चा प्रेम करने वाली हो मारिया जो तुमने दादी का नाम जीवित रखा। हम सब तो बड़े स्वार्थी निकले।"

मारिया ने बताया - "ट्रस्ट का अलग से रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ा। इन कमरों और विभागों को बनवाने में सरकार ने भी मदद की है। अब तो यहाँ सभी तरह का इलाज होता है। ब्लड बैंक भी है और आधा दर्जन एंबुलैंस भी, जो डोनेशन में मिली हैं।"

"चलो, हमें दिखाओ सब।" मैं आतुर थी कि तभी रामू काका थर्मस में चाय और काँच के गिलास लिए चले आए.

"पहले हम अस्पताल देखेंगे रामू काका।"

और मैं तेजी से मारिया और थॉमस के साथ अस्पताल देखने लगी। ऑपरेशन थियेटर, एक्सरे विभाग, कोल्ड स्टोरेज, जनरल वार्ड, प्राइवेट रूम, चिकित्सा विभाग, ब्लड बैंक और दवाइयों का स्टोर।

"वाह मारिया, तुमने तो कमाल कर दिया।"

मारिया मुस्कुराते हुए मुझे मेनगेट से लगे हॉल में ले गई जहाँ बीचोंबीच कृष्ण की दस फीट ऊँची संगमरमर की मूर्ति थी। हॉल का फर्श चमचमा रहा था। जूते-चप्पल बाहर ही उतारे जाते थे। मैंने ताज्जुब से भरकर मारिया की ओर देखा।

उसने चमकती नजरों से मुझे देखा और बहुत अधिक श्रद्धा से बोली - "पायल बाई! छोटी आंटी वैष्णव थीं न, इसीलिए."

लगा मेरा सिर चकरा गया है। जहाँ प्रभु यीशु होने चाहिए थे वहाँ कृष्ण। किसी के प्रति प्रेम का यह उदात्त और असीमित स्वरुप तो मैंने पहली बार देखा। यह दादी के साथ जिंदगी ने कैसे रंग दिखाए... वैष्णव थीं तो जिंदगी के उत्तरार्ध में कैथोलिक बन गईं और उन्हें प्रेम करने वाली मारिया कैथोलिक है तो उनके वैष्णव धर्म की रक्षा किए हुए हैं और वह भी स्मृतियों में - स्मारक के रूप में - यह कैसा खेल खेला दादी के साथ उनके भाग्य ने - उनकी परिस्थितियों ने। मैंने मारिया के दोनों हाथ अपनी आँखों से छुआए. मेरे अंतर से उठी कृतज्ञता की बूँदें देर तक उसे भिगोती रहीं। मेरी जबान निःशब्द थी। पैर, बड़ी देर तक मूर्ति के सामने थमे रहे और जब वहाँ से चलने को हिले तो अपूर्व शांति से मन भरा हुआ था।

आज सुबह से ठंड ज़रा कम है। मेरी छुट्टी के भी चार दिन ही बाकी रह गए हैं। दो दिन लौटने में लग जाएँगे। न शिमला जा पाऊँगी न बनारस। प्रताप भवन से निकलने के पहले मैंने बनारस फोन लगाया और वीरेंद्र को सारा प्रोग्राम बता दिया कि वह उर्मिला को शिमला न भेजे और बाबूजी को भी समझा दे कि अभी मेरा वहाँ आना नहीं हो पाएगा। वीरेंद्र की आवाज उदास हो चली थी। मैं ज़्यादा बात नहीं कर पाई, आकर जीप में बैठ गई. गुनगुनी धूप में अपने अंदर की भावुकता भरी ठंड को बाहर ढकेल मैं रामू काका से बोली - "काका, पहले हमें वहाँ ले चलिए जहाँ बाबा की समाधि है।"

रामू काका हुलसकर जीप में आ बैठे। मैंने जीप स्टार्ट की तो महाराजिन दौड़ी आई. उसके हाथ में पानी से भरी बोतलें थीं। रामू काका ने लपककर बोतलें ले लीं। मेन सड़क पर आते ही छायादार वृक्षों की कतार शुरू हो गई. लगभग आधा घंटे बाद श्मशान भूमि आई. काँटेदार तारों से घिरी, बीचोंबीच फाटक और फाटक पर लाल रंग के हाथों के निशान बने थे।

"ये निशान कैसे हैं काका?"

"बेटी राणी, जो सती होई है, उन्हां का हाथां का निशाण ह ये। चिता पर चढ़ने से पेल्ले हथेल्यां पर महावर चुपड़कर हाथां की छाप बणाकर जावे ह सती माता।"

मैं वहाँ दादी की हथेलियों की छाप खोजने लगी लेकिन समझ में कुछ आया नहीं। कुछ हथेलियों की छाप तो इतनी छोटी थी... नन्ही बालिका की हथेली जैसी... छोटी-छोटी कोमल मासूम हथेलियाँ। जिन्होंने जिंदगी का स्पर्श तक नहीं किया... वे खिलती कली-सी हथेलियाँ विधवा होने के जुर्म में जला दी गईं जबकि वे शादी का अर्थ तक नहीं जानती थीं। उफ! ये हथेलियाँ मेरे वजूद पर कठोरता से उठीं और मुझे घायल करने लगीं। इन्हीं में कहीं गुलाबकुँवर की हथेलियाँ भी होंगी। मैं कराह उठी, हिम्मत जवाब दे गई. इसी फाटक पर हथेलियों की छाप बनाकर दादी वहाँ तक गई थीं... बाबा की जहाँ समाधि बनी है... तमाम लकड़ियों का ढेर और उस पर बैठी दादी और एक वहशी शोर... अपने पर काबू कर मैं बाबा की समाधि का स्पर्श कर दो मिनिट मौन खड़ी रही। मन हाहाकार कर रहा था। न ढंग से प्रार्थना की जा रही थी न श्रद्धांजलि देते बन रहा था। रामू काका ने मेरी अंजलि गुलाब की पंखुड़ियों से भर दी। खुद भी अंजलि भर फूल चढ़ाए. मैंने मन-ही-मन बाबा से अपने अस्त-व्यस्त मन के लिए माफी माँगी और रामू काका से कहा - "चलिए काका, सिमिट्री ले चलिए हमें।"

"अब बठे के धर्यो ह? से क्यूं तो खतम हो गयो।"

मैंने काका के चेहरे पर संशय की परछाईं देखी। क्या वहाँ सचमुच सब कुछ खतम हो जाने की पीड़ा थी या...

"खतम हो गया इसीलिए तो वहाँ जाना है। चलिए जल्दी।"